शराब से बढ़ता खाद्यान्न संकट

27 Aug 2011
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food grain
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ऑक्सफेम का आकलन एक चेतावनी है और इसे गंभीरता से लेते हुए एक ऐसी अर्थव्यवस्था गढ़ने की जरूरत है जो समावेशी विकास का पर्याय हो और सकल घरेलू उत्पाद दर बढ़ाने के लिए शराब जैसे जीवन और चरित्र को नष्ट करने वाले उत्पादों को प्रोत्साहित करने की जरूरत ही न पड़े।

ब्रिटेन की स्वयंसेवी संस्था 'ऑक्सफेम' ने दुनिया में बढ़ रहे खाद्यान्न संकट के सिलसिले में चेतावनी दी है। अनाज से यदि शराब और इथेनॉल बनाना बंद नहीं किया गया तो 2030 तक खाद्यान्नों की मांग 70 फीसद बढ़ जाएगी और इनकी कीमतें आज के मुकाबले दोगुनी हो जाएंगी। इस सच्चाई को भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो कतई नहीं झुठलाया जा सकता है, क्योंकि वर्तमान सरकार के सात सालों के कार्यकाल में खाद्यान्नों की कीमतें डेढ़ सौ से दो सौ फीसद तक बढ़ चुकी हैं। शराब और इथेनॉल के साथ हमारे यहां वायदा व्यापार भी अनाज की कीमतों के इजाफे में सहायक साबित हो रहा है। अर्थशास्त्रियों की मानें तो भारत में प्रति माह करीब 35 हजार करोड़ का वायदा व्यापार होता है। अकेले महाराष्ट्र में अनाज से शराब बनाने वाली 270 भट्ठियों में रोजाना 75 हजार लीटर से डेढ़ लाख लीटर तक शराब बनाई जा रही है। इथेनॉल का कारोबार भी हजारों टन का आंकड़ा पार कर गया है। मांसाहारियों की बढ़ती तादात भी खाद्यान्न संकट की बड़ी वजह बन रही है।

जानकारों की मानें तो 100 कैलोरी के बराबर बीफ (गोमांस) तैयार करने के लिए 700 कैलोरी के बराबर अनाज खर्च होता है। इसी तरह बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे अनाज को ही भोजन बनाना हो तो वह कहीं ज्यादा भूखों की भूख मिट सकती है। ब्रिटिश प्राणीविद जेम्स बेंजामिन का अध्ययन बताता है कि तीन महीने में एक मुर्गा जब तक आधा किलो मांस देने लायक होता है, तब तक इस अवधि में वह 12-13 से लेकर 15 किलो तक अनाज खा जाता है। यानी 15 किलो अनाज के बदले मिलता है, महज आधा किलो मांस। यह अनाज का न केवल दुरुपयोग है, बल्कि भूखे का हक मारना भी है। बकरे के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है।

इधर चीन और भारत में एक वर्ग की बढ़ी आय के चलते शराब पीने और मांस खाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। एक आम चीनी नागरिक अब प्रतिवर्ष औसतन 50 किलोग्राम मांस खा रहा है। जबकि 90 के दशक के मध्य में यह खपत महज 20 किलो थी। कुछ ऐसी ही वजहों से चीन में करीब 15 और भारत में 20 प्रतिशत लोग भुखमरी का अभिशाप झेल रहे हैं। इसके बावजूद ऐसे कोई उपाय नहीं किए जा रहे हैं जिनसे प्रेरित होकर लोग इस विलासी जीवन से मुक्त हों। बल्कि इन्हें बढ़ावा देने वाली नीतियों को कानून में ढालने का काम किया जा रहा है। अमेरिका द्वारा खाद्यान्न का मवेशियों के चारे के रूप में इस्तेमाल से भी संकट गहराया है।

खाद्यान्न संकट गहराने और बढ़ती मंहगाई की जड़ में अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों द्वारा बड़ी मात्रा में खाद्यान्न का उपयोग जैव ईंधन के निमार्ण में किया जा रहा है। गेंहू, चावल, मक्का, सोयाबीन, गन्ना और रतनजोत आदि फसलों का उपयोग इथेनॉल और बायोडीजल के उत्पादन में हो रहा है। ऐसा ऊर्जा संसाधनों की ऊंची लागतें कम करने के लिए वैकल्पिक जैव ईंधनों को बढ़ावा देने के नजरिए से किया जा रहा है। लेकिन जैव ईंधन के उत्पादन ने अनाज बाजार के स्वरूप को विकृत कर दिया है। अमेरिका स्थित अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के जोकिम वॉन ब्रान का मानना है कि जैव ईंधन के बढ़ते उन्माद ने विश्व को खाद्य संकट की ओर धकेला है। यदि इस ईंधन के उत्पादन पर तत्काल रोक लगा दी जाए तो मक्का और गेहूं के दामों में तत्काल 10 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है।

भारत में भुखमरी के बदतर हालात के बावजूद महाराष्ट्र में अनाज से शराब बनाने के कारखानों में लगातार वृद्धि हो रही है। जबकि महाराष्ट्र देश का ऐसा राज्य है जहां विदर्भ क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और कर्ज के चलते ढाई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। गरीबी का आकलन करने वाली सुरेश तेंदुलकर समिति ने भी महाराष्ट्र को देश के उन छह राज्यों में शामिल किया है, जो गरीबी का गहरा दंश झेल रहे हैं। इन चौंकाने वाली जानकारियों के बावजूद महाराष्ट्र राज्य सरकार ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को शराब पिलाने का बीड़ा उठाया है। लिहाजा गरीब की भूख शांत करने वाले ज्वार, बाजरा और मकई से शराब बनाने का सिलसिला धड़ल्ले से जारी है। सरकार का बेजां तर्क है कि इन फसलों से फायदा न होने के कारण मजबूरीवश किसान कपास और सोयाबीन की खेती कर रहे हैं और ज्वार, बाजरा और मक्का से जब बड़े पैमाने पर शराब का उत्पादन शुरू हो जाएगा तो वे फिर से इनको उपजाना शुरू कर देंगे।

हालांकि राज्य शासन ने शराब उद्योग से शर्त रखी है कि शराब बनाने के लिए केवल सड़े-गले अनाज का ही उपयोग किया जाए अन्यथा परमिट रद्द कर दिया जाएगा लेकिन जब सरकार चलाने वाले राजनेता और मंत्री ही परोक्ष रूप से मालिक हों तो किस अधिकारी की मजाल है कि वह निष्पक्ष और सच्ची रिपोर्ट दे? तो क्या इस पर भी भरोसा कर लिया जाए कि भारत में रोजाना हजारों टन अनाज सड़ता है? तय है कि अधिकारी अच्छे अनाज को सड़े अनाज के रूप में दिखाने की साजिश करेंगे। बहरहाल ऑक्सफेम का आकलन एक चेतावनी है और इसे गंभीरता से लेते हुए एक ऐसी अर्थव्यवस्था गढ़ने की जरूरत है जो समावेशी विकास का पर्याय हो और सकल घरेलू उत्पाद दर बढ़ाने के लिए शराब जैसे जीवन और चरित्र को नष्ट करने वाले उत्पादों को प्रोत्साहित करने की जरूरत ही न पड़े।
 

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