श्रद्धांजलि : अमृतलाल वेगड़

7 Jul 2018
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अमृतलाल वेगड़
अमृतलाल वेगड़


नदी के विलुप्त होते सौन्दर्य को संजोने वाले नर्मदा के 'लाल' का अवसान


"हम हत्यारे हैं,अपनी नदियों के हत्यारे। क्या हाल बना दिया है हमने नदियों का? नर्मदा तट के छोटे-से-छोटे तृण और छोटे-से-छोटे कण न जाने कितने परिव्राजकों, ऋषि-मुनियों और साधु-संतों की पदधूलि से पावन हुए होंगे। यहाँ के वनों में अनगिनत ऋषियों के आश्रम रहे होंगे। वहाँ उन्होंने धर्म पर विचार किया होगा,जीवन मूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा। हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही। लेकिन अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है।"

इतनी साफगोई और पीड़ा से हमारी पीढ़ी के अपराध की स्वीकारोक्ति करने वाले नर्मदा नदी के एक और सपूत अमृतलाल वेगड़ ने 90 वर्ष की उम्र में 6 जुलाई 2018 की सुबह अपनी सार्थक ज़िंदगी की आखरी साँस ली। सार्थक इसलिये कि उनसे नर्मदा को अलग कर देखना मुश्किल है। उन्होंने नर्मदा को आखरी साँस तक जिया और उसकी चिंता करते रहे। नर्मदा उनके व्यक्तित्व में जैसे घुल–मिल गई थी। चित्रकार और लेखक के रूप में उन्होंने नर्मदा की यश गाथा और उसके सौन्दर्य को दूर-दूर तक पहुंचाया। उन्होंने इसका सिर्फ़ गौरव गान ही नहीं किया, बल्कि नर्मदा के बिगड़ते स्वरूप को लेकर भी वे भीतर तक पीड़ा से भरे हुए थे।

उन्होंने अपनी किताब 'सौन्दर्य की नदी नर्मदा' की भूमिका में ही लिखा है- "नर्मदा तट की भूगोल तेज़ी से बदल रही है। बरगी बाँध, इंदिरा सागर बाँध और सरदार सरोवर बाँध तथा अन्य बाँधों के कारण अनेक गाँवों का तथा नर्मदा के सैकड़ों किमी लंबे किनारों का अस्तित्व समाप्त हो गया। जब मैंने ये यात्राएँ की थी,तब एक भी गाँव डूबा नहीं था। नर्मदा बहुत कुछ वैसी ही थी, जैसी हजारों वर्ष पूर्व थी। मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि नर्मदा के उस विलुप्त होते सौन्दर्य को मैंने सदा के लिये इन किताबों के पन्नों में संजोकर रख दिया है। इसमें जो कुछ अच्छा है, वह नर्मदा का है। सौन्दर्य उसका, भूलचूक मेरी।

मेरी इस यात्रा को सौ साल बाद तो क्या, 25 साल बाद भी कोई इसकी पुनरावृत्ति नहीं कर सकेगा। 25 साल में नर्मदा पर कई बाँध बन जाएंगे और इसका सैकड़ों मील लंबा तट जलमग्न हो जाएगा। न वे गाँव रहेंगे, न पगडंडियाँ। पिछले 25 हजार वर्षों में नर्मदा तट का भूगोल जितना नहीं बदला है, उतना आने वाले 25 वर्षों में बदल जाएगा।"


नर्मदा के 'लाल' थे अमृतलाल वेगड़

दुबली-पतली काया, करीब पाँच फीट का सामान्य कद-काठी, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा पहने इस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के साथ हजारों किलोमीटर नर्मदा के साथ-साथ पहाड़ों, जंगलों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों को अपने मजबूत इरादे से यात्रा करते हुए इसके अलौकिक जिस सौन्दर्य को हमारे सामने रखा है, उसका बड़ा अभिप्राय नदियों के सिर्फ आध्यात्मिक दृष्टि से ही पूजने या सम्मान की पैरवी नहीं करता बल्कि उसे पर्यावरण सम्पन्न दृष्टि से देखने और बिगड़ते हुए स्वरूप पर गहरी चिन्ता के साथ उसे बचाने के लिये समाज को सचेत और सजग बनाने की नजर भी साफ है। उन्होंने अपना पूरा जीवन नर्मदा को समर्पित कर दिया था।

अमृतलाल वेगड़ के न होने का अर्थ नदी को उसके पूरे रूप-संसार के साथ जानने वाली पीढ़ी का अवसान है, उनके न होने का अर्थ है पर्यावरण के ऐसे सपूत का न होना, जो हमें प्रकृति के कई-कई अर्थों से वाकिफ करवा रहा था। वे सच्चे अर्थों में नर्मदा के 'लाल' थे। आज जबकि नर्मदा को गहरे संकट से बचाने और उसे पुनर्प्रतिष्ठित करने की महती आवश्यकता है तो ऐसे समय में दुख यह है कि नर्मदा नदी का यह यात्री हमारे बीच नहीं है।

हालाँकि उनकी किताबें और रेखांकन नर्मदा के सौन्दर्य को हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी नदियों के प्रति हमारे व्यवहार को सुधारने और उनका निरादर करने से रोकते रहेंगे। उन्होंने कहा था कि जीवन में रोटी से पहले पानी जरुरी है। हमारे लिये पानी का मतलब नर्मदा से है। नर्मदा को हमारी ज़रूरत नहीं, बल्कि हमें नर्मदा की जरूरत है। नर्मदा किनारे हर शहर-गाँव में गन्दे नाले-नालियाँ नदी में मिल रहे हैं। इन्हें रोकना शासन की प्रमुखता में शामिल होना चाहिए। बिना शोधन के नर्मदा में मिल रहा कारखानों का पानी प्रतिबन्धित होना चाहिए। नर्मदा का पानी इतना दूषित नहीं है, जितना गंगा-यमुना जैसी बड़ी नदियों का दूषित है। जैविक गन्दगी जैसे फूल-पत्ती बहाना उतना घातक नहीं है जितना रसायन उड़ेलना। किसान रासायनिक खाद डालकर खेती को नशेड़ी बना रहे हैं, वहीं यह बरसाती पानी के साथ बहकर नदी को भी प्रदूषित कर रहा है। हमें जैविक खेती की ओर लौटना होगा।

उनका जन्म 03 अक्टूबर, 1928 को नर्मदा के किनारे मध्य प्रदेश के जबलपुर में हुआ था। उन्होंने 1948 से1953 तक पाँच साल कोलकाता के शांति निकेतन में चित्रकला सीखी। उन्होंने करीब चार हजार किलोमीटर लम्बी नर्मदा नदी की परिक्रमा की और अपनी चार किताबों में इसके अनुभवों और नदी के अद्भुत सौन्दर्य को सहज और प्रभावी तरीके से समेटा। इनमें नदी पर बनाये उनके रेखांकन भी शामिल हैं। उनकी ये किताबें बहुत महत्त्वपूर्ण यात्रा वृत्तान्त हैं और देशभर में खूब पढ़ी गई हैं। उनका यह काम हिन्दी में अपनी तरह का अनूठा है और इसके लिये उन्हें खूब यश तो मिला ही, कई पुरस्कार भी मिले। इनके कई भाषाओं में अनुवाद भी छपे। 50 वर्ष की आयु से उन्होंने नर्मदा परिक्रमा प्रारम्भ की और जीवन के अन्तिम समय तक वे नर्मदा के पथिक बने रहे।

वेगड़ कहते थे-मेरी नर्मदा 'आँखिन देखी' नर्मदा है।

नर्मदा के किनारे-किनारे 1977 से 1988 के दौरान मैं 1800 किलोमीटर पैदल चला था। इसका वृत्तान्त मैंने अपनी पुस्तक 'सौन्दर्य की नदी नर्मदा' में दिया है। नर्मदा की लम्बाई 1312 किलोमीटर है। दोनों तट मिलाकर परक्म्मावासी (परिक्रमावासी) को 2624 किमी चलना चाहिए। मैं 1800 किमी चला था। किन्तु उत्तर तट के प्राय: 800 किमी बाकी रह गये थे।

नौ बरस बीत गये। नौ वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद नर्मदा पदयात्री के रूप में मानो मेरा पुनर्जन्म हुआ। 1996 से 1999 के दौरान मैंने नर्मदा के उत्तर तट की बाकी बची परिक्रमा भी पूरी की। उत्तर तट की इन्हीं यात्राओं का वृत्तान्त है 'अमृतस्य नर्मदा'। एक प्रकार से यह उत्तरनर्मदाचरित है।

विशाल आकार की मूर्तियों की ढलाई खंडों में की जाती है। फिर उन्हें सफाई से जोड़ दिया जाता है। मेरे लिये नर्मदा-परिक्रमा के ढाई हजार से भी अधिक किमी एक साथ चलना सम्भव नहीं था। इसलिये मैंने ये यात्राएँ खंडों में की। टुकड़े में बँटी इस लम्बी यात्रा को मैंने इन किताबों में जोड़ दिया है। वैसे खंड-यात्राओं का यह तरीका मेरे लिये बिल्कुल सही था। घर आकर मैं यात्रा-वृत्तान्त लिख लेता, कोलाज बना लेता, विश्राम पाकर तरोताजा हो जाता और आगे की यात्रा के लिये नई शक्ति पा लेता।

इन यात्राओं में मैंने अकूत सौन्दर्य बटोरा। उसी को व्यक्त करने का मेरा प्रयास रहा है- कभी रेखाओं में, कभी रंगों में, तो कभी शब्दों में।

यह ठीक है कि मैं चित्रकार हूँ और लेखक भी हूँ, लेकिन मैं साधारण चित्रकार हूँ और लेखक भी साधारण ही हूँ। पहले मैं प्राय: सोचता था कि क्या ही अच्छा होता, भगवान मुझे केवल चित्रकार बनाता, लेकिन उच्च कोटि का चित्रकार। या सिर्फ लेखक बनाता लेकिन मूर्धन्य कोटि का लेखक। भगवान ने मुझे आधा इधर और आधा उधर, आधा तीतर आधा बटेर क्यों बनाया। किन्तु आज सोचता हूँ कि यदि भगवान ने मुझे केवल चित्रकार बनाया होता- भले ही श्रेष्ठ चित्रकार, तो नर्मदा के बारे में लिखता कौन? और केवल लेखक बनाया होता- भले ही प्रकाण्ड लेखक, तो नर्मदा के चित्र कौन बनाता? नर्मदा को असाधारण लेखक या असाधारण चित्रकार के बजाए एक ऐसे आदमी की जरूरत थी, जिसमें ये दोनों बातें हों- फिर चाहे वह साधारण ही क्यों न हो।

नर्मदा के राशि-राशि सौन्दर्य में से मैं अंजुरीभर सौन्दर्य ही ला सका हूँ। मेरा यह प्रयास एक साधारण व्यक्ति का निर्बल प्रयास है। सच तो यह है कि आज तक मैं नर्मदा के सौन्दर्य की थाह नहीं पा सका। कोई असीम को कैसे समेट सकता है? इसलिये जो लाया हूँ, वह 'चिड़ी का चोंच भर पानी' ही है।

एक असंतोष मन में जरूर है कि मुझे सौ साल पहले जन्म लेना चाहिए था जब प्रकृति का सौन्दर्य अक्षुण्ण था, जब हमने नर्मदा तट के पावन जंगलों को काटा नहीं था, जब अनेक जंगली जानवर और असंख्य पक्षी इन जंगलों में निवास करते थे, जब मनुष्य ने प्रकृति को क्षत-विक्षत नहीं किया था और जब नर्मदा अबाध गति से प्रवाहित होती थी। तब मुझे नर्मदा का तमाम ऐश्वर्य उसकी पूरी गरिमा में देखने को मिलता। उस धरती पर मुझे फैक्स या ईमेल से आना चाहिए था, जबकि आया डाक से।

नर्मदा को उन्होंने अपने भीतर महसूस किया। बड़े-बड़े बाँध बनाये जाने से जिस तरह नर्मदा का सौन्दर्य बिगड़ने लगा, उसकी उन्हें गहरी पीड़ा और आक्रोश था। वे बार-बार कहते रहे हैं– “नर्मदा को समझने-समझाने की मैंने ईमानदार कोशिश की है और मेरी कामना है कि सर्वस्व दूसरों पर लुटाती ऐसी ही कोई नदी हमारे सीनों में बह सके, तो नष्ट होती हमारी सभ्यता और संस्कृति शायद बच सके।

वे कहते रहे-मेरे गुरु ने मुझसे कहा था- “जीवन में सफल मत होना, यह बेहद आसान है। तुम अपने जीवन को सार्थक बनाना।” उन्हें प्रकृति और सौन्दर्य से प्रेम करने की प्रकृति उनके पिता से मिली थी। अपने चित्र बनाने के लिये वे नर्मदा तट के आस-पास जाते रहते थे। स्केच के लिये बेहतर दृश्यन की खोज में वे पहले आसपास फिर दूर-दराज के गाँव-देहात तक पहुँचे। इस तरह उन्हें नर्मदा किनारे का सौंदर्य दिखाई दिया। नर्मदा परिक्रमा करते लोग मिले तो परिक्रमा को लेकर जिज्ञासा जागी। ऐसे ही दृश्यों से यह संकल्प दृढ़ हुआ कि नर्मदा की परिक्रमा की जाये। वे अपनी प्रथम पुस्तक 'सौन्दर्य की नदी नर्मदा' में लिखते हैं- “कभी-कभी मैं अपने आप से पूछता हूँ, यह जोखिम भरी यात्रा मैंने क्यों की और हर बार मेरा उत्तर होता है अगर मैं यह यात्रा न करता तो मेरा जीवन व्यर्थ जाता। जो जिस काम के लिये बना हो, उसे वह काम करना ही चाहिए और मैं नर्मदा पदयात्रा के लिये बना हूँ। किन्तु, जब तक इस सत्य का पता मुझे चलता।”

नर्मदा की आत्मकथा में वे कहते हैं- “याद रखो, पानी की हर बूँद एक चमत्कार है। हवा के बाद पानी ही मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है। किन्तु पानी दिन पर दिन दुर्लभ होता जा रहा है। नदियाँ सूख रही हैं। उपजाऊ जमीन ढूहों में बदल रही है। आये दिन अकाल पड़ रहे हैं। मुझे खेद हैं, यह सब मनुष्यों के अविवेकपूर्ण व्यवहार के कारण हो रहा है। अभी भी समय है। वन विनाश बन्द करों। बादलों को बरसने दो। नदियों को स्वच्छ रहने दो। केवल मेरे प्रति ही नहीं, समस्त प्रकृति के प्रति प्यार और निष्ठा की भावना रखो। यह मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योकि मुझे तुमसे बेहद प्यार है। खुश रहो मेरे बच्चों!”

वे अपनी किताब के अन्त में लिखते हैं- नर्मदा तट से लौटता, तो नर्मदा मेरी आँखों के आगे झूलती रहती,उसकी आवाज मेरे कानों में गूँजती रहती। नर्मदा मेरी रग-रग में प्रवाहित होती रहती। इसलिये मेरा मन चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहता है, “सुनिए, मैं नर्मदा तट से आ रहा हूँ। उसके सौन्दर्य का थोड़ा-सा प्रसाद लेकर आया हूँ। लीजिए और अगर अधिक पाने का मन करे, तो एक दिन पौ फटने पर अपने घर का दरवाजा बन्द करके सीधे नर्मदा तट की ओर चल दीजिए। सुन रहे हैं न आप लोग, मैं नर्मदा तट का वासी बोल रहा हूँ।”

माँ नर्मदे! बार-बार तुम्हारे तट पर आता रहूँगा। हो सके तो शेष परिक्रमा भी पूरी करूँगा। हाँ, एक बात कहना चाहता हूँ, “मैं तुम्हारे तट पर आता था, कई-कई दिन चलता था, फिर घर वापस आ जाता था। लेकिन एक बार ऐसा आऊँगा कि वापस नहीं जाऊँगा। हमेशा के लिये मीठी नींद सो जाऊँगा। तब थपकी देकर सुला देना। बस, यही एक आकांक्षा है, इसे पूरी करना माँ..."

एक साक्षात्कार में भी उन्होंने कहा था कि माँ नर्मदा की सेवा करते बीती है। अन्त में भी मैं माँ नर्मदा की गोद में ही सोना चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता कि मुझे नर्मदा तट के अलावा कहीं और ले जाया जाये। मेरा अन्तिम संस्कार नर्मदा के तट पर ही किया जाये। मैं तो चाहता हूँ कि अगला जो भी जन्म हो, नर्मदा की छाँव में ही मिले। उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए उनका अन्तिम संस्कार जबलपुर के नर्मदा तट ग्वारीघाट पर ही किया गया।

उनके प्रति समाज की सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम-सब मिलकर नर्मदा का आदर करें और उसे स्वच्छ रखकर पूर्ववर्ती सदानीरा स्वरूप दे सकें। पर्यावरण को संरक्षित कर तथा नदियों के सौन्दर्य को अक्षुण्ण बनाए रखें।
 

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