सरकार ही करे पानी के साथ न्याय

राजस्थान में जब स्थानीय लोगों ने अपने अथक प्रयासों से सूखी नदियों को जीवित कर सदानीरा बना दिया तो स्थानीय प्रशासन की नजर उसके पानी पर टिक गई। जब तक नदी सूखी रही तब तक तो सरकार की ओर से उसे जीवित बनाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया लेकिन जैसे ही आम लोगों ने उसे पानीदार बना दिया तो मत्स्य विभाग के करिंदे उसके टेंडर बांटने के लिए आ पहुंचे। इस मामले में सामान्य व्यक्ति भी न्याय कर सकता है कि उस नदी और उसके पानी पर किसका हक होना चाहिए जिसे लोगों ने अपना खून-पसीना बहाकर जीवित किया हो।

जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल ने हाल ही में संसद के उच्च सदन को बताया कि बीते 65 साल में देश में पानी की उपलब्धता गिरकर एक-तिहाई रह गई है। उन्होंने यह भी कहा है कि यदि सिकुड़ते जल संसाधनों का न्यायसंगत तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो लोगों की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। पानी की उपलब्धता में कमी का यह खुलासा निश्यच ही चौंकाने वाला तो नहीं है। पानी की कमी और इससे पाद होने वाली हिंसक स्थितियां जनता पिछले कई सालों से, खासतौर से गर्मियों में झेल रही है। 50 साल पहले देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 5 हजार क्यूबिक मीटर/सालाना थी जो अब घटकर 15 सौ क्यूबिक मीटर के आसपास है। पानी की उपलब्धता में इसलिए कमी आई है क्योंकि जनसंख्या बढ़ने के साथ ही पानी मांग में वृद्धि हुई है। यह बात सहज समझी जा सकती है। कमी की वजहें और भी हैं। वैसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘वॉटर फॉर पीपुल, वॉटर फॉर लाइफ’ शीर्षक से प्रकाशित एक रिपोर्ट में जल उपलब्धता के लिहाज से भारत को 133वें नंबर पर रखा था। यह रिपोर्ट कोई एक दशक पहले प्रकाशित हुई थी। इस रैंकिंग में सुधार आया होगा यह सोचना बेमानी है।

पानी की उपलब्धता में गिरावट की यूं तो कई प्रत्यक्ष वजहें हैं लेकिन व्यावहारिक और तार्किक प्रबंधन न होने की वजह से हालत ज्यादा बिगड़ी है। आंकड़े बताते हैं कि देश के तमाम प्रमुख शहरों में 20 से 50 प्रतिशत पानी लीकेज में बर्बाद चला जाता है। इस मामले में सबसे बुरा हाल कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु का है। लीकेज की वजह से बेंगलुरु का 50 प्रतिशत पानी बर्बाद हो जाता है। जाहिर है, इसका सीधा-सीधा असर उपलब्धता पर पड़ता है।

बहरहाल, जहां तक राज्य सभा में पानी की उपलब्धता के इस आंकड़ाबद्ध खुलासे की बात है, इस तरह की सूचनाएं पहले भी आती रही हैं। सरकार और गैर सरकारी संगठनों ने अपने प्रकाशनों और समय-समय पर होने वाले संवादों में वस्तुस्थिति बयां की है। पानी की समस्या के निदान के तौर पर एक इस बिंदु पर तो अधिकांश जानकार और नीतिकार सहमत हैं कि जल संकट का मामला प्रबंधन से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है। एक तरफ तो नदियों और अन्य जल स्रोतों का प्रदूषण की वजह से बुरा हाल है और दूसरी तरफ पानी के इस्तेमाल से जुड़े हमारे गैर जिम्मेदाराना रवैये और सरकारी नीतियों ने पानी की उपलब्धता पर प्रतिकूल असर डाला है। अगर सबसे पहले सरकारी नीति यानी जल नीति की ही बात करें तो इसे देखकर न्यायसंगत पानी के बंटवारे का मसला अपने आप में विरोधाभासी नजर आता है। दूसरे, पानी के बाजारीकरण ने भी पानी की उपलब्धता पर असर डाला है।

सरकार की नीतियां ही पानी को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपकर उसे बाजार की वस्तु बनाने की वकालत करती दिखती हैं। जब पानी सौदागरों के हाथ में होगा तो उसके न्यायसंगत तरीके से इस्तेमाल की कल्पना कैसे की जा सकती है? सच यही है कि जब पानी पर सबका नहीं, चंद हाथों का कब्जा होगा तो न्यायसंगत इस्तेमाल कैसे संभव होगा। जल संसाधनों और स्रोतों पर भी सबका हक होना चाहिए। जल नीति के मुताबिक पानी से संबंधित योजनाएं बनाने और जल संसाधनों के विकास तथा प्रबंधन में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसी नीति में पानी के सहारे आर्थिक संसाधन जुटाने और इसके कार्पोरेट प्रबंधन की भी बात कही गई है।

यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आती है कि जिस देश में नदियों के सहारे अपना जीवन बसर करने वालों की आवाज अनसुनी कर दी जा रही हो, वहां आम जनता को अपने हिस्से का पानी कैसे मिलेगा। बल्कि हुआ तो यह भी कि सूखे से बेहाल रहने वाले राज्य राजस्थान में जब स्थानीय लोगों ने अपने अथक प्रयासों से सूखी नदियों को जीवित कर सदानीरा बना दिया तो स्थानीय प्रशासन की नजर उसके पानी पर टिक गई। जब तक नदी सूखी रही तब तक तो सरकार की ओर से उसे जीवित बनाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया लेकिन जैसे ही आम लोगों ने उसे पानीदार बना दिया तो मत्स्य विभाग के करिंदे उसके टेंडर बांटने के लिए आ पहुंचे। इस मामले में सामान्य व्यक्ति भी न्याय कर सकता है कि उस नदी और उसके पानी पर किसका हक होना चाहिए जिसे लोगों ने अपना खून-पसीना बहाकर जीवित किया हो।

1800 करोड़ रु. खर्च होने के बावजूद प्रदूषित यमुना नदी1800 करोड़ रु. खर्च होने के बावजूद प्रदूषित यमुना नदीदरअसल, पानी और नदियों को बेचने का मामला सरकार की इच्छाशक्ति का भी पता देता है। अब तक की नीतियों और सरकारी व्यवहार से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि जन सामान्य को उसकी जरूरतों के हिसाब से पानी उपलब्ध कराने के मामले में आम आदमी प्राथमिकता सूची में कहां पर है। पानी को बेचने, नदियों और अन्य जल संसाधनों को प्रदूषण और अन्य तरह की मार से न बचा पाने में सरकार की इच्छाशक्ति का अभाव साफ झलकता है। चूंकि पानी पैसा कमाने का एक बड़ा जरिया बन चुका है। इसलिए हर कोई जल संसाधनों को दोहने में लगा है। अगर ऐसा न होता तो यमुना की सफाई के नाम पर ही अब तक 1800 करोड़ रुपया बर्बाद न जाता। इतना पैसा बर्बाद करने के बाद भी यमुना का एक बूंद पानी साफ नहीं हो पाया है।

दिल्ली में ठहरी करीब 22 किलोमीटर की यमुना में अब कोई जल जीव शायद ही बचा हो। अब सरकार सफाई के नाम पर इतना ही और पैसा लगाने की तैयार में है। यह एक उदाहरण है। नदियों की सफाई के नाम पर देश भर में यही गोरखधंधा चल रहा है। लिहाजा जल संसाधनों के न्यायपूर्ण इस्तेमाल का मामला प्रथम दृष्टया सरकार के ही पाले में जाता है। सरकार (केंद्र व राज्य दोनों) को खुद अपने व्यवहार और नीतियों से यह साबित करना होगा कि पानी के न्यायसंगत इस्तेमाल को लेकर वह संजीदा है। सबसे पहले कुछ ऐसे काम करके दिखाने होंगे जिससे लगे कि पानी के मामले में सरकार की नीयत में की खोट नहीं है। बाकि चीजें बाद की हैं। जाहिर है, इस मामले में न्याय तो सरकार को ही करना होगा और यह दर्शाना ही होगा।

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