स्टीफेन हॉकिंग ब्रह्मांड की गहराइयों तक थी उनकी पहुँच

stephen hawking
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न्यूटन और आइंस्टाइन जैसे महान वैज्ञानिकों की श्रेणी में गिने जाने वाले स्टीफेन हॉकिंग अब नहीं रहे। 14 मार्च, 2018 की सुबह कैम्ब्रिज स्थित अपने घर पर 76 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। कम्प्यूटर एवं कृत्रिम आवाज के सहारे बोलने वाले हॉकिंग का शरीर हालांकि, ज्यादातर पहिएदार कुर्सी तक ही सीमित रहा, लेकिन इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि उनके मस्तिष्क की पहुँच असीम ऊँचाइयों तक थी।

ह्वीलचेयर से बँधे होने के बावजूद वह पूरे जोश के साथ देश-विदेश घूमकर अपने व्याख्यान देते रहे। इन व्याख्यानों में वह ब्रह्मांड सम्बन्धी अपने सिद्धान्त (जिसके अनुसार सीमाबद्ध विस्तार वाले ब्रह्मांड की न कोई परिसीमा है और न कोई किनारा) तथा विलक्षण पिंड कृष्ण विवरों यानी ब्लैक होल्स के बारे में मस्तिष्क को झकझोरने वाली जानकारी रोचक ढंग से प्रस्तुत करते थे।

श्रोताओं के बीच विनोदप्रियता तथा अपने नटखट अन्दाज के लिये मशहूर हॉकिंग गम्भीर विषय पर अपने व्याख्यानों के बीच-बीच में हास्य एवं विनोद का पुट भी ले आते थे। इसका प्रत्यक्ष अनुभव इन पंक्तियों के लेखक को भी हुआ जब उसे 17 जनवरी 2001 को नई दिल्ली के सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में आयोजित हॉकिंग का ‘भविष्य का पूर्वानुमान: ज्योतिष से कृष्ण विवरों तक’ विषय पर व्याख्यान सुनने का अवसर प्राप्त हुआ।

दरअसल, जनवरी 2001 के प्रथम सप्ताह में मुम्बई में आयोजित ‘स्ट्रिंग्स 2001’ में शामिल होने के लिये हॉकिंग भारत आए हुए थे। तभी पता चला कि हॉकिंग नई दिल्ली आकर अपना व्याख्यान देंगे। चूँकि व्याख्यान भौतिकी पर था, इन पंक्तियों के लेखक का भी भौतिकी विषय होने के कारण उसमें इस व्याख्यान को सुनने की इच्छा जागृत हुई और इस इच्छापूर्ति के लिये उसने हर कोशिश की और सफल रहा। लोगों में हॉकिंग को सुनने का इतना उत्साह था कि भीड़ की भीड़ उमड़ी चली आ रही थी। ऑडिटोरियम खचाखच भरा था। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल (राष्ट्रपति बनने से पूर्व) भी श्रोताओं के बीच बैठे थे।

सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में अपना व्याख्यान देते हुए हॉकिंग ने श्रोताओं के समक्ष यह प्रश्न रखा था: क्या भविष्य का पूर्वानुमान सम्भव है जैसा कि कुछ ज्योतिषी दावा करते हैं? भविष्य दर्शन के बारे में ज्योतिषियों के दावों को लेकर हॉकिंग ने अपनी प्रतिक्रिया इस प्रकार व्यक्त की थी: “अधिकांश वैज्ञानिकों द्वारा ज्योतिष पर विश्वास न करने की वजह इसके पक्ष में वैज्ञानिक साक्ष्य का होना या न होना नहीं है, अपितु प्रयोगों द्वारा खरे साबित होने वाले सिद्धान्तों के साथ इसका तालमेल या संगति नहीं बैठ पाना है।”

अपने व्याख्यान के दौरान हॉकिंग ने कहा कि फ्रांसीसी भौतिकीविद मार्किस द लाप्लास ने इस तर्क का सहारा लिया था कि अगर ब्रह्मांड की रचना करने वाले समस्त कणों की स्थितियों तथा उनके वेगों के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त हो जाए तो फिर भविष्य का पूर्वानुमान किया जा सकना सम्भव है। लेकिन, हॉकिंग का कहना था कि लाप्लास के निर्धार्यता या निश्चयवाद के सिद्धान्त (प्रिंसिपल ऑफ डिटरमिनिज्म) के स्थान पर वर्नेर हाइजेनबर्ग द्वारा सन 1926 में प्रतिपादित अनिर्धार्यता सिद्धान्त (प्रिंसिपल ऑफ इनडिटरमिनेसी) को मद्देनजर रखना जरूरी होगा ताकि भविष्य के पूर्वानुमान को लेकर सही स्थिति सामने आ सके। स्पीच सिंथेसाइजर (वाणी संश्लेषक) तथा अपनी स्वचालित ह्वीलचेयर के साथ लगे एक छोटे कम्प्यूटर की सहायता से बोलते हुए हॉकिंग ने कहा कि हाइजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त (प्रिंसिपल ऑफ अनसर्टेनटी) के अनुसार, किसी भी कण की स्थिति एवं उसके वेग के बारे में परिशुद्ध एवं समक्षणिक मापन कर पाना सम्भव नहीं है।

आगे बोलते हुए हॉकिंग ने बताया कि हाइजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त का एक गहन निहितार्थ यह है कि कुछ मायनों में कण तरंग सदृश व्यवहार करते हैं; यानी उनकी कोई सुनिश्चित स्थिति नहीं होती बल्कि एक प्रायिकता आवंटन (प्रोबेबिलिटी डिस्ट्रीब्यूशन) के रूप में ही आकाश (स्पेस) में उनकी स्थिति कुछ हद तक फैली हुई-सी होती है। चूँकि क्वांटम यांत्रिकी में कणों और तरंगों के बीच द्वैतता मौजूद होती है, अतः कण को एक तरंग फलन (वेव फंक्शन) के माध्यम से ही निरूपित किया जा सकना सम्भव है।

अगर किसी कण से सम्बद्ध तरंग फलन का मान किसी निश्चित समय पर ज्ञात हो तो अतीत अथवा भविष्य के किसी भी समय के लिये उसके मान को काल-निर्भर (टाइम डिपेंडेंट) श्रोडिंगर-समीकरण द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। श्रोताओं का ध्यानाकर्षण करते हुए हॉकिंग ने कहा कि संशोधित या क्वांटम परिप्रेक्ष्य में यह निर्धार्यता या निश्चयवाद की पुनर्स्थापना ही है। अतः किसी भी कण के साथ तरंग फलन के सम्बद्ध किए जाने की अवधारणा द्वारा एक निश्चित सीमा तक ही भविष्य का पूर्वानुमान लगाया जा सकना सम्भव है। इसी बात को रेखांकित करते हुए हॉकिंग ने अपने व्याख्यान में कहा, “यहाँ तक कि ईश्वर भी किसी कण की स्थिति या उसके वेग को नहीं, बल्कि केवल उसके तरंग फलन को ही जान सकता है।”

हॉकिंग के इस कथन का निहितार्थ यह है कि ब्रह्मांड के क्रिया-कलापों में ईश्वर या रचयिता की कोई भूमिका नहीं है; यानी ईश्वर भी हाइजेनबर्ग के अनिश्चितता सिद्धान्त से बँधा होता है, जिसका मतलब यह है कि इस नियम को तोड़कर वह ब्रह्मांड के काम-काज में दखलअन्दाजी नहीं करता है। अपने व्याख्यान में हॉकिंग ने कहा कि आइंस्टाइन अनिश्चितता के सिद्धान्त को कभी स्वीकार नहीं कर पाए। यह उनके इस प्रसिद्ध कथन कि ‘ईश्वर पासा नहीं फेंकता है’ से साफ झलकता है। आइंस्टाइन के इस कथन से इत्तेफाक न रखते हुए हॉकिंग ने कहा कि “ईश्वर न केवल पासा फेंकता है बल्कि कभी-कभी उन्हें ऐसी जगहों में भी फेंक देता है जहाँ वे दिखाई नहीं पड़ते हैं।”

अपने व्याख्यान में हॉकिंग ने अपने पसन्दीदा विषय यानी कृष्ण विवर (ब्लैक होल) की भी चर्चा की। हॉकिंग ने बताया कि ‘ब्लैक होल’ नामकरण प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकीविद जॉन ह्वीलर ने सन 1969 में किया था, हालांकि पूर्व सोवियत संघ में इसे ‘फ्रोजन स्टार’ यानी जमे हुए तारे की संज्ञा दी गई थी। लेकिन, ब्लैक होल के अस्तित्व की सम्भावना के बारे में सबसे पहले कैम्ब्रिज के प्रोफेसर जॉन मिशेल ने सन 1783 में ‘फिलासॉफिकल ट्रांजेक्शंस ऑफ द रॉयल सोसाइटी ऑफ लन्दन’ में प्रकाशित अपने एक शोध पत्र में बताया था। मिशेल ने बताया कि अन्तरिक्ष में कुछ ऐसे भारी एवं सघन तारे भी हो सकते हैं जिनमें इतनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति मौजूद होती है कि प्रकाश की किरणें भी उनके आकर्षण से बाहर नहीं निकल पातीं। मिशेल ने ऐसे तारों को ‘ब्लैक स्टार्स’ की संज्ञा दी। इन्हें ही अब हम ‘ब्लैक होल्स’ या कृष्ण विवर कहते हैं।

हॉकिंग ने अपने व्याख्यान में विकिरण का उत्सर्जन करने वाले कृष्ण विवरों की भी चर्चा की। लेकिन, बहुत छोटे एवं ‘तप्त’ ब्लैक होल से ही इस प्रकार के विकिरण का उत्सर्जन सम्भव है, जिसे हॉकिंग विकिरण की संज्ञा दी जाती है। विकिरण द्वारा ऐसे कृष्ण विवर में ऊर्जा का ह्रास होता है। नतीजतन, वाष्पीभूत होते-होते अन्ततः एक विस्फोट द्वारा कृष्ण विवर का अस्तित्व ही निःशेष हो जाता है; और वे तमाम कण एवं पदार्थ, जो उसके भीतर जा समाए थे, के बारे में समस्त सूचना को अपने साथ संजोए विस्फोटित होता यह कृष्ण विवर अन्ततः समाप्त हो जाता है। लेकिन क्या सूचना वाकई विस्फोटित हुए कृष्ण विवर में गुम होकर रह जाती है? गौरतलब है कि पहले हॉकिंग का ऐसा ही मानना था। लेकिन, बाद में उन्होंने अपनी इस मान्यता में संशोधन किया। इस पर चर्चा से पहले आइए हॉकिंग विकिरण क्या है, इस बारे में चर्चा करते हैं।

क्या है हॉकिंग विकिरण

हॉकिंग ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ में विकिरण का उत्सर्जन करने वाले कृष्ण विवरों की बड़े विस्तार से चर्चा की है। चिरसम्मत भौतिकी (क्लासिकल फिजिक्स) के सिद्धान्तों के अनुसार कृष्ण विवर (किसी निपातशील तारे, जिसमें तीन सूर्यों से अधिक द्रव्यराशि होती है, के तेजी से संकुचित होने की प्रक्रिया के चलते अन्ततः उसकी नियति एक कृष्ण विवर के रूप में होती है) नामक पिंड पदार्थ और ऊर्जा का केवल भक्षण ही कर सकते हैं, उत्सर्जन नहीं। लेकिन, क्वांटम यांत्रिकी के सिद्धान्तों को कृष्ण विवर पर लगाकर हॉकिंग ने बड़े ही आश्चर्यजनक एवं अनूठे परिणाम प्राप्त किए।

क्वांटम यांत्रिकी के सिद्धान्तों के अनुसार, ब्रह्मांड में कहीं भी पूर्ण रिक्तता नहीं है, यहाँ तक कि निर्वात (वैक्यूम) भी इसका अपवाद नहीं है। यानी क्वांटम भौतिकी के अनुसार निर्वात को वैसा ‘नीरस’ नहीं माना जा सकत जैसा कि हम आमतौर पर समझते हैं। क्वांटम भौतिकीविदों के अनुसार निर्वात में भी आभासी युगल कणों (वर्चुअल पार्टिकल पेयर्स) का निरन्तर सृजन और विनाश चलता रहता है। सृजन और विनाश की यह प्रक्रिया इतनी त्वरित गति से होती है कि ऐसे कणों पर न तो कोई प्रेक्षण लिया जा सकना सम्भव है और न उन्हें देखा ही जा सकता है। लेकिन, उनके द्वारा उत्पन्न प्रभावों का मापन किया जा सकना अवश्य सम्भव है।

कृष्ण विवर के घटना क्षितिज (इवेंट होराइजन), जहाँ उसकी परिसीमा खत्म होती है, के समीप के निर्वात में जब कृष्ण विवर की गुरुत्वाकर्षण ऊर्जा से ऐसे आभासी युगल कणों की सृष्टि होती है (इन युगल कणों में एक कण तथा दूसरा उसका प्रतिकण होता है) तो क्वांटम यांत्रिकी के अनिश्चितता सिद्धान्त द्वारा अनुमत एक सेकंड के अत्यल्प अंश में इनमें से एक कण (जिसमें ऋणात्मक ऊर्जा होती है) को कृष्ण विवर द्वारा आकर्षित कर लिया जाता है जबकि धनात्मक ऊर्जा वाला उसका साथी कण कृष्ण विवर के आकर्षण बल से छूटकर बाह्य अन्तरिक्ष में पलायन कर जाता है। तब बाह्य प्रेक्षक को ऐसा लगता है कि कृष्ण विवर ही वस्तुतः विकिरण का उत्सर्जन कर रहा है। कृष्ण विवर से निकलने वाले ऐसे विकिरण को ‘हॉकिंग विकिरण’ की संज्ञा दी जाती है।

कृष्ण विवर के आकर्षण से छूट कर बाह्य अन्तरिक्ष में गिरा कण अपने साथ ऊर्जा को ले जाता है। इस तरह कृष्ण विवर की ऊर्जा में ह्रास उत्पन्न होता है। इस ह्रास को कृष्ण विवर के ‘वाष्पन’ की संज्ञा दी जाती है। इस ऊर्जा ह्रास के कारण, आइंस्टाइन की द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण E=mc2 के अनुसार, कृष्ण विवर के द्रव्यमान में ह्रास उत्पन्न होता है। नतीजतन, कृष्ण विवर की घटना-क्षितिज का क्षेत्रफल कम होता चला जाता है।

जेकब बैकेंस्टाइन के अनुसार चूँकि कृष्ण विवर का पृष्ठ क्षेत्रफल उसकी ‘एंट्रॉपी’ (किसी भी निकाय की एंट्रॉपी उसकी बढ़ती अव्यवस्था की सूचक होती है) का परिचायक होता है, पृष्ठ क्षेत्रफल में ह्रास के कारण कृष्ण विवर की एंट्रॉपी में भी गिरावट आती है। लेकिन, एंट्रॉपी में यह गिरावट विकिरित ऊर्जा की बढ़ी हुई एंट्रॉपी के रूप में परिलक्षित होती है और इस तरह ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम, जिसके अनुसार, किसी भी निकाय की एंट्रॉपी या तो स्थिर रह सकती है या बढ़ सकती है का किसी तरह भी उल्लंघन नहीं होता है।

ऊर्जा को विकिरित करने के कारण ‘वाष्पन’ द्वारा कृष्ण विवर के घटना-क्षितिज का पृष्ठ क्षेत्रफल घटता जाता है और अन्ततः उसका अस्तित्व ही निःशेष हो जाता है।

कृष्ण विवर से उत्सर्जित होने वाले विकिरण सम्बन्धी हॉकिंग का सिद्धान्त सन 1974 में एक शोध पत्र के रूप में प्रसिद्ध जर्नल नेचर में ‘ब्लैक होल एक्सप्लोशंस’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस शोध पत्र ने वैज्ञानिक समुदाय में तीव्र उत्तेजना पैदा कर दी। तब तक की प्रचलित धारणा के अनुसार, ब्लैक होल समस्त पदार्थ यहाँ तक कि प्रकाश की किरणों को भी आत्मसात करने वाले माने जाते थे। चूँकि उनसे कुछ भी बाहर नहीं आ सकता, दृश्य जगत के लिये वे अदृश्य बने रहते हैं। इसे इस रूप में व्यक्त किया जाता रहा था कि कृष्ण विवर पूरी तरह से काले (कृष्ण) यानी ‘ब्लैक’ होते हैं। लेकिन, कृष्ण विवरों के पूरी तरह से काले होने की अवधारणा हॉकिंग के युगान्तरकारी शोध पत्र के प्रकाशन के बाद बदल गई। अब यह कहा जाने लगा कि कृष्ण विवर उतने काले नहीं हैं (ब्लैक होल्स आर नॉट दैट ब्लैक)।

हॉकिंग की इस क्रान्तिकारी अनुसन्धान की पृष्ठभूमि के बारे में जानना अपने आप में महत्त्वपूर्ण होगा। एक बार कृष्ण विवर की परिसीमा या घटना क्षितिज में प्रवेश कर जाने के बाद सभी कणों, पदार्थों आदि के भौतिक गुणधर्मों सम्बन्धी सूचना कृष्ण विवर के अन्दर गुम होकर रह जाती है। इसका निहितार्थ यह है कि इन गुणधर्मों के बारे में कोई भी जानकारी या सूचना हमें प्राप्त नहीं हो सकती। इस जानकारी या सूचना को ही कृष्ण विवरों के बालों की संज्ञा दी जाती है तथा इस जानकारी के अनुसार बालों के अभाव के कारण ही यह कहा जाता है कि कृष्ण विवरों के बाल नहीं होते (ब्लैक होल्स हैव नो हेअर)। इसे ‘नो हेअर थ्योरम’ के नाम से भी जाना जाता है।

दरअसल, किसी भी कृष्ण विवर के केवल आवेश, द्रव्यमान एवं कोणीय संवेग (यानी कितनी तेजी से कृष्ण विवर प्रचक्रण यानी स्पिन कर रहा है) के बारे में ही हमें जानकारी उपलब्ध होती है। इस प्रकार कृष्ण विवरों के बालों का अभाव उसकी कम सूचना वाली अवस्था का द्योतक होता है। यह कम सूचना वाली अवस्था कृष्ण विवर की बढ़ती एंट्रॉपी (जो किसी निकाय की बढ़ती अवस्था का सूचक होती है) का द्योतक होती है।

जेकब बैकेंस्टाइन को यह प्रदर्शित करने में सफलता मिली कि कृष्ण विवर के घटना क्षितिज का क्षेत्रफल उसकी एंट्रॉपी को निरूपित करता है। एंट्रॉपी एक ऊष्मागतिक (थर्मोडायनेमिक) संकल्पना है। इसके साथ तापमान की अवधारणा अपने आप जुड़ जाती है। बैकेंस्टाइन ने यह तर्क रखा कि संकुचन को प्राप्त किसी कृष्ण विवर के घटना-क्षितिज पर गुरुत्वाकर्षण का मान हर दिशा में बराबर होता है। अतः कृष्ण विवर के घटना-क्षितिज के गुरुत्वाकर्षण को ही उसके तापमान का सूचक मान लेना चाहिए। बैकेंस्टाइन ने बताया कि यह तापमान कृष्ण विवर के पृष्ठ क्षेत्रफल का व्युत्क्रमानुपाती है; अतः कृष्ण विवर की एंट्रॉपी भी तापमान के व्युत्क्रमानुपाती होगी।

लेकिन, कृष्ण विवर के साथ तापमान को सम्बद्ध करने पर एक समस्या उठ खड़ी हुई। परम्परागत या चिरसम्मत (क्लासिकल) भौतिकी के अनुसार कोई भी ऐसा पिंड, जिसका तापमान शून्याधिक हो, विकिरण का उत्सर्जन करेगा। लेकिन, उस समय की प्रचलित धारणा के अनुसार कृष्ण विवर से कुछ भी बाहर नहीं आ सकता था, फिर इससे विकिरण का उत्सर्जन भला कैसे सम्भव था? इसके मद्देनजर रोजर पेनरोज ने प्रस्तावित किया कि घूर्णनशील कृष्ण विवरों से ही ऊर्जा का विकिरण सम्भव है। यहाँ यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि बैकेंस्टाइन और पेनरोज दोनों ने ही चिरसम्मत भौतिकी के नियमों का प्रयोग किया था। लेकिन, हॉकिंग ने क्वांटम भौतिकी के नियमों को कृष्ण विवर पर लगाकर यह प्रदर्शित किया कि कृष्ण विवरों से सचमुच ऊर्जा का विकिरण हो सकता है, इसके लिये उनका घूर्णनशील होना आवश्यक नहीं।

सूचना ह्रास विरोधाभास

कृष्ण विवर द्वारा आत्मसात किए गए कणों, पदार्थों के भौतिक गुणधर्मों सम्बन्धी जानकारी या सूचना कृष्ण विवर के अन्दर ही गुम हो जाती है। इसे सूचना ह्रास यानी इंफॉर्मेशन लॉस कहते हैं। लेकिन, क्वांटम भौतिकी के सिद्धान्तों के अनुसार, सूचना का ह्रास नहीं हो सकता जबकि आपेक्षिकता के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार ऐसा हो पाना सम्भव है। इस प्रकार एक विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होती है जिसे सूचना-ह्रास विरोधाभास (लॉस ऑफ इंफॉर्मेशन पैराडॉक्स) की संज्ञा दी जाती है।

हॉकिंग का पहले यह मानना था कि सचमुच कृष्ण विवर में सूचना का ह्रास हो सकता है। 17 जनवरी 2001 को सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में दिए गए अपने व्याख्यान में हॉकिंग ने कहा था कि “मुझे लगता है कि अगर आइंस्टाइन के आपेक्षिकता के सामान्य सिद्धान्त को गम्भीरता से लिया जाए तो इस बात की प्रबल सम्भावना बनती है कि एक गाँठ की शक्ल में दिक्काल बँध जाता है और सूचना इस गाँठ की तहों में भी कहीं गुम होकर रह जाती है।”

लेकिन, बाद में हॉकिंग को अपनी इस धारणा में संशोधन करना पड़ा। 25 अगस्त, 2015 को स्टॉकहोम स्थित केटीएच रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में दिए व्याख्यान में हॉकिंग ने कहा, “मैं समझता हूँ कि सूचना ब्लैक होल के अन्दर भण्डारित नहीं होती बल्कि उसकी परिसीमा या घटना-क्षितिज पर ही सूचना का भण्डारण होता है।” हॉकिंग के इस कथन का तात्पर्य यह है कि कृष्ण विवर के घटना-क्षितिज से होकर गुजरने वाले कणों सम्बन्धी सूचना द्विविमीय रूप से घटना क्षितिज के पृष्ठतल पर भण्डारित होती है। इसी व्याख्यान में हॉकिंग ने आगे कहा कि “कृष्ण विवर कणों, पदार्थों आदि का शाश्वत कारागार नहीं हैं (जहाँ ये हमेशा के लिये कैद होकर रह जाएँ)। कृष्ण विवरों से सूचना बाहर आ सकती है तथा समान्तर या अन्य ब्रह्माण्ड में भी स्थानान्तरित हो सकती है।”

सन 2016 में हॉकिंग ने एंड्रू स्ट्रॉमिंगर तथा मैल्कॉम पैरी के साथ मिलकर एक शोध पत्र तैयार किया जो प्रीप्रिंट जर्नल आर्काइव में 5 जनवरी 2016 को प्रकाशित हुआ। पुरानी अवधारणा के अनुसार, जब विकिरण का उत्सर्जन करने के बाद ब्लैक होल का अस्तित्व समाप्त हो जाता है तो निर्वात में कुछ भी शेष नहीं बचता है; अतः सूचना ब्लैक होल के ‘वाष्पन’ के साथ ही हमेशा के लिये गुम होकर रह जाती है। लेकिन, इस शोध पत्र में अनुसन्धानकर्ताओं ने सॉफ्ट फोटॉन या सॉफ्ट ग्रेविटॉन, जो शून्य ऊर्जा वाले कण हैं, को प्रस्तावित किया। लेकिन, शून्य ऊर्जा होने के बावजूद इनमें कोणीय संवेग मौजूद होता है। अनुसन्धानकर्ताओं का कहना है कि निर्वात में ऐसे कणों में ही सूचना भण्डारित रहती है। इन कणों के कोणीय संवेग को ही ‘सॉफ्ट हेअर’ की संज्ञा दी गई है। हॉकिंग का कहना है कि सूचना ‘सॉफ्ट हेअर्स’ के रूप में ब्लैक होल के घटना क्षितिज में भण्डारित रहती है।

लेकिन, क्या समस्त सूचना इन ‘सॉफ्ट हेअर्स’ में भण्डारित रहती है? इस बारे में हॉकिंग का कहना है, ‘शायद नहीं।’ आगे इस पर और भी अनुसन्धान किए जाने की आवश्यकता है जो सम्भवतया क्वांटम ग्रेविटी के सिद्धान्त द्वारा ही हो सकेगा, ऐसा हॉकिंग का कहना है।

क्या दिक्काल (स्पेस-टाइम) की परम्परागत चार विमाओं (जिसमें से एक समय की विमा है) के अलावा इससे अधिक विमाओं का अस्तित्व भी हो सकता है? यदि हाँ तो ये अतिरिक्त विमाएँ हमारे दृश्य जगत से ओझल क्यों रहती हैं? इन अतिरिक्त विमाओं की अवधारणा की गुरुत्व बल के साथ प्रकृति में पाए जाने वाले तीन अन्य बलों के एकीकरण में क्या कोई भूमिका है?

गौरतलब है कि प्रकृति में पाए जाने वाले विद्युत-चुम्बकीय, क्षीण नाभिकीय तथा दृढ़ नाभिकीय बलों को गुरुत्वीय बल के साथ एकीकृत करने का प्रयास विश्वभर के भौतिकीविद कर रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के एकदम आरम्भिक काल में ये चारों बल एकजुट थे। लेकिन, जैसे-जैसे प्रसरणशील ब्रह्मांड ठंडा होता गया वे एक-दूसरे से अलग होते गए।

शेष तीन बलों के साथ गुरुत्वीय बल के एकीकरण के प्रयासों के चलते एक बहुत ही अद्भुत एवं क्रान्तिकारी सिद्धान्त का जन्म हुआ जिसमें स्टीफेन हॉकिंग ने बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। देश-विदेश के अनेक वैज्ञानिक भी इस सिद्धान्त पर कार्य कर रहे हैं। भारत के मुम्बई स्थित टाटा आधारभूत अनुसन्धान संस्थान (टीआईएफआर) तथा इलाहाबाद के हरीश चंद्र संस्थान से जुड़े भौतिकीविद इस क्षेत्र में अच्छा अनुसन्धान कार्य कर रहे हैं।

तन्तु सिद्धान्त में कणों (जो आकाश या दिक में बस बिन्दु भर जगह घेरते हैं) के स्थान पर कम्पन करते हुए सूक्ष्म तन्तुओं की कल्पना की जाती है। ये तन्तु मुक्त या खुले छोरों वाले हो सकते हैं तथा ये मुक्त छोर आपस में मिलकर एक छल्ले (लूप) की रचना भी कर सकते हैं। ये तन्तु इतने सूक्ष्म होते हैं कि एक प्रोटान के व्यास जितनी जगह को पूरा भरने के लिये कोई 1020 (1 के बाद 20 शून्य रखकर बनने वाली संख्या) तन्तुओं की आवश्यकता पड़ेगी।

इन तन्तुओं में उत्पन्न कम्पनों की तुलना हम एक उड़ती पतंग की डोर पर उठती हुई लहरों के साथ कर सकते हैं। अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ में हॉकिंग ने इसी उपमा का ही सहारा लिया है। इन कम्पनशील तन्तुओं की पारस्परिक क्रियाओं के माध्यम से ही एक दिन प्रकृति के सभी बलों एवं कणों के आपसी सम्बन्धों की पहेली को सुलझा पाना सम्भव होगा, ऐसा हॉकिंग का मानना था; जिससे अन्य वैज्ञानिक भी सहमत हैं।

तन्तु सिद्धान्त में यह माना जाता है कि चार परम्परागत विमाओं (जिनमें दिक के तीन तथा समय की एक विमा है) के अलावा दिक्काल की अतिरिक्त विमाओं का अस्तित्व भी सम्भव है। गौरतलब है कि दिक्काल की अतिरिक्त विमा की कल्पना सबसे पहले जर्मनी के भौतिकीविद थियोडोर कलुआजा ने सन 1919 में की थी। उन्होंने दिक्काल की कुल पाँच विमाओं की कल्पना की थी। स्वीडन के युवा भौतिकीविद ओस्कार क्लाइन ने इसी सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए यह तर्क रखा कि अतिरिक्त यानी पाँचवीं विमा लिपटकर या कुंचित होकर एक अति सूक्ष्म वृत्त के रूप में सिमटी रहती है; इसलिये हमारी चतुर्विमीय ब्रह्मांड में इसकी कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है।

उल्लेखनीय है कि कलुआजा-क्लाइन ने जब अपना सिद्धान्त सामने रखा था उस समय केवल विद्युत चुम्बकीय एवं गुरुत्वाकर्षण इन दो बलों के बारे में ही जानकारी थी। अतः इन दोनों बलों के बीच सम्भावित सम्बन्ध को स्थापित करने की दृष्टि से ही उन्होंने एक अतिरिक्त यानी पाँचवीं विमा की परिकल्पना की थी।

कलुआजा-क्लाइन द्वारा प्रस्तावित सिद्धान्त करीब पचास वर्ष तक ऐसे ही उपेक्षित पड़ा रहा। सन 1974 में पेरिस के जोल शर्क तथा कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से सम्बद्ध जॉन श्वार्ज्स ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने दिक्काल की दस विमाओं की परिकल्पना की थी। लेकिन, इस बीच दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में शर्क की मृत्यु हो जाने के कारण श्वार्ज्स अकेले पड़ गए। लेकिन, सन 1986 में लन्दन यूनिवर्सिटी के क्वीन मेरी कॉलेज से सम्बद्ध माइकेल ग्रीन के साथ ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ में तन्तु सिद्धान्त पर उनका एक लेख प्रकाशित हुआ। इसके बाद तो तन्तु सिद्धान्त पर विश्वभर के वैज्ञानिकों की रुचि पुनः जागृत हो गई।

गौरतलब है कि तन्तु सिद्धान्त की संगतता को बनाए रखने के लिये वैज्ञानिकों को दिक्काल की चार परम्परागत विमाओं के अलावा छः अतिरिक्त विमाओं की परिकल्पना करनी पड़ी है। इस तरह वैज्ञानिकों ने तन्तु सिद्धान्त में दिक्काल की कुल 10 विमाओं की परिकल्पना की है (‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ में स्टीफेन हॉकिंग लिखते हैं कि वैज्ञानिकों को दिक्काल की 10 या 26 विमाओं की परिकल्पना करनी पड़ी है)।

प्रश्न उठता है कि यदि इन सारी अतिरिक्त विमाओं का वास्तव में अस्तित्व है तो हम उनका अवलोकन क्यों नहीं कर पाते हैं? दरअसल, प्रकृति ने इन अतिरिक्त विमाओं को इतनी सूक्ष्मता से लपेट या समेटकर रखा है कि हमारे दृश्य जगत से ये ओझल रहती हैं। यानी बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर इन अतिरिक्त विमाओं को देखा जा सकता है; बड़े या विशाल स्तर पर इन्हें देख पाना सम्भव नहीं है। यह कुछ इस तरह से ही है जैसे किसी पतली नलिका (ट्यूब) को बहुत दूर से देखने पर वह एक रेखा सदृश ही लगती है जबकि पास से देखने पर उस ट्यूब की गोलाई साफ नजर आती है।

तन्तु सिद्धान्त में फर्मियॉनो एवं बोसॉनों की आपसी सममिति यानी सुपरसिमिट्री का इस्तेमाल कर भौतिकीविदों को एक सुपरसिमिट्रिक स्ट्रिंग थीअरी, जिसे संक्षेप में महातन्तु सिद्धान्त (सुपरस्ट्रिंग थीअरी) कहते हैं, का विकास करने में भी सफलता मिली है।

लेकिन, सन 1985 के बाद भौतिकीविदों को लगने लगा कि केवल तंतु या महातंतु सिद्धान्त से ही चारों बलों के एकीकरण की गुत्थी सुलझने वाली नहीं है। उन्हें लगा कि आकाश (स्पेस) में दो या अधिक विमाओं वाली आकार ग्रहण की हुई वस्तुओं का अस्तित्व भी हो सकता है। कैम्ब्रिज के अनुप्रयुक्त गणित एवं सैद्धान्तिक भौतिकी विभाग (डीएएमटीपी) से सम्बद्ध पॉल टाउनसेंड ने इन वस्तुओं को पी-ब्रेन्स (‘ब्रेन’ शब्द ‘मेम्ब्रेन’ से निकला है) नाम दिया। इस तरह की परिकल्पना में कण को पी-0 ब्रेन जबकि तन्तु को पी-1 ब्रेन माना जा सकता है। इसी प्रकार पी-2 को पृष्ठ तल या झिल्ली (मेम्ब्रेन) माना जा सकता है।

हॉकिंग के अनुसार, पी-ब्रेन्स को सपाट दिक्काल में गतिशील चादरों के रूप में माना जा सकता है; तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में कृष्ण विवर इस तरह के व्यवहार कर सकते हैं जैसे कि ये ऐसी चादरों से ही बने हुए हों। हॉकिंग का यह मानना था कि 10 या 11 विमाओं को शामिल करके अगर (सुपरसिमिट्री पर आधारित) सुपरग्रेविटी सिद्धान्तों का व्यापकीकरण किया जाए तो पी-ब्रेंस को उन सिद्धान्तों के हलों के रूप में प्राप्त किया जा सकता है।

पी-ब्रेन्स की अवधारणा सचमुच क्रान्तिकारी साबित हो सकती है, ऐसी हॉकिंग की सोच थी। पी-ब्रेन्स पर अलग-अलग दिशाओं में तरंगें चल सकती हैं। जब कण पी-ब्रेन्स से टकराते हैं तो वे उन्हें उत्तेजित कर उनमें अतिरिक्त तरंगों की उत्पत्ति कर पाने में सक्षम होते हैं। इस तरह किसी बिन्दु पर जब एक साथ ही बहुत-सी तरंगें आती हैं तो एक ही कला (फेज) में होने के कारण तंरग शीर्ष की उच्चता इतनी अधिक हो सकती है कि ब्रेन्स का वह हिस्सा टूटकर अलग हो सकता है और फिर किसी कण की तरह दूर छिटक सकता है।

हॉकिंग पी-ब्रेन्स को कृष्ण विवरों के एक प्रभावकारी (इफेक्टिव) मॉडल के रूप में उभारने की कोशिशों में लगे थे। 17 जनवरी, 2001 को सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में दिए गए अपने लोकप्रिय व्याख्यान में भी पी-ब्रेन्स का उल्लेख कर हॉकिंग ने श्रोताओं का मन मोह लिया।

सबसे भिन्न है हॉकिंग का ब्रह्मांड सम्बन्धी सिद्धान्त

ब्रह्मांड की उत्पत्ति, उसका भविष्य यानी नियति, उसे संचालित करने वाले नियमों, ब्रह्मांड में पाए जाने वाले बलों तथा कई अन्य प्रश्नों को लेकर भौतिकीविद तथा खगोलविद काफी समय से ही गहन अनुसन्धान-अध्ययन कर रहे हैं।

ब्रह्मांड की गुत्थियों को सुलझाने में ब्रह्मांड विज्ञानियों की महती भूमिका होती है। दरअसल, ब्रह्मांड का आदि-अन्त विकास एवं उसकी संरचना के अध्ययन के लिये ही ब्रह्मांडिकी या ब्रह्मांड विज्ञान (कॉस्मोलॉजी) का जन्म हुआ।

पहले कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ब्रह्मांड को अपरिवर्तनशील या स्थिर माना गया था, यहाँ तक कि आइंस्टाइन भी शुरू में शाश्वत या स्थिर ब्रह्मांड की अवधारणा के ही कायल थे। ब्रह्मांड को समझाने वाले समीकरणों का गठन करने के लिये जब उन्होंने अपने आपेक्षिकता के सामान्य या व्यापक सिद्धान्त का इस्तेमाल किया तो उस समय स्थिर ब्रह्मांड की अवधारणा के साथ अपने सिद्धान्त की संगतता बनाए रखने के लिये उन्हें ब्रह्मांडिकीय स्थिरांक (कॉस्मोलॉजिकल कांस्टेंट) का प्रयोग करना पड़ा था। लेकिन बाद में उन्होंने इसे अपने जीवन की ‘सबसे बड़ी गलती’ माना था।

डब्ल्यू सिटर तथा एलेक्जेंडर फ्रीडमैन नामक वैज्ञानिकों ने आइंस्टाइन के समीकरणों के प्रयोग द्वारा ब्रह्मांड के एक ऐसे मॉडल की परिकल्पना की जिसमें ब्रह्मांड को स्थिर नहीं माना गया था। सन 1924 में फ्रीडमैन को सैद्धान्तिक रूप से यह प्रदर्शित करने में सफलता मिली कि किसी भी दिशा में देखने पर ब्रह्मांड एकसमान (यूनिफॉर्म) दिखाई देता है तथा वह स्थिर नहीं है।

ब्रह्मांड स्थिर नहीं है और इसका निरन्तर प्रसरण हो रहा है, इस बारे में सबसे पहले एडविन हबल ने ही सन 1929 में साक्ष्य प्रस्तुत किया था। कैलिफोर्निया स्थित माउंट विल्सन वेधशाला में कार्य करते हुए हबल ने अपने खगोलीय प्रेक्षणों द्वारा यह पाया कि कुछ निकटस्थ मन्दाकिनियों के वर्णक्रमों (स्पेक्ट्रम्स) की अवशोषण रेखाएँ स्पेक्ट्रम के लाल छोर की ओर खिसक रही हैं। इस परिघटना को अभिरक्त विस्थापन (रेड शिफ्ट) का नाम दिया जाता है। अपने प्रेक्षणों के आधार पर हबल ने यह निष्कर्ष निकाला कि मन्दाकिनियाँ बहुत तीव्र गति से एक-दूसरे से दूर भाग रही हैं तथा उनकी गति उनकी दूरी के अनुपात से ही बढ़ रही है। इस गति और दूरी के अनुपात को हबल नियतांक की संज्ञा दी जाती है एवं इस नियम को हबल का नियम कहते हैं।

अगर ब्रह्मांड का निरन्तर प्रसरण हो रहा है, जैसा कि हबल ने पाया था, तो आरम्भ में हमारा ब्रह्मांड कैसा था? खगोलविदों के अनुसार, आरम्भ में अकल्पनीय या अनन्त घनत्व एवं तापमान वाले एक छोटे-से बिन्दु में ही ब्रह्मांड का समस्त पदार्थ पूंजीभूत था। इस बिन्दु को उन्होंने विलक्षणता बिन्दु (प्वाइंट ऑफ (सिंग्यूलरिटी) का नाम दिया। भौतिकीविदों की ऐसी मान्यता है कि इस विलक्षणता के बिन्दु पर आकाश और काल की सत्ता समाप्त हो जाती है। इसलिये इस बिन्दु पर न केवल आपेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त, बल्कि भौतिकी के सभी नियम टूट जाते हैं क्योंकि इस कल्पनीय घनत्व तथा तापमान की स्थिति को भौतिकी का कोई भी नियम या सिद्धान्त समझा पाने में असमर्थ है।

खगोलविदों के अनुसार, इस विलक्षणता के बिन्दु से ही 13.7 अरब साल पहले महाविस्फोट यानी बिगबैंग के साथ ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी। इस सिद्धान्त को महाविस्फोट सिद्धान्त यानी बिगबैंग थीअरी कहते हैं।सन 1940 के दशक में प्रसिद्ध भौतिकीविद जॉर्ज गैमो ने अपना यह पूर्वानुमान प्रस्तुत किया कि महाविस्फोट से ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ ही अतितप्त विकिरण का भी उत्सर्जन हुआ होगा। गैमो के अनुसार, महाविस्फोट से निकला यह विकिरण अपने ठंडे स्वरूप में सूक्ष्मतरंग परिसर में ब्रह्मांड में ही बिखरा होना चाहिए।

गैमो का यह पूर्वानुमान सन 1965 में सत्य प्रमाणित हुआ जब अमेरिका की न्यूजर्सी स्थित बेल टेलीफोन लेबोरेटरीज से सम्बद्ध आर्नो पेंजियास तथा रॉबर्ट वुडरो विल्सन नामक दो भौतिकीविदों को अपशिष्ट रूप में बचे ब्रह्मांडीय सूक्ष्मतरंग विकिरण का पता लगाने में सफलता मिली। इस अपशिष्ट विकिरण को उन्होंने पूर्ण रूप से समदैशिक एवं समांगी पाया जिसका तापमान हर दिशा में 3.5 केल्विन था। यह एक अति महत्त्वपूर्ण खोज थी जिसके लिये पेंजियास और विल्सन को सन 1978 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

पेंजियास और विल्सन को सूक्ष्मतरंगों के रूप में समदैशिक विकिरण को खोजने में सफलता मिली थी। लेकिन उनकी इस खोज ने उन खगोलविदों को उलझन में डाल दिया, जिनका यह मानना था कि विशाल स्तर पर एकसमान प्रतीत होने के बावजूद ब्रह्मांड हर दिशा में एकसमान नहीं है; अतः विभिन्न दिशाओं में ने वाली सूक्ष्मतरंगों में तनिक भिन्नता होनी चाहिए।

सूक्ष्मतरंग विकिरण में असमानता या विषमदैशिकता (एनिसोट्रॉपी) का पता लगाने में सबसे पहले अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ के ब्रह्मांडीय पृष्ठभूमि अन्वेषक (कॉस्मिक बैकग्राउंड प्रोब) ‘कोबे’ नामक उपग्रह को सफलता मिली। इस उपग्रह को सन 1992 में सम्पूर्ण आकाश का एक रंगीन बिम्ब-चित्र लेकर सूक्ष्मतरंग विकिरण के तापमान में करीब 0.0002 केल्विन की असमानता का पता लगाने में सफलता मिली। यह अति महत्त्वपूर्ण जानकारी थी जिसे पाने के लिये एक अर्से से खगोलविद उत्सुक थे। ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये असमानताएँ ही ब्रह्मांड के ‘आद्यबीज’ हैं जिनसे बाद में मन्दाकिनियों तथा तारों आदि का जन्म हुआ।

महाविस्फोट सिद्धान्त के अलावा दोलायमान (ऑस्सिलेटरी) तथा स्थाई अवस्था सिद्धान्त (स्टेडी स्टेट थीअरी) का प्रतिपादन भी खगोलविदों ने किया। हर्मन बॉन्डी, टॉमस गोल्ड तथा फ्रेड हॉयल ने सन 1948 में स्थाई अवस्था सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, ब्रह्मांड का न तो महाविस्फोट के साथ आरम्भ हुआ था और न ही इसका कभी अंत होगा यानी इस विशाल ब्रह्मांड का न कोई आदि है और न कोई अंत। लेकिन इस सिद्धान्त को वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिल सकी।

सन 1993 में फ्रेड हॉयल, जैफरी बर्बिज तथा भारतीय खगोलविद जयंत विष्णु नार्लिकर ने ब्रह्मांड के स्थाईकल्प अवस्था (क्वासी-स्टेडी स्टेट) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जो पुराने स्थाई अवस्था सिद्धान्त का नया रूप था। इस सिद्धान्त में एक नए ‘सी फील्ड’ (यहाँ ‘सी’ का अर्थ क्रिएशन यानी सृजन से है) की परिकल्पना की गई। इस ‘सी फील्ड’ की ऊर्जा ऋणात्मक होती है। अति सघन एवं उच्च द्रव्यमान वाले पिंडों के आस-पास मौजूद प्रबल गुरुत्वीय बल इस ऊर्जा को और ऋणात्मक बना देता है जिससे पदार्थ का सृजन होता है। गौरतलब है कि पदार्थ सृजन की इस प्रक्रिया में ऋणात्मक ऊर्जा की बढ़ोत्तरी के साथ-साथ ऋणात्मक प्रतिबल की भी बढ़ोत्तरी होती है। नतीजतन, इस सृजन से दिक का भी स्थानीय विस्तारण होता है जिससे सृजित पदार्थ भारी वेग से छिटक कर बाहर की ओर पलायन करता है। इस तरह स्थानीय सूक्ष्म स्तर पर एक विस्फोट की उत्पत्ति होती है। स्थाईकल्प अवस्था सिद्धान्त के अनुसार, ब्रह्मांड में हो रहे इन छोटे-छोटे स्थानीय विस्फोटों से ही अन्ततः बड़े स्तर पर ब्रह्मांड का विस्तारण या प्रसरण होता है।

ब्रह्मांड के एक और सिद्धान्त जिसे महासम्पीडन सिद्धान्त कहते हैं, के अनुसार प्रसरणशील ब्रह्मांड फैलते-फैलते एक समय अपने अधिकतम आकार को प्राप्त कर लेगा और फिर संकुचित होना शुरू करेगा। संकुचित होते-होते ब्रह्मांड महासम्पीडन की अवस्था को जा पहुँचेगा जहाँ कुछ भी शेष नहीं बचेगा। यही ‘महाप्रलय’ की स्थिति होगी। इस प्रकार यह सिद्धान्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति से अधिक उसकी नियति यानी अन्तिम परिणति से ही सम्बन्धित है।

हॉकिंग को यह प्रदर्शित करने में सफलता मिली कि भौतिकीविदों के लिये परेशानी खड़ी करने वाले विलक्षणता के बिन्दु (प्वाइंट ऑफ सिंग्यूलरिटी) को दरकिनार रखते हुए ब्रह्मांड की उत्पत्ति सम्बन्धी समीकरणों का गठन किया जा सकता है। हॉकिंग के अनुसार, प्लांक लम्बाई (करीब 10-35 मीटर) से कम की दूरी की कोई सार्थकता नहीं है, जबकि सिंग्यूलरिटी के लिये दूरी का शून्य होना आवश्यक है। इस आधार पर सिंग्यूलरिटी से उपजी समस्या का समाधान हो जाता है। इस प्रकार हॉकिंग के ब्रह्मांड के सिद्धान्त में सिंग्यूलरिटी के लिये कोई स्थान नहीं है।

एलन गथ ने ब्रह्मांड के एक स्फीतिकारी (इंफ्लेशनरी) मॉडल की कल्पना की जिसके बारे में हमने अलग से चर्चा नहीं की। इस मॉडल को नकारते हुए हॉकिंग ने ब्रह्मांड के अव्यवस्थित स्फीतिकारी (केओटिक इंफ्लेशनरी) मॉडल को प्रस्तावित किया जिसका विचार सबसे पहले सन 1983 में रूसी वैज्ञानिक आंद्रे लिंदे ने सुझाया था।

रोजर पेनरोज के साथ कृष्ण विवर पर किए गए शोध कार्य द्वारा इस महत्त्वपूर्ण परिणाम को भी प्राप्त करने में हॉकिंग को सफलता मिली कि ब्रह्मांड के प्रसरण की प्रक्रिया पदार्थ के घनीभूत होकर कृष्ण विवर में रूपान्तरित होने की प्रक्रिया के एकदम विपरीत है।

अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ में हॉकिंग ने ब्रह्मांड के भविष्य की अपने निराले अन्दाज में व्याख्या की है। उनके अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व हुए महाविस्फोट से जन्मे ब्रह्मांड में आज भी पदार्थों या पिंडों का बिखरना जारी है। प्रसरणशील यह ब्रह्मांड एक सीमा तक फैलने के बाद अपने अधिकतम आकार तक पहुँच जाएगा और फिर संकुचित होते-होते अपने मूल आकार में जा पहुँचेगा। हॉकिंग के अनुसार, सीमाबद्ध विस्तार वाले इस ब्रह्मांड की न तो कोई परिसीमा है और न ही कोई किनारा। हॉकिंग के ब्रह्मांड के इस मॉडल को पृथ्वी के पृष्ठ तल जैसा मान सकते हैं जिसका न तो कोई आदि है और न कोई अन्त। लेकिन समय को ‘काल्पनिक’ मानकर ही ब्रह्मांड की यह अवधारणा सम्भव है क्योंकि काल्पनिक समय में किसी भी ‘सिंग्यूलरिटी’ का अस्तित्व नहीं होता। दरअसल, ये ‘सिंग्यूलरिटी’ या विलक्षणता के बिन्दु ही ब्रह्मांड की परिसीमा या किनारों के परिचायक होते हैं। लेकिन वास्तविक समय, जिसमें हम रहते हैं, में लौटने पर ब्रह्मांड की एकदम अलग ही अवधारणा हमारे सामने पेश आएगी, ऐसा हॉकिंग का कहना था।

प्रश्न उठता है कि ब्रह्मांड की संकुचन अवस्था उसकी प्रसरण अवस्था के क्या ठीक विपरीत समय-क्रम के अनुसार होगी? हॉकिंग के अनुसार संकुचन की अवस्था प्रसरण की अवस्था से एकदम भिन्न होती है तथा संकुचन की अवस्था में किसी भी ‘बुद्धिमान प्राणी’ यानी मानव का अस्तित्व नहीं हो सकता। यह इसलिये क्योंकि मानव अस्तित्व के लिये एक प्रबल ऊष्मागतिक काल के तीर (थर्मोडायनेमिक ऐरो ऑफ टाइम) की आवश्यकता होती है जिसका अस्तित्व केवल ब्रह्मांड के प्रसरण की अवस्था में ही पाया जा सकना सम्भव है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि हॉकिंग की ब्रह्मांड सम्बन्धी अवधारणाओं ने उनके वैवाहिक जीवन में हलचल मचा दी। ब्रह्मांड के काम-काज में ईश्वर या रचयिता की भूमिका को नकारने के कारण उनकी पहली पत्नी जेन के साथ उनका मतभेद शुरू हो गया। कैथोलिक जेन को अपने धर्म पर अगाध विश्वास था जबकि हॉकिंग ब्रह्मांड के काम-काज में ईश्वर से ज्यादा वैज्ञानिक नियमों को ही श्रेय देते थे। इससे दोनों के बीच तनाव बढ़ा जिनकी नियति अन्ततः उनके विवाह-विच्छेद में हुई।

अपनी मृत्यु से कुछ सप्ताह पहले हॉकिंग ने अपने ब्रह्मांड सम्बन्धी सिद्धान्त को संशोधित कर एक शोध पत्र लिखा था, जिसे उन्होंने एक अग्रणी जर्नल में प्रकाशन के लिये भेजा था। यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि अनुसन्धान के मामले में हॉकिंग एकदम खुले मस्तिष्क वाले थे।

हॉकिंग जैसे महान ब्रह्मांडविज्ञानी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया क्योंकि विकिरण का उत्सर्जन करने वाले ब्लैक होल के बारे में उनके जीवन काल में वैज्ञानिक साक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाया। लेकिन सच तो यह है कि हॉकिंग जैसे व्यक्तित्व इस धरती पर कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। हम सबका हॉकिंग को श्रद्धापूर्ण नमन।

बचपन और स्कूली शिक्षा

ऑक्सफोर्ड में 8 जनवरी 1942 को जन्मे स्टीफेन विलियम हॉकिंग अपने माता-पिता की चार सन्तानों में से प्रथम सन्तान थे। उनके माता-पिता वैज्ञानिकों एवं विद्वानों के आवास के लिये प्रसिद्ध लंदन के हाईगेट इलाके में रहते थे। लेकिन स्टीफेन को जन्म देने के लिये स्टीफेन की माता इसोबेल अपने पति फ्रैंक के साथ ऑक्सफोर्ड चली आई थीं। इसकी वजह हाईगेट का असुरक्षित होना था क्योंकि कभी भी वहाँ पर जर्मनी द्वारा बमबारी हो सकती थी। दरअसल उन दिनों दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। जर्मनी तथा ब्रिटेन के बीच हुए एक युद्ध समझौते के अनुसार यह तय हुआ था कि जर्मनी ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज पर बमबारी नहीं करेगा और बदले में ब्रिटेन हाइडेलबर्ग एवं गाटिंगेन को बमबारी से मुक्त रखेगा।

स्टीफेन के माता-पिता ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र रह चुके थे। उनके पिता फ्रैंक हॉकिंग के पितामह यार्कशायर के एक धनी किसान थे लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उनकी माली हालत काफी खस्ता हो गई थी। स्टीफेन की माता इसोबेल हॉकिंग (विवाह पूर्व वॉकर) अपने सात भाई-बहनों में दूसरे नम्बर पर थीं। उनके पिता यानी स्टीफेन के नाना ग्लासगो में चिकित्सक थे।

जब स्टीफेन की आयु मात्र दो सप्ताह थी तो उनके माता-पिता उन्हें लेकर हाईगेट के अपने मकान में लौट आए। लेकिन वहाँ जर्मन रॉकेटों के गिरने तथा बमबारी का खतरा बना रहता था। एक बार तो स्टीफेन और उनके माता-पिता बाल-बाल बचे। उनके पड़ोस के मकान पर वी-2 रॉकेट आ गिरा था। इससे अड़ोस-पड़ोस के काफी मकान क्षतिग्रस्त हो गए थे जिनमें उनका अपना मकान भी था। लेकिन गनीमत थी कि जिस समय वह रॉकेट गिरा हॉकिंग परिवार घर से बाहर कहीं गया हुआ था। उस समय स्टीफेन की उम्र मुश्किल से दो वर्ष थी। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर स्टीफेन के पिता फ्रैंक हॉकिंग को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल रिसर्च में परजीवीविज्ञान विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। हॉकिंग परिवार हाईगेट स्थित अपने मकान में सन 1950 तक रहा। फिर पूरा परिवार उत्तरी लंदन के उपनगर सेंट अल्बांस में 14, हिलसाइड रोड पर स्थित एक अपेक्षाकृत बड़े मकान में जा बसा। तब स्टीफेन आठ वर्ष के थे।

स्टीफेन जब दस वर्ष के हुए तो उनके पिता ने स्टीफेन को वेस्टमिंस्टर स्कूल में दाखिला दिलाने के लिये छात्रवृत्ति की परीक्षा में बिठाने का निर्णय लिया। वेस्टमिंस्टर स्कूल इंग्लैंड का एक बहुत ही प्रतिष्ठित स्कूल माना जाता है, जिसमें उस समय बड़ी-बड़ी हस्तियों, राजनीतिज्ञों एवं धनाढ्य परिवारों के बच्चों को ही दाखिला मिल पाता था। लेकिन कुछ गिने-चुने प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्ति-परीक्षा के माध्यम से लेने का प्रावधान भी इस स्कूल में था। हालांकि इस परीक्षा के लिये स्टीफेन ने अच्छी-खासी तैयारी की लेकिन ऐन परीक्षा के दिन बीमार पड़ जाने के कारण वह परीक्षा में ही नहीं बैठ पाए।

लेकिन फ्रैंक हॉकिंग निराश नहीं हुए। उन्होंने नए सिरे से कोशिश करनी शुरू की। आखिर उनकी यह कोशिश रंग लाई और वह स्टीफेन को सेंट अल्बांस स्कूल में दाखिला दिला पाने में कामयाब रहे। लेकिन इसके लिये स्टीफेन को स्कूल की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ी थी। 23 सितम्बर, 1952 के दिन नब्बे अन्य छात्रों के साथ स्टीफेन को सेंट अल्बांस स्कूल में प्रवेश मिल गया।

लेकिन बचपन में स्टीफेन कोई बहुत प्रतिभाशाली छात्र नहीं थे। वह बेतरतीबी से कपड़े पहनते जिन पर ढेरों सिलवटें पड़ी होतीं। उनकी लिखावट भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। ऊपर से बोलते वक्त भी उनकी जुबान में थोड़ी लड़खड़ाहट का पुट आ जाता। मगर स्कूल में दो वर्ष बिताने के बाद तीसरे वर्ष उनके अन्दर कुछ आत्मविश्वास जागा। तब स्टीफेन की गिनती सामान्य बुद्धि के बच्चों से कुछ अच्छे बच्चों में होने लगी। अपने साथ के सभी छात्रों के साथ भी तब स्टीफेन अच्छी तरह से घुल-मिल गए। अपने साथियों के साथ वह अनेक तरह के खेल-खेलते। कभी-कभी सभी छात्र साइकिल की लम्बी सवारी को भी निकल पड़ते। बोर्ड गेम्स उनका प्रिय खेल था जिसको अन्य छात्रों के साथ मिलकर स्टीफेन खेलते। लेकिन धीरे-धीरे ये सभी शौक उन्हें घिसे-पिटे लगने लगे। तब उनकी रुचि विमानों के मॉडल बनाने तथा इलेक्ट्रॉनिकी के प्रोजेक्ट बनाने की तरफ हो गई। एक बार जब स्टीफेन एक पुराने टेलीविजन सेट को एम्प्लीफायर में बदलने की कोशिश कर रहे थे तो उन्हें बिजली का 500 वोल्ट का जबर्दस्त झटका लगा था।

सेंट अल्बांस स्कूल में स्टीफेन ने कुल सात वर्ष पढ़ाई की। पाँच वर्षों की पढ़ाई के बाद वह ‘ओ-लेवल’ की परीक्षा में बैठे। ऑर्डिनरी या सामान्य स्तर की इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद ‘एडवांस्ड लेवल’ की परीक्षा में बैठने के लिये स्टीफेन ने दो वर्ष और पढ़ाई की। इस परीक्षा के लिये स्टीफेन ने गणित, भौतिकी एवं रसायन विज्ञान विषयों को ही चुना। जब स्टीफेन की स्कूली पढ़ाई पूरी हुई तब उनकी उम्र सत्रह वर्ष थी। स्कूल के लगभग आखिरी दौर में स्टीफेन ने कुछ छात्रों के साथ मिलकर ‘ल्यूस’ लॉजिकल यूनिसिलेक्टर कम्प्यूटिंग इंजन) नामक एक कम्प्यूटर भी बनाया था। खैर, यह उनकी प्रतिभा का महज एक छोटा-मोटा नमूना ही था। -प्र.कु.मु.

स्नातक की शिक्षा, शोध, करियर, लेखन, सम्मान, पुरस्कार…

सन 1959 में सत्रह वर्ष की आयु में सेंट अल्बांस स्कूल से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के उपरान्त छात्रवृत्ति परीक्षा पास करके स्टीफेन हॉकिंग ने यूनिवर्सिटी कॉलेज, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। हॉकिंग की रुचि गणित में थी लेकिन पिता फ्रैंक हॉकिंग की इच्छा थी कि जीव विज्ञान से सम्बन्धित विषयों को लेकर ही स्टीफेन अपनी स्नातक की पढ़ाई करे ताकि आगे चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने का मार्ग प्रशस्त हो सके। अब चूँकि यूनिवर्सिटी कॉलेज में गणित का विषय नहीं था, उन्हें भौतिकी को ही अपने अध्ययन के विषय के रूप में चुनना पड़ा।

तीन वर्षों तक पढ़ाई करके प्रथम श्रेणी प्राप्त कर स्टीफेन हॉकिंग ने यूनिवर्सिटी कॉलेज, ऑक्सफोर्ड से प्रकृति विज्ञान यानी नैचुरल साइंस में बी.ए. (ऑनर्स) की उपाधि ली। उसके बाद अक्टूबर, 1962 में ब्रह्मांडिकी (कॉस्मोलॉजी) में शोध कार्य करने के लिये स्टीफेन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के अनुप्रयुक्त गणित एवं सैद्धान्तिक भौतिकी विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ एप्लाइड मैथेमेटिक्स एंड थ्योरीटिकल फिजिक्स-डीएएमटीपी) के साथ जुड़े। हालांकि फ्रेड हॉयल के अधीन ही शोध कार्य करने की स्टीफेन हॉकिंग की इच्छा थी, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। डेनिश शियामा नामक भौतिकीविद, जो इतने मशहूर नहीं थे, की देख-रेख में ही उन्हें अपना शोध कार्य करना पड़ा। बाद में स्टीफन को एहसास हुआ कि जो कुछ हुआ वह उनके भले के लिये ही था क्योंकि फ्रेड हॉयल (जिनके अधीन उन दिनों प्रसिद्ध भारतीय खगोलविद जयंत विष्णु नार्लिकर भी शोध कार्य कर रहे थे) एक अति व्यस्त वैज्ञानिक थे तथा अपने शोध कार्यों को अमूमन कम ही वक्त दे पाते थे।

स्टीफेन को सन 1966 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. की उपाधि मिली। उनके शोध प्रबन्ध यानी थीसिस का शीर्षक था- प्रॉपर्टीज ऑफ एन एक्सपेंडिंग यूनिवर्स। सन 1966 में स्टीफेन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के गोनविले एंड कीज कॉलेज में रिसर्च फेलो और फिर सन 1969 में फेलो फॉर डिस्टिंक्शन इन साइंस बने। सन 1968 में स्टीफेन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोनॉमी चले गए और सन 1973 में वह अनुप्रयुक्त गणित एवं सैद्धान्तिक भौतिकी विभाग (डीएएमटीपी) में वापस लौटे। इस विभाग में स्टीफेन को सन 1973 में गुरुत्वीय भौतिकी का रीडर नियुक्त किया गया। सन 1977 में इसी विभाग में उन्हें गुरुत्वीय भौतिकी का प्रोफेसर बनाया गया तथा सन 1979 में 37 वर्ष की आयु में स्टीफेन को इसी विभाग में ही गणित का लुकासियन प्रोफेसर बनाया गया। यह एक अति सम्मानजनक पद था जिसे सन 1669 में सर आइजेक न्यूटन सुशोभित कर चुके थे। इस पद पर नियुक्ति के पाँच वर्ष पहले यानी सन 1974 में स्टीफेन को इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी के फेलो के रूप में चुना गया था। सन 2009 में स्टीफेन ने लुकासियन प्रोफेसर का पद त्याग दिया और डीएएमटीपी में ही सेंटर फॉर थ्योरीटिकल कॉस्मोलॉजी के अनुसन्धान निदेशक बने। इस पद पर वह मृत्यु पर्यन्त रहे।

स्टीफेन को अनेक पुरस्कारों से भी नवाजा गया। उन्हें कई विश्वविद्यालयों की तरफ से एक दर्जन से अधिक मानद उपाधियाँ प्रदान की गई थीं। सन 1975 तथा 1976 केवल इन दो वर्षों में ही उन्हें छः बड़े प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। इनमें से पहला पुरस्कार लंदन स्थित रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी द्वारा प्रदत्त एडिंगटन मेडल तथा दूसरा वेटिकन स्थित ‘पांटिफिकल एकेडमी ऑफ साइंसेज’ द्वारा प्रदान किया जाने वाला पिअस XI मेडल था। सन 1976 में उन्हें अमेरिका के हॉपकिंस तथा डेनी हाइनमैन पुरस्कारों तथा रॉयल सोसाइटी की तरफ से ह्यूग्स मेडल भी प्रदान किया गया था।

सन 1988 में रोजर पेनरोज के साथ संयुक्त रूप से उन्हें इजराइल द्वारा प्रदत्त किया गया भौतिकी का वुल्फ फाउंडेशन पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। सन 2006 में उन्हें कोपले मेडल तथा सन 2009 में प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम प्रदान किया गया। सन 2013 में फंडामेंटल फिजिक्स पुरस्कार से उन्हें नवाजा गया।

रानी एलिजाबेथ द्वितीय की तरफ से सन 1982 में उन्हें कमांडर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर (सीबीई) तथा सन 1989 में कम्पेनियन ऑफ ऑनर (सीएच) का विशेष खिताब भी प्रदान किया गया था। इनके अलावा कई और राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय सम्मानों, पदकों से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है, जिनकी सूची सचमुच बहुत लम्बी है। लेकिन अपने नाम के साथ स्टीफेन हॉकिंग केवल तीन खिताबों या सम्मानों का ही प्रयोग करना पसन्द करते थे। जो क्रमशः कम्पेनियन ऑफ ऑनर (सीएच), कमांडर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर (सीबीई) तथा फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी (एफआरएस) थे।

लेखन के क्षेत्र में स्टीफेन हॉकिंग ने कृष्ण विवर यानी ब्लैक होल पर शोध पत्रों के अलावा कई पुस्तकें भी लिखी हैं। उनकी बहुचर्चित पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ सन 1988 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक की अब तक लगभग ढाई करोड़ से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं तथा हिंदी समेत विश्व की लगभग चालीस भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। जार्ज फ्रांसिस रेनर एलिस के साथ संयुक्त रूप से लिखी स्टीफेन की एक और पुस्तक ‘द लार्ज स्केल स्ट्रक्चर ऑफ स्पेस-टाइम’ सन 1973 में प्रकाशित हुई थी। इसके कुछ दिनों बाद स्टीफेन की एक और पुस्तक ‘सुपरस्पेस एंड सुपरग्रेविटी’ नाम से प्रकाशित हुई। सन 1979 में स्टीफेन ने वर्नेर इजराइल के साथ मिलकर ‘जनरल रिलेटिविटी: एन आइंस्टाइन सेंटीनरी सर्वे’ नामक पुस्तक का सह-सम्पादन भी किया था। आइंस्टाइन के सौंवे जन्म दिवस के उपलक्ष्य में उनके द्वारा लिखे सोलह लेखों को इस पुस्तक में शामिल किया गया था। वर्नेर इजराइल के साथ संयुक्त रूप से उन्होंने ‘थ्री हंड्रेड ईयर्स ऑफ ग्रेविटेशन’ का सम्पादन भी किया था। सन 1993 में प्रकाशित ‘ब्लैक होल्स एंड बेबी यूनीवर्स एंड अदर एसेज’ शीर्षक पुस्तक के भी हॉकिंग लेखक हैं। ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर करती ‘द यूनीवर्स इन ए नटशैल’ शीर्षक पुस्तक तथा ‘द ग्रैंड डिजाइन’ एवं ‘माई ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ लाइफ’ शीर्षक पुस्तकों के भी हॉकिंग लेखक हैं। -प्र.कु.मु.

स्टीफेन की व्याधि और उनके संघर्ष का जीवटभरा सफर

स्टीफेन हॉकिंग की विकलांगता को देखकर आश्चर्यचकित होकर बहुत-से लोग यह प्रश्न पूछते थे कि क्या वह शुरू से ही ऐसे थे? दरअसल, शुरू में हॉकिंग पूरी तरह से भले-चंगे थे। जब वह सेंट अल्बांस स्कूल में पढ़ते थे तो अन्य सामान्य छात्रों की तरह खेल-कूद में उनकी भी रुचि थी। अपनी दुबली-पतली काया के कारण वह फर्राटे से दौड़ सकते थे। तभी ‘क्रॉस कंट्री’ दौड़ में उनकी विशेष रुचि रहती थी। दौड़ के अलावा क्रिकेट तथा रग्बी (एक किस्म का फुटबॉल) खेलना भी उन्हें पसन्द था। स्कूल में सैनिक शिक्षा पर भी विशेष बल था। हर शुक्रवार के दिन सभी छात्रों को सैनिक पोशाक में स्कूल आना पड़ता। कैडेटों की इस शाखा को ‘कम्बाइंड कैडेट फोर्स’ (सीसीएफ) कहा जाता था। हॉकिंग न केवल सीसीएफ की परेडों में भाग लेते बल्कि उन्हें ‘लांस कार्पोरल’ का खिताब भी मिला हुआ था।

सत्रह वर्ष की उम्र में जब स्टीफेन ने यूनिवर्सिटी कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में स्नातक कक्षा में प्रवेश लिया तो विश्वविद्यालय के नौका चालन क्लब की भी उन्होंने सदस्यता ग्रहण की। वैसे भी ऑक्सफोर्ड तथा कैम्ब्रिज दोनों ही विश्वविद्यालयों में नौका चालन की बड़ी पुरानी परम्परा थी। हर वर्ष दोनों विश्वविद्यालयों की टीमों के बीच जोर-शोर से नौका चालन की प्रतियोगिता आयोजित कि जाती थी।

स्टीफेन को नौका चालन का प्रशिक्षण देने वाले प्रशिक्षक का नाम नॉर्मन डिस्क था। नौका चालन के मामले में हॉकिंग एकदम निडर थे, तभी उन्हें टीम में एक विशेष दर्जा दिया गया था जिसे ‘कॉक्स’ कहा जाता था। कॉक्स का काम टीम के अन्य सदस्यों को जोश दिलाकर तथा उन्हें सही निर्देश देकर नौका का अच्छे ढंग से संचालन करना होता था। इस काम में हॉकिंग काफी माहिर थे।

इस तरह खेलों, सैनिक शिक्षा तथा नौका चालन आदि में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले स्टीफेन करीब बीस-इक्कीस वर्ष की उम्र तक शारीरिक रूप से एकदम सामान्य ही थे। अक्टूबर, 1962 में ब्रह्मांडिकी (कॉस्मोलॉजी) में अनुसन्धान करने के लिये स्टीफेन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। उसी वर्ष जब क्रिसमस की छुट्टियों में हॉकिंग घर लौटे तो उनके माता-पिता को समझते देर न लगी कि हॉकिंग के साथ कुछ गड़बड़ जरूर है। 31 दिसम्बर, 1962 की रात को 14, हिलसाइड रोड पर स्थित उनके आवास पर नववर्ष के स्वागत के उपलक्ष्य में एक पार्टी का आयोजन किया गया था। इस पार्टी में परिवार के कुछ खास शुभचिन्तकों एवं मित्रों को आमंत्रित किया गया था। जेन वाइल्ड, जो बाद (सन 1965) में स्टीफेन की पत्नी बनीं, भी इस पार्टी में आमंत्रित थीं।

मेहमानों की खातिर के लिये स्टीफेन जब गिलासों में ‘शेरी’ (एक खास किस्म की शराब) उड़ेलने लगते तो गिलास में न गिरकर अधिकांश पेय मेज पर बिछे मेजपोश पर ही गिरने लगता। स्टीफेन के इस अजीबोगरीब व्यवहार को देखकर मेहमान ताड़ गए कि हो न हो स्टीफेन के साथ कोई समस्या जरूर है। वैसे यह पहली बार नहीं था कि स्टीफेन के साथ यह सब हो रहा था। ऑक्सफोर्ड में स्नातक की पढ़ाई के दौरान भी कुछ शारीरिक परेशानियों से उनका वास्ता पड़ने लगा था। कई दफा अपने जूतों के लेस बाँधने में उन्हें दिक्कत होती तथा कभी-कभी वह चीजों के साथ टकराकर गिर भी पड़ते। उनकी आवाज में भी कभी-कभी बिन पिए ही शराबियों जैसी लड़खड़ाहट पैदा हो जाती थी।

खैर, उस पार्टी में स्टीफेन के क्रिया-कलापों को देखकर उनके पिता फ्रैंक हॉकिंग, जो खुद भी एक चिकित्सक थे, को यह समझते देर न लगी कि जरूर ही उनका बेटा किसी अज्ञात बीमारी का शिकार हो चला है।

क्रिसमस की छुट्टियाँ खत्म होने के बाद स्टीफेन कैम्ब्रिज लौटे लेकिन विश्वविद्यालय न जाकर वहाँ के एक अस्पताल में गहन डॉक्टरी जाँच के लिये उन्हें जाना पड़ा। इन परीक्षणों द्वारा यह पता चला कि वह एक असाध्य रोग ‘एमिओट्रोफिक लेटरल स्कलेरोसिस’ (एएलएस) से पीड़ित थे। किसी-किसी को ही बदकिस्मती से होने वाली इस व्याधि को ब्रिटेन में ‘प्रेरक तंत्रिकोशिका रोग’ (मोटर न्यरोन डिजीज) तथा अमेरिका में ‘लाउ गेहरिग्स डिजीज’ के नाम से जाना जाता है। लाउ गेहरिग्स नामक एक अमेरिकी बेसबॉल खिलाड़ी की मृत्यु हो जाने के बाद से ही इस बीमारी को वहाँ यह नाम दिया गया।

यह व्याधि मेरुरज्जु (स्पाइनल कॉर्ड) की तंत्रिकाओं तथा मस्तिष्क के कुछ हिस्सों, जो ऐच्छिक प्रेरक क्रियाओं (वालंटरी मोटर फंक्शन) के लिये जिम्मेदार होती हैं, को प्रभावित कर देती हैं। नतीजतन, शरीर की कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त होने लगती हैं जिससे शरीर की मांसपेशियाँ धीरे-धीरे कमजोर पड़कर अन्ततः जवाब दे देती हैं। लेकिन मस्तिष्क के वे हिस्से, जो चिन्तन-मनन तथा याद्दाश्त आदि से जुड़े होते हैं, इस बीमारी द्वारा अप्रभावित रहते हैं। मरीज की इंद्रियानुभूतियाँ तथा शरीर की अन्य नैसर्गिक क्रियाएँ भी ठीक-ठाक काम करती रहती हैं। अतः इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति का मस्तिष्क तो चुस्त एवं सक्रिय रहता है, उसकी नैसर्गिक क्रियाएँ आदि भी स्वाभाविक रूप से चलती रहती हैं लेकिन ऐसा मरीज चलने-फिरने एवं हाथ-पाँव हिलाने में बिल्कुल लाचार हो जाता है।

स्टीफेन हॉकिंग को जब अपनी बीमारी का पता चला तो वह टूट से गए। उनको गहरा सदमा पहुँचा। बदहवास होकर अपने आप को उन्होंने एक कमरे में बन्द कर लिया और वैगनर के ओपरा को जोर-जोर से सुनने लगे। उस संगीत में अपने आप को डुबोकर ही वह अपना गम भुलाने की कोशिश करने लगे।

कुछ लेखक ऐसा लिखते हैं कि एएलएस यानी मोटर न्यूरोन व्याधि से पीड़ित होने के बाद से ही स्टीफेन की जिन्दगी ह्वीलचेयर के हवाले हो गई। लेकिन यह एक भ्रामक कथन है। दरअसल बीमारी शुरू होने के बाद करीब चार-पाँच साल तक हॉकिंग छड़ियों (स्टिक्स) की मदद से चलते थे। बाद में उन्हें बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा। कुछ वर्षों पश्चात उन्हें इलेक्ट्रिक ह्वीलचेयर की मदद लेनी पड़ी।

सन 1985 में स्टीफेन ने जेनेवा स्थित यूरोपीय नाभिकीय अनुसन्धान केन्द्र (सर्न) में कुछ समय शोध अध्ययन में बिताने का फैसला किया। यहाँ अचानक उन्हें एक दिन निमोनिया का जबरदस्त दौरा पड़ा। वैसे भी मोटर न्यूरोन व्याधि से पीड़ित व्यक्तियों के लिये निमोनिया का दौरा घातक सिद्ध हो सकता है। उनकी जान तो बच गई लेकिन उनकी श्वास नलिका का ऑपरेशन (इसे ट्रेकियोस्ट्रॉमी ऑपरेशन कहा जाता है) करना पड़ा।

इस ऑपरेशन से स्टीफेन की वाक्-शक्ति सदा के लिये छिन गई (हालांकि इससे पहले भी वह बहुत अस्पष्ट रूप से ही कुछ बोल पाते थे)। इसके बाद से तो चौबीसों घंटे उनकी देखभाल के लिये नर्स की आवश्यकता पैदा हो गई। लेकिन इसके लिये अत्यधिक धन की आवश्यकता थी। आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिये उनकी पत्नी जेन ने बहुत-सी संस्थानों को लिखा। अन्ततः एक अमेरिकी संस्थान ने सालाना 50,000 पाउंड की धनराशि देनी मंजूर की जिससे उनकी देखभाल और तीमारदारी आदि में लगने वाला खर्च उठाया जा सके।

आर्थिक सहायता का यह प्रस्ताव जिस महीने स्टीफेन के पास आया उसी महीने कैलिफोर्निया के एक कम्प्यूटर विशेषज्ञ वाल्ट वोल्टोज ने ‘इक्वलाइजर’ नामक एक कम्प्यूटर प्रोग्राम उनके पास भिजवाया। इस प्रोग्राम के इस्तेमाल द्वारा हाथ में पकड़े एक स्विच पर अपनी अंगुलियों का दबाव डालकर 3,000 शब्दों के भण्डार में से इच्छित शब्द को कम्प्यूटर के स्क्रीन पर चुन पाना उनके लिये सम्भव हो पाया। इस तरह शब्दों के वांछित चयन द्वारा जब एक वाक्य तैयार हो जाता तो उसे आवाज में परिवर्तित करने के लिये स्टीफेन उसे एक ‘स्पीच सिंथेसाइजर’ नामक युक्ति में भिजवा देते। इस प्रक्रिया द्वारा ही हॉकिंग अपनी बातचीत का काम निबटाते थे। स्टीफेन की बातचीत करने की रफ्तार 10-15 शब्द प्रति मिनट थी।

कैम्ब्रिज के एक कम्प्यूटर इंजीनियर डेविड मैसन ने बाद में एक छोटे कम्प्यूटर को ‘स्पीच सिंथेसाइजर’ के साथ हॉकिंग की पहिए वाली कुर्सी के साथ जोड़ दिया। सन 1986 में हुए इस इन्तजाम के बाद हॉकिंग के लिये देश-विदेश घूमकर व्याख्यान आदि, दे पाना सम्भव हो पाया। -प्र.कृ.मु.

और जाते-जाते अपने ‘नो-बाउंडरी’ सिद्धान्त में संशोधन सुझा गए हॉकिंग

अपने निधन से कुछ हफ्तों पूर्व हॉकिंग ने एक शोध पत्र, जिसे उनका अन्तिम शोध पत्र कह सकते हैं, को एक अग्रणी जर्नल में प्रकाशन के लिये भेजा था जिसकी शीर्षक है ‘ए स्मूथ एक्स्टि फ्रॉम इंफ्लेशन’। इस शोध पत्र में उन्होंने बहु-ब्रह्मांडों यानी ‘मल्टीवर्स’ (मल्टी यूनिवर्स का संक्षिप्तीकरण) के अस्तित्व की परिकल्पना की। सन 1983 में जेम्स हार्टल के साथ मिलकर हॉकिंग ने एक ऐसे ब्रह्मांड की परिकल्पना की थी जिसकी कोई परिसीमा नहीं है तथा जिसका न कोई आदि है और न कोई अन्त। इस ‘नो-बाउंडरी’ सिद्धान्त के अनुसार, एक-छोटे से बिन्दु में हुए महाविस्फोट (बिगबैंग) से यह ब्रह्मांड अस्तित्व में आया। फिर स्फीर्ति (इंफ्लेशन) आई। इंफ्लेशन की प्रक्रिया से उस आद्य बिन्दु से प्रसारित होता हुआ ब्रह्मांड उस आदि प्रारूप ब्रह्मांड के रूप में आया, जिसे आज हम देखते हैं।

इस ‘नो-बाउंडरी’ सिद्धान्त को लेकर हॉकिंग के सामने समस्या यह थी कि महाविस्फोट (बिगबैंग) के साथ असंख्य ऐसे अन्य विस्फोट भी हुए। हॉकिंग के अनुसार, इनमें से हर विस्फोट से एक भिन्न ब्रह्मांड का उद्भव हुआ होगा। यह एक प्रकार का गणितीय विरोधाभास था जो उनके ‘नो-बाउंडरी’ सिद्धान्त की प्रायोगिक जाँच के आड़े आ रहा था।

मृत्यु पूर्व जर्नल को प्रेषित अपने शोध पत्र में हॉकिंग ने अपनी पूर्व मान्यता को संशोधित करते हुए यह पूर्वानुमान प्रस्तुत किया कि अन्ततः यह ब्रह्मांड घोर अन्धकार में डूब जाएगा जब समस्त तारों की ऊर्जा चुक जाएगी; और इस प्रकार इस ब्रह्मांड का अन्त होगा। -प्र.कु.मु.

लेखक परिचय

डॉ. प्रदीप कुमार मुखर्जी
(भूतपूर्व एसोसिएट प्रोफेसर, भौतिकी, देशबंधु कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय), 43, देशबंधु सोसाइटी, 15, पटपड़गंज, दिल्ली-110092
ई-मेल: pkm_du@rediffmail.com
 

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