सुना क्या गिद्ध का मृत्यु गान

20 Nov 2014
0 mins read
गिद्ध के गायब होने से हम कई तरह से प्रभावित हुए हैं और होंगे। ये प्रकृति के अत्यंत कुशल सफाईकर्मी थे। इनके अभाव और अनुपस्थिति में गावों में पशुओं के शव सड़ते रहते हैं और गिद्धों की जगह वहां जंगली कुत्तों और चूहों ने लेने की कोशिश की है। पर गिद्ध की शारीरिक संरचना ऐसी थी कि मृत शरीर के पैथोजन्स (विषाणु) उससे और आगे नहीं बढ़ पाते थे। गिद्ध की देह उन विषाणुओं का अंतिम कब्रगाह बन जाती थी। कुत्तों और चूहों के मामले में ऐसा नहीं।हंस के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी मृत्यु से ठीक पहले गीत गाता है। मौत के स्वागत में या जीवन को अलविदा कहने के लिए, कहना मुश्किल है। हमारा सदियों पुराना साथी गिद्ध भी अपना हंस गान गा चुका है और अब इस धरती को करीब-करीब छोड़ चुका है। जाहिर है, अपनी रोजमर्रा की जद्दोजहद में फंसे हम शायद ही इस बात को कोई अहमियत दें। इसकी एक वजह है कि हमें उनके जाने के पीछे छिपे कारणों का पता नहीं, और इस त्रासदी में अपने योगदान से भी हम अच्छी तरह परिचित नहीं।

विरह में तड़पते राम को सीता की खबर देने वाला जटायु गिद्ध ही था। जटायु और सम्पाति की कहानी दो भाइयों के बीच के गहरे स्नेह की कहानी है। लड़कपन में दोनों में होड़ लगती कि ज्यादा ऊपर कौन उड़ सकता है। एक दिन जोश में जटायु इतनी ऊपर उड़ा कि सूरज के पास जा पहुंचा। उसके पंख झुलसने लगे। भाई को बचाने के लिए सम्पाति ने अपने पंख फैलाए और जटायु को बचा लिया। सूरज की धमक में सम्पाति अपने डैने गंवा बैठा पर जटायु बच गया। जटायु ने राम को उस दिशा के बारे में बताया जिस ओर रावण सीता को ले उड़ा था, पर ज्यादा कुछ बताने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गयी। जटायु के निर्देश पर जब हनुमान, जामवंत और अंगद चले, तो दक्षिण दिशा में चलते-चलते बेसुध हो गए और तभी सम्पाति ने उनको देखा और उनमें से किसी के मुंह से उसने जटायु का नाम सुन लिया। उसने फिर विस्तार से यह बताया कि वास्तव में सीता को किस दिशा में ले जाया गया है। गिद्ध नहीं होते तो रामायण की कथा में काफी कुछ बदलाव आता।

सिर्फ 15 वर्ष पहले भारतीय उप महाद्वीप पर करोड़ों की संख्या में गिद्ध थे। हो सकता है अब जल्दी ही वे इस धरती से पूरी तरह गायब ही हो जाएं। भारत, पाकिस्तान और नेपाल की दो प्रजातियों के गिद्धों की तादाद 97 फीसदी कम हो गयी है। तीसरी प्रजाति 99.9 प्रतिशत कम हुई है। ये तीन प्रजातियां हैं- ओरिएंटल वाइट बैक्ड वल्चर, द स्लेंडर बिल्ड वल्चर और द लॉन्ग बिल्ड वल्चर। एक की पीठ सफेद होती थी, एक पतली चोंच वाला और एक की चोंच लम्बी हुआ करती थी।

गिद्ध के विलुप्त होने का प्रमुख कारण बताया जा रहा है डाइक्लोफेनेक नाम की दर्द निवारक दवा। 1990 के दशक में इसे पशुओं के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा, खास कर मवेशियों के लिए। उन्हें ज्वर, दर्द और जोड़ों में सूजन के लिए यह दवा दी जाने लगी। जिन पशुओं को मृत्यु से पहले यह दी जाती थी, उनके उतकों में इसके अंश रह जाते थे। इन पशुओं को अपना आहार बनाकर गिद्धों ने अनजाने में अपनी मौत को न्यौता दिया। घर की छत पर लेट कर गिद्धों को देखना याद है बचपन में। सबसे अधिक ऊंचाई पर एक गोल घेरे में उड़ते दिखते थे। बाकी पक्षी उनसे नीचे होते थे। पक्षीराज होने की वजह से शायद उनका स्थान सबसे ऊपर हुआ करता था। बनारस में गंगा के उस पार, रेतीली जमीन पर गिद्धों को बिलकुल करीब से देखा जा सकता था। 1996 के आस-पास मैंने कुछ गिद्धों को पेड़ की शाखाओं से मृत लटका हुआ देखा था। उस समय खबर नहीं थी कि उनके खात्मे की शुरुआत हो चुकी थी। कुदरत के सफाईकर्मी थे ये। शवभोजी होने की वजह से लोग उन्हें घिनौना भी मानते थे, पर आप गौर से उनकी तस्वीर देखिए, उनके मजबूत पंख जो उन्हें बादलों के पार ले जाते थे, नुकीले पंजे और तीखी चोंचक, अद्भुत दृढ़ता और एक अलग तरह के सौंदर्य वाले होते थे ये विराट पक्षी!

गिद्ध के विलुप्त होने का प्रमुख कारण बताया जा रहा है डाइक्लोफेनेक नाम की दर्द निवारक दवा। 1990 के दशक में इसे पशुओं के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा, खास कर मवेशियों के लिए। उन्हें ज्वर, दर्द और जोड़ों में सूजन के लिए यह दवा दी जाने लगी। जिन पशुओं को मृत्यु से पहले यह दी जाती थी, उनके उतकों में इसके अंश रह जाते थे। इन पशुओं को अपना आहार बनाकर गिद्धों ने अनजाने में अपनी मौत को न्यौता दिया। इस दवा पर प्रतिबंध है, पर जैसा कि और भी कई मामलों में देखा गया है, कई कंपनियां इसे बनाती व बेचती हैं, और दुकानों पर यह आसानी से मिल जाती है।

पर्यावरण को साफ और रोग मुक्त रखने में गिद्धों की अद्भुत भूमिका रही है। गिद्धों का एक झुण्ड एक भैंस के शव को मुश्किल से दो मिनट में पूरी तरह साफ कर देता था। गिद्ध के गायब होने से हम कई तरह से प्रभावित हुए हैं और होंगे। ये प्रकृति के अत्यंत कुशल सफाईकर्मी थे। इनके अभाव और अनुपस्थिति में गावों में पशुओं के शव सड़ते रहते हैं और गिद्धों की जगह वहां जंगली कुत्तों और चूहों ने लेने की कोशिश की है। पर गिद्ध की शारीरिक संरचना ऐसी थी कि मृत शरीर के पैथोजन्स (विषाणु) उससे और आगे नहीं बढ़ पाते थे। गिद्ध की देह उन विषाणुओं का अंतिम कब्रगाह बन जाती थी। कुत्तों और चूहों के मामले में ऐसा नहीं। इनसे होकर रोगग्रस्त मृत देह के जहरीले तत्व फिर से बाकी लोगों तक पहुंच जाते हैं।

देश में करीब दो करोड़ जंगली कुत्ते हैं। जहां कुत्ते हैं, वहां आस-पास के जंगलों से तेंदुए भी इनके शिकार के लिए आ धमकते हैं और जब तेंदुए बस्तियों में जाते हैं तो वहां मवेशियों और छोटे बच्चों के लिए भी खतरा बनते हैं। पारसी समुदाय के लिए गिद्धों का न होना एक बड़ी समस्या है। उनका रिवाज़ है कि वे मृत देह बाहर रख दिया करते थे और गिद्ध उसे खा जाया करते थे। उनके यहां शव दाह वर्जित है तो उन्हें अब दूसरे विकल्प तलाशने पड़ रहे हैं।

पर्यावरण को साफ और रोग मुक्त रखने में गिद्धों की अद्भुत भूमिका रही है। गिद्धों का एक झुण्ड एक भैंस के शव को मुश्किल से दो मिनट में पूरी तरह साफ कर देता था। गिद्धों की आबादी बढ़ाने की कोशिशें हुई हैं, पर उनमें प्रजनन की प्रक्रिया धीमी है और वे दीर्घजीवी होते हैं। एक गिद्ध प्रजनन योग्य होता है करीब पांच वर्ष की उम्र में। जिस गति से वे खत्म हुए हैं, उसकी तुलना में यह बहुत कम है और उनके जन्म लेने और गायब होने की प्रक्रिया के बीच संतुलन बैठाना मुश्किल काम है।

बुद्ध की शिक्षाओं में एक शब्द आता है अंतर्संबंध। इसका अर्थ यही है कि कोई वस्तु अपने अस्तित्व के लिए किसी और वस्तु पर निर्भर करती है। लंदन में एक वैज्ञानिक पत्रिका इकोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप में पिछले तीन दशकों में 42 करोड़ पक्षी कम हुए हैं। बदलते हुए वातावरण में उन्हें अपना जीवन चलाने में दिक्कतें आ रही हैं। यह शोध रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स ने 25 देशों में 144 प्रजातियों पर किया है। बुद्ध की शिक्षाओं में एक शब्द आता है अंतर्संबंध। इसका अर्थ यही है कि कोई वस्तु अपने अस्तित्व के लिए किसी और वस्तु पर निर्भर करती है।

समूची सृष्टि में इंसानों, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के आपसी गहरे संबंध हैं। ऐसे में किसी भी जीव, पेड़-पौधे का विलुप्त होना यही बताता है कि हमारे अंतर्संबंध में कोई असंतुलन आ गया है। जीवन संबंधों की एक गति है। संबंधों से होकर हमारे जीवन की गति तय होती है। पिछले सौ वर्षों में इंसान और प्रकृति का संबंध बहुत अधिक उपयोगितावादी, यूटिलिटरियन हुआ है। हमें प्रकृति का उपयोग करने की आदत पड़ गई है, पर उसके प्रति संवेदनशीलता कम हुई है।

शिक्षा का यह खास एजेंडा होना चाहिए कि वह बच्चों में प्रकृति के प्रति प्रेम, उसके महत्व के बारे में समझ पैदा करे। जितनी कुदरत घटेगी, हम भी घटेंगे क्योंकि आखिरकार हम भी उसी कुदरत का हिस्सा हैं, जिसकी अलग-अलग अभिव्यक्तियां हम पेड़-पौधों, परिंदों, नदी, तालाबों, पर्वतों समुद्रों में देखते हैं। दुर्भाग्य है कि इन परिंदों के हंस गान में छिपे अपनी समाप्ति के सूक्ष्म संदेश को हम नहीं सुन पाते।

लेखक का ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading