सुरक्षित क्या है

6 Sep 2015
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1. वर्तमान में, भारत में आर्सेनिक की निर्धारित सीमा क्या निश्चित हुई है?
Untitledसितम्बर 2003 में भारतीय मानक ब्यूरो ने पीने के पानी में आर्सेनिक की सुरक्षित मात्रा 10 पीपीबी निर्धारित की थी। यह सुरक्षा सीमा विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा अमरीकी पर्यावरण सुरक्षा एजेन्सी (ईपीए) द्वारा सुझाए मानकों से मेल खाती है।

2. क्या यह 10 पीपीबी का मानक ठोस आधार पर निर्धारित किया गया है? क्या यह सुरक्षित है?
ज्यादा मात्रा में ग्रहण करने पर आर्सेनिक के यौगिक जानलेवा सिद्ध हो सकते हैं। शराब के एक गिलास में एक चम्मच आर्सेनिक ट्रायऑक्साइड घोल कर पिला दीजिए और पीने वाला हमेशा के लिए सो जाएगा। परन्तु जहाँ तक भूजल के संदूषण का प्रश्न है, मसला यह है कि आर्सेनिक की वह कम से कम मात्रा क्या है जिससे भूजल हमेशा के लिए जहरीला बन सकता है।

जहाँ तक पर्यावरणीय प्रदूषण का सवाल है, आर्सेनिक की अति विषाक्तता के बारे में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। दरअसल, पारा, ताम्बा या कैडमियम आदि के धातु लवण भी उतने ही विषाक्त पाए गए हैं। कई आधुनिक रासायनिक कीटनाशक (जैसे - एचसीएच, एल्डरीन, डीडीटी व पीसीपी) आर्सेनिक के लवणों जैसे ही जहरीले हैं। आर्सेनिक को इन सबसे खतरनाक इसीलिए समझा जाता है क्योंकि यह जानलेवा जहर बड़ी आसानी से जमीन में रिसकर भूजल में जा मिलता है।

यही कारण है कि लम्बे समय तक आर्सेनिक ग्रहण करने से पड़ने वाले प्रभावों की जाँच करना जरूरी है। अधिकांश विशेषज्ञों की इस बात पर सहमति है कि एक लीटर पेयजल में आर्सेनाइट या आर्सेनेट जैसे घुलनशील स्वरूप में 10 माइकोग्राम की मात्रा तक आर्सेनिक ग्रहण करना ‘सुरक्षित’ है। एक लीटर पानी में 10 माइकोग्राम आर्सेनिक उतना ही है, जितना एक अरब ग्राम पानी में 10 ग्राम आर्सेनिक अथवा 10 पीपीबी। दरअसल यह मात्रा ठीक उतनी है जितनी कि एक ओलम्पिक खेलों के लिए बने स्विमिंग पूल (जिसकी लम्बाई 50 मीटर, चौड़ाई 25 मीटर और गहराई दो मीटर है) में एक तिहाई चाय के चम्मच के बराबर आर्सेनिक घोल दिया जाए।

खतरा इस बात का है कि विकिरण (रेडियेशन) की तरह, असैन्द्रीय आर्सेनिक की मार भी सीधी होती है, क्योंकि यह कम मात्रा में भी गहरी चोट पहुँचाती है। इसीलिए यह ‘सुरक्षित मात्रा’ भी मानवीय स्वास्थ्य की दृष्टि से मात्र स्वीकार्य है। मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण-दोनों की सुरक्षा के लिए इसे शून्य या नहीं के बराबर होनी चाहिए।

यह बात सही है कि आर्सेनिक के स्तर को 10 पीपीबी तक नीचे लाने के लिए रणनीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। इस कार्य में भारी धन व्यय होगा। दूसरे, इसके जहर की मात्रा का पता लगाने वाले उपकरणों में निर्धारित सीमा से भी कम सघनता पर इसकी उपस्थिति का पता लगाने की क्षमता होनी चाहिए। जिससे कि भविष्य में निर्धारित सीमा में किए गए बदलावों को समायोजित किया जा सके। परन्तु कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय अध्ययन से ज्ञात हुआ कि इनमें से कोई भी संयंत्र आर्सेनिक की मात्रा को 10 पीपीबी से कम नहीं ला सकता। यद्यपि कुछ संयंत्र आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से कम करने में सफल हुए हैं (आर्सेनिक निर्मूलन संयंत्रों पर छठी रिपोर्टः भाग ‘ए’ और भाग ‘बी’ जुलाई 2004)। इसी के साथ 10 पीपीबी की मात्रा से नीचे आर्सेनिक खोजने के लिए बड़े महँगे परीक्षण उपकरण इस्तेमाल करने पड़ते हैं। (एम एम रहमान - “आर्सेनिक परीक्षण उपकरणों की कारगरता व विश्वसनीयता अरबों डॉलर की जाँच परियोजनाएँ कारगर या अकारगर, एन्वायारन्मेंटल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी, संख्या 36,2002 पृष्ट 5385-5394)”

सहनशीलता की सीमा

विभिन्न जैविक नमूनों में आर्सेनिक की स्वीकार्य मात्रा

नमूना

सीमा (पार्टस पर बिलियन में)

जल

10

खून

रैफ्रेंश सीमा : 1-4

मूत्र

सामान्य : 24

बाल

सामान्य : 80-250

नाखून

सामान्य : 430-1,080

 


3. परन्तु बांग्लादेश जैसे कुछ राष्ट्र 50 पीपीबी की आर्सेनिक मात्रा के मानक को सुरक्षित कैसे मान सकते हैं?
इस निर्णय का भी एक इतिहास है। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में 50 पीपीबी की मात्रा को अत्यधिक आर्सेनिक ग्रहण करने की दृष्टि से सुरक्षित घोषित किया गया- ना कि इतनी मात्रा में आर्सेनिक के लम्बे समय तक सेवन की दृष्टि से। इसका इतिहास यह है कि सन 1900 में इंग्लैंड के मैनचेस्टर शहर में शराब बनाने के लिए संदूषित चीनी का इस्तेमाल किया गया था। इस बीयर में आर्सेनिक की सघनता 15,000 पीपीबी थी। इस जहरीली बीयर को पीकर 6,000 लोग बीमार पड़ गए, जिनमें से 70 की मौत हो गई। एक जाँच से ज्ञात हुआ कि बीयर में आर्सेनिक की अधिकतममात्रा 1,000 पीपीबी तक सुरक्षित मानी गई है। मोटे तौर पर इस संख्या को 20 से भाग देकर जो संख्या प्राप्त होगी उससे पर्याप्त सुरक्षा प्राप्त हो सकेगी, ऐसा मानकर जाँच समिति ने 50 पीपीबी की सीमा को सुरक्षित घोषित कर दिया।

इसी के फलस्वरूप 50 पीपीबी की संख्या को दुनियाभर में सुरक्षित सीमा का दर्जा दे दिया गया। इस सीमा को इंग्लैण्ड, अमरीका और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वीकार कर लिया। यह तो जब साठ के दशक में ताइवान के आर्सेनिक भरे भू-जलाशयों से जानपदक-रोगविज्ञान (एपीडीमियोलाॅजिकल) से सम्बन्धित आँकड़े सामने आने लगे तब पता चला कि यह निर्धारित सीमा ‘सुरक्षित‘ नहीं मानी जा सकती।

4. एक ताजा अध्ययन ने आर्सेनिक की सीमा विकासशील देशों हेतु 50 पीपीबी उपयुक्त माना है, जिससे एक विवाद खड़ा हो गया है। क्या इस अध्ययन के सुझावों को औचत्यपूर्ण समझा जा सकता है ?
हाल के ही एक शोध-पत्र में (विकासशील देशों में पेयजल में आर्सेनिक के नियम, टोक्सिकोलॉजी, अंक 198, 2004 पृष्ठ 39-44), अमरीका के बर्कले विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक एलन एच स्मिथ और एच एम स्मिथ का सुझाव है कि विकासशील देशों के लिए यह सीमा 50 पीपीबी तक ऊपर उठा देनी चाहिए।

वैज्ञानिक आँकड़े दर्शाते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा ईपीए द्वार निर्धारित किए गए आर्सेनिक के मानक तीन तत्वों पर आधारित हैंः दैनिक जल-ग्रहण मात्रा, पोषण का स्तर तथा आहार में आर्सेनिक की मात्रा। यह स्पष्ट है कि ये तत्व विभिन्न देशों के लिए भिन्न-भिन्न हैंः विकासशील व विकसित देशों के बीच बहुत अधिक अंतर है - विशेषतया लोगों की खाने की आदतों तथा सामाजिक-आर्थिक आयामों के कारण।

वास्तव में, विश्व स्वास्थ्य संगठन व ईपीए ने 10 पीपीबी की संख्या इसलिए निर्धारित की क्योंकि उन्होंने प्रति व्यक्ति दैनिक जल खपत के आँकड़े को आधार माना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, यह आवश्यकता दो लीटर प्रतिदिन है, जबकि ईपीए इसे 1.2 लीटर प्रतिदिन मानता है। परन्तु कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय विज्ञान विभाग ने शोध द्वारा पता लगाया है कि पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश के गाँवों में यह खपत कहीं अधिक देखी गई हैः वयस्क पुरूषों के लिए चार लीटर, वयस्क औरतों के लिए तीन लीटर और बच्चों के लिए दो लीटर। यहाँ तक कि एलन स्मिथ व एचएम स्मिथ की शोध यह दर्शाती है कि “भारत व बांग्लादेश जैसे गरीब देशों में... पेयजल में आर्सेनिक का प्रभाव खासकर उन लोगों पर पड़ता है जो स्पष्ट रूप से कुपोषित हैं... इससे उनपर आर्सेनिक का कुप्रभाव और भी बढ़ जाता है।” अतः इन इलाकों के लिए यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन व ईपीए द्वारा सुझाई सीमा से आर्सेनिक का स्तर काफी कम हो।

एक और अध्ययन (यू के चौधरी इत्यादि, पश्चिमी बंगाल, भारत व बांग्लादेश के भूजल में आर्सेनिक संदूषण व मानव त्रासदी, एन्वायरमेंटल सांइसेज, संख्या 8,2001, पृष्ठ 393-415) के अनुसार, पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश में आर्सेनिक सेवन को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। पहली श्रेणी में केवल पीने के पानी से आर्सेनिक का सेवन है। दूसरी श्रेणी में भोजन से (चावल और सब्जी) तथा तीसरी श्रेणी में उन खाद्य पदार्थों की तैयारी में प्रयुक्त आर्सेनिक-संदूषित जल के प्रयोग से (जैसे चावल, सब्जी व पेय जैसे चाय व नींबू पानी) है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश में भोजन द्वारा ग्रहण किए जाने वाले आर्सेनिक की प्रकृति अजैविक है। यह समुद्री भोजन, जोकि विकसित राष्ट्रों के आहार का एक अंग है, में पाये जाने वाले जैविक स्वरूप से कहीं अधिक जहरीला होता है। यह भी एक कारण है जिसके आधार पर विकासशील देशों के लिए आर्सेनिक के निर्धारित सुरक्षा स्तर को कम करना जरूरी है।

दरअसल एक और विश्लेषण (डब्ल्यू आर चैपल इत्यादि द्वारा सम्पादित, आर्सेनिक प्रभावन व स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव, अंक-4, एलसेवियर, 2001 में गुहा मजूमदार इत्यादि कृत पश्चिम बंगाल के एक जिले में चिरकालिक विषाक्तता के विभिन्न गैर-कर्कट रोगीय आविर्भावों का जानपदिक अध्ययन) जिसमें एलन एच स्मिथ भी एक सह लेखक हैं, उसमें लिखा हुआ है कि “दस साल से अधिक समय तक 10 से 50 पीपीबी तक की आर्सेनिक वाले पेयजल को ग्रहण करने से भी कुछ लोगों को रंजकता व केराटोसिस जैसे रोग लग सकते हैं।” और टोक्सिकाॅलोजी के शोध पत्र की प्रस्तावना में एलन स्मिथ व एच एम स्मिथ व्यक्त करते हैं कि “यदि पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा को 10 पीपीबी तक कम कर दिया जाए तो भी कैंसर होने की भारी सम्भावना बनी रहती है।” अतः यह समझ नहीं आता है कि इस वक्तव्य के बावजूद इस शोध-पत्र के अंत में ये शोधकर्ता आर्सेनिक के ‘सुरक्षित’ स्तर को बढ़ाने की बात कैसे कर रहे हैं।

5. आर्सेनिक के विषाक्तिकरण के लक्षण क्या हैं? आर्सेनिक से शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?
मानव शरीर में आर्सेनिक सेवन करने, साँस के जरिए तथा त्वचा के सम्पर्क द्वारा प्रवेश करता है। त्वचा के सम्पर्क में आते ही यह त्वचा व बाल से चिपककर खून के जरिए शरीर में प्रवेश कर जाता है। आर्सेनिक का असर सब पर अलग-अलग तरीके से पड़ता है, चाहे फिर सब एक ही स्तर के आर्सेनिक-प्रदूषण से प्रभावित हों। आज तक यह पता नहीं चल पाया है कि आर्सेनिक का जहर किस अंग विशेष को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, जैसे सीसे और कैडमियम के सेवन का अत्यधिक प्रभाव गुर्दे पर पड़ता है। वैसे, अजैविक आर्सेनिक से प्रभावित होने की जाँच पेशाब देखकर भलीभाँति की जा सकती है।

लम्बे समय तक आर्सेनिक से प्रभावित होने या आर्सेनिकोसिस का सबसे पहला संकेत है शरीर के अंगों, छाती, और पीठ, और कभी-कभी जीभ और मसूड़ों की श्लेष्मल झिल्ली (म्यूकस मेम्ब्रेन) पर एक काले रंग के वर्षा की बूँद के आकार के धब्बे का उभरना। इसे ‘हाइपरपिगमेन्टेशन’ कहते हैं। इस अवस्था में, त्वचा पर सफेद धब्बे, हाइपोपिगमेंटेशन, भी उभर सकते हैं। इन दोनों प्रकार के लक्षणों को मेलानोसिस कहते हैं। इस प्रकार के चकत्ते वाले लक्षण दो साल के बच्चों में भी देखे गये हैं। दस साल तक इस रोग से प्रभावित होने पर हाथ व पैर की त्वचा कठोर हो जाती है और नोड्युल के रूप में उभर जाती है। ये नोड्यूल एक सेंटीमीटर तक फैल सकते हैं। इस अवस्था को ‘केराटोसिस’ कहते हैं। आगे चलकर केराटोसिस के स्थलों पर कैंसर हो जाता है। आर्सेनिक-सम्बन्धी त्वचा रोगों की उत्पत्ति व उनके फैलने की गति आर्सेनिक की मात्रा पर निर्भर करती है।

आर्सेनिक से अन्य त्वचा रोग भी हो सकते हैं। इससे ब्लैक फुट अथवा पैरीफैरल वैस्क्युलर हो जाता है। इससे पैर आदि में अंततः गैंगरीन जैसे रोग हो जाते हैं। कम से कम मात्रा में भी सेवन करने पर, अजैविक आर्सेनिक यौगिक कैंसर जन सिद्ध होती है तथा त्वचा, फेफड़े व मूत्राशय के कैंसर के साथ-साथ मधुमय, श्वास व हृदय सम्बन्धी बिमारियाँ भी फैला सकता है। यही नहीं, अजैविक आर्सेनिक के कारण गर्भपात, मृत शिशु का जन्म तथा समय से पूर्व अपरिपक्व शिशु का जन्म इत्यादि हो सकता है। आर्सेनिक को अत्यधिक मात्रा में ग्रहण करने पर उसके जहर के कारण उल्टी, पेट-दर्द व दस्त आदि का होना एक आम बात है।

आर्सेनिक से ये सब तकलीफें क्यों होती हैं और कैंसर कैसे हो जाता है, इसका स्पष्टीकरण जब तक नहीं हो पाया है। बस यह पता चला है कि आर्सेनिक शरीर के एन्जाइम्स व आनुवंशिक अवयवों की सामान्य कार्य-प्रणाली में हस्तक्षेप करता है। दुःखद सत्य तो यह है कि आर्सेनिक के जहर से बुरी तरह प्रभावित का कोई इलाज ही नहीं है।

6. शोध कार्य के अनुसार अच्छा पौष्टिक भोजन ही आर्सेनिक के विषाक्तिकरण का मात्र उपचार है, क्या यह सच है ?
निर्धारित सीमा से कम मात्रा में आर्सेनिक का लगातार प्रभाव कैंसर या अविर्भावों की सम्भावना कम नहीं कर देता। क्योंकि लक्षणों के प्रारम्भ के निवारण में पोषण की अनिवार्य भूमिका है। कई अध्ययन यह मानते हैं कि चिरकालिक आर्सेनकोसिस व पौषणिक स्थिति, दैनिक आहार, तथा रोग-विषयक अविर्भावों में गहरा सम्बन्ध है। जिनके दैनिक आहार में प्रोटीन व माईक्रोन्यूट्रीयन्ट (कैल्सीयम, सेलेनियम या विटामिन) की मात्रा कम होती है, वे आर्सेनिक सम्बन्धी रोगों से अधिक प्रभावित होते हैं। शोधकर्ता स्पष्ट कहते हैं कि पोषणता में अभाव के कारण शरीर से आर्सेनिक धीमे निकलता है। जापान स्थित ‘नेशनल इन्स्टीट्यूट आॅफ हेल्थ सर्विसेज’ तथा ‘यूके स्थित यूनिवर्सिटी आॅफ एबर्डीन’ के शोधकर्ता द्वारा किये गए शोध यह पुष्टि करते हैं कि अपर्याप्त रूप से पोषित लोग 0.3 पीपीबी प्रति लीटर की आर्सेनिक से युक्त पानी पीकर त्वचा रोगों से पीड़ित हो जाते हैं। दूसरी ओर पर्याप्त पोषण पूर्ण लोग 0.4 पीपीबी की आर्सेनिक युक्त पानी पीकर भी इस प्रकार के रोगों से प्रभावित नहीं होते। पश्चिम बंगाल में, 15 प्रतिशत प्रभावित लोगों में आर्सेनिक सम्बन्धी त्वचा रोग पाए गए, जबकि बांग्लादेश में 24 प्रतिशत प्रभावित पाए गए। यह सम्भवतः इसलिए है क्योंकि बांग्लादेशियों का आहार तुलना में कम पौष्टिक है।

तुलना में, अधिक प्रोटीन का आहार आर्सेनिक के विषाक्तीकरण को कम कर सकता है। इसलिए, लोगों को अधिक प्रोटीन युक्त आहार ग्रहण करना चाहिए - चाहे वह मांसहारी स्रोतों से हो या शाकाहारी स्रोतों से जैसे, दाल, सोयबीन और गेहूँ। फल व सब्जी द्वारा विटामिन व एंटी-आॅक्सीडेंट पर्याप्त मात्रा में ग्रहण किए जा सकते हैं। इनसे आर्सेनिक का जहर भी कम होता है।

आर्सेनिक क्या है?


आर्सेनिक एक उपधातु तत्व है। यह भंगुर प्रकृति का होता है और सलेटी या टिन जैसे सफेद रंग का होता है। प्रकृति में यह एक मुक्त तत्व के रूप में उपलब्ध नहीं है। परन्तु अन्य तत्वों के सम्मिश्रण के रूप में पाया जाता है- जैसे कि आॅक्सीजन, क्लोराइड, हाइड्रोजन, सीसा, पारा, सोना व लोहा इत्यादि के एक यौगिक (कम्पाउन्ड) के रूप में। प्रकृति में आर्सेनिक-युक्त 150 खनिज पाये जाते हैं। फिर भी, इनमें से केवल तीन को ही आर्सेनिक के अयस्क का दर्जा प्राप्त है (क्योंकि इनमें से प्रत्येक में आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज्यादा है)। ये खनिज हैः रियालगर या आर्सेनिक डाय-सल्फाइड, ओर्पीमेन्ट या आर्सेनिक ट्राय-सल्फाइड, तथा आर्सेनोपायराइट या फैरस आर्सेनिक सल्फाइड। बांग्लादेश में आर्सेनिक प्रदूषण का प्रमुख दोषी आर्सेनोपायराइट माना गया है।

रासायनिक दृष्टि से, आर्सेनिक के यौगिक दो प्रकार के होते हैंः जैकिव व अजैविक। अजैविक आर्सेनिक दो रूपों में मिलता हैः ट्रायवेलेन्ट आर्सेनाइट और पेन्टावेलेन्ट आर्सेनेट। अजैविक आर्सेनिक तो जैविक आर्सेनिक से अधिक जहरीला होता है। इसका ट्रायवेलन्ट स्वरूप पेन्टावेलेन्ट स्वरूप से 60 गुना अधिक जहरीला होता है और पानी में ज्यादा आसानी से घुल जाता है। ये दोनों (यानी कि पेन्टावेलेन्ट आर्सेनेट व ट्रायवेलेन्ट आर्सेनाइट) सामान्यतः भारत के पश्चिम बंगाल क्षेत्र तथा बांग्लादेश के भूजल में पाये जाते हैं।

आर्सेनिक से जीवाणु तक


बांग्लादेश व भारत में आर्सेनिक द्वारा भूजल के प्रदूषण के फैलते प्रकोप को देखते हुए, सतही जल का पुनः प्रयोग एक समाधान के रूप में देखा जा रहा है। परन्तु जानपदिक रोग-वैज्ञानिकों के एक नये अध्ययन (जो आॅस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय ने किया है) ने पता लगाया है कि यद्यपि इस समाधान से अन्ततोगत्वा इस मुसीबत पर काबू पाया जा सकेगा, लेकिन शुरूआती दौर में इससे आम जनता में दस्त व अतिसार सम्बन्धी रोगों की (जीवाणु-सम्बन्धी संदूषण के कारण) भरमार हो जाएगी।

आर्सेनिक प्रभावन व सतही जल निकायों के प्रयोग से फैलने वाली बीमारियों के आँकड़े पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने आर्सेनिक-प्रभावित लोगों की मृत्युदर तथा उससे अकाल मृत्यु व अपंग होने से स्वस्थ जीवन की सम्भावित अवधि कितनी कम हो गई है- इन सब पर प्रकाशित जानकारी का प्रयोग किया है।

इन शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि 50 पीपीबी (यानी निर्धारित सीमा से पाँच गुना ज्यादा) से अधिक आर्सेनिक ग्रहण करने से सालाना तौर पर 9,136 मौते होती हैं। इससे हर साल अपंग होने वाले रोगियों के जीवन के जो सुनहरे साल हमेशा के लिए खो जाते हैं। उनकी संख्या 174,174 प्रतिवर्ष आँकी गई है।

इन सभी मामलों में हस्तक्षेप करने से बीमारी कम करने में सफलता तो प्राप्त हुई है, परन्तुु दूसरी ओर सतही जल ग्रहण करने से जल से जुड़े संक्रामक रोगों में काफी वृद्धि देखी गई है। इससे इस समाधान का असर काफी कम हो गया है।

शोधकर्ताओं के अनुसार, आर्सेनिक-प्रभावित बीमारी का कुल भार कम करने हेतु हस्तक्षेप करने से पहले आर्सेनिक की अधिक मात्रा से अपंग होने वाले व्यक्तियों की दयनीय स्थिति में कम से कम 77 प्रतिशत की कमी लानी होगी। यह तथ्य इस बात पर आधारित है कि ये हस्तक्षेप 50 पीपीबी की मात्रा ग्रहण करने वालों को प्रदान किये जा रहे हैं, जिसके फलस्वरूप ऐसे लोगों में जल से जुड़े संक्रामक रोगों में 20 प्रतिशत की वृद्धि होगी जिन्हें साफ-सफाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध नहीं है। शोधकर्ताओं के अनुसार, इस प्रकार का हस्तक्षेप उन आबादियों के लिए न्यायसंगत प्रतीत होता है, जो आर्सेनिक से बुरी तरह प्रभावित हैं। परन्तु यह हस्तक्षेप प्रभावन के स्तरों के अलावा इस बात पर भी आधारित होना चाहिए कि आर्सेनिक की मात्रा में कमी लाने के साथ-साथ जल सम्बन्धी संक्रमण को कम करने में हस्तक्षेप कितना कारगर सिद्ध होता है।

 

भूजल में संखिया के संदूषण पर एक ब्रीफिंग पेपर

अमृत बन गया विष

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)   

1.

आर्सेनिक का कहर

2.

बंगाल की महाविपत्ति

3.

आर्सेनिक: भयावह विस्तार

4.

बांग्लादेशः आर्सेनिक का प्रकोप

5.

सुरक्षित क्या है

6.

समस्या की जड़

7.

क्या कोई समाधान है

8.

सच्चाई को स्वीकारना होगा

9.

आर्सेनिक के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब - Frequently Asked Questions (FAQs) on Arsenic

 

पुस्तक परिचय : ‘अमृत बन गया विष’

 

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