सूखा : अब सरकार भी लाचार

26 Jul 2012
0 mins read
देश में मानसून की तानाशाही के कारण सूखे का संकट मंडराने लगा है। बारिश का मौसम आधा बीतने के बाद ऐसा लग रहा है कि मानसून की समाप्ति सूखे के साथ होगी। भारत के कई राज्यों में सूखे की आशंका होने लगी है। नतीजा यह कि इससे आजीविका के संकट से लेकर भुखमरी, पलायन और कृषि समस्या बुरी तरह प्रभावित होगा। इस मानसून में बारिश कम होने से खरीफ ही नहीं, रबी फसलें भी प्रभावित होंगी। मानसूनी बारिश से खेतों में नमी बरकरार रहती है। बारिश कम होने से नमी खत्म हो जायेगी, जिससे रबी फसलों की बुआई भी प्रभावित होगी।

आखिर हम और हमारी खेती कब तक इंद्र देवता के भरोसे बैठे रहेंगे। हमारे प्रधानमंत्री रह-रह कर हरित क्रांति का दूसरा चरण शुरू करने की बात करते हैं लेकिन बीते आठ साल और उदारीकरण के पूरे दो दशकों में सिंचाई का कोई इंतजाम नहीं हुआ है। कृषि मंत्री शरद पवार तो किसान हितैषी होने का दावा भी करते हैं। उनका हिसाब समर्थन मूल्य बढ़वाने से लेकर पशुपालन और सहयोगी गतिविधियां बढ़वाने के दावों तक जाता है पर एक इंच नई जमीन के लिए सिंचाई का इंतजाम न होने की बात वे भूले से भी याद नहीं करते।

अनावृष्टि से फटी अपनी जमीन पर बैठा किसान जिस बेचारगी से आसमान को निहारता है, कुछ वैसा ही दृश्य आजकल सरकार के कृषि और खाद्य मंत्रालयों का ही नहीं, पीएमओ में भी दिखाई देता है। और जब सीधे प्रधानमंत्री को इस मामले को अपने हाथ में लेने और नियमित समीक्षा का फैसला करना पड़ा हो तो यह बात कई कारणों से ज्यादा महत्व की लगने लगती है। दिलचस्प मामला यह भी है कि पहले कृषि मंत्री शरद पवार फसलों की उपज और आपूर्ति के बारे में बयान देकर हाथ जला चुके हैं, सो इस बार वे कुछ भी बोलने से परहेज कर रहे हैं। महंगाई पर हुई अपनी धुनाई के बाद उन्होंने क्रिकेट प्रशासन की व्यस्तता के नाम पर खुद ही खाद्य मंत्रालय का जिम्मा छोड़ दिया था। अब इस बार क्या होगा, और मानसून धोखा ही देगा यह भी कहना मुश्किल है पर निश्चित रूप से बारिश जितनी कम हुई है और देर से हुई है, उसमें शत प्रतिशत फसल की उम्मीद नहीं बची है और ऐसे में पीएमओ सक्रिय हो और अन्य संबद्ध मंत्रालय भी सचेत हो जाएं तो इसे अच्छा ही मानना चाहिए।

सरकार के डरने के कई कारण हैं। उसे किसानों और खेती की चिंता नहीं ही है, यह कहना थोड़ा मुश्किल है। पर इतनी सतर्कता सिर्फ किसानों के चलते नहीं है। इसमें सबसे बड़ी चिंता कीमतों की है। सरकारी गोदामों में साढ़े तीन करोड़ टन अनाज होने के बावजूद अगर इस साल की फसल मारी जाती है या पूरी नहीं होती है तो तबाही मच सकती है। पहली चीज तो दलहन ही है जिसकी कमी और महंगाई की शुरुआत हो चुकी है। खाद्य मंत्री केवी थॉमस के अनुसार दलहन के क्षेत्रफल में लगभग बीस फीसदी की गिरावट आ चुकी है और दुर्भाग्य से सबसे कम बरसात उत्तर और मध्य भारत के उन्हीं इलाकों में हुई है, जहां दलहन उगाया जाता है। अर्थात लगी फसल भी पूरा उपज नहीं दे पाएगी। इससे भी बड़ा खतरा अमेरिका में सूखे के हालात से है। वही दुनिया का सबसे बड़ा अन्न उत्पादक है। अगर वहां कमी होगी तो दुनिया भर के बाजार चढ़ेंगे। फिर हमारे गोदामों का अनाज हमारे यहां मूल्य संतुलन रखने में कितना सक्षम होगा कहना मुश्किल है।

अभी से दालों-सब्जियों और डेयरी उत्पादों के मूल्य चढऩे लगे हैं। देश लगातार तीन साल से महंगाई के जैसे दौर को झेल कर मुश्किल से बाहर आया है, इसमें अगर फिर गड़बड़ हुई तो आम लोग पिसेंगे ही, सरकार के लिए भी अगले चुनाव में नैया पार लगाना मुश्किल हो जाएगा। मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। किसानों, खेतिहर मजदूरों और आम आदमी की परेशानी सिर्फ चुनाव की दृष्टि से ही नुकसानदेह नहीं है। यह कहीं न कहीं पूरी अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण है। भले ही सकल घरेलू उत्पादन में कृषि का हिस्सा 15-16 फीसदी का रह गया हो आबादी का आधे से ज्यादा (55 फीसदी) हिस्सा आज भी खेती-किसानी पर ही आश्रित है। सो, भोजन के साथ जीविका और अर्थव्यवस्था का सवाल भी जुड़ा है। और अगर निर्यात में गिरावट आए तो सरकार कभी भी उतना परेशान नहीं होती जितना खेती के मामले में होती है। भोजन तो सबको ही चाहिए और अगर पचपन फीसदी में से कुछ भी बेकार बैठे तो सरकार के लिए इस स्थिति को संभालना मुश्किल हो जाता है।

अनाज या खाद्य पदार्थों के मामले में अयात-निर्यात से काम चलाने का हमारा अनुभव बहुत अच्छा नहीं है। सो, अब कोई अच्छा अनुभव होगा, यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है। खाद्य, जन वितरण और उपभोक्ता मामलों के मंत्री केवी थामस के अनुसार कर्नाटक, महाराष्ट्र का बड़ा हिस्सा, गुजरात और राजस्थान में बारिश न होना खास चिंता का विषय है, जबकि दिल्ली, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी सूखे जैसी स्थिति में आ चुके हैं। अभी तक मानसून औसत से लगभग एक-चौथाई कम बरसा है। लेकिन सूखा पड़ ही गया है और कुछ भी पैदा न होगा जैसी बातें करने के लिए अभी एक पखवाड़ा और इंतजार करना पड़ेगा। पर जो किसान धान के बिचड़ों को धूप और गर्मी से बचाने के लिए बर्फ की सिल्लियां रख रहे हों, जैसा कि पंजाब से खबरें आ रही हैं, तो उसके लिए तो चौतरफा संकट है। वह तो अगले पंद्रह दिन इस तरह बीज नहीं बचा सकता और न ही बूढ़े हो गए बिचड़ों से सही पैदावार ले सकता है। सो पंजाब से 800 करोड़ रुपए के राहत पैकेज की मांग भी आने लगी है।

राज्य सरकार ने 1000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली की भी मांग कर दी है। कर्नाटक से करोड़ों रुपए पानी लाने वाले यज्ञ पर खर्च किए जाने की खबरें आई हैं। भारतीय मौसम विभाग ने इस साल 98 फीसदी बरसात की भविष्यवाणी की थी और अब खुद उसका अनुमान बताता है कि जुलाई की बरसात 84 फीसदी से ऊपर नहीं जाएगी। प्रधानमंत्री कार्यालय का कहना है कि उत्तर-पश्चिम में 33 फीसदी, मध्य भारत में 26 फीसदी, दक्षिण में 26 फीसदी (आंध्र में ठीक बरसात है), और पूर्वोत्तर में दस फीसदी कम बरसात हुई है। अल-लीनो को दूसरा कौन सा अल काटता है या पश्चिमी विक्षोभ आकर मानसून को परेशान कर रहा है इन बातों से किसानों या खेती से भोजन समेत किसी भी किस्म का संबंध रखने वालों के लिए इन विवरणों का कोई महत्व नहीं है। उन्हें तो अपनी बात कहने का रास्ता भी मिला हुआ है। पानी पर जीवन गुजारने वाले बेजुबान जानवरों और पेड़-पौधों के लिए तो इनका और भी मतलब नहीं है।

एक ही राहत की बात है कि हिमालय और उसके आसपास के इलाकों में पर्याप्त पानी पडऩे से देश के अधिकांश जलाशय ठीक स्थिति में हैं, जिससे पीने के पानी और विद्युत उत्पादन में परेशानी न आने की उम्मीद की जा रही है। कहने को हम कह सकते हैं कि अभी हाय-तौबा मचाने वाली स्थिति नहीं आई है। अगर सरकार और उसके मुखिया सचेत हो गए हैं तो हम थोड़ा निश्चिंत हो सकते हैं। पर यही इस बात को कायदे से उठाने का सबसे बढ़िया अवसर है कि आखिर हम और हमारी खेती कब तक इंद्र देवता के भरोसे बैठे रहेंगे। हमारे प्रधानमंत्री रह-रह कर हरित क्रांति का दूसरा चरण शुरू करने की बात करते हैं लेकिन बीते आठ साल और उदारीकरण के पूरे दो दशकों में सिंचाई का कोई इंतजाम नहीं हुआ है। कृषि मंत्री शरद पवार तो किसान हितैषी होने का दावा भी करते हैं। उनका हिसाब समर्थन मूल्य बढ़वाने से लेकर पशुपालन और सहयोगी गतिविधियां बढ़वाने के दावों तक जाता है पर एक इंच नई जमीन के लिए सिंचाई का इंतजाम न होने की बात वे भूले से भी याद नहीं करते। सो, जब हाय-तौबा की स्थिति आएगी तो वह भी मचा लिया जाएगा, पर अभी यही प्रश्न ढंग से उठ जाए तो इस संकट से कोई सार्थक पहल निकलेगी।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading