सूखा, जोहड़ और आत्मनिर्भरता

जैसे-जैसे गाँवों के लोग जोहड़ बनाकर अपने जीवन में सुधार करने के लिए खुद को संगठित करते गए, तैसे-तैसे जन समुदाय को आत्मनिर्भर बनने, सामाजिक सहयोग बढ़ाने और समाज में भावनात्मक संबंधों का विकास करने की प्रेरणा मिलती गई।सत्रह साल पहले 2 अक्तूबर की रात को जब मैं अपने चार मित्रों के साथ जयपुर से भीकमपुर के लिए बस से रवाना हुआ तो हमारा एक ही कार्यक्रम था और वह था, ‘जनता के साथ अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना’। और इसके लिए हमें जो एक रास्ता पता था वह था गाँवों में साक्षरता आंदोलन शुरू कर दिया।

लेकिन हमने देखा कि लोग पानी की भारी किल्लत का सामना कर रहे हैं। जो क्षेत्र कभी अरावली की पारिस्थितिकी प्रणाली को आधार प्रदान करता था, वह बंजर हो चुका था। गाँवों में नौजवान मुश्किल से मिलते थे, रोजगार की तलाश में इधर-उधर चले गए थे। एक घड़ा पानी के लिए औरतों को लंबी दूरी तय करनी पड़ती थी। हर साल फसलें खराब होती थीं। पेड़-पौधों और वनस्पतियों की कमी से जमीन खराब हो गई थी। जमीन की उपजाऊ ऊपरी मिट्टी बरसाती पानी के साथ बह जाती थी। मुझे याद है कि इस इलाके में घास का एक तिनका तक नहीं उगता था और अक्सर मरे हुए पशु दिखाई दे जाते थे। खेती वाली जमीन में से सिर्फ 3 प्रतिशत के लिए सिंचाई सुविधा उपलब्ध थीं जिंदगी बड़ी कठिन थी और परेशानियों का तो कोई अंत नहीं था।

एक दिन गाँव के समझदार बुजुर्ग मंगू पटेल ने मुझसे कहा कि “हमें तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई की कोई जरूरत नहीं है। हमें तो पानी चाहिए, पानी।” लेकिन पानी था कहां? मुझे तो पानी के बारे में कुछ भी पता नहीं था।

तभी मंगू ने मुझे इस इलाके में ‘जोहड़’ बनाने की समृद्ध परंपरा के बारे में बताया। ये जोहड़ इस बात के शानदार उदाहरण थे कि किस तरह सस्ती और सरल परंपरागत तकनीक से समूचे क्षेत्र में भूमिगत जल-स्रोतों को फिर से भरा जा सकता है। जोहड़ ढलान वाली जमीन पर बरसाती पानी को रोकने के लिए बनाए गए मिट्टी और कंकड़-पत्थर के बाँध हैं जिनके तीन ओर तटबंध होते हैं और एक ओर बरसाती पानी के आने के लिए जगह खुली रहती है। बाँधों की ऊँचाई इतनी होती है कि जलग्रहण क्षेत्र में बरसने वाला सारा बरसाती पानी जोहड़ में समाने के बाद भी कुछ स्थान खाली रहे। बरसात में कितना पानी बरसेगा इसका अनुमान इस इलाके में अधिकतम संभावित वर्षा के आधार पर मोटे तौर पर लगाया जाता है। इस कारण किसी स्थान पर बरसात की मात्रा और पानी के दबाव को ध्यान में रखते हुए जोहड़ की ऊँचाई भी अलग-अलग हो सकती है। कुछ स्थानों पर पानी के दबाव को कम करने के लिए अतिरिक्त पानी की निकासी के लिए चिनाई करके ‘अफरा’ नाम की संरचना बना दी जाती है। जलसंग्रह क्षेत्र दो हेक्टेयर से लेकर अधिकतम 100 हेक्टेयर में फैला रहता है।

बरसात में किसी जोहड़ में एकत्र हुआ पानी सीधे तौर पर सिंचाई, पीने तथा अन्य घरेलू कार्यों में इस्तेमाल किया जाता है। इनका सबसे बड़ा फायदा यह है कि ये बरसाती पानी को जमा करने और इसके बहाव को रोकने के साथ-साथ जमीन के अंदर नमी बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध होते हैं। जोहड़ के नीचे के इलाकों में इनसे नमी बढ़ाने में विशेष मदद मिलती है जहाँ इनकी वजह से भूमिगत जलाशय और कुएँ पानी से भर जाते हैं।

जोहड़ों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये सरल और सस्ती टेक्नोलॉजी पर आधारित हैं। इन्हें स्थानीय मजदूर और सामान की मदद से आसानी से बनाया जा सकता है। इसे बनाने में तमाम अनुमान बिना किसी माप-जोख के गाँव वालों के अनुभव और सहजबुद्धि से लगाए जाते हैं।

जब मैं 1985 में भीखमपुर गया तो लोगों के सामूहिक अवचेतन में इस अनोखी जल प्रबंधन प्रणाली की यादें मौजूद थीं। लेकिन पारिस्थितिकीय प्रबंधन की जिम्मेदारी सरकार ने अपने कंधों पर ले ली थी। इसलिए लोग अपने आसपास के माहौल से अलग-थलग पड़ते चले गए। मंगू पटेल की सलाह पर हमने जोहड़ बनाने में उत्प्रेरक का कार्य किया। स्थानीय अधिकारी पूरी तरह हमारे खिलाफ थे क्योंकि हमने नौकरशाहों को दरकिनार कर लोगों से सीधा संपर्क स्थापित करनी शुरू कर दी थी।

पहला जोहड़ बनने में तीन साल लग गया। चौथे साल हमने 50 जोहड़ बनाए। इसके बाद पाँचवें साल 100 और पिछले साल 1000 जोहड़ों का निर्माण किया गय। इस तरह हम 1050 गाँवों में अब तक बरसाती पानी को सहेजकर रखने के लिए 4500 जलसंग्रह संरचनाएँ, यानी जोहड़ बना चुके हैं।

परंपरागत ज्ञान


जोहड़ बनाने के लिए हमने किसी भी इंजीनियर को परामर्श के लिए नहीं बुलाया। हम पूरी तरह से लोगों के परंपरागत ज्ञान के अनुसार चल रहे हैं जो पीढि़यों से पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए हुए हैं। ये जल संरचनाएँ जन समुदाय के सक्रिय सहयोग से बन पाई हैं। जोहड़ के लिए स्थान के चुनाव से लेकर संरचना के डिजाइन, निर्माण लागत में भागीदारी और बन जाने के बाद इसके रख-रखाव तक के सभी कार्यों में जन समुदाय का सक्रिय सहयोग रहा है। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिली है कि सभी संरचनाएँ आवश्कता पर आधारित हैं।

इनका फायदा यह हुआ है कि इस इलाके में पानी की इफरात हो गई है। अधिक पानी का मतलब है बेहतर फसल, जमीन की बेहतर हालत, शिक्षा और खुशहाल सामुदायिक जीवन। इससे इस इलाके में वन लगाने और वन्यजीव संवर्धन में भी मदद मिली है। दशकों के सूखे के बाद इस इलाके में पाँच नदियाँ पूरे साल बहने लगी हैं। यहाँ परंपरागत तरीके से छोटे-छोटे जोहड़ों के निर्माण की अनेक परियोजनाओं से भूमिगत जलाशय फिर से पानी से भर गए हैं।

खुशहाली


इस इलाके में एक बार फिर खुशहाली लौट आई है। खेती करना उत्पादकता की दृष्टि से लाभप्रद हो गया है और चारा उपलब्ध हो जाने से लोगों ने मवेशी पालन फिर शुरू कर दिया है। इससे दूध का उत्पादन भी बढ़ गया है। भूमिगत जलस्तर बढ़ने से पम्पसेटों को चलाने में काम आने वाले डीजल का खर्च कम हुआ है। 1985 में खेती वाली जमीन में से केवल 20 प्रतिशत पर कृषि होती थी जबकि अब शत-प्रतिशत भूमि पर खेती होती है। पैदावार बढ़ने से किसानों ने पहली बार अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज बाजार में बेचना शुरू कर दिया है।

अध्ययनों से पता चलता है कि जोहड़ों पर प्रति व्यक्ति 100 रुपए खर्च करने से गाँव में आर्थिक उत्पादन प्रति व्यक्ति 400 रुपया वार्षिक तक बढ़ जाता है।

जोहड़ों के निर्माण से समाज में जो गतिशीलता आई है उसने गाँव वालों को सामाजिक बदलाव के नए-नए तरीकों की खोज के लिए प्रेरित किया है। अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती उन परंपरागत मूल्यों को बनाए रखने की है जिनकी वजह से यह आंदोलन प्रारंभ हुआ और प्रगति तथा खुशहाली से समाज में व्यापक बदलाव आए।जहाँ गाँवों में जोहड़ों के निर्माण में सहयोग करके लोगों ने अपने जीवन-स्तर में सुधार किया है, वहीं लोगों की इस भागीदारी से समाज आत्मनिर्भर बना है। सामाजिक सामंजस्य और भावनात्मक लगाव उच्चतम स्तर पर आ गया है। लोगों को इस बात का अहसास हुआ है कि समाज के सदस्य न सिर्फ अपने लिए उत्तरदायी हैं, बल्कि सामूहिक कार्रवाई भी उनका दायित्व है। उनमें अपने अधिकारों के बारे में चेतना बढ़ी है। अब वे कालीन उद्योग में बच्चों से मजदूरी कराने की कुप्रथा पर रोक लगाने के लिए खुल कर आवाज उठा रहे हैं। यही नहीं, वन-भूमि में खनिजों की अंधाधुंध खुदाई पर रोक लगाने के लिए उन्होंने उच्चतम न्यायालय तक लड़ाई लड़ी है।

जागरूक और सक्रिय समाज गाँव के साझा हित में आत्मानुशासन लागू करने में भी भूमिका निभा रहा है। उन्होंने वनों की कटाई, जंगली जीवों के शिकार और नशाखोरी रोकने के लिए अपने ही बनाए नियमों पर कड़ाई से अमल किया है। ग्राम सभाओं के माध्यम से सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देने से प्रत्येक व्यक्ति को सबकी भलाई के लिए किए गए साझा फैसलों के बारे में मुक्त रूप से बहस करने, निर्णय करने और उस पर अमल करने का अवसर प्राप्त हुआ है। इस प्रक्रिया ने उन्हें अपने ही समाज में दूसरे लोगों की समस्याओं के बारे में विचार करने और उन्हें सुलझाने में एक-दूसरे की मदद करने को प्रेरित किया है। जहाँ समुदाय सामाजिक और आर्थिक बदलावों में सक्रिय हुआ है, वहीं गाँवों में आर्थिक स्थितियों में सुधार, शिक्षा के प्रसार और स्वास्थ्य के बारे में जागरुकता बढ़ने से अपराध दर कम हो गई है। इस तरह समूचे क्षेत्र में जीवन की समग्र गुणवत्ता सुधरी है।

जोहड़ों के निर्माण से समाज में जो गतिशीलता आई है उसने गाँव वालों को सामाजिक बदलाव के नए-नए तरीकों की खोज के लिए प्रेरित किया है। अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती उन परंपरागत मूल्यों को बनाए रखने की है जिनकी वजह से यह आंदोलन प्रारंभ हुआ और प्रगति तथा खुशहाली से समाज में व्यापक बदलाव आए।

अधिकारिता


जब कोई जनता की प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करता है, तो एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। शक्ति का केंद्र सत्ता-प्रतिष्ठान की बजाय जनता बन जाती है क्योंकि जनता के फैसले सबसे प्रमुख हो जाते हैं। इससे लोग अधिकार-संपन्न बनते हैं लेकिन अगर यह अधिकारिता ताकतवर अभिजात्य वर्ग के हितों के खिलाफ जाती है तो इसका विरोध होने लगता है। इन परिस्थितियों में यह अधिकारिता संघर्ष के बिना या समाज की साझा कार्रवाई के बिना संभव नहीं होती। इस कार्य में जब तक समाज को पूरी तरह शामिल नहीं किया जाएगा, इसका मुकाबला नहीं किया जा सकेगा।

1986 के बाद से ही हम लोगों को जोहड़ बनाने में मदद कर रहे हैं जो परंपरागत मिट्टी के बाँध हैं। हालांकि देखने में ये कम लागत और छोटे आकार की संरचनाएँ कोई बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं लगतीं, लेकिन सैकड़ों और हजारों की तादाद में बन जाने से हमारे इलाके का तो हुलिया ही बदल गया है। ‘तरुण भारत संघ’ (श्री राजेन्द्र सिंह जिसके निदेशक हैं) ने बरसाती पानी को जमा करने के लिए लोगों को 4500 जोहड़ों, चैकडैम और इसी तरह की अन्य संरचनाओं के निर्माण में मदद दी है। 1996 में तो हम लोग भीषण गर्मियों के दिनों में भी अरावली नदी को बहता देखकर दंग रह गए। कई वर्षों से हम इस नदी के जलग्रहण क्षेत्र में इन संरचनाओं के निर्माण में लगे थे लेकिन हमें इस बात का जरा भी अहसास नहीं था कि हम जिस बरसाती पानी को जमा कर रहे हैं उसके रिसकर जमीन के अंदर जाने से भूमिगत जलाशय फिर से भर जाएंगे। उसके बाद तो चार और नदियाँ अब बारहमासी हो गई हैं।

राजस्थान सूखे की आशंका वाला राज्य है और अक्सर कई साल ऐसा होता है कि औसत वार्षिक वर्षा का सिर्फ आधा ही पानी बरसता है। हमने जो जोहड़ बनाए हैं उनकी एक बड़ी खूबी यह है कि जिन गाँवों में वर्षा जल के संचय की ऐसी संरचनाएँ बन गई हैं वहाँ गाँव वाले सूखे की मार को बड़ी आसानी से झेल जाते हैं। जब हमने अपना काम शुरू किया तब हमारे इलाके को सरकार ने ऐसा समस्याग्रस्त क्षेत्र घोषित कर रखा था जहाँ पानी की भीषण किल्लत थी और भूमिगत जलस्तर इतना नीचे चला गया था कि इसे निकालना आसान नहीं रह गया था। इसी इलाके में जोहड़ बनाने में हमारी 10 साल की मेहनत के बाद अब यह क्षेत्र समस्याग्रस्त नहीं रह गया है। यानी सरकार को सूखे के मौसम में इस इलाके पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रह गई है और भूमिगत जल का स्तर संतोषजनक है।

जयपुर के पास एक गाँव है निम्बी। पिछले एक सौ साल से थार के रेगिस्तान की बढ़ती रेत की वजह से यह गाँव रेगिस्तान में बदलता जा रहा था। करीब 200 साल पहले यहाँ एक बड़ा जलाशय बनाया गया था लेकिन इसमें गाद जमा हो जाने के कारण यह काम के लायक नहीं रह गया है। 1996 में जब इस गाँव के लोगों ने हमसे संपर्क किया तो ‘तरुण भारत संघ’ के नानक राम ने कार्य येाजना का जिम्मा लिया। जलाशय की मरम्मत की गई और गाद हटाई गई। आगे का काम 1996-97 में बरसात की अच्छी वर्षा ने कर दिया। जलाशय पानी से लबालब भर गया। इसके अगले तीन वर्षों में अच्छी वर्षा नहीं हुई लेकिन निम्बी के लोगों को पानी की कोई किल्लत महसूस नहीं हुई। निम्बी के जलाशय ने यहाँ के लोगों को समस्या से बचा लिया। जमीन में नमी का स्तर बढ़ जाने से खेती की उपज में सुधार हुआ। आज यहाँ से लाखों रुपयों की सब्जियाँ और फल शहरों को भेजे जाते हैं। जयपुर डेयरी दूध की गाड़ी रोजाना यहाँ दूध लेने आती है। यह वहीं गाँव है जहाँ पाँच साल पहले तक मजदूरी के अलावा बेचने को और कुछ नहीं था।

(लेखक श्री राजेंद्र सिंह को सामुदायिक नेतृत्व के लिए वर्ष 2001 का रमण मैग्सेसे अवार्ड मिल चुका है।)

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