सूखे के छह कारण

23 Jul 2012
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महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है जो कृषि के मुकाबले उद्योगों को पानी उपलब्ध कराने को ज्यादा प्राथमिकता देता है। इसलिए सिंचाई योजनाएं बनती हैं तो उनका पानी शहरों में उद्योगों की जरूरतों पर खर्च कर दिया जाता है। अमरावती जिले में ही, जो सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त इलाका है, प्रधानमंत्री राहत योजना के तहत अपर वर्धा सिंचाई प्रोजेक्ट बनाया गया, लेकिन जब यह बनकर तैयार हुआ तो राज्य सरकार ने निर्णय लिया कि इसका पानी सोफिया थर्मल पावर प्रोजेक्ट को दे दिया जाए।

फिर से एक बार सूखे के दिन हैं। इसमें नया कुछ भी नहीं है। हर साल दिसंबर और जून के महीनों में हम सूखे से जूझते हैं फिर कुछ महीने बाढ़ से। यह हर साल का क्रमिक चक्र बन चुका है। लेकिन इसका कारण प्रकृति नहीं है जिसके लिए हम उसे दोष दें। ये सूखा और बाढ़ हम मनुष्यों के ही कर्मों का नतीजा है। हमारी लापरवाहियों का, जिनके कारण हम पानी और जमीन की सही देखभाल नहीं करते। हमारी लापरवाही के कारण ही ये प्राकृतिक आपदाएं पिछले कुछ सालों में विकराल रूप लेती रही हैं। इस सालों में महाराष्ट्र का एक बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में आया है जिसके कारण बड़े पैमाने पर किसानों की फसलें चौपट हुई हैं और वे आत्महत्या के लिए विवश हुए हैं। किसानों की मदद के नाम पर मुख्यमंत्री और पैसा चाहते हैं और विपक्ष इस पर अपनी सियासत करता है। लेकिन धन, योजना और नीति के मामले में हम इसे लेकर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए। क्यों? खासकर तब जब महाराष्ट्र में लंबे समय से सूखा राहत की योजनाएं चल रही हैं।

1970 से ही यहां रोजगार गारंटी योजना है जिसके तहत आदमी जहां रहता है वहीं आसपास उसे रोजगार उपलब्ध कराया जाए ताकि वह पलायन को मजबूर न हो। सरकार ने भी बड़े पैमाने पर सूखे से निपटने के लिए सूखा राहत के लिए धन उपलब्ध कराया और बांध, तालाब आदि के निर्माण का प्रयास किया। लेकिन इस सबमें बड़े पैमाने पर लापरवाही रही। महाराष्ट्र सरकार ने इस बीच काफी पैसा सिंचाई योजनाओं पर भी खर्च किया। इसके बावजूद सन् 2007 से विदर्भ क्षेत्र में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएं घटीं। इसके बाद केंद्र सरकार से राज्य का जल योजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर पैसा मिला। राज्य आर्थिक सर्वे के अनुसार फरवरी, 2012 तक महाराष्ट्र सरकार ने इन योजनाओं पर करीब 12000 करोड़ रुपये खर्च किए। इसके बाद पिछले साल सामान्य से 102 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई। परिणामस्वरूप बारिश और बाढ़ पर पैसा खर्च किया जाने लगा।

यहां यह समझ लेने की जरूरत है कि आखिर हमारी योजनाओं में गड़बड़ी कहां है? पहली बात यह कि बारिश के बारे में कोई ठीक-ठीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है। वैज्ञानिक इसे मौसम के बदलाव से जोड़ते हैं। महाराष्ट्र में पिछले सालों में बारिश आमतौर पर सामान्य होती रही है लेकिन कभी देर से होती है, कभी अनियमित। परिणाम यह होता है कि किसान बारिश के इंतजार में गर्मियों की फसलें नहीं लगा पाते और फिर इसका खामियाजा भुगतते हैं। इसलिए पानी का सही प्रबंधन सबसे जरूरी है।

दूसरी बात कि सिंचाई प्रोजेक्ट बनाए तो जाते हैं लेकिन उनका उपयोग नहीं हो पाता। सूखाग्रस्त राज्यों के आंकड़े बताते हैं कि सिंचाई योजनाओं की 40 प्रतिशत क्षमता का उपयोग ही नहीं हो पाता। कंपट्रोलर और ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक कई बांध तो बन गए लेकिन नहरें नहीं बनीं जिससे जल का उपयोग ही नहीं हो सका।

तीसरी बात महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है जो कृषि के मुकाबले उद्योगों को पानी उपलब्ध कराने को ज्यादा प्राथमिकता देता है। इसलिए सिंचाई योजनाएं बनती हैं तो उनका पानी शहरों में उद्योगों की जरूरतों पर खर्च कर दिया जाता है। अमरावती जिले में ही, जो सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त इलाका है, प्रधानमंत्री राहत योजना के तहत अपर वर्धा सिंचाई प्रोजेक्ट बनाया गया, लेकिन जब यह बनकर तैयार हुआ तो राज्य सरकार ने निर्णय लिया कि इसका पानी सोफिया थर्मल पावर प्रोजेक्ट को दे दिया जाए। किसान विरोध-प्रदर्शन करते रह गए। तो इस तरह यहां उद्योगों को कृषि पर प्राथमिकता दिए जाने का नतीजा भी सूखे का एक कारण है। राज्य के आर्थिक सर्वे के मुताबिक आज स्थिति यह है कि उपलब्ध जल का केवल पचास प्रतिशत ही कृषि के लिए उपयोग हो पाया है। शहरीकरण बढ़ने के साथ-साथ वहां पानी की जरूरतें बढ़ी हैं और इसी का नतीजा है कि किसानों को जरूरत के मुताबिक साफ पानी उपलब्ध नहीं हो पाता।

चौथा कारण है पानी का सही उपयोग कर पाने की अक्षमता। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा गन्ने जैसी फसलों की खेती होती है जो सबसे ज्यादा पानी सोखती हैं। यह सूखाग्रस्त और पानी के मामले में दरिद्र राज्य पूरे देश की लगभग 66 प्रतिशत चीनी का उत्पादन करता है। जबकि उत्तर प्रदेश में गंगा बेसिन के इलाके में इसकी खेती ज्यादा बेहतर हो सकती है। इसलिए किस खेत के लिए पानी का उपयोग किया जाए, इसे लेकर भी समझदारी का अभाव है। पाचवां कारण यह है कि जमीन के भीतर के पानी को रिचार्ज करने की जरूरत को ही भूल गए हैं। इसकी जगह हम उसमें से ज्यादा से ज्यादा पानी निकालने में लगे हैं।

छठी बात यह कि हम जमीन के भीतर पानी को रिचार्ज करने और मृदा संरक्षण के क्षेत्र में निवेश करने में भी अक्षम रहे हैं। पिछले कुछ सालों में पानी के संरक्षण के लिए तालाब और टैंक आदि बनाने की तरफ लोगों का ध्यान गया है। लेकिन इसके लिए धन की बहुत कमी है। यहां तक कि रोजगार गारंटी योजना के तहत भी बहुत उत्पादक काम नहीं हो पा रहा है। इस योजना के तहत नौकरियां तो मिल रही हैं लेकिन काम की गुणवत्ता नहीं। जल संरक्षण के लिए पेड़ तो लगा दिए जाते हैं लेकिन पेड़ों की सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं होता। इस तरह हम पाते हैं कि सूखे की समस्या बहुत हद तक मानव निर्मित हैं।

(लेखिका प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)

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