सूखे के प्रभाव को अमरूद की बागवानी ने कम किया

नदी किनारे की पडुई ज़मीन आमतौर पर खेती लायक नहीं होती। इसमें अमरूद की बागवानी लगाकर आजीविका के बेहतर स्रोत पाने की साथ ही पेड़-पौधों से पर्यावरण संरक्षण में भी सहायता मिलती है।

संदर्भ


जनपद हमीरपुर के मौदहा तहसील के मदारपुर छिमोली के किसान आमतौर पर रबी की फसल को ही मुख्य फसल के रूप में परंपरागत तरीके से लेते चले आ रहे थे, किंतु अपनी आमदनी को कुछ और बढ़ाने के लिए पौध जिनमें टमाटर, मिर्चा आदि शामिल हैं, भी तैयार करते रहते थे। जिसको बेचकर उनके खर्च पूरे होते थे। वर्ष 2000 से लगातार कम व असमय वर्षा के कारण रबी की खेती प्रभावित हुई और मध्यम व छोटी जोत के किसानों के सामने जहां आर्थिक संकट खड़ा हुआ वहीं मजदूरी करने वाले ग्रामीण भी पलायन करने लगे। ऐसी परिस्थिति में किसानों के सामने कोई न कोई विकल्प तलाशने का रास्ता बचा और अंततः कुछ लोगों ने अमरूद की बागवानी लगाने का निर्णय लिया।

परिचय


अमरुद विटामिन ‘सी’ का प्रमुख स्रोत होता है और इसीलिए इसे ग़रीबों का सेब कहा जाता है। इसका उपयोग फल, सब्जी, सलाद तथा पूर्ण भोजन के रूप में किया जाता है। अमरुद के बीज का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है। अमरुद के बाग लगाकर किसानों ने सूखे से उत्पन्न संकट को कम कर अपने परिवारों का जीवनयापन किया। अमरुद की बागवानी करके किसानों ने सूखे की मार से उत्पन्न संकट का सामना ऐसे समय किया, जब पानी का संकट लगातार गहराता जा रहा था और किसानों के लिए परंपरागत खेती करनी मुश्किल हो गई थी। तब मदारपुर, छिमौली गांव के किसानों ने चंद्रावल नदी के किनारे पडुई ज़मीन में अमरुद के पौध लगाकर बागवानी तैयार की।

प्रक्रिया


खेत की तैयारी
अमरूद के पौधे रोपने के लिए मई माह में गड्ढे खोद दिये जाते हैं। गड्ढे की गहराई एवं व्यास 60-60 सेमी. तथा गड्ढों व पौधों के बीच में 6-6 मीटर का अंतर रखा जाता है। ताकि बड़े होने पर जड़ों को पूरी तरह फैलने का स्थान मिल सके। गड्ढा खोदते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि गड्ढे के ऊपर की मिट्टी एक तरफ तथा नीचे की मिट्टी दूसरी तरफ रखी जाए। एक माह तक गड्ढे को खुला छोड़ देते हैं। पुनः खुदी हुई मिट्टी में कम्पोस्ट खाद मिलाकर गड्ढे में एक अंगुल ऊपर तक भर देना चाहिए। भराई के समय भी ध्यान से नीचे की मिट्टी नीचे और ऊपर की मिट्टी ऊपर की तरफ ही भरना चाहिए।

पानी की व्यवस्था


गड्ढे खोदने के बाद उसमें पर्याप्त नमी के लिए वर्षा का जल अथवा अन्य किसी साधन से पानी भर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को दो – तीन बार दोहराया जाता है, ताकि नमी गहरे तक पहुंच जाए और पौध के लिए पानी की कमी न होने पाए।

बीज की तैयारी


बाजार से अच्छे किस्म की अमरुद लाकर उसका बीज निकालकर गोबर के साथ मिलाकर उन्हें कंडों के रूप में पाथ देना पड़ता है, उसके बाद उन्हें सूखने दिया जाता है। लगभग 6 माह बाद यह उत्तम श्रेणी का बीज पौध के रूप में तैयार हो जाता है।

पौधरोपण


पौधरोपण का उपयुक्त समय जून के अंतिम सप्ताह से अगस्त तक होता है। जब गड्ढे में भरपूर नमी हो, तभी उपरोक्त पौध को गीला करके रोपित कर देना चाहिए। पौधे की जड़ों में मिट्टी लगी होती है, गड्ढे में पिंडी के आकार की खुदाई करके उस मिट्टी की सहायता से पौधे को गड्ढे में रोप दिया जाता है।

किस्म


यहां लोग प्रायः इलाहाबादी सफेदा प्रजाति के पौध लगाने को प्रमुखता देते हैं।

फसल उत्पादन


अमरूद का एक पौध ढाई से तीन वर्षों में फल देने लगता है। एक पेड़ में दो कुन्तल तक फल निकलते हैं। कोई-कोई पेड़ इससे अधिक फल देने वाले भी होते हैं। फल की प्राप्यता अमरूद की किस्म पर निर्भर करती है। विशेषतया आकार में बड़े फल देने वाले वृक्ष अधिक उपज देते हैं। अमरूद की मुख्यतया दो फसलें होती हैं- भदैली अमरूद तथा अगहनी अमरूद।

भदैली अमरूद बरसाती होता है। इसके फल जून से सितम्बर तक पकते हैं। इसका स्वाद कुछ कसैला, कम मीठा किंतु स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम होता है। जबकि अगहनी अमरूद के पकने का समय नवंबर से जनवरी तक होता है। इसका फल सुस्वाद, मीठी, गुदार तथा सुपाच्य औषधि के रूप में माना जाता है। दोनों प्रजातियों के लिए किसानों को अधिक पानी, पूंजी व श्रम लगाने की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि उपज के लिए अच्छा बाजार मिलता है व पूर्णतया नगदी फसल के रूप में जाना जाता है।



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