सूखे साहेल में बाढ़ के मायने

2012 में चाड में आई बाढ़ का दृश्य
2012 में चाड में आई बाढ़ का दृश्य

2008 में साहेल में आई बाढ़ का अध्ययन करने गए यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के पेट्रा शाकर्ट और उनके सहकर्मियों ने यह सवाल उठाया था, “क्यों इस सुखाड़ इलाके में इतने पानी का हो जाना एक सहज बात हो चुकी है जबकि हमारे लिये यह समझ से बाहर, एक अवास्तविक बात ही लगती है?” उस समय तक साहेल को एक रेतीला और पठारों से भरे हुए इलाके की तरह देखा जाता था, लेकिन अब हालात उलट हो चुके हैं (साहेल अफ्रीका के पश्चिम से पूर्व को फैली वह पट्टी है जो सहारा के रेगिस्तान को दक्षिण के घास के मैदानों से अलग करती है, देखें मानचित्र) नई सदी की शुरुआत के साथ ही चरम बारिशों का दौर और इससे होने वाली तबाहियों की घटनाओं में इजाफा हो गया। 1970-1990 के बीच औसतन वार्षिक बारिश में अतिशय (एक्सट्रीम) बारिशों की संख्या 17 प्रतिशत थी जो 1991-2000 में बढ़कर 19 प्रतिशत और 2001-2010 में 21 प्रतिशत हो गई।

पिछले कुछ सालों में सवाना का अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र (जो पश्चिम में मारिटानिया से लेकर पूर्व में इरीट्रिया तक फैला हुआ है) में बहुत खौफनाक बाढ़ आई है। अभी तक 2010 और 2012 में ही नाइजर नदी से दो विध्वंसकारी बाढ़ आई है। इस इलाके के मौसम मापक स्टेशन नियामे में है जो 1929 से काम कर रहा है। 2010 में भारी बारिश हुई। नाइजर नदी पिछले 80 सालों का रिकॉर्ड तोड़ उफनते हुए ऊपर उठती गई। अगले ही साल बुर्कीना फासो की राजधानी में दस घंटे में 263 मिमी रिकॉर्ड बारिश हुई। इस बारिश से डेढ़ लाख लोग उजड़ गए, आठ लोग मारे गए और मुख्य जनसुविधा-व्यवस्था बिखर गई।

2012 में नाइजर में आई बाढ़ से 81 लोग मारे गए, 5 लाख 25 हजार लोग उजड़ गए। इसी साल नाइजीरिया में बाढ़ से 137 लोग मारे गए और 35 हजार बेघर हो गए। 2016 में सूडान में दो महीने की लगातार बारिश से 2 लाख लोग प्रभावित हुए, साथ ही 100 लोग मारे गए और हजारों लोगों के घर तबाह हो गए। माली भी इस इलाके के अन्य देशों की तरह ही तबाहियों का शिकार हुआ है। यहाँ लगातार बाढ़ का प्रकोप रहा। 2012 और 2013 में कुल 64 लोग मारे गए और 81 हजार लोग प्रभावित हुए।

जल और पारिस्थितिकी इंजीनियरिंग अन्तरराष्ट्रीय संस्थान, ओआगादोगाऊ, बुर्कीना फासो में वरिष्ठ शोधकर्ता अब्दुल्लाये डिआरा के अनुसार, 1986 से 2016 के बीच बुर्कीना फासो में कुल 77 बाढ़ आई। इसमें से 11 बड़ी बाढ़ 1986 से 2005 के बीच आईं। लेकिन अगले 11 साल में 2006 से 2016 के बीच इसकी बारम्बारता में 55 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। विश्व भर में प्राकृतिक आपदाओं पर नजर रखने वाले इमरजेंसी इवेंट्स डेटाबेस के अनुसार, पश्चिमी अफ्रीका में 1995, 1998 और 1999 में क्रमशः, पाँच, आठ और 11 देशों में ऐसी बाढ़ आई जिसमें इन देशों में कुल दस लाख लोग प्रतिवर्ष प्रभावित हुए।

2008 में साउथ वेल्स विश्वविद्यालय और घाना विश्वविद्यालय ने इस हालात का संयुक्त अध्ययन किया और साहेल क्षेत्र में आने वाले देशों को सलाह दी कि मरुस्थलीकरण की व्याख्या को दरकिनार कर बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही हालात की सम्भावना को स्वीकार कर स्थानीय जनता को उस पारम्परिक ज्ञान की याद दिलाएँ जिससे बचावमूलक शिक्षण और व्यावहारिक अनुकूलन को लागू किया जा सके। इस सुझाव की प्रासंगिकता कुछ ही सालों में समझी गई। खासकर तब जब हाल के अध्ययन साहेल में औचक और अधिक बारिश की सम्भावना पर जोर दे रहे हैं।

इंटर गर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के चौथे असेसमेंट रिपोर्ट (पेज 1210) में दावा है कि अगले दस साल में पश्चिमी अफ्रीका में बारिश का समय, मूसलाधार बारिश और उससे आने वाली बाढ़ में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की आशंका है।

इस असामान्य भारी बारिश को कैसे समझा जाये? मौसम की इस असामंजस्यता का कारण वैश्विक तापमान है। पश्चिम में अटलांटिक सागर और उत्तर में भूमध्य सागर की सतह का तापमान बढ़ने से ज्यादा पानी भाप में बदल जाता है। जब नम हवाएँ भूतल की ओर बढ़ती हैं तब ये भाप से मिलकर आगे बारिशों में बदल जाती हैं। वैश्विक तापमान और भारी बारिश के खतरों के बीच एक रिश्ता है। पर्यावरण में हो रहे बदलाव का यह खतरनाक पक्ष है जिसे 2012 में ओएसिस बर्कले सम्मेलन में पेशकर दिखाया गया था कि 2050 में वर्तमान तापमान में 3 से 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ोत्तरी हो जाएगी।

पोट्सडैम विश्वविद्यालय, जर्मनी और कोलम्बिया विश्वविद्यालय, अमेरिका के पर्यावरण वैज्ञानिकों के संयुक्त अध्ययन ने पाया कि अटलांटिक से साहेल की बढ़ने वाली नम जलवायु भूमध्यसागर के बनिस्पत 21वीं सदी के अन्त तक और भी ज्यादा जोर से बढ़ेंगी। हालांकि भूमध्यसागर से इस नम जलवायु का आगमन समुद्र की सतह की ताप बढ़ने और भाप बनने से तो बढ़ेगा ही लेकिन इसमें अटलांटिक सागर के कारक को जोड़ दें तो इस परिघटना में और बढ़ोत्तरी हो जाएगी। इससे सतह पर चलने वाली हवाओं की गति बढ़ जाएगी।

अध्ययन के संयुक्त लेखक जैकब शेवै ने डाउन टू अर्थ को बताया “हम 30 तरह के मौसम मॉडल का अध्ययन कर रहे हैं जिससे साहेल में गर्मियों में होने वाली बरसात की प्रवृत्तियों को समझ सकें। इनमें से सात मॉडल से पता चलता है कि 2100 में गर्मियों में होने वाली बरसात दोगुनी हो जाएगी। इनमें से तीन में साहेल मध्यवर्ती और पूर्वी भाग में जुलाई से सितम्बर के बीच गर्मियों की औसतन बरसात में 100 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी।”

उत्तरी गोलार्द्ध हो रहा है ज्यादा गर्म


शेवै कहते हैं “पश्चिमी अफ्रीकी मानसून जो अमूमन 9 से 20 डिग्री उत्तर अक्षांश के बीच सक्रिय रहता है और उत्तर की ओर बढ़ते हुए क्षीण होता जाता है, लेकिन भविष्य में यह नए रास्ते बनाते हुए नए क्षेत्र की ओर बढ़ने वाला है।” यह प्रतिस्थापन इस तथ्य को बताता है कि उत्तरी गोलार्द्ध दक्षिणी गोलार्द्ध के मुकाबले तेजी से गर्म हो रहा है और यह लगभग 1980 से होना शुरू हुआ है। मुख्यतः इसका कारण यह है कि उत्तरी गोलार्द्ध में जमीन ज्यादा है और समुद्र कम।

स्क्रिप्प इंस्टीट्यूट ऑफ ओसियनोग्राफी में पर्यावरण विज्ञानी जेफ सेवरिंगास के मुताबिक, “8000 साल पहले उत्तरी गोलार्द्ध (20-40 डिग्री अक्षांश) में दक्षिणी गोलार्द्ध की अपेक्षा कहीं अधिक सूरज की रोशनी की चमक थी। इस महान सौर ऊर्जा के योगदान से उत्तर ज्यादा गर्म हुआ और इस कारण से अफ्रीकी मानसून को उत्तर की ओर ज्यादा बढ़ने का दबाव बना। इस तरह सहारा का क्षेत्र नम होता गया। हम इन तथ्यों से यह बात कह ही सकते हैं कि गोलार्द्धों के तापमान में बदलाव के कारणों से बारिश गर्म इलाकों की ओर बढ़ा है।” बारिश की विपरीत गति भी सामान्य बात है। 1970 से 1980 के बीच उष्णकटिबन्धीय बारिश के दक्षिण की ओर बढ़ जाने से साहेल इलाके में भयावह सूखा पड़ा था।

लगातार बढ़े छोटे तूफान


अप्रैल 2017 के अध्ययन से यह बात पता चली कि 1982 से न केवल जबरदस्त बारिश बल्कि इस वैश्विक तापमान के नतीजे से सहेलियन झंझावातों के आने की संख्या में तीन गुणा बढ़ोत्तरी भी हुई है। ब्रिटेन स्थित सेंटर फॉर इकोलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की अन्तरराष्ट्रीय टीम ने सैटेलाइटों से हासिल 35 साल के अनुभवों-तथ्यों का अध्ययन कर पाया कि पश्चिमी अफ्रीकी साहेल में मेसोस्केल कनवेक्टिव सिस्टम यानी छोटे-छोटे झंझावातों में लगातार वृद्धि हुई है।

साहेल में इन तूफानों की संख्या 1980 में 24 प्रति बरसाती मौसम में हुआ करती थी, अब 81 तक पहुँच गई है। इन तूफानों की तीव्रता में बढ़ोत्तरी होने की वजह से नुकसान का खतरा भी बढ़ गया है। पश्चिमी अफ्रीका के शहरों में बार-बार बाढ़ आने और सफाई की खराब व्यवस्था की वजह से बीमारी बढ़ने का खतरा बढ़ता गया है।

अनहोनी की समस्या


यह क्षेत्र भारत जितना ही बड़ा है और यहाँ 10 करोड़ लोग बसते हैं। स्थानीय लोगों ने इन तबाहियों के साथ ही जीना सीख लिया है। यहाँ के लोग नम जलवायु से जुड़ी औचक स्थिति, उतार-चढ़ाव के साथ अपना अनुकूलन कर चुके हैं। जैसे घाना में दक्षिणी भाग में वर्षा का जोर है तो उत्तरी भाग सूखा है। जो इसके मध्यवर्ती भाग में रहते हैं वे इन दोनों अनुभवों से गुजर रहे हैं। स्थानीय लोग दूरगामी अनुमानों की अवस्थिति के साथ-साथ छोटी समयावधि में हो रहे बदलाव से लगातार जूझते रहते हैं। इस तरह का अनिश्चित हालात लोगों को पर्यावरण के साथ अनुकूलन में एक चुनौती की तरह आ खड़ा होता है।

मौसम की परिवर्तनीयता तो अनिश्चित है लेकिन इस इलाके में जो निश्चित है वह है इसका हमारे ऊपर पड़ने वाली मार और उससे होने वाला नुकसान बारिश की तीव्रता में वृद्धि, पानी निकास की अपर्याप्तता और बेरोक शहरीकरण से पानी की निकासी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इससे स्थानीय बाढ़ आ रही है। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, “अफ्रीका में 4 करोड़ लोग जमीन पर निर्भर हैं जबकि इसकी उत्पादकता में गिरावट आ रही है। कुछ इलाकों में तो जमीन इस कदर सूख और बेजान हो चुकी है कि थोड़ी बहुत बारिश के बाद ही दिल को तसल्ली भर का ही उत्पादन हो जाता है। जमीन पत्थर सी सख्त हो गई है। बारिश ऊपरी सतह से सरककर निकल जाती है। मानो सूखे रास्तों पर हौज से पानी छिड़का गया हो।”

यह विडम्बना ही है कि दुनिया के सबसे कम बारिश वाले इलाके में पानी संचालन सबसे कम है। स्टॉकहोम रेजीलीयेन्स सेन्टर के मेलिन फॉल्केनमार्क और जॉन रॉकस्टार्म के अनुसार, अर्द्ध-शुष्क इलाके में बारिश का एक तिहाई ही फसल के लिये उपयोग में लाया जाता है। पचास प्रतिशत तक पानी जमीन से भाप बनकर उड़ जाता है। जो बचता है वह बहते हुए निकल जाता है या जमीन उसे सोख लेती है। न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय के मारकस डोनाट ने वैश्विक तापमान से बारिशों में हुई बढ़ोत्तरी का अध्ययन किया है। उनका मानना है कि बड़ी बाढ़ों के आने में वृद्धि से यह जरूरी नहीं है कि पानी का संचयन भी बढ़ता जाये। पानी की मात्रा में तीव्र वृद्धि होने का अर्थ यह नहीं है कि पानी की उपलब्धता भी बढ़ती जाये। गर्म मौसम वाले इलाके में पानी का भाप बनकर उड़ना एक आम साधारण कारण है। उनके अध्ययन से पता चलता है कि मध्य ऑस्ट्रेलिया, कैलिफोर्निया, मध्य एशिया, सीनाई और दक्षिणी अफ्रीका में बारिश में वृद्धि की सम्भावना है।

रोक और सुरक्षा


रोक के लिये जरूरी है कि आपके पास पूर्व सूचना हो। इसके लिये जरूरी है कि पर्याप्त मौसम अध्ययन व्यवस्था। डोनाट की शिकायत है कि सभी इलाकों के पर्याप्त ऊँची और अच्छी गुणवत्ता वाले आँकड़े उपलब्ध नहीं है। खासकर, अर्ध-शुष्क इलाके (जैसे साहेल और सहारा) का अवलोकन छिटपुट तरीके से किया गया है। हमारा अध्ययन ठोस तभी हो सकता है जब हम इन इलाकों का उच्चस्तरीय अवलोकन किया जाये। समुदाय का पिछड़ापन मौसम की चरम घटनाओं से निपटने में एक बड़ी बाधा है। जैसे, नियामे में जमीन-प्रयोग की योजना की अपर्याप्तता और बढ़ती जनसंख्या के दबाव की वजह से बाढ़ के ही इलाकों में लोगों के बसने की प्रवृत्ति के रूप में इसे देख सकते हैं।

एक दूसरा कारण भी है जो अनुकूलन क्षमता को बढ़ाने में निर्णायक है और वह है भोजन की सुरक्षा या फसल की उत्पादकता। बाढ़ निकासी खेती जिसमें बाढ़ की जमीन में बची रहने वाली नमी का प्रयोग किया जाता है, को सेनेगल घाटी, कैमरून में लोगोने के मैदान और नाइजीरिया में सोकोटो घाटी में लागू किया गया है। इससे समुद्र तटीय इलाकों में बसने वाले समुदाय को रोजी-रोटी की समस्या हल हुई है। लेकिन इस तरह की खेती में दो तरह की समस्या है। पहली बात तो यह कि बाढ़ से आये पानी को रोकने की व्यवस्था पर कुछ खास शोध और उसका विकास हुआ नहीं है। दूसरे यह कि इस तरह की खेती को सामाजिक-आर्थिक नजरिए से बहुत ही कम समझा गया है। इस इलाके में मारिटानिया ही मात्र एक देश है जिसके पास भरोसे लायक इस बाढ़ आधारित होने वाली खेती और उत्पादन की सूचना है।

विशेषज्ञों की एकमत राय है कि पानी संचयन और इसकी उत्पादकता में निवेश कर जनता में जीने के लचीलेपन को बनाया जाये। खासकर, गरीबों पर ध्यान दिया जाये। बुर्कीना फासो और निग्गर में किसान पत्थरों की लाइनें बनाकर और गड्ढे खोदकर (जिसे स्थानीय भाषा में जाई कहते हैं) पानी रोकने की तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं। जाई छोटे-छोटे पोखरानुमा गड्ढे होते हैं जिसमें पानी लम्बे समय तक बना रहता है। इन्हीं में फसलें बो दी जाती हैं। चाड के अर्द्ध-शुष्क साहेलियन क्षेत्र के किसान भी परम्परागत तकनीक का प्रयोग पानी के लिये कर रहे हैं। ये जो अलग थलग तकनीक प्रयोग में लाये जा रहे हैं उन्हें प्रचारित और प्रयोग में आम बना देने की जरूरत है और छोटी अवधि वाले संकट से निपटान वाली इस तकनीक को लम्बे समय तक बने रहने वाले प्रबन्धन में बदल देने की जरूरत है।

साहेल में न्यूनतम या अधिकतम पानी एक समस्या है। पश्चिमी अफ्रीका की नदियों के किनारों को प्राकृतिक वृक्षों, पानी संरक्षण और संचयन पर जोर देना होगा जिससे जमीन की क्षमता और जल प्रबन्धन को मजबूत किया जा सके। इसके लिये कमजोर समुदायों को अच्छे तरीके से तैयार करना होगा। खासकर, उन समुदायों पर जोर देना होगा जो एक-एक चीज जोड़कर अपनी जिन्दगी का जुगाड़ करने में शुरुआत कर रहे हैं।

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