सूखते उत्तराखंड के पहाड़: कारण और निवारण

1 May 2020
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सूखते उत्तराखंड के पहाड़: कारण और निवारण
सूखते उत्तराखंड के पहाड़: कारण और निवारण

अधिकांश लोग पहाड़ों को पर्यटन स्थल के रूप में मानते आए हैं, जहां वें शहरों की भागदौड़ और प्रदूषण भरी जिंदगी से निकलकर सुकून के दो पल बिताने जाते हैं। एक बड़ा तबका, जो पहाड़ों को काफी करीब से जानता और समझता है, या कहें कि दिल की गइराईयों से प्रकृति से जुड़ा है, इन पहाड़ों को पृथ्वी के प्राण और हृदय (दिल) मानता है। वास्तव में पृथ्वी के प्राण ही हैं पहाड, जो न केवल पर्वतीय इलाकों के लोगों को, बल्कि मैदानी इलाकों को भी शुद्ध हवा देते हैं। पहाड़ों से निकलने वाले प्राकृतिक जलस्रोत और सदानीरा नदियां, हर इंसान को जल प्रदान करती हैं। औषधीय वनस्पतियों का घर हैं पहाड़। यहां हर प्रकार की बीमारी के उपचार के लिए औषधि उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने उत्तराखंड़ की वादियों में ही आए थें। जैवविविधता की दृष्टि से पहाड़ स्वर्ग है, लेकिन इन पहाड़ों को शायद किसी की नजर लग गई है, जिस कारण दुनिया को पानी देने वाला पहाड़ खुद पानी के लिए तरस रहा है। कभी हमेशा पानी से भरे रहने वाले पहाड़ों की कोख लगातार सूखती जा रही है। यहां के बाशिंदे कई इलाकों में बूंद बूंद के लिए संघर्ष करने को मजबूर हैं। कई इलाकों में खेती के लिए तक पर्याप्त पानी उपलब्ध नही हैं। जिस कारण लोग खेती छोड़ रहे हैं। ऐसा ही कुछ हाल उत्तराखंड का है, जहां सरकार और प्रशासन को पहाड़ों के सूखने का कारण तो पता है, लेकिन उनकी तरफ से ऐसी कोई पहल होती नजर नहीं आ रही है, जिससे पहाड़ों की सूखती कोख में फिर से पानी भरा जाए।

कहते हैं जंगल के लिए पानी बेहद जरूरी है, लेकिन ‘जंगल’ किस प्रकार का हो, इस पर कोई चर्चा नहीं करता है। फाॅरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘उत्तराखंड़ का कुल भौगोलिक क्षेत्र 53483 स्क्वायर किलोमीटर है। इसमें 24303 (45.44 प्रतिशत) स्क्वायर किलोमीटर में वन क्षेत्र है।’’ राज्य में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधें और वनस्पतियां हैं, लेकिन पहाड़ों का अधिकांश हिस्सा चीड़ के पेड़ों से घिरा है। चीड़ के पेड़ के कई प्रकार के लाभ हैं, लेकिन ज्यादा संख्या में चीड़ नुकसानदायक साबित होता है। एक प्रकार से उत्तराखंड का दुश्मन बना हुआ है चीड़। दरअसल उत्तराखंड में चीड़ पहले नहीं था। औपनिवेशिक काल में पहाड़ की आर्थिकी मजबूत करने के नाम पर चीड़ लगाया गया। अंग्रेजों ने चीड़ से खूब लाभ कमाया। वक्त के साथ जैसे जैसे चीड़ का फैलाव हुआ, उत्तराखंड़ के पहाड़ों पर संकट मंडराना शुरु हो गया। संकट का एक बड़ा कारण घनी आबादी भी है।

कारण

वर्ष 1995 में उत्तराखंड़ के जंगलों भी भीषण आग लगी थी। लगभग 375000 हेक्टेयर क्षेत्र आग से प्रभावित हुआ था। कई अध्ययनों के बाद पता चला कि आग का कारण चीड़ है। एक तरह से पहाड़ के लिए अभिशाप बन गया चीड़। अब तो हर साल आग लगना आम बात है, जिससे जैवविविधता को भारी नुकसान पहुंचता है। उत्तरखंड (वर्ष 2000) गठन के बाद से अब तक उत्तराखंड में 44 हजार हेक्टेयर से ज्यादा जंगल आग के हवाले हो चुका है। इसके अलावा पहाड़ों के सूखने का कारण बढ़ती आबादी भी है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार राज्य की आबादी करीब 84.5 लाख थी, जो 2011 में एक करोड़ से ज्यादा हो गई। एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड की वर्तमान जनंसख्या 1 करोड़ 10 लाख से ज्यादा है। बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पहाड़ों पर भवनों का निर्माण करवाया गया। नैनीताल, मसूरी, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, चमोली आदि में जहां भौगोलिक और पर्यावरण सरंक्षण की दृष्टि से एक निर्धारित संख्या से ज्यादा लोगों को न बसाने की हिदायत दी जाती है, वहां कैरिंग केपेसिटी या क्षमता से ज्यादा लोग बसे हैं। इनके भवनों और सड़कों का निर्माण वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बिना किया गया। सतत विकास का कोई माॅडल नहीं है। पर्यटकों की संख्या को सीमित करते हुए पर्यटन का प्रभावी माॅडल अभी तक नहीं बनाया गया है। जिस कारण हर साल पर्यटक बढ़ने से पहाड़ों और यहां के संसाधनों पर दबाव पड़ रहा है। वाहनों की बढ़ती संख्या ने संकट को और बढ़ा दिया है।  

प्रभाव

चीड़ का पेड़ जमीन से पानी को सोख लेता है। वह अपने आच्छादित क्षेत्र में किसी अन्य वनस्पति को पनपने नहीं देता। चीड़ से झड़ी पत्तियां, जिन्हें ‘पिरूल’ कहा जाता है, भूमि को ऊपर से पूरा ढंक देती हैं। जिससे पानी ठीक प्रकार से जमीन के अंदर नहीं पहुंच पाता। लंबे समय तक पत्तियां जमा होने से भूमि की उर्वरा शक्ति भी क्षीण हो जाती है। भूमि धीरे धीरे बंजर होने लगती है। गर्मियों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण भी यही पिरूल है। चीड़ ने कहीं न कहीं पहाड़ के तापमान को बढ़ाने में भी योगदान दिया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पहाड़ की भौगोलिक परिस्थिति को देखे बिना अधिक संख्या में किए गए भवन निर्माण से अधिकांश जलस्रोत सूख गए हैं। कूड़ा निस्तारण न होने से शेष बचे अधिकांश जल स्रोत साॅलिड वेस्ट, सीवरेज और औद्योगिक कचरे के कारण प्रदषित हैं। नतीजतन, 60 प्रतिशत से ज्यादा जलस्रोत सूख गए हैं। नदियां सूखने की कगार पर हैं। नौले-धारे केवल किताबों तक ही सीमित होते जा रहे हैं। परिणामतः उत्तराखंड के हर पहाड़ी जनपद में जल संकट है। नैनीताल, मसूरी और अल्मोड़ा सबसे ज्यादा संकटग्रस्त हैं। बागेश्वर में सरयू  नदी में पानी कम होने से, धीरे धीरे जल संकट गहराता जा रहा है। आज सरयू नदी में इतना कम पानी है कि लोग इसे पैदल पार कर लेते हैं। केदारनाथ के पास चोराबारी ग्लेशियर से निकलने वाली मंदाकिनी नदी में में पानी पहले की अपेक्षा कम हो गया है। सोनप्रयाग में मंदाकिनी और वायुकी गंगा का संगम होता है, लेकिन केदरनाथ आपदा के बाद से यहां पानी काफी कम नजर आता है। यही मंदाकिनी आगे चलकर अलकनंदा में मिल जाती है। दूर दराज के कई गांव में लोगों को पानी लाने के लिए 2-3 किलोमीटर तक जाना पड़ता है।

निवारण

पहाड़ों को सूखने से बचाने के लिए सतत विकास का एक माॅडल तैयार करना होगा। जिसके माध्यम से पहाड़ों में बढ़ती आबादी और भवनों के निर्माण को सीमित किया जाए। बड़े निर्माण पर रोक लगे। यदि ज्यादा जरूरी होने पर कोई निर्माण करवाया जाता है, तो निर्माण कार्य प्रकृति के अनुरूप हो। जिन स्थानों पर प्राकृतिक स्रोतों पर भवन या अन्य निर्माण किए गए हैं, उन्हें पुनजीर्वित करने की योजना तैयार की जाए। मृदा अपरदन और भूजल को रिचार्ज करने में वनों का विशेष महत्व होता है, लेकिन हमें वनों की परिभाषा को समझना होगा और मिश्रित वन पर जोर देना होग, जिसमें चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगाने होंगे। एक तरह से हमें चीड़ का विकल्प तैयार करना है और चीड़ को फैलने से रोकना होगा। मिश्रित वन के लिए हम ‘जगत सिंह जंगली’ जैसे लोगों के माॅडल को अपना सकते हैं। इससे राज्य को सूखने और जलने से बचाया जा सकेगा। यदि ऐसा नहीं किया तो, उत्तराखंड बारूद के ढेर पर बसा एक राज्य बन जाएगा। 

यहां पढ़ें एफएसआई की पूरी रिपोर्ट - Forest Survey Of India Report 2019


हिमांशु भट्ट (8057170025)


 

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