स्वानुशासन ढूंढता स्वराज

27 Jun 2014
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Arun tiwari
Arun tiwari
सिंधु घाटी सभ्यता इसमें एक बात और जोड़ती है; वह है प्रभुत्व का भाव न वास्तविक हो और न ही दिखावटी। वहां अनुुशासन था, पर ताकत के बल पर नहीं। मगर कोई अनुशासन जरूर था जो नगर योजना, वास्तुशिल्प, मुहर-ठप्पियां, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं में एकरूपता को कायम रखे हुए था। दूसरी बात, जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओं से अलग खड़ा करती है, वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना।’’ ‘स्वराज’ की एक व्याख्या ‘अपना राज’ के रूप में की गई है। कुछ लोगों की नजर में ‘अपना राज’ का मतलब है -भारत पर भारतीयों का राज; ‘ग्राम स्वराज का मतलब है, देश पर गांव का राज।

अरविंद केजरीवाल ने ‘स्वराज’ का मतलब ‘तंत्र पर जनता का राज’ से लगाया। क्या बापू की नजर में भी स्वराज का असल मतलब यही था? प्राकृतिक संसाधनों व गांवों पर हावी होते बाजार तथा हमारे मन-मस्तिष्क पर राज करते मीडिया संवाद की 21वीं सदी में इस पर विचार करना सचमुच मौजूं होगा। आइये करें!

जरा सोचिए! यदि ‘स्वराज’ को प्रत्येक व्यक्ति, जाति, धर्म, संपद्राय, वर्ग, वर्ण, अमीर, गरीब.. सब ‘अपना राज’ कहकर लागू करने पर लग जाए, तो स्थिति कैसी हो जाएगी? क्या स्थिति वाकई अराजक नहीं हो जाएगी? पहला जवाब है - “हां, बिल्कुल अराजक हो जाएंगी, यदि हम इसी तरह व्यक्ति, जाति, धर्म, संप्रदाय, वर्ग या वर्ण बने रहे, जैसा कि आज हम हैं।’’

दूसरा जवाब होगा - “नहीं, बिल्कुल ऐसा नहीं होगा; बशर्ते हम भिन्न जाति-धर्म-वर्ण-वर्ग के होते हुए भी ये सब न होकर ‘समुदाय’ हो जाएं। “यह समुदाय हो जाना ही विविधता में एकता है। समुदाय होकर ही भारत का गांव समाज सदियों तक ऐसी परिस्थितियों में भी टिका रहा, लाॅर्ड मेटकाफ की नजरों में जिन परिस्थितियों में दूसरी हर वस्तु.. व्यवस्था का अस्तित्व मिट जाता है।

समुदाय की भारतीय परिकल्पना दो सांस्कृतिक बुनियादों पर टिकी है: ‘सहजीवन’ और ‘सहअस्तित्व’। यह बुनियाद जीवन विकास संबंधी डार्विन के उस वैज्ञानिक सिद्धांत को पुष्ट करती है, जो परिस्थिति के प्रतिकूल रहने पर मिट जाने और अनुकूल तथा सक्रिय रहने पर विकसित होने की बात कहता है।

स्पष्ट है कि साथ रहना है और एक-दूसरे का अस्तित्व मिटाए बगैर। लेकिन ऐसा कब होगा? ऐसा तब होगा, जब प्रत्येक समुदाय स्वानुशासित होगा। इस तैयारी और मानसिकता के साथ चलने वाली कोई भी व्यवस्था, सुव्यवस्था हो सकती है; फिर भले ही वह राजतंत्र ही क्यों न हो। भारत का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। सिंधु घाटी सभ्यता इसमें एक बात और जोड़ती है; वह है प्रभुत्व का भाव न वास्तविक हो और न ही दिखावटी।’’

वहां अनुुशासन था, पर ताकत के बल पर नहीं। मगर कोई अनुशासन जरूर था जो नगर योजना, वास्तुशिल्प, मुहर-ठप्पियां, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं में एकरूपता को कायम रखे हुए था। दूसरी बात, जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओं से अलग खड़ा करती है, वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना।’’

आइए! जरा अतीत के और पन्ने पलटें। वैदिक साहित्य में विशः, सभा, समिति और नरिष्ठा जैसे नाम से इनका उल्लेख कई बार किया गया है। विशः ऐसी समिति थी, जो राजा तक का चुनाव करती थी। इसी समिति के माध्यम से प्रत्येक गांव में एक नेता चुना जाता था। उसे ‘ग्रामणी’ कहा जाता था।

प्रत्येक गांव एक छोटा सा स्वायत्त राज्य था। स्वायत्त होने के बावजूद यह व्यवस्था अराजक नहीं थी। क्यों? क्योंकि राजा व गांव एक-दूसरे की सत्ता को चुनौती देने की बजाय एक-दूसरे के पोषक और रक्षक की भूमिका में थे। “सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने।’’-अथर्ववेद 7/12/1 यानी सभा-समितियां दुहिता यानी पुत्री के समान हैं। राजा इसी भांति उनका पोषण करे और ये दोनों मिलकर राजा की रक्षा करें।

यह थी सहजीवन और सहअस्तित्व पर टिकी सुव्यवस्था...सुशासन! जिसने राजा को चुना, राजा उसे पुत्री समान समझ कर पोषण करे और पुत्रियां वक्त आने पर राजा की रक्षा करें। ध्यान देने की बात है कि श्लोक समितियों को ‘पुत्र’ न कह कर ‘पुत्री’ समान कहता है। क्यों? क्योंकि पिता-पुत्री संबंधों की मर्यादाएं कुछ भिन्न होती हैं। अपनी निजी आजीविका... उपभोग हेतु पिता को पुत्री की कमाई का धन निषेध था। राजा का पद वंशानुगत भी होता था; बावजूद इसके किसी भी हालत में राजा को आर्य नियमों के विरुद्ध जाने नहीं दिया जाता था।

वाल्मीकि रामायण में गणराज्यों और उनके मेल से बने संघों का वर्णन है। रामायण कालीन राज्य सभा में सर्वाधिक शक्तिशाली अंग ‘पौर जनपद’ था। पौर जनपद में राजधानी के नैगम और गण्वल्लभ तथा ग्रामप्रांत के ग्रामघोष, महत्तर और समविष्ट होते थे। स्पष्ट है कि गांव समितियों का हस्तक्षेप तब राज्यसभा तक था।

समझ सकते हैं कि ये समितियां राजा के लिए कितनी महत्वपूर्ण रहीं होंगी। मौर्य कालीन व्यवस्था में राजा ने कभी ग्रामीण संस्थाओं के कार्य में हस्तक्षेप नहीं किया; बावजूद इसके लोग स्वेच्छा से नियमों का पालन करते थे। कहना न होगा कि सुशासन तानाशाही, जबरदस्ती या प्रताड़ना की बजाय स्वप्रेरणा व स्वानुशासन पर आधारित व्यवस्था का नाम है।

स्वानुशासन..सुशासन की पहली निशानी है। अंग्रेजों ने सबसे पहले इसी निशान को तोड़ा। इसके निशान के टूटने के दुष्परिणाम भारत आज तक भुगत रहा है। उन्होंने भूमि व्यवस्था, जंमीदारी प्रथा और दूसरे कानूनों के जरिए सबसे पहले ग्रामीण संस्थाओं में ही हस्तक्षेप किया। स्वराज स्वानुशासन के निशान को वापस नहीं ला सका। क्यों? क्योंकि हमने स्वराज का मतलब ‘अपना राज’ समझ लिया; जबकि ‘स्वराज’ का असल मतलब अपने ऊपर खुद का राज है...स्वानुशासन!

यह ‘स्वानुशासन’ ही किसी भी प्रकार के तंत्र में ‘सुशासन’ की गारंटी देने में सक्षम है। ‘स्वानुशासन’ ‘सुराज’ का मूलमंत्र है। ‘स्वानुशासन’ के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था होने के कारण ही लोकतांत्रिक व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ माना गया। लोकतंत्र में लोकप्रतिनिधियों का स्वानुुशासित होना सुशासन की खुद-ब-खुद गारंटी है।

हालांकि किसी भी व्यवस्था में स्वानुशासन सबसे आदर्श स्थिति होती है। यह आदर्श स्थिति हमेशा नहीं होती। इतिहास में कई दौर ऐसे आए हैं। इतिहास के वर्तमान काल में भी आप तंत्र में ‘स्वानुशासन’ के ख्याल को फिलहाल मुंगेरीलाल के हसीन सपने कह सकते है। बावजूद इसके एक सत्य सार्वभौमिक और निर्विवाद है कि अनुशासित हुए बगैर सुशासन संभव नहीं। इससे समझौता नहीं किया जा सकता। इससे समझौता करने का हश्र वही होता है, जो आज भारत का है।

आज भारत में समाज और शीर्ष... दोनों का स्वानुशासन टूट गया है। जो सत्ता स्व-अनुशासित नहीं होती, उसके निरंकुश होने का खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसी सत्ता को अनुशासित करने के लिए हर काल... हर युग में किसी न किसी ने भूमिका निभाई। स्वानुशासित समाज यह भूमिका निभाने में सबसे सक्षम रहा। जो समाज ही स्वयं ही अनुशासित न हो, उसमें सत्ता को अनुशासित करने की क्षमता नहीं होती।

सच्चाई यह है कि समाज का स्वानुशासन टूटने की स्थिति में ही किसी शासन या प्रशासन की जरूरत महसूस होती है। परिवार में मुखिया को हस्तक्षेप की जरूरत तब आती है, जब सदस्यों में स्व-अनुशासन न रह जाए। परिवारों द्वारा आपसी व्यवहार का अनुशासन तोड़ने पर परंपरागत पंचायतें अस्तित्व में आईं। भारत में लंबे समय तक राजसत्ता धर्मसत्ता द्वारा अनुशासित होती रही। राजा भी धर्मसत्ता के अंकुश से संचालित होता था। कथानक है कि निरंकुश होने पर इन्द्र जैसे देवप्रमुख को भी अपने आसन से च्युत होना पड़ता था। क्रमशः विदुर और चाणक्य जैसे बुद्धिजीवियों ने राजसत्ता को अनुशासित करने के उदाहरण हैं।

तंत्र चाहे किसी भी स्तर का हो, उसके संचालन पांच सूत्र माने गए हैं: संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार। यदि ये पांच सूत्र.. पांच प्रक्रिया सक्रिय हैं, तो इसका मतलब व्यवस्था सुचारु और लोकतांत्रिक है। इन पांच सूत्रों के आधार पर तंत्र का संचालन सुशासन की खिड़कियों को बराबर खोलकर रखता है। जरा आकलन कीजिए कि क्या वर्तमान भारत सही मायने में लोकतांत्रिक है? वह कौन-कौन सी खिड़कियां हैं, जो बंद या अधखुली होने के कारण हमें अपेक्षाओं से वंचित कर रही हैं।

सोचिए! क्या हमारी पंचायत और ग्रामसभा के बीच, निगम और मोहल्ला समितियों के बीच सतत् और बराबर का संवाद है? क्या हमारे जनप्रतिनिधियों ने जनता से अलग एक ऐसा रुआब नहीं बना लिया है, मानों वे किसी और लोक के प्राणी हों? क्या गांव से लेकर राष्ट्र तक किसी भी स्तर तक नीति, विधान, योजना व कार्यक्रम व्यापक सहमति से बनाए व चलाए जाते हैं?

क्या हम और हमारी सरकारें दोनोें एक-दूसरे के लिए ढाल बनकर खड़ा रहने को लालायित दिखाई देते हैं? क्या हमारा सरकार के निर्णयों-कार्यक्रमों में बराबर का सहभाग और सहकार रहता है? यदि ऐसा नहीं है, तो वह कैसे हो? क्या तंत्र को किसी परिवर्तन की आवश्यकता है? इस तंत्र का मूलाधार तो हम खुद हैं। क्या यह जरूरी नहीं कि हम खुद एक-एक प्रश्न का उत्तर तलाशें और उसे व्यवहार बनाए। पहले खुद में, फिर परिवार और समुदाय में;... तब कहीं जाकर तंत्र के शीर्ष में हम वह हासिल करने की कोशिश करें, जो अपेक्षित है: सहजीवन! सहअस्तित्व !! स्वअनुशासन !! प्रभुत्व का अभाव !! और सुशासन के पांच सूत्र !!
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