स्वच्छता से कम हो सकती है बाल मृत्यु

13 Oct 2010
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विश्व में 16 फीसदी बच्चों की मृत्यु डायरिया से होती है। 35 लाख बच्चे डायरिया एवं निमोनिया के कारण अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते। पांच साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चों की मौत डायरिया से होती है, जिसमें से 3,86,600 भारतीय बच्चे होते हैं। डायरिया एक ऐसी बीमारी है, जो साफ-सफाई के अभाव में तेजी से फैलती है। व्यक्तिगत स्वच्छता हो या फिर पानी का उपयोग करने का स्थान, दोनों ही स्थान पर गंदगी होने से डायरिया होने की संभावना बढ़ जाती है। निश्चय ही यह एक ऐसा तथ्य है, जिसपर किसी का ध्यान नहीं जाता है। भारत सहित अन्य एशियाई देशों में स्वच्छता पर कम ध्यान दिया जाता है। अभी दिल्ली में चल रहे राष्ट्रमंडल खेलों में सफाई के लिए बैनर, होर्डिंग सहित प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापन देने पड़े। देश में स्वच्छता को लेकर जागरूकता का अभाव है।

यूनीसेफ के अनुसार, ’’ भारत में टॉयलेट के बाद या बच्चों की सफाई के बाद मां का हाथ धोने का प्रतिशत बहुत ही कम है, जबकि साबुन से हाथ धोने पर डायरिया होने की संभावना बहुत ही कम हो जाती है। डायरिया से बचने के विभिन्न कारणों में से एक है - साबुन से हाथ धोना। साबुन से हाथ धोने पर डायरिया होने की संभावना 44 फीसदी कम हो जाती है। साबुन से हाथ धोने से पानी से होने वाली विभिन्न बीमारियों से बचा जा सकता है और यह बहुत खर्चीला काम नहीं है। इसे सभी वर्ग के सभी क्षेत्र के लोग अपना सकते हैं और उपयोग कर सकते हैं, बशर्ते कि उनमें इसे लेकर पर्याप्त जागरूकता हो।‘‘ सामान्य तौर पर लोग सादा पानी से, मिट्टी से या फिर राख से हाथ धोते हैं, जबकि ये इतने प्रभावी नहीं होते, इसलिए साबुन से हाथ धोने की आदत लोगों में विकसित करनी होगी, भले ही वे सस्ते एवं स्थानीय साबुन क्यों न उपयोग करें।

धार जिले के धरमपुरी विकासखंड के सनकोटा ग्राम पंचायत सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत स्वच्छता को लेकर सजग गांवों में से एक है। इस गांव में घुसने के पहले नाक पर हाथ रखना पड़ता था, पर अब ऐसा नहीं है। गांव में चारों ओर ताजगी एवं स्वच्छता का अहसास होता है। सभी घर में शौचालय, स्नानघर और वाटर रियूज सिस्टम लगा हुआ है. ऐसे में पिछले साल से पानी से होने वाली बीमारियों में भी कमी आई है। पिछले साल निर्मल ग्राम की उपाधि पाने वाला सनकोटा उन गांवों में से है, जो सिर्फ नाम के लिए निर्मल ग्राम नहीं है और न ही फिर से गंदगी के चपेट में आने वाला गांव है, बल्कि समय बीतने के साथ ही यहां के लोगों में स्वच्छता को लेकर चेतना का विकास हो रहा है। पहले इस गांव से बाहर निकलने वाली सड़कों के किनारे शौच की गंदगी पसरी हुई थी। मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में उल्टी-दस्त सहित पानी से होने वाली बीमारियों का प्रकोप ज्यादा रहता है। आदिवासी बहुल सनकोटा में कुशल जल प्रबंधन एवं स्वच्छता अभियान से बीमारी में कमी आई है।

गांव की सफाई से प्रेरणा लेकर आंगनवाड़ी में भी स्वच्छता का ख्याल रखा गया है। आंगनवाड़ी में शौचालय और हाथ धोने के लिए अलग पानी की व्यवस्था की गई है। इसी गांव में आदिवासी बालक आश्रम है, जहां 50 बच्चे रहते हैं। आश्रम में स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसके लिए बच्चों को अलग से समझाया जाता है। नए बच्चों को पुराने बच्चे यह बतलाते हैं कि वे साबुन का उपयोग हाथ धोने में अवश्य करें, जिससे कि गंदगी से होने वाली बीमारियों की संभावना कम हो जाए। अब गांव की महिलाएं बताती हैं कि घर में शौचालय एवं स्नानघर होने से महिलाओं को सबसे ज्यादा सहूलियत हुई है। पहले खुले में शौच करना शर्मनाक था। दस्त होने पर महिलाओं के लिए बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। सनकोटा के सभी घरों में वाटर रियूज सिस्टम लगा हुआ है। स्नानघर के पानी को रॉक फिल्टर के माध्यम से ग्रे वाटर में बदला जाता है और उसका इस्तेमाल शौचालय में फ्लशिंग के लिया किया जाता है. शौच के बाद मिट्टी के बजाय साबुन से हाथ धोने की परंपरा भी इस गांव में अब विकसित हो चुकी है, जिससे बीमारियों से बचने में हमें काफी मदद मिली है। निश्चय ही सनकोटा में अब साफ-सफाई की चमक है। लोगों में व्यक्तिगत स्वच्छता एवं ग्रामीण स्वच्छता के प्रति जागरूकता होने से सनकोटा सही मायने निर्मल ग्राम है। यदि इसी तरह की जागरूकता एवं उपाय अन्य गांवों में किए जाए, तो न केवला पानी से होने वाली बीमारियों से बचा जा सकता है बल्कि बाल मृत्यु में कमी लाई जा सकती है।

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