स्वजलधाराः अब कर्ज में डूबेंगे जल स्रोत

विश्व बैंक के दबाव में सरकार दूसरे सेवा क्षेत्रों की तरह पेयजल व्यवस्था से भी हाथ खींच रही है। जैसा कि कहा जा रहा है कि 21वीं सदी में पानी बेहद कीमती संसाधन की हैसियत पा लेगा, विश्व बैंक किसी भी कीमत में भारत के विशाल ग्रामीण क्षेत्र को जल-बाजार के दायरे में लाना चाहता है। इसलिए उसके दस्तावेज़ अब तक चल रही ‘सब्सिडी’ आधारित जल प्रबंध व्यवस्था को समाप्त करने पर जोर देते हैं और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का दाम चुकाने की वकालत करते हैं। आर्थिक रूप से कंगाल हो चुकी राज्य सरकारों के पास अपनी जर्जर काया और बोझ बनी नौकरशाही को ढोने के लिए एकमात्र रास्ता विश्व बैंक का कर्ज है। जिस वक्त देश में सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनियों को कौड़ियों के मोल बेचा जा रहा है, नदियां निजी कंपनियों को सौंपी जा रही हैं, विनिवेश और निजीकरण की आंधी के साथ सरकार एक-एक कर सार्वजनिक क्षेत्र की अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रही है और देश का कृषि क्षेत्र अब तक के सबसे बड़े संकट की ओर बढ़ रहा है, एक अत्यंत महत्वपूर्ण योजना की बुनियाद रखी जा रही है। 25 दिसम्बर को प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने जन्मदिन पर आठ राज्यों के 883 जिलों में ग्रामीण पेयजल प्रबंध के लिए ‘स्वजलधारा’ कार्यक्रम की घोषणा की। विश्व बैंक की सहायता से अविभाजित उत्तर प्रदेश में 1996 में शुरू की गई ‘स्वजल’ परियोजना की कथित ‘अभूतपूर्व’ सफलता को देखते हुए अब इसे पूरे देश में विस्तार दिया जा रहा है। अब ग्रामीण अपनी पेयजल ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वयं योजनाएं बनाएंगे। उन्हें कार्यान्वित करेंगे और उनका रखरखाव व प्रबंधन करेंगे। वे परियोजना की लागत में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी करेंगे तथा इसके संचालन व रखरखाव के खर्च को भी उठाएंगे केंद्र सरकार परियोजना लागत में 90 प्रतिशत का हिस्सेदार होगा ‘स्वजलधारा’ की घोषणा में यह नहीं बताया गया कि कार्यक्रम के लिए केंद्र पैसा कहां से जुटाएगा लेकिन ‘स्वजल’ के दस्तावेज़ बताते हैं कि इसके लिए पहले ही विश्व बैंक से आवेदन किया जा चुका है।

ग़ौरतलब है कि 6.3 करोड़ डालर के कर्ज से चलाई जा रही बहुचर्चित ‘स्वजल परियोजना’ उत्तर प्रदेश के (बुंदेलखंड और उत्तराखंड क्षेत्र के) 19 जिलों में 6 वर्षीय पाइलट प्रोजेक्ट के बतौर चलाई जा रही थी। इसके अंतर्गत लगभग 1200 गाँवों का चयन किया गया था। सिद्धांततः परियोजना के मुख्य उद्देश्य थे-
1. पर्यावरणीय स्वच्छता व जलापूर्ति सेवाओं में सुधार के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ पेयजल आपूर्ति
2. वर्तमान आपूर्ति आधारित पेयजल व्यवस्था के विकल्प में मांग आधारित ‘स्वजल’ परियोजना की सफलता का परीक्षण
3. समय की बचत से ग्रामीण महिलाओं की आय में वृद्धि,
4. स्वच्छता तथा लैंगिक जागरुकता लाना, तथा
5. सही नीतिगत ढांचे व रणनीति के जरिए ग्रामीण जलापूर्ति व स्वच्छता की टिकाऊ व्यवस्था लागू करना।

‘स्वजल’ की परिकल्पना में एक मार्के की बात यह भी है कि इसकी दृष्टि में ग्राम समाज निहायत पिछड़ी व गंदी रहने वाली ऐसी असंगठित इकाइयाँ हैं जिन्हें स्वयंसेवी संस्थाओं के विशेषज्ञों के जरिए साफ-सफाई से लेकर संगठित होने का प्रशिक्षण देने की जरूरत है। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि सिर्फ आधी सदी पहले तक हिमालय के निवासी बेहद कठिन भूगोल में सदियों से अपने पानी का इंतज़ाम खुद करते आए हैं। यही नहीं उनकी परम्पराओं में स्रोत की प्रकृति के मुताबिक कलात्मक जल-संग्रह ढांचे बनाने और उन्हें साफ सुथरा रखने की तमीज भी मौजूद है यह तो आज़ाद भारत की सरकारें थीं, जिन्होंने उनकी स्वायत्तता लील कर उन्हें भ्रष्ट सरकारी तंत्र का गुलाम बनने का संस्कार दिया। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि स्वच्छता संबंधी व्यवहार काफी हद तक समुदाय की आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करता है। आजीविका के एक निश्चित स्तर से उसके अनुरूप साफ रहने का समय और सुविधा मिलता है। इसलिए किसी समुदाय के स्वच्छता संबंधी व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए उसकी आर्थिक स्थिति में परिवर्तन करना पहली शर्त है। सूर्योदय से लेकर देर रात तक भटकने वाली पर्वतीय स्त्रियों को उनके काम का बोझ घटाए बिना ‘स्वच्छता’ का उपदेश देना हास्यास्पद ही नहीं, अपमानजनक भी है।

‘स्वजल’ परियोजना जलापूर्ति के लिए जिम्मेदार उ.प्र. जल निगम के समानांतर चलाई गई। ‘स्वजल’ की प्रस्तावना में कहा गया है कि मूलतः आपूर्ति आधारित व्यवस्था के तहत जल निगम की योजनाओं में प्रबंधन में लाभार्थियों की भागीदारी व ज़िम्मेदारी सुनिश्चित नहीं की जाती है। यह अत्यंत केंद्रीकृत संगठन है और इसमें जरूरत से ज्यादा कर्मचारी रखे गये हैं। जल निगम में अपनी योजनाओं के निर्माण व रखरखाव में खर्च की जाने वाली धनराशि को वसूलने की उचित व्यवस्था नहीं है। घटिया रखरखाव के कारण इसकी एक तिहाई योजनाएं हमेशा निष्क्रिय रहती हैं। अतः जल निगम की इस बदहाली को देखते हुए सरकार ने ग्रामीण पेयजल हेतु नीतिगत व संस्थागत बदलाव का फैसला लिया। इसके लिए सरकार विश्व बैंक की मदद से ‘स्वजल’ परियोजना को लेकर आई है और सरकार के पास अब दो समानांतर पेयजल व्यवस्थाएं हैं।

अब सवाल था कि ‘स्वजल’ को चलाने की ज़िम्मेदारी किस संस्था को दी जाय जल निगम चूकि पहले ही बीमारियों का भंडार साबित किया जा चुका है इसलिए उसे चुनने का सवाल ही नहीं था। दूसरे नम्बर पर थी गाँवों में मौजूद पंचायती संस्थाएं जिन्हें वह ज़िम्मेदारी दी जा सकती थी। विश्व बैंक की सूचना के अनुसार उ.प्र. में पंचायती संस्थाएं अपने चरित्र में ‘सामंती’ हैं अतः उन्हें स्वजल की ज़िम्मेदारी कैसे दी जा सकती थी? अतः तय किया गया कि यह काम सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत पंजीकृत समितियों के माध्यम से किया जाएगा। चूंकि स्वजल परियोजना मांग आधारित थी अतः यह उन्हीं गाँवों में लागू की जा सकती थी जहां पेयजल की ‘मांग’ सर्वाधिक हो ‘मांग’ की पैमाइश के लिए विश्व बैंक का पैमाना बेहद दिलचस्प है। योजना की कीमत चुकाने को जो गांव सबसे अधिक तत्पर हो उसे मांग के पैमाने पर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जाहिर है इस पैमाने के अनुसार कमजोर आर्थिक स्थिति वाले गांव परियोजना की परिभाषा से बाहर हो गए। यह दीगर बात थी कि पानी की जरूरत सबसे ज्यादा उन्हें ही थी।

परियोजना के कार्यान्वयन के लिए गांव के स्तर पर ‘राम जल एवं स्वच्छता समितियों’ का गठन किया गया जिन्हें संवैधानिक मान्यता दी गई। इन्हें ‘सहयोगी संस्था’ के रूप में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं निर्देशित करती थीं जो स्वयं एक राज्य स्तरीय स्वंयसेवी संस्था ‘परियोजना प्रबंध इकाई’ (प्रोजेक्ट मैनेजमेंट यूनिट) अपनी जिला स्तरीय ‘जिला परियोजना प्रबंध इकाइयों’ (डीपीएमयू) के माध्यम से नियंत्रित होती थीं। बताया तो यह जाता है कि यह एक ‘उलटे पिरामिड’ जैसी व्यवस्था थी जिसमें सबसे ऊपर समुदाय हैं और सबसे नीचे राज्य स्तरीय परियोजना प्रबंध इकाई व बीच में स्वंयसेवी संस्थाएं हैं। लेकिन व्यवहार में परियोजना पर परियोजना प्रबंध इकाई व स्वयंसेवी संस्थाओं का ही वर्चस्व कायम रहा। ‘सहयोगी’ स्वयंसेवी संस्थाओं के ज़िम्मे ‘मांग’ के पैमाने पर खरे तरने वाले गाँवों को समितियों के गठन, योजना निर्माण व रखरखाव के तकनीकी पक्षों के प्रशिक्षण के जरिए धीरे-धीरे उन्हें इस व्यवस्था में स्वायत्त स्थिति तक पहुंचाना है। लेकिन आमतौर पर सभी स्वजल संस्थाओं के कार्यकर्ता मानते हैं कि यदि उनकी संस्था परियोजना से हट जाए अथवा परियोजना के लिए पैसा मिलना बंद हो जाए तो पूरी ‘स्वजल’ व्यवस्था धराशाई हो जाएगी। सच तो यह है कि स्वयंसेवी संस्थाएं ही स्वजल परियोजना की धुरी हैं।

स्वयंसेवी संस्थाओं के काम करने का अपना तर्क है। उनका जीवन परियोजनाओं पर निर्भर है, इसलिए अपने अस्तित्व को बचाए रखने की ख़ातिर वे परियोजना के अनुसार अपना रंग-रूप, आकार-प्रकार और विचार बदल लेती हैं। उन्हें स्याह को सफेद और सफेद को स्याह करने में महारत हासिल है। इसलिए ‘स्वजल’ परियोजना के भारी ‘मांग’ वाले गांव भी इन स्वयंसेवी संस्थाओं की मेहनत से तैयार होते हैं। अनेक संस्थाओं ने ग्राम समुदाय के 10 प्रतिशत के अंशदान अपने कर्मचारियों के वेतन से काट कर जमा किए, तो कई ने जल निगम की निष्क्रिय योजनाओं पर स्वजल की तख्तियां ठोक दीं लेकिन स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस बात को स्वीकार करती हैं कि मांग होने पर भी सभी गाँवों में स्वजल परियोजना लागू नहीं की जा सकी कुमाऊं की संभवतः सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था ‘चिराग’ द्वारा चयन किए जाने के बावजूद पस्तोला गांव में गुटबाजी के चलते ‘स्वजल’ योजना लागू नहीं की जा सकी। गांव के आंतरिक सत्ता समीकरण ‘स्वजल’ परियोजनाओं को पुरानी जल निगम परियोजनाओं की तुलना में अधिक प्रभावित करते हैं। जल निगम के सरकारी कर्मचारियों पर ग्रामीण बाहुबलियों की धौंसपट्टी का असर कम होता है। लेकिन स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने अस्तित्व बनाए रखने की खातिर इनकी सुविधाओं का ख्याल रखना पड़ता है। इसलिए ‘स्वजल’ में परियोजना का झुकाव गांव के ताकतवर और मुखर हिस्से की ओर होना स्वाभाविक है।

यह कहना कि ‘स्वजल’ की व्यवस्था जल निगम की तुलना में ज्यादा कार्यकुशल व सक्रिय है, किसी भी तरह उचित नहीं होगा। स्वजल के घोषित भारी भरकम लक्ष्यों के विपरीत ग्रामीण इसे भी जल निगम की तरह पानी पिलाने वाली व्यवस्था समझते हैं। किसी ग्राम विशेष की स्वजल योजना के सफल होने या न होने का सवाल बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। जल निगम की पिछली योजनाओं की तरह इनमें भी कहीं पानी आता है तो कहीं नहीं। जहां स्रोत अपेक्षाकृत निर्विवाद है, स्वयंसेवी संस्था ईमानदार है और गांव में नये पंचायती सामंत नहीं उभरे हैं, योजना की सफलता की संभावना बढ़ जाती है। किंतु जिन गाँवों में उपरोक्त में एक भी बात पूरी न होती हो, वहां की योजना का हश्र जल निगम से भी बदतर हो जाता है।

आधी सदी पहले तक हिमालय के निवासी बेहद कठिन भूगोल में सदियों से अपने पानी का इंतज़ाम खुद करते आए हैं। यही नहीं उनकी परम्पराओं में स्रोत की प्रकृति के मुताबिक कलात्मक जल-संग्रह ढांचे बनाने और उन्हें साफ सुथरा रखने की तमीज भी मौजूद है यह तो आज़ाद भारत की सरकारें थीं, जिन्होंने उनकी स्वायत्तता लील कर उन्हें भ्रष्ट सरकारी तंत्र का गुलाम बनने का संस्कार दिया। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि स्वच्छता संबंधी व्यवहार काफी हद तक समुदाय की आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करता है। ग्रामीणों को जागरुक करने, महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने जैसी बातें वर्तमान सामाजिक राजनैतिक परिदृश्य में मूर्खतापूर्ण लगती हैं। जो सरकार विश्व बैंक से कर्ज लेकर गांव को स्वावलम्बी बनाना चाहती है उसमें इतना साहस भी नहीं कि अपने दस्तावेज़ों में बता सके कि ग्रामीणों को सूचना दिए बगैर जिस तरह भारी कर्ज के बोझ से लादा जा रहा है, उसकी भरपाई कौन और किस तरह करेगा (‘स्वजल’) परियोजना के एक आला अफ़सर के अनुसार यह कर्ज आगामी 38 वर्षों के अवधि में 21 प्रतिशत ब्याज दर के साथ चुकाना होगा)। जागरूकता एक व्यापक अवस्थिति है जिसको राष्ट्रीय व स्थानीय राजनीति का स्तर निर्धारित करता है। यदि देश व राज्य की राजनीति प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामीणों के परंपरागत अधिकारों से वंचित कर रही हो, देश की अर्थनीति गाँवों को और अधिक गरीब बनाने पर आमादा हो और गाँवों का राजनैतिक वातावरण दिन-प्रति-दिन प्रदूषित किया जा रहा हो, तो एक पेयजल योजना किस प्रकार उन्हें जागरूक कर सकेगी?

आज जब स्वजल को इसके सम्यक मूल्यांकन से पहले ही अत्यंत सफल घोषित कर पूरे देश में लागू करने का फैसला लिया गया है तो इसके निहितार्थ बिल्कुल साफ हैं। विश्व बैंक के दबाव में सरकार दूसरे सेवा क्षेत्रों की तरह पेयजल व्यवस्था से भी हाथ खींच रही है। जैसा कि कहा जा रहा है कि 21वीं सदी में पानी बेहद कीमती संसाधन की हैसियत पा लेगा, विश्व बैंक किसी भी कीमत में भारत के विशाल ग्रामीण क्षेत्र को जल-बाजार के दायरे में लाना चाहता है। इसलिए उसके दस्तावेज़ अब तक चल रही ‘सब्सिडी’ आधारित जल प्रबंध व्यवस्था को समाप्त करने पर जोर देते हैं और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का दाम चुकाने की वकालत करते हैं। आर्थिक रूप से कंगाल हो चुकी राज्य सरकारों के पास अपनी जर्जर काया और बोझ बनी नौकरशाही को ढोने के लिए एकमात्र रास्ता विश्व बैंक का कर्ज है। इस बात की पुष्टि नये ‘स्वजलधारा’ कार्यक्रम के लिए उ.प्र. के मुख्य सचिव की मंडलाधीशों व जिलाधिकारियों को लिखे एक पत्र से हो जाती है। पत्र के अनुसार चूंकि यह कार्यक्रम शत-प्रतिशत केंद्र द्वारा वित्त पोषित है, अतः राज्य के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए उन्हें युद्ध स्तर पर तैयारी करनी चाहिए। बैंक की शर्तों के अनुरूप सरकार हर गांव को पानी देने के संवैधानिक दायित्व से पल्ला झाड़ रही है। अब गाँवों के पास पानी की मांग के पैमाने पर खरा उतरने के अलावा कोई विकल्प बाकी नहीं रहेगा। जो गांव आर्थिक रूप से कमजोर हैं तथा इस पैमाने की सीढ़ी पर नहीं चढ़ सकते, वे प्यासे रहने के लिए मजबूर होंगे।

इस दृष्टि से नये स्वजलधारा कार्यक्रम में किये गये कुछ बदलाव बड़े दिलचस्प हैं। स्वजल परियोजना की प्रस्तावना में जल निगम को बुराइयों का भंडार साबित किया गया था। चूंकि इतनी बड़ी संस्था को एक झटके में खत्म नहीं किया जा सकता और इसे पालना एक तरह से सरकार की मजबूरी भी है, अतः स्वजलधारा में जलनिगम को इसके जबर्दस्त तकनीकी अनुभव तथा ग्रामीण पेयजल व स्वच्छता प्रबंध के इतिहास को देखते हुए जिला स्तर पर परियोजना की कार्यदायी संस्था बनाया गया है। स्वजल परियोजना के विपरीत इस बार पंचायती संस्थाओं को भी इसके कार्यान्वयन के लिए प्राथमिकता दी गई है। यानी मात्र छःवर्ष बाद सरकार को लगने लगा है कि अब पंचायती संस्थाएं सामंती नहीं रहीं और लोकतांत्रिक हो गई हैं। दरअसल पिछली स्वजल परियोजना पर स्वयंसेवी संस्थाओं व ग्राम क्षेत्र पंचायतों के बीच वर्चस्व को लेकर अंतर्विरोध उभर आए थे। अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं ने पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों पर कमीशन मांगने के आरोप लगाए। इसी तरह पंचायती प्रतिनिधियों ने स्वयंसेवी संस्थाओं पर भ्रष्टाचार तथा हिसाब में हेराफेरी के आरोप लगाए पंचायतों का दावा है कि जिस प्रकार वे विकास के दूसरे कार्यक्रम चला रही हैं, उसी तरह स्वजल कार्यक्रम को लागू कर सकती हैं दबाव की राजनीति के परिणामस्वरूप सरकार का पलड़ा इस बार स्वाभाविक तौर पर पंचायती संस्थाओं की ओर झुक गया है। जाहिर है इनका सामंती चरित्र स्वजलधारा कार्यक्रम को ताकतवर के स्वजल में बदल देने के लिए अभिशप्त है ।

(यह आलेख सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायमेंट, नई दिल्ली क मीडिया फ़ेलोशिप के अंतर्गत तैयार किया गया है।

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