तालाब - समझने से ही बात बनेगी

तालाब
तालाब


भारत के लगभग हर गाँव हर बसाहट के आसपास तालाब मौजूद हैं। यहाँ तक कि अनेक विलुप्त तालाब भी समाज की स्मृति में जिन्दा हैं। उनके नाम गाँव, मोहल्लों के नामों तथा उपनामों में रचे-बसे हैं। आज भी भारत में सैकड़ों साल पुराने अनेक तालाब मौजूद हैं। अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ तथा सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली की किताब ‘बूँदों की संस्कृति’ में देश के विभिन्न भागों में मौजूद परम्परागत तालाबों का विवरण उपलब्ध है।

हमारे आसपास दो प्रकार के तालाब अस्तित्व में हैं। परम्परागत और आधुनिक तालाब। उन दोंनों प्रकार के तालाबों के अन्तर को समझने का मतलब है समस्याओं को बेहतर तरीके से स्थायी तौर पर सुलझाना।

 

 

परम्परागत तालाब - प्रकृति से तालमेल के प्रतीक


पुराने समय में बनने वाले तालाब सामान्यतः बारहमासी होते थे। उनके कैचमेंट में घने जंगल होते थे। घने जंगल होने के कारण कैचमेंट अक्सर हरे-भरे होते थे। कैचमेंट में घने जंगल का सुरक्षा कवच होने के कारण मिट्टी का कटाव बहुत कम था। कटाव कम होने के कारण तालाबों में गाद जमाव बहुत कम था। गाद जमाव कम होने के कारण पुराने तालाबों की उम्र सैकड़ों हजारों साल होती थी। पहाड़ों से उतरती छोटी-छोटी जलधाराएँ अक्सर बारहमासी होती थीं इसलिये उनका पानी निर्मल होता था।

पुराने समय में उनका निर्माण, प्रकृति से तालमेल बिठाते जल विज्ञान के आधार पर किया जाता था। उनमें सामान्यतः कम पानी रोका जाता था। उन्हें ढालू जमीन और छोटे-छोटे नदी नालों पर पाल डालकर बनाया जाता था। सदियों से परम्परागत तालाब, बरसाती पानी को जमा करने वाला, सबसे सस्ता और सबसे अधिक विश्वसनीय देशज स्रोत रहा है। वह ग्रामीण बसाहटों का अनिवार्य हिस्सा था। राजा-महाराजाओं द्वारा बनवाए तालाब बड़े और ग्रामीणों द्वारा बनवाए तालाब छोटे होते थे।

प्रायः हर गाँव में एक या एक से अधिक तालाब होते थे। उनका निर्माण, प्रकृति से तालमेल बिठाते भारतीय जल विज्ञान के आधार पर किया जाता था। कम पानी रोका जाता था। थोड़ी सी कोशिश से कैचमेंट से आने वाले और तालाब में रोके जाने वाले पानी के सम्बन्ध को समझा जा सकता है। यही सम्बन्ध गाद के जमाव को नियंत्रित करता है।

 

 

 

 

आधुनिक तालाब - पश्चिमी विज्ञान के उदाहरण


आधुनिक काल में तालाबों का निर्माण अंग्रेजों के काबिज होने के बाद शुरू हुआ। इसलिये उनका निर्माण पश्चिमी जल विज्ञान द्वारा निर्धारित मापदण्डों के अनुसार किया जाता है। इसके लिये सबसे पहले कैचमेंट से आने वाले पानी की मात्रा का अनुमान लगाया जाता है। तालाब बनाने के लिये जमीन और पाल डालने के लिये उपयुक्त स्थान खोजा जाता है। उन्हें अक्सर सरकारी जमीन पर बनाया जाता है। अधिकांश आधुनिक तालाब, गर्मी का मौसम आते-आते सूख जाते हैं या उनमें बहुत कम पानी बचता है। समाज इस स्थिति से अच्छी तरह परिचित है।

आधुनिक तालाबों के कैचमेंट में बहुत कम जंगल बचे हैं। उनके कैचमेंट में खेती होने लगी है। बहुत सारे गाँव बस गए हैं। मिट्टी का कटाव बहुत बढ़ गया है। परिणामस्वरूप तालाबों में बहुत अधिक गाद जमा होने लगी है। गाद जमाव के कारण वे उथले हो रहे हैं। उनकी उम्र कम हो रही है। बसाहटों की गन्दगी और जलकुम्भी ने उनकी सूरत और सीरत बदल दी है।

आधुनिक तालाबों का स्रोत सामान्यतः बारसाती पानी होता है। उन्हें बनाते समय उनमें अधिक-से-अधिक पानी रोकने का प्रयास किया जाता है। उन्हें ढालू जमीन पर पाल डालकर बनाया जाता है। बनाने के बाद उनके रख-रखाव पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। विभिन्न कारणों से उनका पानी बहुत जल्दी प्रदूषित हो जाता है। उनमें सामान्यतः जलकुम्भी का विस्तार भी देखा जाता है। विभिन्न कारणों से अनेक इलाकों में, स्टाप-डैम उनकी जगह ले चुके हैं।

 

 

 

 

कोशिश तालाबों को समझने की


तालाबों के पुनरुद्धार करने के पहले उसकी श्रेणी (परम्परागत/आधुनिक) को जानना आवश्यक है। यह जानकारी उसके निर्माण के जल विज्ञान (परम्परागत या आधुनिक) को समझने के लिये बेहद जरूरी है। इस जानकारी के बाद उसकी पुरानी हालत जो वरिष्ठ जनों की स्मृति में है, से परिचित होना जरूरी है। इससे उसकी मूल स्थिति का पता चल जाता है। इसके बाद उसकी मौजूदा स्थिति, मुख्य समस्याओं एवं पुनरुद्धार पर समझ बनानी चाहिए।

आमतौर पर परम्परागत और आधुनिक तालाबों के बिगाड़ के कारण लगभग एक जैसे हैं। उनकी मुख्य समस्या है - गाद भराव, कल-कारखानों और बसाहटों इत्यादि के अनुपचारित पानी का उनमें छोड़ा जाना, गन्दगी तथा गन्दे पानी की निकासी की पुख्ता व्यवस्था का अभाव, अतिक्रमण, संकटग्रस्त बायोडायवर्सिटी, घटती सेवा, जलकुम्भी का विस्तार और कैचमेंट का घटता योगदान इत्यादि। इनके अलावा कुछ स्थानीय समस्याएँ भी हो सकती हैं।

तालाबों के पुनरोद्धार में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है उनके निर्माण में प्रयुक्त विज्ञान को समझना और बहाल करना। बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिये तालाब निर्माण के विज्ञान को ध्यान में रखकर ही रणनीति तय करना चाहिए।

 

 

 

 

तालाबों का पुनरोद्धार - समाधान मिलें तो बात बने


समाज और सुधार करने वाली संस्था को सबसे पहले परम्परागत और आधुनिक तालाबों की समस्याओं की पहचान करना चाहिए। इसके बाद, प्रत्येक समस्या को हल करने के लिये विकल्पों पर विचार-विमर्श होना चाहिए। विचार-विमर्श के बाद सबसे अधिक उपयुक्त विकल्प पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाना चाहिए।

कुछ सुझाव निम्नानुसार हो सकते हैं-

तालाबों में गाद भराव की समस्या बेहद आम है। यह गाद हर साल बाढ़ के पानी के साथ आती है। तालाब से पानी की अपर्याप्त निकासी के कारण उसका बहुत बड़ा हिस्सा तालाब में जमा हो जाता है। यह सही है कि उसे मशीनों की मदद से निकाला जा सकता है पर इस तरीके में काफी धन खर्च होता है। यह अस्थायी तरीका है। इस तरीके से गाद के जमा होने पर रोक नहीं लगती इसलिये कुछ सालों में गाद फिर जमा हो जाती है। तालाब फिर उथला होने लगता है। इसलिये स्थायी तरीके पर विचार करना चाहिए।

 

 

 

 

परम्परागत और आधुनिक तालाबों के बिगाड़ के कारण लगभग एक जैसे हैं। उनकी मुख्य समस्या है - गाद भराव, कल-कारखानों और बसाहटों इत्यादि के अनुपचारित पानी का उनमें छोड़ा जाना, गन्दगी तथा गन्दे पानी की निकासी की पुख्ता व्यवस्था का अभाव, अतिक्रमण, संकटग्रस्त बायोडायवर्सिटी, घटती सेवा, जलकुम्भी का विस्तार और कैचमेंट का घटता योगदान इत्यादि। इनके अलावा कुछ स्थानीय समस्याएँ भी हो सकती हैं।

प्राचीन काल में परम्परागत तालाबों में गाद जमाव कम-से-कम रखने के लिये प्राकृतिक तरीका अपनाया जाता था। इसके लिये कैचमेंट से आने वाले पानी की कम मात्रा तालाब में जमा किया जाता था। बहुत से पानी को वेस्टवियर ये बाहर निकल जाने दिया जाता था। बाहर जाता पानी अपने साथ गाद और गन्दगी बहा ले जाता था। तालाब निर्मल बना रहता था। यह तरीका उन तालाबों पर क्रियान्वित किया गया था जो नदी मार्ग या बारहमासी जलधाराओं पर बने थे।

कुछ तालाब नदियों के पास स्थित होते हैं। कई बार, उन तालाबों में बसाहटों तथा कल-कारखानों की गन्दगी जमा होती है। उस गन्दगी को साफ करने के लिये नदी के पानी का उपयोग किया जा सकता है। उसका पहला विकल्प यह है कि नदी से पानी की धारा निकाल कर तालाब की ओर मोड़ दी जाये। दूसरा विकल्प गुरुत्व बल की मदद से पाइपों द्वारा तालाब में पानी पहुँचाया जाये। दोनों ही स्थिति में तालाब की गन्दगी तथा गाद की कुछ मात्रा वेस्टवियर के मार्फत बाहर निकलेगी। यदि कुछ कमी समझ में आती है तो पानी की मात्रा बढ़ाकर परिणामों को बेहतर बनाया जा सकता है।

तालाब से बाहर जाती गन्दगी को उपचारित किया जाना चाहिए। उपचार के बाद शुद्ध पानी को नदी को लौटाया जाना चाहिए। इस तरीके को अपनाने से तालाब काफी हद तक शुद्ध हो जाएगा। नदी को अपना पानी वापिस मिल जाएगा। नदियों के पास स्थित तालाबों की गाद और गन्दगी के निपटान का यह कुदरती, स्थायी तथा किफायती तरीका है।

अनेक अवसरों पर समाज को पुराने तालाबों की सुध लेने का अवसर मिलता है। कई बार सरकारी संस्था लोगों को जोड़कर काम करना चाहती है। इन हालातों में सबसे पहले उनके (परम्परागत या आधुनिक) निर्माण में प्रयुक्त जल विज्ञान को समझना आवश्यक है। उससे दूसरों को अवगत कराने की भी आवश्यकता है।

बेहतर समझ ही समस्याओं पर सार्थक बहस और सही फैसले लेने का अवसर प्रदान करती है। इसलिये होमवर्क करना आवश्यक है। इसीलिये जीर्णोंद्धार करते समय उनके वेस्टवियर की ऊँचाई को यथावत रखा जाना चाहिए। उसमें बिलकुल भी वृद्धि नहीं की जानी चाहिए। अधिक पानी भरने के लोभ से बचा जाये। यदि लोभ किया गया और उनके वेस्टवियर की ऊँचाई बढ़ाई गई तो उनमें गाद जमा होने लगेगी। कुछ साल बाद वे तालाब, कूड़ादान में बदल जाएँगे। वे जलकुम्भी तथा गन्दगी से पट जाएँगे। परम्परागत जल विज्ञान का सीधा और स्पष्ट सन्देश है -

भारतीय/परम्परागत जल विज्ञान को यथावत रखें। उसे यथावत रखकर प्राचीन तालाबों की अस्मिता लौटाने की जिम्मेदारी निभाई जाये।

आधुनिक तालाबों में गाद जमाव को कम करने के लिये कुदरती तरीका अपनाना बेहतर हो सकता है। यह प्रयास उन्हें दीर्घायु बनाने में सहयोग करेगा। मशीनों से भी गाद निकाली जा सकती है पर इस तरीके में स्थायी परिणाम नहीं मिलते। खर्च भी बहुत होता है। गाद का उपयोग सही गुणवत्ता पाये जाने पर ही किया जाना चाहिए।

 

 

 

 

तालाबों को गहरा करना - फैशन या आवश्यकता


पिछले कुछ सालों से तालाबों को गहरा करने का प्रचलन जोर पकड़ रहा है। यह काम देश के अनेक भागों में किया जाने लगा है। सूखा राहत तथा पानी की सप्लाई से जुड़े तकनीकी लोग भी इसके पक्षधर होते जा रहे हैं। यह सारी जद्दोजहद तालाबों की जल क्षमता बढ़ाने और आने वाले सालों में जल संकट की सम्भावना को खत्म करने के लिये की जाती है। इस तरह के काम को समाज का हित माना जाता है इसलिये उस पर सवाल नहीं उठाए जाते। उल्लेखनीय है कि बहुसंख्य समाज को इस जद्दोजहद में अपनी समस्या का हल नजर आता है।

तालाब गहरीकरण के काम का तकनीकी पक्ष है इसलिये उसे गहरा करने के पहले यह जानना आवश्यक है कि जलग्रहण क्षेत्र से पानी की कितनी आवक है। तालाब में बिना गाद जमाव के कितना पानी जमा किया जा सकता है। इसी के आधार पर तालाब के गहरीकरण के प्रस्ताव को अमल में लाया जाना चाहिए।

यदि पिछले कुछ सालों से सामान्य बरसात के बावजूद तालाब भरपूर पानी को तरस रहा हो तो उस हकीकत का अर्थ है कि केचमेंट से तालाब को पूरा भरने लायक पानी नहीं मिल रहा है। अर्थात तालाब को गहरा करना अनावश्यक है।

तालाबों को गहरा करते समय या उन्हें बनाते समय उनकी न्यूनतम गहराई पर बहस होना चाहिए। यह बहस तालाब को बारहमासी बनाने के लिये आवश्यक है। गहराई पर निर्णय लेते समय वाष्पीकरण हानि को ध्यान में रखना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि उथले तालाब जल्दी सूख जाते हैं इस कारण समाज का दायित्व है कि वह वाष्पीकरण हानि और स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही तालाब की गहराई के बारे में निर्णय लें।

तालाबों को गहरा करने तथा पुरानी जल संरचनाओं के जीर्णोंद्धार की चर्चा में पानी की गुणवत्ता का प्रश्न अक्सर गुम जाता है क्योंकि जहाँ लोग पानी के लिये तरस रहे हों वहाँ फर्टीलाइजर, इंसेक्टीसाइड और पेस्टीसाइड के कारण पानी की बिगड़ती गुणवत्ता की बात करना, नक्कारखाने में तूती बजाने जैसा लगता है। यह अनदेखी अनुचित है। उसकी चर्चा और उससे बचाव आवश्यक है।

देश के अनेक तालाबों की जमीन पर अतिक्रमण हुआ है। हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है कि उन्हें अतिक्रमण मुक्त रखे जाने की मुहिम का हिस्सा बनें। यदि सम्भव हो तो उनकी अतिक्रमित भूमि की वापसी की कोशिश करें। तालाबों के मामलों में जागरुकता और समाजिक सहयोग के अलावा पब्लिक ऑडिट व्यवस्था लागू होना चाहिए। पब्लिक ऑडिट के कारण व्यवस्था चौकन्नी रहती है। अतिक्रमण का खतरा यथासम्भव कम रहता है।

 

 

 

 

कुछ बातें जिन्हें भूलना महंगा पड़ेगा


पिछली सदी तक भारत के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में लाखों तालाब थे। खेतों पर किसानों का भले ही स्वामित्व था पर चारागाह, जंगल, बाग-बगीचों एवं तालाबों को खेती का पूरक मानने के कारण उन (तालाबों) पर समाज का स्वामित्व था। तालाब और उनका कैचमेंट पवित्र माना जाता था। उसे अपवित्र नहीं किया जाता था।

यह उस विलक्षण पर्यावरणीय समझ का प्रमाण है जो भारत में सदियों पहले विकसित हुई और लोकसंस्कारों के माध्यम से कालजयी बनी। उसने जल संकट पनपने नहीं दिया। उसने नदियों, कुओं और बावड़ियों को सूखने नहीं दिया। पानी को निर्मल रखा। आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। हम भले ही अतीत में नहीं लौट सकते पर उन खास चीजों को वरीयता दिला सकते हैं जो तालाबों और उस पर निर्भर समाज के हित में हैं।

बुन्देलखण्ड के तालाबतालाब, विकेन्द्रीकृत जल प्रबन्ध के प्रतीक हैं। उनके निर्माण से प्राकृतिक जलचक्र मजबूत होता है। भूजल का स्तर ऊपर उठता है। किसी हद तक टिकाऊ बनता है। सूखे नलकूपों और कुओं में पानी लौटता है। नदियाँ जिन्दा होती हैं। उनका प्रवाह बढ़ता है। उनकी मदद से हर बसाहट में जल की किल्लत को खत्म किया जा सकता है इसलिये समाज को एकजुट हो तालाबों के निर्माण और उन्हें फिर से जिन्दा करने के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता दिलाने के लिये कोशिश करना चाहिए।

हर बसाहट में जल का संरक्षण कराया जाना चाहिए। पानी की मात्रा की पर्याप्तता का अनुमान लगाने के लिये संरक्षित पानी और ग्राम के रकबे के सम्बन्ध (मान) को ज्ञात किया जाना चाहिए। यह मान जितना अधिक होगा, उस बसाहट में जल कष्ट उतना कम होगा इसलिये तालाबों को भूलना बेहद महंगा पड़ेगा।

 

 

 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading