थाली का बैंगन

20 Jan 2017
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saaf mathe ka samaj
saaf mathe ka samaj

हमें यह तय करना होगा कि हम एक ऐसे बाजार के लिये तैयार हैं, जिसमें कोई प्रमाण नहीं बचा है। इस बाजार की कोई दृष्टि नहीं है। यह तो केवल पैसा-डॉलर समझता है। हम कभी ऐसे बाजार के हिस्से हुआ करते थे जिस पर समाज व किसान का नियन्त्रण था। हम आज बहुत पीछे छूट गए हैं। 15 साल के उदारीकरण से आई इन बातों की चिन्ता आज जरूरी है। इसकी चिन्ता बाजार नहीं करेगा, थाली नहीं करेगी। हम बैंगन तो चिन्ता करें।भाषा में अगर हम किसी तरह की असावधानी दिखाते हैं तो हम व्यवहार में भी असावधानी पाते हैं। उदार शब्द हिन्दी का बड़ा ही शुभ शब्द है। अगर राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था का उदारीकरण करना है तो 15 साल बाद उसका निरीक्षण क्यों करना? जब मन उदार बन रहा है, व्यवस्था उदार हो रही है तब हमारे मन में संशय और डर कैसा? इसका मतलब है हमने एक गलत उद्देश्य के लिये एक अच्छे शब्द की बलि दी है। यह दुख की बात है कि हिंदी भाषा के बुद्धिजीवी, अखबार, साहित्यकार किसी ने समाज का ध्यान इस ओर नहीं खींचा। उदार का विपरीत अर्थ कंजूस, कृपण और झंझटी है तो क्या इसके पहले की व्यवस्था कंजूसी की थी, कृपणता की थी, संकीर्णता की थी? वह दौर किनका था? वह दौर सर्वश्रेष्ठ नेताओं का था। नेहरूजी जैसे लोगों का। अगर वह दौर कृपणता का था तो अब हम उदार हो गए हैं। हम पाते हैं आज उस दौर से कमजोर नेता हमारे पास हैं। यह कैसे हो सकता है कि कृपणता के दौर में अच्छे नेता थे और अब उदारीकरण के समय कमजोर नेता? पहले हमें इसका हल ढूँढना चाहिए। फिर 15 साल कैसे बीते उस पर बगैर किसी कटुता के बात करनी चाहिए।

मंच कोई भी हो उस पर खुले मन से अगर बात आगे नहीं बढ़ाएँगे तो हम लोगों को प्रत्येक 15 साल में एक झटका महसूस होगा। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो जिस तरह से पहले हमने अर्थव्यवस्था चलाई है उससे मुँह मोड़ा है। पहले भी वही गलतियाँ हुई हैं। दुनिया के किसी एक पक्ष ने हमें पढ़ाया कि राष्ट्रीयकरण कर लो। हमने वह पाठ तोते की तरह पढ़ लिया। हमने आगे-पीछे का कुछ भी नहीं सोचा। हमने अपने तोतों से भी नहीं पूछा कि क्या तुम्हें भी कुछ पाठ पढ़ाया गया है? कुछ नहीं तो डाल पर बैठे अपने तोतों से ही पूछ लेते तो शायद मामला ठीक हो जाता। शायद हमें पता चल जाता कि राष्ट्रीयकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि इसके नीचे जो भी डाल देंगे सब ठीक हो जाएगा। वह प्रयोग भी बहुत सफल नहीं होने वाला था। अब दौर आया कि हर चीज का राष्ट्रीय हटाकर बाजारीकरण करते जाइए और इसे उदारीकरण का नाम दे दिया गया। मैं इस शब्द में कोई अलंकार या अनुप्रास देखने का मोह नहीं रखता। वस्तुतः यह हमारे दिमाग का, हमारी व्यवस्था का उदारीकरण नहीं उधारीकरण है। हमें अपने देश को चलाने के लिये बाहर की चीजें उधार लेनी पड़ती हैं। जान-बूझकर सोच-समझकर लेना, पूरी दुनिया का दरवाजा खुला रखना एक अलग बात है। लेकिन दुनिया में जिस चीज का झंडा ऊपर हो जाए, कभी साम्यवाद, कभी इस वाद का, कभी उस वाद का और हम उससे अछूते ही नहीं रहे बल्कि उसकी लपेट में पूरी तरह से आ जाएँ, यह बहुत चिंतनीय दौर है। पूरे दौर में इस देश में जिसका मन लोहे जैसा है, इस्पात जैसा है क्यों इतनी जल्दी पिघल जाता है?

कटु और मीठे अनुभव की तरफ जाने से पहले समाज को बैठकर यह देखना चाहिए कि हम पहले से बेहतर हुए हैं क्या? अगर लोगों को उसकी कीमत चुकानी पड़े तो चुकाना चाहिए। लेकिन समाज एक दौर में इतना निष्ठुर हो जाता है कि कुछ लोगों के भले के लिये ज्यादा लोगों की कीमत चुकवा देता है। कम लोगों के लिये कीमत तो फिर भी समझ में आने वाली बात है। उदाहरण के तौर पर हरसूद को लेना लाजिमी होगा। वहाँ नर्मदा नदी पर एक बाँध बनाया जा रहा है। हरसूद नाम का बड़ा कस्बा डूब रहा है। हरसूद शहर नहीं, छोटा कस्बा भी नहीं परन्तु एक बड़ा कस्बा तो है। उसे डूबने से बचाने की तैयारी सरकारों ने पिछले 20 वर्षों में नहीं की है।

इस बाँध की निर्माण योजना से गुजरात और मध्यप्रदेश के बीच बिजली और खेती (सिंचाई) की योजना है। अगर इस योजना से ज्यादा लोग लाभ पा रहे हैं तो सरकार को यह बताना चाहिए कि नुकसान कितने लोगों का हो रहा है? आज हम गिनती को छुपा रहे हैं। उसकी भरपाई नहीं सोच रहे हैं। सरकार तो उन्हें बोझ मानती है। उस बोझ की जिम्मेदारी मानकर उसे ढोकर ठीक जगह पुनर्स्थापित नहीं करना चाहती है। आज हरसूद उजड़ता दिख रहा है। परन्तु पिछले 20-25 साल से वह मन से उजड़ चुका है। 20 साल पहले भी हरसूद के लोग आज की तरह भय और संशय की स्थिति में अपने उजड़ने की प्रतीक्षा कर रहे थे। आज उदारीकरण से लाभ पाने वालों की संख्या अगर अधिक है तो अल्पसंख्यक समुदाय का जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना चाहिए।

आज के दौर में लोगों के सामने बड़ी चुनौती है-उनके विवेक हरण की। हम राष्ट्रीयकरण के आने पर राष्ट्रीयकरण के गुण गाने लगते हैं। उदारीकरण के आने पर उसके गुण गाने लगते हैं। चुनौती आने पर पूरा समाज बैठकर हल ढूँढे ऐसा वातावरण नहीं बचा है। छोटे-मोटे आन्दोलनों को छोड़ दीजिए। उनकी तो कोई जगह इनमें नहीं बन पा रही है। वे इसके हिस्से बन जाते हैं। बड़ा काम कर सकने वाले जो लोग हैं उनका विरोध क्षणिक और ऊपरी सतह का दिखता है।

कोक-पेप्सी एक ऐसा उद्योग है जिसे पानी कच्चे माल के तौर पर चाहिए। मशीन धोने, मशीन बनाने, कपड़ा बनाने, कपड़ा धोने में पानी की जरूरत होती है। पम्प लगाकर पानी की जरूरत पूरी करना उसके उत्पादन का जरूरी हिस्सा हो जाता है। उनकी जरूरत कम है या ज्यादा, अलग विवाद है। कोक-पेप्सी और बोतलबंद पानी ऐसे उद्योग हैं जिनके उत्पादन का मुख्य हिस्सा पानी है। जमीन के छोटे हिस्से को खरीदकर वहाँ से हजारों-लाखों लीटर पानी वे अगर उलीच लेना चाहते हैं और अगर वर्तमान कानून इसकी इजाजत देता है तो वह उचित नहीं है। यह चुनौती सरकार के सामने है। कोक पेप्सी की मनमानी के खिलाफ बहुत बड़े जन समुदाय के लिये दखल देना बहुत जरूरी हो गया है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक गज जमीन खरीदकर वहाँ से एक हजार लीटर पानी खींच लिया जाए। मैं कोक-पेप्सी को बाहर करने की माँग नहीं करता हूँ। ऐसी माँगे भी अपने यहाँ उठती हैं। वे समाज और पर्यावरण का नुकसान कर रहे हैं, वह उनकी भरपाई करें, ऐसा कानून बनाया जाए या उन्हें लूट-खसोट के लिये खुला छोड़ दें?

नदी जोड़ने के सम्बन्ध को अगर हम उदारीकरण के अन्तर्गत या बाहर करके भी देखें तो यह एक स्वतंत्र रूप से बनी योजना है। इसकी झलक हमें ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीयकरण के दौर में मिलती है। वह युग के. एल. राव और नेहरू जी का था। तब नदी जोड़ने का बड़ा सपना देखना बड़ा ही अच्छा माना जाता था। आज भी इसे गलत नहीं माना जाता है। राष्ट्रीयकरण से लेकर उदारीकरण तक अगर जोड़ने की बात है तो वह नदीजोड़ो योजना है। वह इन दोनों छोरों को जोड़ती है। और हमें बार-बार गलत साबित करती है कि केवल बाजार के लालच ने ही नहीं, बल्कि अच्छे राष्ट्रीयकरण का दौर भी नदी जोड़ने से हमें अलग नहीं कर पा रहा था। प्रकृति को जब जरूरत होती है वह अपनी नदियों को जोड़ लेती है। वह पाँच दस साल नहीं बल्कि लाखों हजारों वर्षों की योजना बनाकर अपने को जोड़ती है। वह गंगा को कहीं बहाती है, यमुना को कहीं बहाती है तब जाकर वह इलाहाबाद में अपने को मिलाती है। यह जोड़ समाज के लिये संगम या तीर्थ कहलाता है। वह पर्यावरण की एक बड़ी घटना होती है। दोनों नदियों में वनस्पति अलग, जलचर का अलग-अलग स्वभाव होता है। पहले नदियाँ निचले स्तर में, धाराओं में साम्य लाती हैं। ऐसी जगहों को वहाँ के समाज ने बहुत उदार भाव से देखा होगा। प्रकृति की इन घटनाओं को आदर भाव से संगम घोषित किया गया होगा। वे प्रकृति की इन घटनाओं का आदर करते हैं। अभी जो हम नदीजोड़ो की बात कर रहे हैं उसमें हम नदियों को संख्या दे देंगे। यह तीर्थ नहीं बनने वाला है। यह तकनीकी कार्य होगा। इसका नतीजा भी तकनीकी ही होगा। हमें यह सब कुछ नदियों पर ही छोड़ देना चाहिए।

नदियाँ, समुद्र में प्रवेश करने से पूर्व अपने बहुत सारे टुकड़े करती हैं। अन्यथा उन रास्तों से प्रवेश कर समुद्र प्रलय मचाता। नदियाँ बहुत संतुलन और धैर्य के साथ समुद्र में विलीन होती हैं। गंगा बांग्लादेश और पश्चिम की नदियाँ अरब सागर में कई टुकड़ों में बँटकर मिलती हैं। प्रकृति पर श्रद्धा रखना वैज्ञानिक सोच है। यह सोच विकसित करनी होगी कि जितना प्रकृति ने दिया है उसके हिसाब से अपना जीवन चलाएँ। प्रकृति ने अलग-अलग क्षेत्रों में कई नदियाँ बनाई हैं। अन्यथा वह एक नदी बनाती। कश्मीर से चलाकर कन्याकुमारी तक उसे पहुँचाती। ऐसा सम्भव नहीं है। भूगोल ऐसी अनुमति नहीं देता है। यह काम पर्यावरण से ज्यादा भूगोल नष्ट करेगा। पर्यावरण को संतुलित किया जा सकता है। परन्तु भूगोल को नहीं। पृथ्वी की जो ढाल है, चढ़ाव है जिनके कारण ज्यादातर नदियाँ पूरब की तरफ बहती हैं उन्हें पश्चिम की तरफ अगर मोड़ेंगे तो आनेवाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी।

पाँच-दस साल में हमने जो बाहर से बड़े ट्रालर (मशीनीकृत नौका) मँगवाए हैं, उसका जाल बहुत ही बारीक होता है। वह मछली पकड़ने की कोई सीमा नहीं मानता है। पुराने मछुआरे बरसात के दिनों में मछली नहीं मारते थे। जाल का आकार भी बड़ा रखते थे ताकि छोटी मछलियाँ निकल जाएँ। वे केवल बढ़त चाहते थे। अभी के जाल में सारी छोटी-बड़ी मछलियाँ फँस जाती हैं। उन्हें जो चाहिए होता है वह छाँटकर अपने काम में ले आते हैं और बची मछलियों को कचरे की तरह समुद्र में प्रदूषण फैलाने के लिये फेंक देते हैं। यह बहुत बड़ी बर्बादी का कारण है। पहले के मछुआरे मछली जरूर मारते थे। परन्तु उनके प्रजनन के दौर में वे पानी में जाल बिल्कुल नहीं डालते थे। मछली के साथ उनका जीवन का सम्बन्ध था। मछली को खाते थे, मारते थे, बेचते थे सब कुछ करते थे। मगर मछली के साथ उनका सांस्कृतिक सम्बन्ध था, मछुआरे उनके दुख-सुख के साथी होते थे। उदारीकरण के दौर में जहाँ भी बड़े ट्रालरों का उपयोग हो रहा है सबने बहुत नुकसान उठाया है। मछली के उत्पादन पर इसका बुरा असर पड़ा है।

हम स्थायी या टिकाऊ विकास की बात करते हैं, परन्तु अभी तो हमारा विचार ही टिकाऊ नहीं है। हमसे राष्ट्रीयकरण की कोई बात करता है तो हम उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं। हमें उदारीकरण का झंडा ऊँचा दिखता है तो हम उसके पीछे दौड़ने लगते हैं। कोई हमें बड़े ट्रालरों से मछली पकड़ने को कहता है तो हम बड़े ट्रालर से मछली पकड़ने लगते हैं। हम यह नहीं जानना चाहते हैं कि जहाँ बड़े ट्रालर से मछली पकड़ी जा रही है, उनके क्या अध्ययन हैं? हमारे कुछ अच्छे अधिकारी वहाँ जाकर साल भर अध्ययन करें, मछुआरा समाज के विशेष प्रतिनिधि जाकर वहाँ देखें कि क्या ठीक है, वह करें। हमें जो कुछ भी कहा जाता है, हम बगैर जाँचे-परखे उसके पीछे दौड़ते हैं। बाजार में बिकने लायक जो भी पद्धति हमें दिखती है, हम उसका अनुसरण करने लगते हैं। यह दुखद है। हमें यह तय करना होगा कि हम एक ऐसे बाजार के लिये तैयार हैं, जिसमें कोई प्रमाण नहीं बचा है। इस बाजार की कोई दृष्टि नहीं है। यह तो केवल पैसा-डॉलर समझता है। हम कभी ऐसे बाजार के हिस्से हुआ करते थे जिस पर समाज व किसान का नियन्त्रण था। हम आज बहुत पीछे छूट गए हैं। 15 साल के उदारीकरण से आई इन बातों की चिन्ता आज जरूरी है। इसकी चिन्ता बाजार नहीं करेगा, थाली नहीं करेगी। हम बैंगन तो चिन्ता करें।

साफ माथे का समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

भाषा और पर्यावरण

2

अकाल अच्छे विचारों का

3

'बनाजी' का गांव (Heading Change)

4

तैरने वाला समाज डूब रहा है

5

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

6

भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

7

पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

8

बीजों के सौदागर                                                              

9

बारानी को भी ये दासी बना देंगे

10

सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

11

गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

12

गौना ताल: प्रलय का शिलालेख

13

साध्य, साधन और साधना

14

माटी, जल और ताप की तपस्या

15

सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

16

साफ माथे का समाज

17

थाली का बैंगन

18

भगदड़ में पड़ी सभ्यता

19

राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी

20

असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध

21

नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र

22

मन्ना: वे गीत फरोश भी थे

23

श्रद्धा-भाव की जरूरत

 


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