उधार की आंखों से देखना-समझना

26 Jun 2010
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पुरी के आसपास ही कोई 52 शासन गांव थे, जहां जमीन पर सभी का साझा स्वामित्व था। यह व्यवस्था सदियों से चली आई थी। लेकिन जब सन् 1937 में हमने खेतिहर को जमीन देने के राष्टीय कार्यक्रम पर अमल करना शुरू किया तो यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई।राजस्थान की पंचायतों का अध्ययन करते हएु सन् 1961 में मुझे अपने गांवों के बारे में एक बिल्कुल दूसरी समझ हासिल हुई। सवाई माधोपुर जिले के एक गांव में हमें पता चला कि वहां सिंचाई के कुछ तालाब हैं। पंचायत के दस्तावेजों में उनका कोई जिक्र नहीं था। इसलिए मैंने लोगों से पूछा कि कौन उनकी मरम्मत करता है। जवाब मिला हम। मैंने पूछा ‘हम से क्या मतलब है? पंचायत से? उन्होंने बताया कि इसका मतलब पंचायत से नहीं, उन लोगों से है जिनके खेतों को इससे पानी मिलता है।

उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह इन तालाबों की मरम्मत के लिए श्रम और दूसरे साधन एकत्र किए जाते हैं। जब मैंने पूछा कि पंचायत उनकी मरम्मत क्यों नहीं करती तो उन्होंने बताया कि यह पंचायत का काम नहीं है! मेरे पूछने पर, कि फिर पंचायत का क्या काम है, उन्होंने जवाब दिया कि पंचायत का काम है विकास करना और विकास का मतलब होता है, वे कार्यक्रम जिन्हें सरकार उनके लिए तय करे। उनकी समझ से उन तालाबों की मरम्मत विकास के किसी कार्यक्रम में नहीं आती थी। इसलिए उन्होंने मान लिया कि यह काम ऐसा है, जिसे उन्हें खुद करना है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि सैकड़ों सालों से वे करते चले आ रहे हैं। इस गांव को देखने के लिए हम पूरे दल के साथ वहां गए थे, जिसमें योजना आयोग के पूर्व सदस्य, एक युवा आई.ए.एस. अफसर और उस इलाके के बी.डी.ओ. महोदय भी शामिल थे।

उसी शाम हमने एक और गांव का दौरा किया। वहां कुछ ही महीने पहले एक विशाल पंचायत घर बनवाया गया था। हम उसी में बैठे हुए थे। पंचायत के दस्तावेजों को पलटते हुए मैंने उनसे पूछा कि कागजों में कहीं उस पंचायत घर को बनाने का फैसला दर्ज नहीं है, लेकिन बनाने के लिए इकट्ठे किए गए पैसे का हिसाब जरूर बारीकी से दर्ज है। मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने यह फैसला कब और क्यों लिया था। उन्होंने बताया कि एक और पंचायत है जिसमें गांव के सभी वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व है और उसे ‘बीस बिस्वा’ पंचायत कहते हैं। इस पंचायत घर को बनाने का फैसला कानून द्वारा बनाई गई पंचायत में क्यों नहीं लिया गया? मुझे याद आता है कि उन्होंने कानूनी पंचायत की जगह सरकारी पंचायत शब्द कहा था और बताया था कि पंचायत घर बनाने का फैसला लेने की जगह वह नहीं है। फिर भी मैंने पूछा कि ऐसा ही कोई फैसला उन्हें दुबारा लेने की जरूरत पड़ी तो वे क्या करेंगे? उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि यह फैसला कानूनी पंचायत के बजाय अपनी ‘बीस बिस्वा’ पंचायत में ही लेंगे।

रविवार को कोई सरकारी काम न करने का कानून सन् 1800 के आसपास बना था। इसे कुछ साल पहले ब्रिटेन में ऐसा ही एक कानून बनाया गया था ताकि सबाथ का दिन यानी रविवार मनाने की कड़ाई से व्यवस्था की जा सके। ब्रिटेन में इस कानून के जरिए रविवार को किसी भी तरह का सरकारी कामकाज न किए जाने की व्यवस्था, नाटकों के मंचन को रोकेकने, ज्यादातर दुकानों को बंद रखने और यहां तक कि घरेलू कपड़ां को भी न धोने या सूखने के लिए उन्हें पिछवाड़े न डालने के रिवाज लागू रहे हैं।कुछ महीनों बाद इसी तरह की बातें मैंने आंध्र प्रदेश के गांव में सुनीं। उसके बाद सन् 1962 के दौरान मैं जगन्नाथपुरी में था। वहां पुरी जिला परिषद के अध्यक्ष से मिलने गया। उन्होंने मुझे नई पंचायतों की कमियां बताईं। उनके अधिकारों और साधनों की कमी का जिक्र किया। और जैसाकि ऐसे मौकों पर सुनने को मिलता है, पंचायतों को लेकर उन्हें अनेक तरह की शिकायतें थीं। मैंने उनकी ज्यादातर बातों से सहमति जताते हुए पूछा कि पहले के समय में पंचायतों की क्या हालत थी? तब उन्होंने बताया कि पुरी के आसपास ही कोई 52 शासन गांव थे, जहां जमीन पर सभी का साझा स्वामित्व था। यह व्यवस्था सदियों से चली आई थी। लेकिन जब सन् 1937 में हमने खेतिहर को जमीन देने के राष्ट्रीय कार्यक्रम पर अमल करना शुरू किया तो यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई।

मेरे आग्रह पर उन्होंने ऐसा एक गांव देखने की व्यवस्था कर दी। उस गांव की यात्रा के बाद मेरी राय बनी कि जहां तक सुंदरता का, गांव की योजना का, खेती और नारियल या दूसरे पेड़ों को लगाने तथा दूसरी सामाजिक सुविधाओं का सवाल था, इस गांव की तुलना इजराइली किबुत्जिम या इंग्लैंड या यूरोप के किसी दूसरे देश के गांव से की जा सकती है। मुझे बताया गया कि यह ब्राह्मणों का गांव था तो मुझे शंका हुई कि शायद वह कोई विशेष गांव रहा हो। लेकिन उन्होंने भरोसा दिलाया कि 52 शासन गांवों में से कई गांवों में दूसरी जातियों के लोग रहते हैं और कई गांव तो मछुआरों के हैं। मगर सबकी योजना और व्यवस्था एक जैसी ही सुंदर है।

सन् 1962 के बाद मुझे ऐसे गांवों की झलक दक्षिण के बहुत से इलाकों में मिलने लगी, खास तौर पर तमिलनाडु के इलाकों में, जहां मैं अक्सर जाता रहा। 1964 में मुझे तंजावूर में बताया गया कि सन् 1937 तक वहां ऐसे सौ गांव थे, जिन्हें समुदायम् गांव कहा जाता था। इन्हें भी कानून के जरिए खेतिहरों को जमीन देने वाले राष्ट्रीय कार्यक्रम पर अमल करते हुए भंग कर दिया गया था।

इन्हीं सब बातों के कारण मेरे मन में यह बात बैठी कि हममें से अधिकांश लोगों का अपने देश की परिस्थिति से संपर्क पूरी तरह टूट चुका है। हमारे देश के लोग स्वभाव से नरम और सहिष्णु हैं और जब उन्हें खाली पेट सोना पड़ता है या बिना कपड़ों के या बिना छत के रहना पड़ता है तो भी वे हम पर पत्थर नहीं फेंकते। मैं महालेखागार में रखी हुई सामग्री के प्रति कैसे आकर्षित हुआ? इस ब्योरे का एक मनोरंजक किस्सा गांव पंचायत की कानूनी तौर पर एक निश्चित अवधि के बाद अनिवार्य रूप से होने वाली बैठकों को लेकर है। तमिलनाडु की पंचायतों के अध्ययन के आरंभिक दौर में सन् 1964-65 के आसपास मैंने पाया कि बहुत सारी पंचायतों की बैठकें इसलिए नहीं हो पातीं कि इन बैठकों के लिए कोई इमारत नहीं है। इसलिए कानूनी अनिवार्यता की खानापूरी के लिए प्रस्तावों को सब सदस्यों के घर भेजकर दस्तखत करवा लिए जाते हैं। मुझे लगा कि दलबंदी के कारण पंचायत के सदस्य किसी एक सदस्य या अध्यक्ष के यहां बैठक करने के लिए सहमत नहीं होते होंगे। इसलिए मैंने पूछा कि पंचायत की बैठकें स्कूल में क्यों नहीं होतीं? सन् 1964 में भी तमिलनाडु के ज्यादातर गांवों में स्कूल की छोटी या बड़ी कोई न कोई इमारत मौजूद थी। उन्होंने बताया कि काम के दिनों में यानी सोमवार से शनिवार तक स्कूल चलते हैं इसलिए वहां उनकी बैठक नहीं हो सकती। तो मैंने कहा कि रविवार को बैठक कर लेनी चाहिए। इस पर उन्होंने बताया कि सरकार के नियम कानूनों के अनुसार पंचायत की बैठक रविवार को नहीं की जा सकती!

एक या दो साल बाद मुझे पता लगा कि रविवार को कोई सरकारी काम न करने का कानून सन् 1800 के आसपास बना था। इससे कुछ साल पहले ब्रिटेन में ऐसा ही एक कानून बनाया गया था ताकि सबाथ का दिन यानी रविवार मनाने की कड़ाई से व्यवस्था की जा सके। ब्रिटेन में इस कानून के जरिए रविवार को किसी भी तरह का सरकारी कामकाज न किए जाने की व्यवस्था, नाटकों के मंचन को रोकने, ज्यादातर दुकानों को बंद रखने और यहां तक कि घरेलू कपड़ों को भी न धोने या सूखने के लिए उन्हें पिछवाड़े न डालने के रिवाज लागू रहे हैं।

इन्हीं सब बातों के कारण मेरे मन में यह बात बैठी कि हममें से अधिकांश लोगों का अपने देश की परिस्थिति से संपर्क पूरी तरह टूट चुका है। हमारे देश के लोग स्वभाव से नरम और सहिष्णु हैं और जब उन्हें खाली पेट सोना पड़ता है या बिना कपड़ों के या बिना छत के रहना पड़ता है तो भी वे हम पर पत्थर नहीं फेंकते। या सोते हुए हमारी हत्या नहीं कर डालते। इसलिए हमने उन्हें मरे समान या बिल्कुल गूंगा मान लिया है। और सोच लिया है कि उनके भविष्य को निर्धारित करने या अपने हिसाब से उन्हें चलाने का हमें अधिकार है। हम अपने लोगों के बारे में तो ऐसे सोचते हैं। लेकिन जिन कानूनों नियमों, प्रतिक्रियाओं और योजनाओं के जरिए हम इस देश पर शासन कर रहे हैं और जिनके जरिए हमें लगता है कि हम नए भारत का निर्माण कर लेंगे, उनके बारे में हम कुछ नहीं जानते और न हम उन्हें समझते हैं।

मद्रास में सबसे पहले जिन सरकारी रिकार्डों पर मेरी नजर गई, वे ज्यादातर बीसवीं सदी से संबंधित थे, लेकिन उनमें से कुछ उन्नीसवीं सदी के बारे में भी थे। मद्रास अभिलेखागार के इन दस्तावेजों को देखते हुए दो बातें मेरी समझ में आईं। पहली यह कि सन् 1805 के आसपास तंजावूर जिले में कोई अठारह सौ गांव ऐसे थे, जिन्हें समुदायम् गांव कहा जाता था। वे इस जिले के कुल गांवों के करीब तीस फीसदी थे। दूसरी यह कि ब्रिटिश सरकार ने बंगाल और मद्रास दोनों प्रेसीडेंसियों में कुल कृषि उपज का पचास फीसदी लगान तय किया था। यह लगान 1760 से 1820 के बीच तय हुआ था, जब ब्रितानी लोग इन इलाकों पर पूरी तरह काबिज हो चुके थे। इस खबर ने खासतौर पर मुझे परेशान किया और बाद में जब उसका पूरा अर्थ मेरी समझ में आया तो मैं भौंचक्का रह गया। मैंने इस जानकारी का जिक्र अपने कुछ विद्वान दोस्तों से किया, जिनमें राजनेता, योजनाविद, सरकार में ऊंचे स्थानों पर रहे लोग और भूमि तथा दूसरी ग्रामीण समस्याओं से संबंध रखने वाले कई तरह के लोग थे। ये सभी देश की गरीबी को लेकर मेरी तरह ही चिंतित थे। लेकिन काफी समय तक उनमें से कोई इन आंकड़ों पर विश्वास नहीं कर पाया।

अब तक हमारा इतिहास ज्यादातर दरबारी इतिवृत्तों और ताम्र अभिलेखों विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतों आदि पर आधारित रहा है। इस तरह इतिहास लेखन की दिशा और उसका स्वरूप तथ्यों पर कम, विचारात्मक आग्रहों पर ज्यादा रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी की यूरूरोप की इतिहास-दृष्टि के अनुसार समाज के विकास में सामंतवाद एक सीढ़ी के तौर पर जरूर होना चाहिए। इसलिए यह मान लिया गया कि हमारे देश में भी एक ऐसा दौर जरूर रहा होगा।उनमें एक मित्र किसी जिले में कलेक्टर रह चुके थे और बाद में मंत्री और योजना आयोग के सदस्य भी बने थे। वे तो इन आंकड़ों के गलत होने के बारे में बिल्कुल निशिंचत थे। उनका मानना था कि कोई भी कृषि, सरकार द्वारा इतने बड़े पैमाने पर लगाया गया लगान बर्दाश्त नहीं कर सकती। मेरे एक दूसरे दोस्त इतिहासकार है; मगर जिनका 20वीं सदी के इतिहास से ताल्लुक ज्यादा है। उन्होंने कुछ महिने बाद मुझे बताया कि अंग्रेजों ने कुल कृषि उपज के 50 फीसदी को लगान के तौर पर वसूला जरूर था। मगर ज्यादा भारतीय यह जानते नहीं हैं और महत्त्वपूर्ण लोगों में जो अकेले व्यक्ति शायद इस तथ्य को जानते थे, वे भारतीय गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री थे। जहां तक समुदायम् व्यवस्था वाले गांवों का सवाल है, भारतीय योजना आयोग में भूमि सुधार विभाग के एक पूर्व अध्यक्ष का कहना था कि तंजावूर जिले में ऐसे कोई गांव नहीं हो सकते, क्योंकि भारतीय भू-कानूनों के बारे में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए विद्वान बेवरिज ने ऐसा कुछ नहीं लिखा है!

इसी तरह की घटनाओं और अनुभवों ने मुझे इस दिशा में निरंतर अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। तभी मुझे पता लगा कि देश के अभिलेखागारों में जमा सामग्री का क्या अर्थ है और वह हमारे किस उपयोग की है। अभिलेखागारों में रखी हुई सामग्री के आधार पर मैंने अपने समाज और राज्य व्यवस्था को किस तरह समझा है, इसके बारे में कुछ कहने से पहले मैं ब्रिटिश रिकार्ड पर अपनी पूरी निर्भरता के बारे में बताना चाहूंगा। यह सचमुच काफी अफसोस की बात है। लेकिन जहां तक मैं जानता हूं भारतीय समाज और व्यवस्था की बुनियादी सूचनाएं देने वाले कोई विस्तृत भारतीय रिकार्ड आजादी प्राप्त करने के बाद आज भी उपलब्ध नहीं है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि कुछ पुरातत्त्वीय काम को छोड़कर अपने अतीत, खासतौर पर अपने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के स्वरूप, विस्तार और उसके नियामक नियमों के बारे में कोई जानकारी इकट्ठी नहीं की गई।

मेरा विश्वास है कि ऐसे भारतीय रिकार्ड हैं जरूर। हो सकता है वे हर गांव, कस्बे या जिले में अब भी मिलें। इतने बड़े देश में अभी भी ऐसी दर्जनों जगहें निकल आएंगी जहां इस तरह के रिकार्ड मौजूद हों। इस तरह की सामग्री देश के धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्रों, पुरानी रियासतों या राजकी परिवारों, पुराने सेठों और साहूकरों या जो लोग पारंपरिक रूप से पंजीयक या हिसाब-किताब रखने का काम करते रहे, उनके परिवारों में मिल सकती है। गांवों में भी विस्तृत रिकार्ड रखे जाते थे। इसका साक्ष्य ब्रिटिश दस्तावेजों और दूसरे स्रोतों से मिलता है।

अब तक हमारा इतिहास ज्यादातर दरबारी इतिवृत्तों और ताम्र अभिलेखों, विदेशी यात्रिायों के यात्रा वृत्तांतों आदि पर आधारित रहा है। इस तरह इतिहास लेखन की दिशा और उसका स्वरूप तथ्यों पर कम, विचारात्मक आग्रहों पर ज्यादा रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी की यूरोप की इतिहास-दृष्टि के अनुसार समाज के विकास में सामंतवाद एक सीढ़ी के तौर पर जरूर होना चाहिए। इसलिए यह मान लिया गया कि हमारे देश में भी एक ऐसा दौर जरूर रहा होगा। यूरोपीय मान्यताओं के अनुसार समाज एक दिशा में या सर्पिल गति से बढ़ता है। इसलिए मान लिया गया कि भारत में भी ऐसा ही हुआ होगा। यानी सन् 1830 में जिसके बारे में कुछ प्रकाशित आंकड़े मौजूद हैं कि भारत के लोगों का जीवन स्तर एक निश्चित प्रकार का था तो उससे 60 या 100 बरस पहले जीवन स्तर इससे निम्न ही रहा होगा! इसी तरह एक डच यात्री ने जहांगीर के ऐसे भी रिकार्ड हैं जो बताते हैं कि सन् 1750 से पहले के समय में मद्रास में फौज और पुलिस को कृषि उपज का एक निश्चित अंश मिलता था और इसके बदले यह उनका कर्तव्य था कि वे स्थानीय गड़ब़ड़ी की घटनाओं और चोरी आदि के समय उनकी रक्षा करें। अगर पुलिस चोरी गए समान को हासिल करने में नाकामयाब होती थी तो उसे चोरी गए समान के बराबर भरपाई करनी पड़ती थी!शासनकाल में पाया कि भारतीय भोजन उसकी रुचि या हाजमे के अनुकूल नहीं बैठ रहा तो मान लिया गया कि उस समय का भारतीय भोजन बहुत खराब और तकलीफदेह था! और आम लोग भयानक हालात में रह रहे थे। इस डच यात्री की शिकायत दरअसल यह थी कि यहां गाय का मांस नहीं खाया जाता था। उस यात्री ने यह भी लिखा है कि भारत में आगरा जैसी जगहों में मामूली से मामूली मजदूर को भी मक्खन मिली हुई खिचड़ी रोज खाने को मिल जाती थी। उसके इस कथन की सुविधापूर्वक उपेक्षा की जाती है।

अपने अध्ययन के लिए मैंने 18 वीं और 19 वीं शताब्दी को ही क्यों चुना, इसका भी कारण है। मैं 18 वीं शताब्दी के मध्य बिंदु को भारतीय समाज और राज्य व्यवस्था की जानकारी के लिए महत्वूपर्ण मानता हूं। अगर हमारे पास सन् 1700 के आसपास के रिकार्ड होते तो मैं उन्हें निश्चय ही सन् 1750 के बाद के रिकार्ड से ज्यादा पसंद करता। क्योंकि अगर वे बाद के इन ब्रिटिश रिकार्डों जितनी तफसील देते तो इनके मुकाबले वे भारतीय जीवन की ज्यादा सच्ची तस्वीर पेश करते। मद्रास में और दूसरे अभिलेखागारों में सूरत और बंगाल जैसे इलाकों से संबंधित ऐसी कुछ सामग्री जरूर है जो सन् 1750 से पहले के बारे में बताती है। सन् 1660 के मद्रास के रिकार्ड बताते हैं कि अंग्रेजों को दक्षिणवर्गीय और वामवर्गीय जातीय समूहों से कितनी दिक्कत हुई थी और उन्होंने मद्रास के अंग्रेज अधिकारियों का कितना विरोध किया था।

ऐसे भी रिकार्ड हैं जो बताते हैं कि सन् 1750 से पहले के समय में मद्रास में फौज और पुलिस को कृषि उपज का एक निश्चित अंश मिलता था और इसके बदले यह उनका कर्तव्य था कि वे स्थानीय गड़बड़ी की घटनाओं और चोरी आदि के समय उनकी रक्षा करें। अगर पुलिस चोरी गए समान को हासिल करने में नाकामयाब होती थी तो उसे चोरी गए समान के बराबर भरपाई करनी पड़ती थी! लेकिन सन् 1750 से पहले के ब्रिटिश रिकार्ड उस समय के सामाजिक और राजनैतिक ढांचे के बारे में कोई विस्तृत जानकारी नहीं देते। अलबत्ता सन् 1620 के आसपास के हेनरी लार्ड के लिखे सूरत के बनियों और पारसियों से संबंधित कुछ ब्यौरे जरूर हैं या फिर पीटर डेला वेला के 17वीं शताब्दी के मध्य के ब्यौरे हैं जो दूसरी चीजों के साथ कर्नाटक के एक स्कूल और उसमें चलने वाली पढ़ाई के बारे में अच्छी जानकारी देते हैं।

सन् 1750 के बाद अंग्रेजी रिकार्ड अपने इलाके पर अंग्रेजी प्रभुत्व से एक दो दशक पहले के समाज की तरफ इशारा जरूर करते हैं। इन ब्यौरों में जानकारी के स्वरूप, विस्तार और गुण के खयाल से भिन्नताएं होना स्वाभाविक है, और वह इस पर निर्भर करता है कि ये रिकार्ड किस इलाके के हैं और उन्हें किसने तैयार किया। लेकिन इस दौर को समझने के लिए, कि किस तरह भारतीय समाज को नष्ट किया गया, किस तरह के विचारों और ढांचे के जरिए उसे दूसरी शक्ल में ढालने की कोशिश की गई, ज्यादा ब्रिटेन में सन् 1818 तक करीब दो सौ छोटे-बड़े अपराधों के लिए, जिनमें पांच शिलिंग से ऊपर की चोरी भी शामिल है, मृत्युदंड देना कानूनन सम्मत था! इसी तरह सन् 1830 तक किसी गंभीर समझे गए अपराध के लिए किसी अंग्रेज सैनिक को खास तरह के कोडें से चार पांच सौ कोड़े लगाना आम बात थी।उपयोगी सामग्री ब्रिटेन के अभिलेखागारों में मिलती है। इसका कारण यह है कि नीतियां और यहां के लिए नया ढांचा ब्रिटेन में ही बनाया गया था। राजनैतिक, शैक्षिक और व्यापारिक स्तर पर जिस तरह के सोच-विचार ने इन नीतियों को और इस पूरी रणनीति को पैदा किया, वह ब्रिटेन के ही आंतरिक दस्तावेजों में मिल सकती है। चैन्नई, कोलकता, मुंबई, लखनऊ और दिल्ली के अभिलेखागारों में तो वे अंतिम निर्देश ही मिल सकते हैं, जो अमल में लाने के लिए यहां के अंग्रेज अधिकारियों के पास पहुंचे थे। बहरहाल, आज जिन्हें हम भारतीय अभिलेखागार कहते हैं, उनमें ले देकर अंग्रेजी रिकार्ड ही हैं या बहुत मामूली संख्या में वे दस्तावेज हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने पुराने भारतीय स्रोतों से इकट्ठा किया था या उनकी नकल करवाई थी।

अंग्रेजों से पहले के भारतीय समाज को समझने के लिए मुझे सन् 1740 से 1830 के बीच के ब्रिटेन के अंदरूनी दस्तावेज ज्यादा उपयोगी दिखाई देते हैं। आमतौर पर ऐसा मान लिया गया है और इसमें पश्चिम के उदारवादियों की काफी भूमिका रही है कि पश्चिमी देशों ने, खासतौर पर अंग्रेजों ने दुनिया भर में तो बर्बरता दिखाई मगर अपने यहां उन्होंने लोकतांत्रिक और उदारवादी रुख अपनाया था। यह मान्यता सच्चाई से कोसों दूर है। भारत में अंग्रेजों ने जो किया, वह इंग्लैंड में 11वीं शताब्दी में हुई नार्मन विजय के बाद से जो कुछ किया और जो सन् 1800 के बाद तक जारी रहा, उससे बहुत भिन्न नहीं था। 16वीं, 17वीं और 18वीं शताब्दी में उत्तरी अमेरिका में वह दोहराया गया। ब्रिटिश सत्ता के उत्तराधिकारी अमेरिकियों ने 18 वीं, 19 वीं शताब्दी में अपने तेजी से फैले साम्राज्य में भी यही किया। भारत में फिर उनके द्वारा किया गया विनाश, दमन और उनकी पैदा की हुई अव्यवस्था इन इलाकों के मुकाबले हल्की लगती है। इसकी वजह चाहे देश का बहुत विशाल होना रहा हो, जनसंख्या की सघनता रही हो या यूरोपीय लोगों के प्रतिकूल साबित होने वाली यहां की जलवायु रही हो।

ब्रिटेन में सन् 1818 तक करीब दो सौ छोटे-बड़े अपराधों के लिए, जिनमें पांच शिलिंग से ऊपर की चोरी भी शामिल है, मृत्युदंड देना कानून सम्मत था! इसी तरह सन् 1830 तक किसी गंभीर समझे गए अपराध के लिए किसी अंग्रेज सैनिक को खास तरह के कोड़ों से चार पांच सौ कोड़े लगाना आम बात थी। भारत में अंग्रेजों द्वारा मृत्युदंड देने, कोड़े लगाने या दूसरी सजाएं दिए जाने की संख्या बड़ी हो सकती है, लेकिन कड़ाई के मामले में भारत में दी गई सजाएं उन्नीस ही साबित होंगी। शायद 20 से 50 कोड़े या कोड़े मारे जाने का विचार ही ज्यादातर भारतीयों को मरा जैसा महसूस करने के लिए काफी था, जिन्हें अंग्रेजी तौर तरीकों, आदतों और निर्ममतापूर्वक दी जाने वाली सजाओं की आदत नहीं थी। बहरहाल भारत में कब्जा करके बैठे अंग्रेजों या यूरोपियनों के लिए, जिन लोगों पर वे राज कर रहे थे, उन्हें व्यक्तिगत रूप से सजा देना या रास्ते पर लाने की कोशिश करना संभव नहीं था। फिर भी अनेक घरेलू नौकरों को अपने अंग्रेज मालिकों या उनकी पत्नियों द्वारा बेंत से इस तरह पीटे जाने की घटनाएं हुई हैं, जिसमें उनकी मौत तक हो गई थी। इसी तरह कुछ अंग्रेज कलेक्टरों ने गांवों के मुखियाओं और दूसरे भारतीय अफसरों को इतने कोड़े फटकारें हो कि वे स्वर्ग सिधार गए हों, ऐसा भी हुआ है।

यह स्वाभाविक ही था कि शुरू में अंग्रेज अफसर अपनी निजी हैसियत से या सरकारी हैसियत से न्याय और व्यवस्था के अंग्रेजी कायदे कानूनों पर चलते दिखाई देते थे, जिनके जरिए अपराधी समझे जाने वाले लोगों को खड़े-खड़े सजा दे दी जाती थी। लेकिन हमारे जैसे बड़े देश में इस तरह के कायदे कानूनों पर अमल करवाना बहुत मुश्किल था। इसलिए ऐसे ज्यादा नफीस राजनैतिक, आर्थिक और कानूनी तरीके निकाले गए, जिनसे यही उद्देश्य साधा जा सकता और ज्यादा बड़े पैमाने पर तथा ज्यादा कारगर तरीके से सजा देते हुए नियंत्रण रखा जा सकता। राजस्व की वसूली के लिए आधी या एक तिहाई स्थानीय आबादी को कोड़े लगाए जाने लगे। शुरू में इनका उद्देश्य इतने बड़े पैमाने पर देश के मनोबल को भीतर से तोड़ना नहीं रहा होगा। लेकिन धीरे-धीरे ये तरीके कारगर दिखाई दिए और सन् 1750 के बाद अगले डेढ़ सौ साल तक देश के एक या दूसरे हिस्से में राजस्व का काफी बड़ा हिस्सा हड़पने के लिए इन तरीकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। कई इलाकों में तो इस तरह की विपत्ति हर दशक में टूट पड़ती थी।

इस सबको समझना हो तो हमें उधार की आंखों से अपने को, अपने देश को देखना-समझना बंद करना ही होगा।

गांधीजी की अंग्रेज शिष्या मीरा बहन, फिर कमलादेवी चटोपाघ्याय, और जेपी के साथ बहुविधा सार्वजनिक कामों को करते हुए श्री धर्मपाल ने अंग्रेजों के आने से ठीक पहले बौद्धिक जगत के अंधकार को दूर करने का विनम्र प्रयास आजीवन किया।

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