उज्जैयिनी - बूँदों की तीर्थ नगरी भी

Kranti Chaturvedi
Kranti Chaturvedi

कहीं बूँदों ने अपने ‘ठिकाने’ तैयार कर लिये, कहीं बूँदों की छावनियाँ और बैरकें तैयार हो गईं। कहीं बूँदों का स्वराज कायम हुआ तो कहीं पानी के छिपे खजाने मिले। कहीं गाँवों की जीवनरेखा यानी नाले विकास की कहानियाँ रचने लगे, तो कहीं तालाबों का राम दरबार तैयार हो गया। बंजर पहाड़ी जंगल में बदलने लगी। दोनों चित्र देखें तो दाँतों तले उँगली दबा लें। कहाँ तो रेगिस्तान पैर पसार रहा था और कहाँ हरियाली छा जाने से सारस विचरण करने लगे। कुछ पहाड़ पानी के पहाड़ में बदल गए और वीरानी में अब लोक-जीवन के गीत गूँजने लगे। हमारा भारतवर्ष तीर्थों के देश के रूप में दुनिया में जाना जाता है। ये तीर्थ या तो नदी किनारे मिलते हैं, या पर्वतों के शिखर पर। लेकिन, अमूमन जल इनके निकट ही होता है, फिर भले ही वह किसी सागर के रूप में हो, नदी के रूप में हो, या छोटे से कुण्ड या झिरी के नाम से ही क्यों न पहचाना जाता हो।

मध्य प्रदेश का प्रमुख तीर्थ स्थल उज्जैन भारत ही नहीं, बल्कि धरा का प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता है। भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकाल भगवान यहीं विराजते हैं। यह भगवान कृष्ण की शिक्षा स्थली भी मानी जाती है। पवित्र शिप्रा यहीं से गुजरती है और बारह साल में एक बार यहाँ सिंहस्थ का महाकुम्भ भी होता है। जैसा कि विदित ही है, भगवान महाकाल का सम्बन्ध जल से ज्यादा है। उन्होंने हलाहल का पान किया था। ऐसा करने से ही वे समस्त देवताओं में महादेव कहलाए। उन्होंने जन कल्याण की भावना से विषपान किया था। विष के दमन के लिये जल आवश्यक होता है, इसीलिये भगवान शंकर का सतत जलधारा से अभिषेक चलता रहता है। जल उनको सबसे प्रिय है। ऐसी मान्यता है कि जो भी जल से अभिषेक करता है, महाकाल उनसे प्रसन्न होते हैं।

उज्जैन सप्त सागरों का नगर रहा है। किसी जमाने में यहाँ स्वच्छ पानी भरा रहता था और कमल खिले रहते थे। हालांकि, अब ये केवल इतिहास की बात बनकर रह गई है। यद्यपि, सागर तो आपको आज भी मिल जाएँगे। इन सागरों के नाम हैं- रूद्र सागर, पुष्कर सागर, क्षीर सागर, गोवर्धन सागर, विष्णु सागर, पुरुषोत्तम सागर और रत्नाकर सागर।

इन सागरों के किनारे भी अलग-अलग शिवालय रहे हैं। उज्जैन के इन सप्त सागरों के साथ अनेक किंवदंतियाँ जुड़ी हैं। अलग-अलग सागरों पर अलग-अलग वस्तुओं के दान की परम्परा रही है। जिले का ग्रामीण समाज इस परम्परा का आज भी खासतौर पर निर्वहन करता है। नमक, प्रतिमा से लगाकर रत्न व वस्त्र सहित अनेक वस्तुओं के दान का यहाँ उल्लेख मिलता है।

उज्जैन का जल से एक और अहम रिश्ता रहा है। महाकाल मन्दिर के निकट ही है कोटि-तीर्थ। जैसा कि उज्जैन के ख्यात ज्योतिष और पौराणिक सन्दर्भों के ज्ञाता पं. आनन्द शंकर व्यास भी बताते हैं कि एक किंवदंती का शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। कहते हैं, भगवान राम जब युद्ध विजय कर अयोध्या आये तो उन्होंने एक यज्ञ किया। इस यज्ञ हेतु समस्त तीर्थों का जल लाने के लिये हनुमानजी को कहा गया। हनुमानजी जब सभी तीर्थों का जल लेकर आये और शिप्रा का जल भी अपने घड़े में भरकर ले जाने लगे, तो घड़ा इतना भारी हो गया कि उनसे उठाते नहीं बन रहा था। उन्होंने सोचा, मैं तो पहाड़-के-पहाड़ उठा लेता हूँ, लेकिन यह घड़ा मुझसे क्यों नहीं उठाते बन रहा है। तब उन्होंने महाकाल का ध्यान किया। महाकाल ने उनसे कहा- जो तुम्हारे घड़े में जल भरा है, उसे हमारे सागर में डाल दो और पुनः भरकर ले जाओ। इस तरह कोटि-तीर्थ में अनेक तीर्थों के जल का समावेश हो गया। इसके नामकरण की वजह भी यही रही। महाकाल मन्दिर परिसर में स्थित जल कुंड भी इसी का अंश माना जाता है।

उज्जैन की गणना वेदों की नगरी के रूप में भी होती है। हमारी प्राचीन वैदिक परम्परा में अवतार या मूर्तिपूजन की व्यवस्था न होते हुए तत्त्वों की पूजा की जाती थी। इसमें खास तौर पर वायु, अग्नि, सूर्य के साथ-साथ जल की उपासना का भी जिक्र है। समुद्र को भी हमारे ग्रंथों में देवता की संज्ञा दी गई है। उज्जैन में पुराणिक उल्लेख यही कहता है कि शिप्रा स्नान पापों को नष्ट कर मोक्ष प्रदान करता है। यह सब प्रकारान्तर से जल की उपासना के ही संकेत हैं।

ये तो कुछ चुनिन्दा उदाहरण रहे हैं- जो उज्जैन और जल के पौराणिक, आध्यात्मिक और धार्मिक रिश्तों को रेखांकित करते हैं। यहाँ यह उल्लेख भी प्रासंगिक होगा कि स्कंध पुराण में इस बात का वर्णन है कि महाकाल एक विशाल और घने वन में विराजित है। महाकाल वन का दर्शन ही अपने आप में पुण्यदायक माना गया है। जहाँ इतने घने जंगल रहे होंगे, वहाँ बरसात की हर बूँद को आश्रय मिला होगा। ...और कभी इसी वन में आबाद रहने वाले गाँवों में पानी के संस्कार पुनः रोपित करना, जल की उपासना के संस्कारों का पुनः श्रद्धानवत् स्मरण ही तो कहा जाएगा। हम यह नहीं भूल रहे हैं कि जंगल से अनादिकाल पहले आबाद रहने वाला उज्जैन जिला अब अपनी जमीन पर एक प्रतिशत से भी कम जंगल का हमसफर है। वक्त बदला। पर्यावरण बदला। जल की उपासना का स्थान दोहन ने ले लिया। दोहन, दोहन और केवल अंधाधुंध दोहन। और उसी पानी के संस्कार वाले उज्जैन जिले के गाँवों में पानी के मामले में हाथ के तोते उड़ते चले गए।

यहाँ एक प्रश्न प्रासंगिक होगा कि समाज का ‘पानी’ क्या इतना सूख चुका था कि कुछ होना सम्भव ही नहीं था?

...नहीं!

समाज के चेहरे से पानी गायब होने की इसकी शक्ति का ‘नूर’ गायब हो गया था, पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। उसके भीतर की अन्तर्धारा जिन्दा थी। उसे स्पर्श कर, जागृत कर उस शक्ति को वापस एक ‘पहचान’ में तब्दील किया जा सकता था...।

कहते हैं, हनुमानजी को उनकी शक्ति याद दिलाओ तो वे ‘कुछ भी’ कर गुजरने की क्षमता से सराबोर हो जाते हैं। और वे ऐसा कर भी देते हैं…! उज्जैन के कोटि-तीर्थ में हनुमानजी के घड़े से उड़ेला पानी पीने और दर्शन करने वाले समाज को जब जागृत किया तो सचमुच पानी के चमत्कार की अनेक इबारतें इस जिले की सुनहरी धरती पर रची जाने लगीं।

कहीं बूँदों ने अपने ‘ठिकाने’ तैयार कर लिये, कहीं बूँदों की छावनियाँ और बैरकें तैयार हो गईं। कहीं बूँदों का स्वराज कायम हुआ तो कहीं पानी के छिपे खजाने मिले। कहीं गाँवों की जीवनरेखा यानी नाले विकास की कहानियाँ रचने लगे, तो कहीं तालाबों का राम दरबार तैयार हो गया। बंजर पहाड़ी जंगल में बदलने लगी। दोनों चित्र देखें तो दाँतों तले उँगली दबा लें। कहाँ तो रेगिस्तान पैर पसार रहा था और कहाँ हरियाली छा जाने से सारस विचरण करने लगे। कुछ पहाड़ पानी के पहाड़ में बदल गए और वीरानी में अब लोक-जीवन के गीत गूँजने लगे। सरप्राइज !संकल्प! सत्यमेव जयते - क्या नहीं है अब उज्जैन के गाँवों में। सब कुछ बदला-बदला-सा। पानी की उपासना का लौटता युग…!

उज्जैन में शोध अध्ययन के दौरान यही तथ्य मुख्य रूप से सामने आये कि पानी खो चुका पूरा इलाका किस तरह पुनः पानी के मामले में समृद्ध विरासत की नींव रख सकता है। अकाल और सूखे के बावजूद पानी आन्दोलन वाले गाँव बड़े पैमाने पर औसत बरसात वाली हालात जैसी रबी फसल का उत्पादन कर सकते हैं। व्यापक फलक पर समाजार्थिक बदलाव की इबारत लिख सकते हैं। उज्जैन सहित सम्पूर्ण मालवा क्षेत्र में पानी की समृद्ध विरासत और पहचान रही है। मालवा के सम्बन्ध में एक कहावत कही जाती थी- “मालव-माटी गहन गम्भीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर।” यह भी तथ्य सर्वज्ञात है कि यही मालवा अब भूजल के गायब होने की कहानियों की जन्मस्थली बना हुआ है और हालात आपको रेगिस्तान के आगमन की सूचना देते दिखाई दे सकते हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में उज्जैन में व्यवस्था, प्रशासन और समाज ने मिलकर यहाँ की जमीन का पुराना ‘पानी-वैभव’ लौटाने का संकल्प लिया। एक रणनीति बनाई गई। यह कागजी न होकर समाज के दिल, जेहन और रगों में बसती चली गई।

जिला पंचायत के तत्कालीन मुख्य कार्यपालन अधिकारी श्री आशुतोष अवस्थी ने एक पानी-टीम तैयार की। इनका पानी संवाद तो पृथक से शोध-अध्ययन का विषय हो सकता है, क्योंकि यह गर्व और खुशखबरी का विषय है कि उज्जैन का ग्रामीण समाज यहाँ एक नई इबारत रचने जा रहा है- डग-डग डबरी…! दस हजार डबरियाँ या तो तैयार हो चुकी हैं, या इस प्रक्रिया में हैं, जबकि 50 हजार डबरियों के लक्ष्य को पार करने में समाज जुट गया है। पहले जो डबरियाँ व अन्य जल संरचनाएँ बनीं, उनके पानी-चमत्कारों ने एक निष्कर्ष निकाला- कैसा सूखा, कैसा अकाल। आप यदि एक ‘जिन्दा’ ग्रामीण समाज हैं, तो ये दोनों जनाब आपके गाँव से बाहर भागते नजर आएँगे और आप अल्पवृष्टि में भी भरपूर फसल ले सकते हैं। हाँ, पानी आन्दोलन से लबरेज गाँवों की यही उपलब्धि उज्जैन का नया इतिहास रचने में प्रकाश स्तम्भ की भूमिका का निर्वाह कर रही है।

“व्यवस्था के पास यदि एक सामाजिक चेहरा भी है, जिसका उपयोग ‘तंत्र’ के साथ-साथ ‘जन’ के लिये भी व्यापक फलक पर हो रहा है, तो फिर एक बड़ी क्रान्ति सम्भव है” - यह किसी दार्शनिक या विचारक का कोटेशन नहीं, बल्कि यहाँ के ग्रामीण समाज की जागी हुई ‘शक्ति’ से मुखातिब होने पर अनुभवों का जो नया संसार हाथ लगा है, उसका एक अंश मात्र है…! जल संचय पर नैराश्य भाव लाने की जरूरत नहीं है - यह संकेत उज्जैन की व्यवस्था और समाज दे रहा है। एक अरब की डबरी-निर्माण योजना में प्रोत्साहन स्वरूप 15 करोड़ रुपए सरकार की ओर से मिले हैं तो 85 करोड़ रुपए यहाँ का समाज खुद लगा रहा है- पानी के लिये समाज-जागृति की यह मिसाल इतनी कम अवधि में तो बिरली ही मिलेगी। इस अध्ययन यात्रा में जल-जागृति और इसी ‘जिन्दा’ समाज से आपकी मुलाकात कराने की विनम्र कोशिश की गई है।

जिस समाज के पुरखे उज्जैन के सप्त सागरों के सामने पानी का आचमन करके दान की परम्परा का निर्वहन करते रहे हों, वह समाज क्या अपने क्षेत्र, गाँव और परिवेश के लिये बूँदों की मेहमाननवाजी की खातिर कुछ जमीन का त्याग नहीं कर सकता है…?

...ऐसा करके क्या वह अपने गाँव में किसी ‘सागर’ का निर्माण नहीं कर रहा है, जो सप्त सागर का अंश माना जा सके! विरासत के महाकाल-वन का सपना क्या वह नरवर की पहाड़ी पर पुनः पुष्पित-पल्लवित होते नहीं देख सकता है?

कोटि-तीर्थ का अहसास क्या खुद के हाथों से बनाए तालाब, डबरियों या कुंडियों में नहीं हो सकता है?

यह सब कुछ या तो हो चुका है, या होने जा रहा है!

इस यात्रा में हम यही तो बताने जा रहे हैं…!

आप भी चल रहे हैं न…!

(आगे की शृंखला में पढ़िए शेष पानी यात्रा के और रोचक संस्मरण)

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