उमड़ते घुमड़ते भागते मेघ

हमारे वायुमंडल की कई परतें हैं। इन परतों में बनने वाले मेघ भी कई तरह के होते हैं। सभी बरसते नहीं, कुछ कड़कते हैं, कुछ गरजते हैं और कुछ ही बरसते हैं। इनके रंग-रूप आकार-प्रकार भी अलग-अलग होते हैं। कोई पहाड़ की तरह होता है, तो कोई गोभी के फूल की तरह, कोई रुई के गोलों की तरह। प्रकृति में इन सबकी अपनी-अपनी भूमिका है। वर्षा ऋतु आती है और आसमान में मेघ घिर आते हैं, तरह-तरह के मेघ। रुई के फाहों से सफेद, काले-कजरारे-भूरे मेघ। आसमान में आर-पार फैली चादर से मेघा या रुई के विशाल गट्ठरों से उमड़ते-घुमड़ते, यहां से वहां भागते मेघ। न जाने कितने आकार-प्रकार के होते हैं मेघ! कवियों ने उन्हें देखा और कविता में उन्हें उतार लिया। तभी तो प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने लिखा होगा-
‘कभी अचानक भूतों का-सा प्रकटा विकट महा आकार/कड़क-कड़क जब हंसते हम सब/थर्रा उठता है संसार।’ और, यह भी कि ‘फिर परियों के बच्चों-से हम/सुभग सीप के पंख पसार/समुद्र तैरते शुचि ज्योत्स्ना में/पकड़ इंद्र के कर सुकुमार!’

हम सभी ने बचपन से आसमान में मेघों को घिरते देखा है और उनके आकारों में अपनी धरती के जीव-जंतुओं के आकार खोजते रहे हैं-हाथी, घोड़े, पेड़, पहाड़ और मनुष्य। सज-धज कर आते मेघों को देख कर ही शायद कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने लिखा,
‘मेघ आए बन-ठन के संवर के/आगे-आगे नचती-गाती बयार चली/दरवाजे-खिड़कियां खुलने लगीं गली-गली!’

सचमुच मेघों को घिरते हुए देखने के लिए किसका मन नहीं मचलता? मगर उन्हें देखकर हर किसी के मन में सवाल भी उठता है कि साफ-सुथरे नीले आसमान में आखिर ये मेघ अचानक कहां से आ जाते हैं? इसे समझने के लिए हमें अपनी धरती और उसके चारों ओर फैले वायुमंडल के आत्मीय रिश्ते को समझना होगा।

पृथ्वी के बारे में हमें पता है कि इसके दो-तिहाई हिस्से में पानी है। पानी से लबालब भरे सागर हैं। झील, तालाब और झरने हैं। पहाड़ों से निकल कर मैदानों को सींचती, बहती विशाल नदियां हैं। ध्रुवों और ग्लेशियरों में जमी बर्फ है। दलदल है, भूमि के गर्भ में भरा जल है। नम धरती है। यानी, हमारी पूरी पृथ्वी एक गीला ग्रह है।

मौसम विज्ञानी कहते हैं कि पृथ्वी के चारों ओर फैले वायुमंडल की कई परतें हैं। धरती की सतह से शुरू होने वाली, जिस परत में हम रहते हैं, उसे वे ट्रोपोस्फियर, यानी क्षोभमंडल कहते हैं।गीला ग्रह और ऊपर से तपता सूरज, जिसकी किरणों के ताप से सागरों और धरती का जल भाप बनकर वायुमंडल में ऊपर उठता हैं और ऊपर जाकर ठंडे तापमान में जल की नन्हीं बुंदकियों या बर्फ के कणों में बदल जाता है। जल की वे लाखों-करोड़ों नन्हीं बुंदकियां मिलकर मेघों, यानी बादलों को जन्म देती हैं। तभी तो वे जलद या जलधर भी कहलाते हैं। बूंदें और अधिक ठंडी हो जाने पर आपस में मिलकर बड़ी बूंदें बन जाती हैं। वे भारी बूंदें ही बादलों से टपककर रिमझिम वर्षा के रूप में धरती पर बरस जाती हैं। या, कभी बर्फ बनकर ऊंचे बनकर ऊंचे ठंडे पहाड़ों में फूलों की पंखुड़ियों की तरह आसमान से झरने लगती हैं।

बादलों की वे बूंदें कभी-कभी कांच के कंचों जैसे कड़े ओले बनकर गिरने लगती हैं। गर्ज यह कि धरती और सागरों से भाप बनकर आसमान में पहुंचा पानी फिर धरती पर पहुंच जाता है। सूरज की किरणें फिर धरती और सागरों के पानी को तपाकर भाप बना देती हैं। भाप फिर वायुमंडल में पहुंच जाती है और इस तरह प्रकृति में यह जल-चक्र निरंतर चलता रहता है और जल की बूंदों और बर्फ कणों से आसमान में वायुमंडल की परतों में मेघ बनते रहते हैं।

वायुमंडल की परतें? हां, मौसम विज्ञानी कहते हैं कि पृथ्वी के चारों ओर फैले वायुमंडल की कई परतें हैं। धरती की सतह से शुरू होने वाली, जिस परत में हम रहते हैं, उसे वे ट्रोपोस्फियर, यानी क्षोभमंडल कहते हैं। हवा की यह परत बहुत घनी है और धरती की सतह से करीब 12 किलोमीटर ऊपर तक फैली है। 12 किलोमीटर से 50 किलोमीटर ऊपर तक की परत स्ट्रेटोस्फियर, यानी समताप मंडल कहलाती है। 50 से 80 किलोमीटर तक ऊपर मीजोस्फियर, यानी मध्य मंडल और उससे भी ऊपर 80 से 300 किलोमीटर तक फैला है थर्मोस्फियर, यानी तापमंडल।

विभिन्न आकार-प्रकार के तमाम मेघ धरती से 12 किलोमीटर ऊंचाई तक फैले ट्रोपोस्फियर, यानी क्षोभमंडल में ही बनते हैं। उससे ऊपर स्ट्रेटोस्फियर, यानी समताप मंडल में 22 से 245 किलोमीटर की ऊंचाई पर केवल कभी-कभार ही विशाल मोतियों की शक्ल के मुक्ताभ मेघ बन जाते हैं।

मौसम विज्ञानियों की भाषा में क्षोभमंडल में बनने वाले नाना प्रकार के मेघ मोटेतौर पर चार प्रकार के होते हैं-कुमुलस (ढेर जैसे), स्ट्रेटस (परत जैसे), सिर्रस (घुंघराले) और निंबस (वर्षा मेघ)। ये लैटिन भाषा के शब्द हैं और इन्हीं से मिलकर बने शब्दों से मेघों का नामकरण किया गया है।

इस सब बादलों से अलग कपासी-वर्षा मेघ आसमान में ऊर्ध्वाधर यानी सीधे खड़े उठते हैं। ये मेघ प्रायः रुई के विशाल फाहों की तरह आसमान में तैरते दिखाई देते हैं।मौसम विज्ञानियों ने आकार-प्रकार के आधार पर इन चार प्रकार के मेघों के भी दस रूपों की पहचान की है। मेघों के ये दस रूप हैं-कुमुलोनिंबस (गर्जन मेघ), सिर्रोस्ट्रेटस, सिर्रस, सिर्रोकुमुलस, ऐल्टोकुमुलस, ऐल्टो-स्ट्रेटस, स्ट्रेटोकुमुलस, कुमुलस, स्ट्रेटस, निंबास्ट्रेटस। इनसे नीचे धरती की सतह पर कोहरा उठकर यहां-वहां टहलता रहता है। यह धरती पर पानी की बूंदों से बनने वाला ऐसा मेघ है जिसे हम पास से देख और छू भी सकते हैं। पहाड़ों में यह घाटियों से उठता है और पहाड़ों को घेरकर उन्हें देखते ही देखते गायब कर देता है। लगता है जैसे ‘उड़ गया अचानक लो भूधर/फड़का अपार वारिद के पर!’ - (सुमित्रानंदन पंत) और हां, पहाड़ में जहां वह कोहरा बनता था वह सरला उस गिरि को कहती थी बादल-घर!’ -(पंत) कोहरे से ऊपर क्षोभमंडल में बनते हैं ‘वर्षास्तरी मेघ’ (निंबोस्ट्रेटस)। आसमान में ये काले-भूरे मेघ कम ऊंचाई पर परत या चादर की तरह फैले रहते हैं। इनसे रिमझिम वर्षा होती है।

‘स्तरी मेघ’ (स्ट्रेटस) पतली या मोटी परत के रूप में घिरते हैं और ये भी आसमान में कम ऊंचाई पर क्षोभमंडल में बनते हैं। कपासी-मेघ (कुमुलस) नीचे से ऊपर को फैलते हैं और रुई के गोलों की तरह या रुई के बड़े ढेर की तरह दिखाई देते हैं। इनसे संकेत मिलता है कि मौसम साफ रहेगा। ये प्रायः बरसते नहीं, लेकिन ऊपर को इनका आकार बढ़ते-बढ़ते गरजते तूफानी मेघों का रूप ले सकता है।

स्तरी-कपासी मेघों (स्ट्रेटो-कुमुलस) का निचला हिस्सा चौड़ा और चपटा, लेकिन ऊपरी सिरा फूला हुआ होता है। ये कई आकारों के हो सकते हैं। मध्य-स्तरी (ऐल्टो-स्ट्रेटस) और मध्य-कपासी (एल्टो-कुमुलस) मेघ वायुमंडल में धरती से 6 से 9 किलोमीटर की ऊंचाई पर बनते हैं। ये मध्यम स्तर के मेघ कहलाते हैं। घूसर-सलेटी मध्य-स्तरी मेघ पतली परत के और सपाट होते हैं। ये पूरे आसमान में छा जाते हैं। ये मेघ जल की बुंदकियों और नन्हें बर्फ कणों से बनते हैं। जहां इन मेघों की परत पतली होती है, वहां से सूर्य के गोले की धुंधली झलक दिखाई दे जाती है।

इसी ऊंचाई पर बनने वाले धूसर-नीले धूसर मध्य-कपासी मेघ (ऐल्टो-कुमुलस) भी जलकणों से बनते हैं। ये कई आकारों के हो सकते हैं कई बार ये आकाश में लंबी लहरों या पट्टियों से दिखाई देते हैं। जब ये मेघ बहुत पतले होते हैं तो इनसे सूर्य या चंद्रमा के नजदीक रंगीन घेरे बनते हैं। गर्मियों की सुबह अगर गर्म और नम हो, तो इन मेघों से प्रायः देर दोपहर बाद गरज के साथ तूफान आने का अंदेशा रहता है।

धरती से 9 से 12 किलोमीटर की ऊंचाई पर घुंघराले केशों की बनावट वाले पक्षाभ मेघ (सिर्रस) बनते हैं। इनमें से पक्षाभ-कपासी मेघ (सिर्रोकुमुलस) रुई के छोटे-छोटे, गोल-सफेद गोलों, लहरदार रेत या कभी-कभी मछलियों के शल्कों की तरह दिखाई देते हैं। पक्षाभ मेघ (सिर्रस) पतले रेशों जैसे दिखाई देते हैं। हवाएं उन्हें आसमान में दूर तक लंबी, पतली पताकाओं-सी उड़ा ले जाती हैं। ये मेघ प्रायः आसमान में पश्चिम से पूर्व की ओर आगे बढ़ते हैं। पक्षाभ-स्तरी मेघ (सिर्रोस्ट्रेटस) ऊंचाई पर घिरने वाले, पतली परत जैसे मेघ हैं जो प्रायः पूरे आसमान पर छा जाते हैं। इनकी पतली परत के पार सूर्य या चंद्रमा साफ दिखाई देता है और इससे इनके गिर्द एक प्रभामंडल भी बन जाता है।

इस सब बादलों से अलग कपासी-वर्षा मेघ (कुमुलोनिंबस) आसमान में ऊर्ध्वाधर, यानी सीधे खड़े उठते हैं। ये मेघ प्रायः रुई के विशाल फाहों की तरह आसमान में तैरते दिखाई देते हैं। इनका निचला भाग चपटा होता है। ऊपर की ओर इनका आकार फूलगोभी के फूल की तरह होता है जो आकार में बढ़ता जाता है और विशाल, विकराल काले-भूरे कपासी-वर्षा मेघ का रूप ले लेता है। इसका गर्जन-तर्जन महाप्राण निराला के ‘बादल राग’ की याद दिलाता है- ‘बार-बार गर्जन/वर्षण है मूसलाधार/हृदय थाम लेता संसार/सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार।’ ये मेघ तड़ितझंझा भी कहलाते हैं, क्योंकि इन कड़कते मेघों में दामिनी तो दमकती ही है, ये भयंकर गरज के साथ तेज बारिश, ओले, आंधी और यहां तक कि तूफान भी लाते हैं। इसलिए ये तूफान लाने वाले मेघ कहलाते हैं। धरती से मात्र तीन-चार सौ मीटर की ऊंचाई पर भी इनका बनना शुरू हो सकता है। लेकिन, गोभी के फूल जैसे मेघ का आकार बढ़ते-बढ़ते इनका ऊपरी सिरा 12,000 मीटर की ऊंचाई तक पहुंच सकता है।

इनके अलावा कभी-कभी तेज तूफान के बाद आसमान में घने, काले झोलदार थैलों जैसे बादल घिर आते हैं। कभी पहाड़ों की ढलान पर ऊपर की ओर भागती ठंडी, जल-कणों से लदी-फदी नम हवा पहाड़ के ऊपर जाकर मेघ का रूप ले लेती है। ये पर्वत मेघ कहलाते हैं।

विशाल हाथियों की तरह आसमान में मेघ आते हैं और गरज-बरसकर तपती धरती की प्यास बुझाते हैं। रिमझिम वर्षा सभी जीवधारियों में नए जीवन का संचार कर देती है। सावन के ऐसे ही मेघों को बरसता देखकर शायद मीराबाई ने अपना वह गीत गुनगुनाया होगा, ‘बरसे बदरिया सावन की/सावन की, मन भावन की/उमड़-घुमड़ चहुं दिसि से आयो/दामण दमकै झर लावण की!’

(लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं)

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