
किसान की समस्याओं को मोटा-मोटी दो हिस्सों में बाँट सकते हैं-तात्कालिक और स्थायी। दुखद है कि दोनों का ही माकूल समाधान नहीं हो पा रहा। आजादी के बाद से किसान को उपदेश दिया जाता रहा है कि अधिक उत्पादन करें। गौरतलब है कि आजादी के समय गेहूँ-चावल का उत्पादन जरूरत जितना भी नहीं होता था। लेकिन किसानों ने मेहनत करके खाद्यान्नों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बना दिया। वर्ष 1990 के बाद से तो हालत यह हो गई कि हर साल खाद्यान्नों का स्टॉक साठ-सत्तर मिलियन टन तक हो जाता है, जबकि 20 लाख मिलियन टन का स्टॉक मानक या आदर्श माना जाता है।
ज्यादा स्टॉक का आर्थिक उपयोग नहीं होने की अपनी अलग चिन्ता है। अतिरेकी उत्पादन की समस्या से निर्यात खोलकर निपटा जा सकता है। लेकिन इस मामले में भी ज्यादातर अच्छी किस्म का चावल ही निर्यात हो पाता है। मोटा चावल और अन्य खाद्यान्नों के मामले में ऐसा नहीं है। उनके भंडारण की समस्या से देश को जूझना पड़ता है। आधिक्य की स्थिति दामों को दबाव में ला देती है और किसान को मेहनत का प्रतिफल नहीं मिल पाता।
एमएसपी हुआ बेमानी
इस समस्या से पार पाने के लिये 1965 में कृषि मूल्य आयोग-एपीसी (जो आज सीएसीपी के नाम से जाना जाता है) तथा भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की स्थापना की गई। इनकी स्थापना के साथ सरकार का संकल्प था कि अधिक उत्पादन की स्थिति में किसान को दाम गिरने के चलते होने वाले नुकसान से बचाया जाएगा। किसान के अतिरिक्त उत्पादन को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद कर उत्पादन आधिक्य का दंश किसान को नहीं झेलने दिया जाएगा। शुरू में गेहूँ और धान पर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया गया। बाद में 22 जिंसों को समर्थन मूल्य की जद में लाया गया।
आज 26-27 जिंस ऐसी हैं, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य की परिधि में लाई जा चुकी हैं। धान-गेहूँ का उत्पादन ज्यादा रहने पर दाम गिरने की समस्या से निपटने का एक उपाय सुझाया गया कि किसान फसल-विविधीकरण अपनाएँ। गन्ना और कपास की खेती को तरजीह दें। लेकिन जब इन जिंसों के दाम भी अधिक उत्पादन से गिरावट की चपेट में आने लगे तो कहा गया कि फल-सब्जियों की काश्त ज्यादा करें। नतीजतन, किसान आज आलू, प्याज, लहसुन आदि के दामों में भी गिरावट का दंश झेलने को विवश हैं। देश में किसान बहुसंख्यक हैं।
अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। सो, उनकी अर्थव्यवस्था यानी आर्थिक हालात की अनदेखी नहीं की जा सकती। जरूरी है कि उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर करने में कोई कसर न छोड़ी जाए। कहना न होगा कि कृषि उपज को लाभकारी बनाना होगा। जरूरी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक मुहैया कराए जाएँ। आयोग ने सीटू कास्ट में 50 प्रतिशत अतिरिक्त जोड़कर न्यूनतम समर्थन मू्ल्य देने की सिफारिश की थी। सीटू कास्ट में आदानों की कीमत, कृषि उपकरणों और मशीनों पर खर्च, मशीनों का मूल्य ह्रास, कृषि भूमि का किराया, खेती में जुड़े किसान के परिजनों के श्रम की लागत, कर्ज पर ब्याज जैसे सारे खर्चों को शामिल किया गया है।
2014 में भाजपा ने अपने चुनाव घोषणापत्र में वादा किया था कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक सीटू कास्ट में पचास प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा। इस प्रचार से उत्साहित किसानों ने बड़ी संख्या में उसके पक्ष में वोट किया। यह सिफारिश लागू करवाने की माँग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की गई। जवाब में सरकार ने शपथ पत्र पेश किया कि वर्तमान में संसाधनों की स्थिति के मद्देनजर इस सिफारिश को लागू नहीं किया जा सकता। बहरहाल, चार साल बाद 2018-19 के बजट (जब रबी सीजन था) में कहा गया कि आयोग की सिफारिश खरीफ सीजन से लागू मानी जाएगी। लेकिन इसमें भी एक पेंच है। यह कि सीटू कॉस्ट की बजाय एटू+एफएल यानी खेती की बाहरी लागत+किसान परिवार के श्रम का मूल्य के फार्मूला के तहत न्यूनतम मूल्य दिया जाएगा यानी सीटू कॉस्ट की परिभाषा का स्तर घटा दिया गया।
लाभकर दाम और फार्मूले
सीटू फार्मूले के हिसाब से जिस धान का मूल्य 2340 रुपए मिलना चाहिए था, वह एटू+एफएल के तहत 1750 रुपए ही दिया जाएगा। इस तरह किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में भ्रमित करने का कार्य किया गया। इसी प्रकार देश की प्रमुख 38 मंडियों में दालों, मोटे अनाज, तिलहन, कपास, आलू, प्याज, लहसुन आदि के दाम समर्थन मूल्य से कम मिल रहे हैं। ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य का मैकेनिज्म बेमानी लगने लगा है। क्यों न समर्थन मू्ल्य घोषित करने और इसे दिए जाने, दोनों अलग-अलग बातें हैं, के सिलसिले को ही खत्म कर दिया जाए।
चीनी और दालें आयात करके भी किसानों की तकलीफें बढ़ाई जा रही हैं। गन्ना किसानों को बकाया का भुगतान लम्बित रखकर उनकी दिक्कतें बढ़ाई जाती रही हैं। दूसरी तरफ, किसानों को बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह जैसे कारज और अन्य खर्चों को पूरा करने के लिये कर्ज लेने को विवश होना पड़ता है। खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। इसलिये भी किसान कर्ज माफी की माँग करते रहे हैं। जरूरी है कि खेती-किसानी की समस्याओं का समेकित समाधान किया जाए।
कृषि उपज मंडी कानून, 1954-55 को ही देखें। इसे सब प्रदेशों में लागू तो किया गया था व्यापारियों द्वारा की जाने वाली जमाखोरी, मुनाफाखोरी और किसानों का उत्पीड़न थामने के लिये लेकिन आज यह ऐसा लाइसेंस जैसा बन गया है, जिससे किसानों का खुला शोषण हो रहा है। रिश्वत के लेन-देन से कृषि मंडियों में लाइसेंस हासिल किया जाता है। लाइसेंस धारी व्यापारी गुट बना लेते हैं। उनके गुटीय एकाधिकार के हाथों किसानों का जमकर शोषण होता है। किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से वंचित रह जाते हैं। यह उत्पीड़क एकाधिकार तोड़ा जाना चाहिए।
कृषि क्षेत्र की एक और समस्या ने भी किसान वर्ग को परेशान किया हुआ है। इसके चलते किसान बहुत परेशान हैं। उनके सामने आजीविका चलाने का संकट कहीं ज्यादा जटिल हो गया है। देश में 82-83 प्रतिशत किसान छोटी जोतों (रकबे) के मालिक हैं। इतने छोटे कृषि रकबे से घर-परिवार चलाना मुश्किल हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में वैकल्पिक रोजगार के अवसर पैदा किया जाना जरूरी हो गया है। इस मुद्दे पर गम्भीरता से विचार करके एक बड़ा कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए ताकि छोटी जोत वाले किसानों के लिये स्थितियाँ बेहतर हो सकें। दरअसल, खेती-किसानी की दिक्कत यह है कि जब-जब किसान अपने दुख-दर्द बताना चाहता है, तो केन्द्र कृषि को राज्यों का विषय बता कर अपना पल्ला झाड़ लेता है। लेकिन इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि केन्द्र और राज्यों में पार्टी की सरकार होने की सूरत में तो किसान को कोई शिकायत रहनी ही नहीं चाहिए थी।
(लेखक पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री हैं।)