उपयोगिता बनाम प्रदूषण

17 Oct 2020
0 mins read
प्रदूषण
प्रदूषण

मानव सभ्यता के विकास में जीवन को सहज और सुचारू रूप से चलाने हेतु आवश्यकताओं के अनुरूप निरंतर आविष्कार तथा विकल्पों की तलाश होती रही है। बीते लगभग दो सौ वर्षों में जिस तरह विज्ञान ने प्रगति की है, वह अभूतपूर्व है। परंतु विज्ञान की इस प्रगति ने सबसे ज़्यादा पर्यावरण को प्रभावित किया है। वर्तमान में पर्यावरण को प्रभावित करे में विज्ञान के महत्त्वपूर्ण आविष्कारों में से एक है 'प्लास्टिक। प्राकृतिक संसाधनों से रासायनिक प्रक्रिया द्वारा कृत्रिम रूप से तैयार प्लास्टिक का प्रयोग आज हमारे रोज़मर्रा के जीवन में धड़ल्ले से हो रहा है। इसके उपयोग से लाभ तथा हानि दोनों हैं। अतः सम्यक दृष्टि से इसका विश्लेषण करना आवश्यक है।ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम मानव निर्मित प्लास्टिक सन्‌ 855 में अलेक्जेंडर पार्क्स (ब्रिटेन) द्वारा बनाया गया था।

 

इसके बाद प्लास्टिक की मांग और इसकी उपयोगिता में निरंतर बढ़ोतरी हुई। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर यदि देखें, तो एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 204-205 में औसतन 28 किलो प्रति व्यक्ति (पर कैपिटा) प्लास्टिक की खपत पूरे विश्व में थी। जिसमें क्रमशः प्रति व्यक्ति 09 किलो अमेरिका में, 65 किलो यूरोप, 38 किलो चीन, 32 किलो ब्राज़ील तथा  किलो भारत में खपत थी। प्लास्टिक की खपत में लगातार वृद्धि भी हो रही है। एक अनुमान के मुताबिक प्लास्टिक उत्पादन विश्व भर में प्रति वर्ष 50 मिलियन टन को भी पार कर चुका है। प्लास्टिक का उपयोग आज जीवन के हर क्षेत्र में देखने को मिलता है, जैसे- घरेलू सामानों में, इलैक्ट्रॉनिक से बने सामान, टेबल-कुर्सी, खिलौने, कंटेनर्स, कचरा बैग, शॉपिंग बैग, पॉलिथिन, इसके अलावा औद्योगिक उत्पादों या बिल्डिंग निर्माण सामग्री आदि कई ऐसे उदाहरण हैं, जो हमारी नज़रों के समक्ष हैं। प्लास्टिक के इस प्रकार बढ़ते प्रयोग के पीछे सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है इसका सस्ता और सुलभता से उपलब्ध होना। अतः उपयोग की दृष्टि से यह अत्यंत लाभदायक है। परन्तु इससे सबसे बड़ी हानि यह है कि इसे नष्ट नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि विश्व भर में यह प्रदूषण का एक बड़ा कारण बन चुका है तथा पर्यावरण को दूषित बनाकर प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक जिस पानी की बोतल का प्रयोग कर हम फेंक देते हैं, उसे ख़त्म होने में 000 वर्ष से ज़्यादा का वक्त लग सकता है। हमारे डैमेज, चाइल्ड डेवलपमेंट डिसऑर्डरस, बर्थ डिफेक्ट आदि।

 

साधारण तौर पर लोग प्लास्टिक की चीज़ों का इस्तेमाल कर इधर-उधर फेंक देते हैं, जो या तो कचरे की तरह इकट्ठा की जाती है या फिर वहीं जमीन में जम जाती है। जमीन में रह जाने वाले प्लास्टिक ग्राउंड वाटर लेवल को दिनोंदिन कम करते जा रहे हैं, साथ ही मिट्टी प्रदूषण भी करते हैं। वहीं  कचरे की तरह इकट्ठा प्लास्टिक किसी न किसी रूप में समुद्र में चले जाते

हैं। जिससे समंदर भी प्रदूषित हो रहा है। आंकड़ों के अनुसार, 8 मिलियन टन प्लास्टिक वेस्ट (अपशिष्ट) हर साल समंदर में जाता है। अब तक कुल 50 मिलियन टन प्लास्टिक समंदर में इकट्ठा हो चुका है। 204 की रिपोर्ट के अनुसार प्रति 5 किलो मछली पर 1 किलो प्लास्टिक हर साल समंदर में जा रहा है और ऐसा अनुमान है किवर्ष 2050 आते-आते समंदर में मछलियों से ज़्यादा प्लास्टिक हो चुका होगा। अतः इन कारणों से जल, थल तथा वायु तीनों में ही

प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है, जिससे पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है।पर्यावरण को हो रहे ऐसे नुकसान से बचाने के लिए “रिसायकलिंग' (पुनः चक्रण या पुनर्नवीनीकरण) को अपनाया गया। परंतु इस प्रक्रिया के अंतर्गत भी सिर्फ 60 प्रतिशत उत्पादित प्लास्टिक को ही रिसायकल किया जा सकता है। साथ ही रिसायकलिंग की प्रक्रिया भी 2 या 3 बार ही संभव है।

अतः इस वैश्विक समस्या का कोई भी स्थायी समाधान नहीं मिल सका है।

 

भारत में स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत “प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट” (प्लास्टिक अपशिष्ट/कचरा प्रबंधन) पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है। जहां तक भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादन (प्लास्टिक आस-पास प्रयोग होने वाले प्लास्टिक को यदि जलाया जाता है, तो उससे निकलने वाले केमिकल युक्त हानिकारक धुंए से कई तरह की घातक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जैसे- कैंसर, अस्थमा, बॉडी ऑर्गन वेस्ट जेनरेशन) की बात है, तो सेंट्रल पल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) के अनुसार, भारत प्रतिवर्ष लगभग 9.4 मिलियन टन (26,000 टन प्रतिदिन) 

प्लास्टिक वेस्ट उत्पादित करता है और इसमें से 5.6 मिलियन टन (5,000 टन प्रतिदिन) प्लास्टिक वेस्ट को रिसायकल किया जाता है। साथ ही 3.8 मिलियन टन (9400 टन प्रतिदिन) बैसे ही छोड़ दिया जाता है। जो 60 प्रतिशत प्लास्टिक वेस्ट रिसायकल किया जाता है, उसका 70 प्रतिशत रिसायकल रजिस्टर्ड फसिलिटी द्वारा, 20 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र द्वारा तथा 0 प्रतिशत घर पर ही रिसायकल किया जाता है। भारत में प्लास्टिक के खपत की बात की जाए, तो वर्ष 996 में यह 6,000 टन, वर्ष 2000 में 300,000 टन, वर्ष 200 में 400,000 टन, वर्ष 2007 में 8500,000 टन और वर्ष 207 आते-आते तक यह 7800,000 टन तक पहुंच चुका है।

 

इस तरह प्लास्टिक की बढ़ते खपत को देखते हुए प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट पर विशेष जोर दिया गया है। वर्ष ।988 में सोसायटी ऑफ़ द प्लास्टिक इंडस्ट्री (82) द्वारा प्लास्टिक पहचान की कोडिंग कर 7 वर्गों- PETE,HDPE, LDPE, PP, PS, Others में बांटा गया। इसके अंतर्गत प्लास्टिक से बनी वस्तुओं को विभिन्‍न वर्गों में रखा गया, जैसे - पीने की बोतल, कैरी बैग, पाइप, मोटे डब्बे या फिर गैलन आदि।

 

वर्ष 206 में “प्लास्टिक मैनेजमेंट रूल्स 206”लाया गया, जिसमें कई प्रावधान किए गए]

आगे वर्ष 208 में इसमें संशोधन भी किया गया। उदाहरण के तौर पर जो पतली वाली कैरी बैग या पॉलिथिन होती है, उसकी सीमा तय की गई की वह 50 मैक्रोन से कम नहीं होनी चाहिए। इसलिए व्यावहारिक रूप से देखें, तो सब्ज़ी या छोटी वस्तुओं के लिए पॉलिथिन बैग इस्तेमाल करना गैर-क़ानूनी है। प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट के तहत मुख्यतः जिन बातों पर फोकस किया गया वह है,

 

1.  रिड्यूस (अपशिष्ट उत्पादों को कम करना)

2. रीयूज़ (सामग्री का पुनः उपयोग)

3. रिसायकल (सामग्री का पुनर्निर्माण या पुनः चक्रण)

4. रिकवर्रिंग (अपशिष्ट से ऊर्जा बनाना)

5. लैंडफिल (अपशिष्ट प्लास्टिक द्वारा खाली भूमि को भरना)

 

 

प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट के अतिरिक्त भी कई कदम भारत सरकार द्वारा उठाए जा रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए प्लास्टिक से हो रहे नुकसान से बचने के उपाय ढूंढे जा रहे हैं। लोगों में जागरुकता फ़ैलाने तथा इसके विकल्प उपलब्ध कराना सरकार की प्रमुखता है। दूसरी तरफ प्लास्टिक को लेकर “सर्कल इकॉनमी? (चक्रीय अर्थव्यवस्था)

की भी बात की जा रही है। वैश्विक स्तर पर भी यूएनईपी (UNEP)- यूनाइटेड नेशन एनवायरमेंट प्रोग्राम के तहत “द न्यू प्लास्टिक इकॉनमी ग्लोबल कमिटमेंट' जैसे कार्यक्रम हो रहे हैं। जिसका उद्देश्य प्लास्टिक के उपयोग का ज़्यादा से ज़्यादा लाभ उठाना है तथा उससे होने वाले नुकसान की रोकथाम की दिशा में कार्य करना और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देना है। इन सब पहल से यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में इस समस्या का कोई न कोई

हल अवश्य निकल आएगा, जिससे पर्यावरण संतुलन बना रहे।

 

 

सन्दर्भ :- 

 

Plastic Waste Management, Issues, Solutions & Case

Studies, March 2019 (www.mohua.gov.in), Stats

have been taken from here.

 

PWM Rules 2016 (2018, amended) by CPCB.

 

The New Plastics Economy Global Commitment,

2019 Progress Report, UNEP.

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading