उत्सर्जन नहीं, कार्बन अवशोषण भी है महत्त्वपूर्ण

26 Nov 2015
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गंगा को प्रवाह देने वाली धाराओं में करीब 106 धाराएँ सूख गई हैं। सिक्किम ने वापसी जरूर की है, किन्तु पूरे भारत में झरने सूखने की राह पर तेजी से बढ़ चुके हैं। हिमालयी क्षेत्र, इसका सबसे बड़ा शिकार है। जब झरने नहीं बच रहे, तो खेती कैसे बचेगी? गौर कीजिए कि पिछले कुछ सालों में भारत की 90 लाख, 45 हजार हेक्टेयर ज़मीन बंजर हो चुकी है। हमारी नदियों में लगातार पानी घट रहा है। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान ‘काज़री’ का आँकड़ा है कि रेगिस्तान से उड़े रेत कणों के कारण, भारत प्रतिवर्ष 50 वर्गमील खेती योग्य भूमि की उर्वरता खो रहा है। जीवन बचाने के लिये, किसी अन्य की प्रतीक्षा नहीं की जाती। सुखद है कि पेरिस सम्मेलन की तैयारी बैठकों में भारतीय प्रधानमंत्री ने भी किसी की प्रतीक्षा नहीं की। जलवायु परिवर्तन समस्या के सवाल पर तीन जवाब पेश कर दिये: कार्बन उत्सर्जन घटाएँगे; अक्षय ऊर्जा उत्पादन बढ़ाएँगे; कार्बन को अवशोषित करने वाली अवशोषण प्रणालियों को बढ़ाते चले जाएँगे।

भारत की घोषणा


गौर कीजिए कि भारत, प्रतिवर्ष 54 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है। अब भारत सरकार ने कार्बन उत्सर्जन की मात्रा में 33 से 35 प्रतिशत घटोत्तरी का लक्ष्य रखा है। भारत, वर्ष 2020 तक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में 20 से 25 फीसदी कमी लाएगा। दूसरे महत्त्वपूर्ण कदम के तौर पर भारत, अक्षय ऊर्जा उत्पादन में 40 फीसदी बढ़ोत्तरी करेगा।

तीसरे कदम के तौर पर भारत ने 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने का भी लक्ष्य रखा है। भारत, इस कार्य को अंजाम देने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक कोष का गठन करेगा।

भारत ने यह घोषणा, यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाईमेट चेंज (यूएनएफसीसी) के समक्ष की है। भारत ने इस घोषणा को इंटेडेंट नेशनली डिटरमांइड कन्ट्रीब्युशन (आईएनडीसी) का नाम दिया है। आगामी 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर, 2015 पेरिस में चलने वाले जलवायु सम्मेलन विश्व पर्यावरण सन्धि होनी है। उसकी दृष्टि से इस घोषणा का विशेष महत्त्व है। घोषणा के लिये प्रधानमंत्री ने गाँधी जयन्ती, 2015 का दिन चुना। यह संयोग हो, तो भी सुखद है।

पहले दो प्रस्तावों पर मीडिया में काफी चर्चा हो चुकी है, लिहाजा इस लेख में हम तीसरे कदम, यानी कार्बन अवशोषण की सम्भावनाओं और वर्तमान सामाजिक-शासकीय व्यवहार पर चर्चा करेंगे।

कार्बन अवशोषण प्रणाली और नदी जोड़


मूँगा भित्तियाँ, कार्बन अवशोषण की प्राकृतिक प्रणाली है। इनका स्थान, समुद्र में है। समुद्रों का तापमान बढ़ने से मूँगा भित्तियों का बड़ा क्षेत्रफल तेजी के साथ नष्ट हो रहा है। समुद्र का तापमान कैसे कम हो? इसे कम करने का काम, नदियों से आने वाले मीठे और शीतल जल का है। किन्तु नदियाँ तो हम सुखा रहे हैं।

नदियों से बहकर आने वाले पानी को बाँधों, बैराजों, नहरों में रोककर हम घटा रहे हैं। बीते 18 नवम्बर को जलसंसाधन मंत्रालय की हुई बैठक के बाद अगले दिन आई खबरों में मंत्रालय ने नदी जोड़ परियोजना के लिये राज्यों से सहयोग माँगा है और बिहार में इसे प्राथमिकता के तौर पर किये जाने की बात कही है। कहा जा रहा है कि इससे पूरे भारत के पानी की समस्या का हल हो जाएगा।

श्री दिनेश मिश्र, बिहार की नदियों के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञ हैं। ताज्जुब है कि इस बिना पर श्री मिश्र भी नदी जोड़ परियोजना को भारत के अनुकूल बता रहे हैं। आखिर उनके जैसा शानदार विषय विशेषज्ञ यह कैसे भूल सकता है कि नदी जोड़ परियोजना के जरिए हम समुद्री जल में नदी के मीठे पानी की मात्रा घटा देंगे।

इससे समुद्र का खारापन बढ़ेगा और पहले से तेजी से बंजर हो रहे भारत में खारी-बंजर ज़मीन के आँकड़े बढ़ जाएँगे। समुद्र किनारे के इलाकों में पेयजल का संकट बढ़ेगा। दूसरी ओर नदी के पानी का एक काम समुद्र के तापमान को भी नियंत्रित करना है। नदी जोड़ परियोजना को ज़मीन पर उतारकर, क्या हम नदी के इस काम में अवरोध उत्पन्न नहीं करेंगे?

जरा सोचिए, समुद्र का तापमान नियंत्रित नहीं होगा, तो क्या होगा? मूँगा भित्तियाँ कितनी बचेंगी? हमारे मानसून का क्या होगा? अलनीनो और लानीनो क्या खेल रच जाएँगे?

नदी जोड़ परियोजना की वकालत का एक आधार, बिहार जैसे कुछ इलाकों को बाढ़ क्षेत्र मानना है। इस पर सवाल उचित होगा। हम भूल रहे हैं कि बदलता परिदृश्य ऐसा है कि कब कौन सा इलाक़ा बाढ़ क्षेत्र बनेगा और कौन सा सूखा क्षेत्र? कहना मुश्किल हो गया है। हर साल, बाढ़ और सुखाड़ के नए इलाके बन रहे हैं।

राजस्थान, कश्मीर में भी बाढ़ के ताजा सन्दर्भों से आप परिचित ही हैं। अभी तमिलनाडु में बाढ़ है, तो उत्तर प्रदेश के 50 जिलों में सूखा घोषित कर दिया है। इनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के वे जिले भी हैं, जहाँ मानसून के महीनों में अक्सर बाढ़ आती है।

यह मौसमी-मानसूनी अस्थिता तथा भौगोलिक बदलाव का कालखण्ड है। इसके मद्देनज़र, अब आप ही तय कीजिए कि नदी जोड़ परियोजना, जलवायु परिवर्तन, तापमान वृद्धि और भारत के भूगोल, खेती व रोज़गार को संजोने में कितनी सहायक अथवा विरोधी?

जलवायु परिवर्तन के मसले पर एक ओर भारत के नेतृत्त्वकारी भूमिका में आने की खबरें और दूसरी ओर गैर समग्रता से सोचे किये जा रहे ये कृत्य? माननीय प्रधानमंत्री जी, कैसे तय होगा कार्बन अवशोषण का लक्ष्य?

सूखती हरियाली : बंजर होता भारत


ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा को प्रवाह देने वाली धाराओं में करीब 106 धाराएँ सूख गई हैं। सिक्किम ने वापसी जरूर की है, किन्तु पूरे भारत में झरने सूखने की राह पर तेजी से बढ़ चुके हैं। हिमालयी क्षेत्र, इसका सबसे बड़ा शिकार है। जब झरने नहीं बच रहे, तो खेती कैसे बचेगी?

गौर कीजिए कि पिछले कुछ सालों में भारत की 90 लाख, 45 हजार हेक्टेयर ज़मीन बंजर हो चुकी है। हमारी नदियों में लगातार पानी घट रहा है। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान ‘काज़री’ का आँकड़ा है कि रेगिस्तान से उड़े रेत कणों के कारण, भारत प्रतिवर्ष 50 वर्गमील खेती योग्य भूमि की उर्वरता खो रहा है। रेत कणों की यह आँधी हिमालय तक पहुँच रही है।

ऐसा, आईआईटी, कानपुर की रिपोर्ट है। आईआईटी कानपुर के शोध मे पता चला है कि थार की रेतीली आँधियाँ, हिमालय से टकराकर कर उसे भी प्रभावित कर रही है। जिस-जिस हिमालयी इलाकों में ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार तेज पाई गई है, वहाँ-वहाँ बर्फ के रेतीले कण भी पाये गए हैं।

लाहौल-स्पीति, हिमाचल के ठंडे मरुस्थल हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि कल को हिमालय में कई और ठंडे मरुस्थल बन जाएँ। हिमालयी हिमनद, 30 मीटर की रफ्तार से घट रहा है। वैज्ञानिकों की चिन्ता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार जितनी तेज होगी, हवा में उत्सर्जित कार्बन का भण्डार उतनी ही तेज रफ्तार से बढ़ता जाएगा।

फैलते थार का सबक


थार का रेगिस्तान तेजी से फैल रहा है। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन ‘इसरो’ के अनुसार, थार रेगिस्तान पिछले 50 सालों में औसतन आठ किलोमीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से बढ़ रहा है। अन्य इलाकों की तुलना में, रेगिस्तानी इलाकों के वायुमंडल में कार्बन की अधिक मात्रा की उपस्थिति बताती है कि खनन और अरावली से अन्याय के अलावा, यह वैश्विक तापमान वृद्धि का भी असर है।

यह इस बात का भी प्रमाण है कि कम हरीतिमा होने से वायुमंडल में कार्बन की उपस्थिति ज्यादा रहती है। इससे यह स्पष्ट है कि हरियाली में कार्बन अवशोषित करने की शक्ति है। शहरों में भी घने दरख्तों वाले इलाकों से गुजरते हुए हम शीतलता का अनुभव करते हैं। गाड़ियाँ होती हैं, किन्तु उनके धुएँ के कारण आँखों में जलन नहीं होती। वायु प्रदूषण स्तर कम मिलता है।

क्यों? क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने के लिये वहाँ दरख्त हैं। रेगिस्तान के इलाकों में अधिक वनस्पति की हरी चादर फैलाकर इसे ढँक लें। खनन पर लगाम लगाएँ और अरावली से अन्याय करना बन्द कर दें। राजस्थान से निकलकर, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में पैर फैला चुके थार रेगिस्तान में तो यह करना ही होगा। यह प्रक्रिया अभी और इलाकों में भी बढ़ेगी।

शोध निष्कर्ष यह भी है कि भारत के जिन 32 फीसदी भू-भागों की उर्वरा शक्ति लगातार क्षीण हो रही है, उनमें से 24 फीसदी इलाके, थार क्षेत्र के आसपास के हैं। इसमें तापमान वृद्धि के अलावा, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और तेजी से नीचे गिरते भूजलस्तर का भी योगदान है। समझ सकते हैं कि रासायनिक उर्वरक, भूजल, जंगल, रेत व बंजर का ग्लेशियर व वैश्विक तापमान में वृद्धि से क्या सम्बन्ध हैं।

क्या इन स्थितियों में हमें समग्रता से सोचना नहीं चाहिए? क्या हमें प्रकृति केन्द्रित ऐसी गतिविधियों को प्राथमिकता पर नहीं रखना चाहिए, जिनसे कार्बन अवशोषित करने व तापमान घटाने में भी सहयोग हो और हमारे आर्थिक व ढाँचागत विकास पर भी ज्यादा अधिक कुप्रभाव न पड़े? क्या रासायनिक उर्वरक का उपयोग घटाते जाने तथा जैविक खाद का उपयोग बढ़ाते जाने से मिट्टी की नमी बरकरार रख सकते हैं? क्या भारत की हरीतिमा में वृद्धि करते जाने से लाभ होगा?

हरियाली, तभी खुशहाली


मेरा मानना है कि हरीतिमा बढ़ाने का कोई विकल्प नहीं है और पानी संजोए बिना यह सम्भव नहीं है। यह हम सभी जानते हैं। ऐसे उपायों से तापमान वृद्धि रोकने में भी मदद होगी और अपनी जीवन रक्षा में भी। बाँधों, बैराजों में ठहरे पानी से मीथेन जैसी हानिकारक गैसों की उत्पत्ति होती है। इस ठहरे पानी को चला दें।

तालाबों के जल पर जलकुम्भी के कब्जे से भी यही होता है। इस जलकुम्भी से तालाबों के जल को मुक्ति दिलाएँ। कोई कह रहा है कि जलकुम्भी से बिजली भी बनाई जा सकती है। अनुकूल हो, तो अवश्य बनाएँ। ऐसे तमाम सावधानियाँ व उपाय और भी हो सकते हैं। उन सभी पर हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिए। यही वक्त है; फिर जाने वक्त मिले न मिले।

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