उत्तर पूर्व हिमालय में भूकम्पलेखी (सिस्मोग्राफ) स्थापित करने का सफर : एक रोमांचक याद (A journey of Seismograph installation in North East Himalaya : An exciting Memoir)

4 Oct 2016
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बात तब की है जब मैंने सन 1985 में रुड़की विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग से एम. टेक. की पढ़ाई जियोफिजिक्स विषय में पूरी की थी। मेरा शुरू से ही भूकम्प संबंधी अनुसंधानों के प्रति बहुत रुझान था। इसीलिये मैं अक्सर स्कूल ऑफ अर्थक्वैक इंजीनियरिंग विभाग में जोकि भूविज्ञान विभाग के समीप ही था, चला जाया करता था। वहाँ प्रोफेसर आर्य से, जो एक बहुत बड़े भूकम्प वैज्ञानिक थे, मेरी भूकम्प विषय पर खासकर ‘‘नेचुरल फ्रीक्वेन्सी ऑफ अर्थक्वेक’’ पर बातचीत होती थी। उन्होंने मुझे इस विषय में बहुत विस्तार से समझाया। अपनी रुचि के अनुसार ही मैंने एम.टेक. के अंतिम वर्ष में स्पेशलाइजेशन प्रोजेक्ट ‘‘मेजरमेंट ऑफ सिस्मिक वेव स्वीड इन डिफरेंट रॉक्स’’ लिया। प्रोफेसर रमेश चंद्र, भूभौतिकी विभाग में जियोफिजिक्स के प्रोफेसर, जोकि मेरे प्रोजेक्ट के गाइड थे उन्होंने मुझे इस विषय पर बहुत गहराई से अध्ययन करवाया। मेरा प्रोजेक्ट पूरा होने के साथ ही मैंने अपनी एम.टेक. की पढ़ाई जियोफिजिक्स में पूरी कर ली थी। परंतु रुचि भूकम्प संबंधी अनुसंधानों के प्रति होने के कारण मैंने ओ.एन.जी.सी., जी.एस.आई. आदि संस्थानों में आवेदन न करके, भूविज्ञान विभाग में ही रहकर भूकम्प संबंधी रिसर्च करने का निर्णय लिया। उस समय वहाँ प्रोफेसर के.एन. खत्री जोकि भूविज्ञान विभाग में भूभौतिकी के प्रोफेसर थे एवं ‘‘डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी’’, दिल्ली के एक प्रोजेक्ट ‘‘सिस्मिसिटी आॅफ नार्थ-ईस्ट हिमालय’’ पर काम कर रहे थे। मैं भी इस प्रोजेक्ट में सीनियर रिसर्च फेलो के रूप में सम्मिलित हो गया।

सन 1985-86 में हिमालय का उत्तरपूर्वी क्षेत्र भूकम्पनीय दृष्टि से बहुत संवेदनशील था। वहाँ कभी-कभी एक दिन में ही 40 से 50 तक स्थानीय भूकम्प रिकॉर्ड होते थे। ‘‘जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’’ वहाँ अपने चार सिस्मोग्राफ स्टेशन पर भूकम्प की रिकार्डिंग कर रहा था। प्रोफेसर खत्री ने उन्हें, एजुमुथल कवरेज को और बेहतर करने के लिये, जिससे कि भूकम्प के उद्गम स्थानों का कम त्रुटि में आकलन हो सके, दो और सिस्मोग्राफ लगाने का सुझाव दिया। इसी कड़ी में जी.एस.आई. के साथ दो और सिस्मोग्राफ लगाने के लिये मुझे एवं मेरे अन्य सहयोगी डा. सुभाष गुप्ता को इस कार्य के लिये चुना गया। डा. सुभाष गुप्ता इस समय ‘‘स्कूल ऑफ अर्थक्वेक विभाग’’, आई.आई.टी. रुड़की में वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हैं एवं डा. अश्वनी कुमार, जोकि इसी विभाग में प्रोफेसर एवं हेड हैं, के साथ गढ़वाल में टिहरी बाँध के आस-पास आने वाले भूकम्पों की स्थिति का अध्ययन कर रहे हैं।

इस प्रोग्राम के तय होते ही मैंने उत्तर पूर्व जाने की तैयारी शुरू कर दी और सिस्मोग्राफ संचालन करने के लिये आवश्यक सामग्री जैसे सिस्मोग्राफ बैटरी, सिस्मोमीटर रिकॉर्डिंग पेपर आदि जुटाना प्रारंभ कर दिया। अगले ही सप्ताह मैं पूरे सामान के साथ शिलांग के लिये रवाना हो गया। मुझे शिलांग में, बड़े बाजार के पास लाइतमुखरा में, जी.एस.आई. के ऑफिस में रिपोर्ट करना था। सबसे पहले मैं अपने सामान को एक बस में लादकर दिल्ली लाया। रात मैंने दिल्ली स्टेशन पर ही गुजारी क्योंकि अगली सुबह ही मेरी गोहाटी के लिये ट्रेन थी। गोहाटी स्टेशन पर उतरकर मैंने शिलांग जाने वाली बस का पता किया। मेरी उत्तर पूर्व के लिये यह पहली यात्रा थी। वैसे भी मैं अपने विद्यार्थी काल में बहुत ही कम घर से बाहर घूमने के लिये गया था। हम सात भाई-बहन हैं तो केवल शादी विवाह आदि में जब कभी मौका मिलता था तो कहीं बाहर जाते थे। बस स्टैंड रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर था।

मैं एक रिक्शे की मदद से सामान के साथ बस स्टैंड पहुँचा और सामान को बस में चढ़वाया। स्टेशन पर, वहाँ के आसामी लोग जो बहुत ही अच्छे स्वभाव वाले थे, मुझे पूरा सहयोग दिया। शिलांग पहुँचते-पहुँचते लगभग शाम हो गई थी। लंबी यात्रा से मैं बहुत थक भी गया था। परंतु जल्दी-जल्दी सामान के साथ शिलांग के बड़े बाजार में जी.एस.आई. के ऑफिस पहुँचा। क्योंकि मुझे ऑफिस की छुट्टी से पहले वहाँ पहुँचना जरूरी था। वहाँ के डायरेक्टर डा. सुब्रमण्यम ने ही मेरे ठहरने का इंतजाम किया हुआ था। मेरे पहुँचने पर डा. सुब्रमण्यम ने बड़ी खुशी से मेरा स्वागत किया, प्रोफेसर खत्री जी ने उन्हें मेरे वहाँ पहुँचने की सूचना दे दी थी। फिर उन्होंने अपने एक सहयोगी श्री अप्पा राव जोकि ज्योफिजिसिस्ट के पद पर कार्यरत थे और भूकम्प स्टेशनों के संचालन का कार्यभार देख रहे थे, को बुलाकर मेरा प्रोग्राम समझाया। उन्होंने बताया कि मुझे सजूसा गाँव में अपना स्टेशन लगाना है। यह गाँव शिलांग से लगभग 180 किमी दूर मेघालय-मणीपुर बार्डर पर था। उन्होंने मुझे वैज्ञानिक जानकारी के साथ-साथ वहाँ के लोगों के स्वभाव एवं सुरक्षा की दृष्टि से रात्रि में शाम 6 बजे के बाद घर से बाहर न जाने की भी सलाह दी। मेरे लिये पूरा वातावरण ही नया एवं कौतूहल से भरा हुआ था। शिलांग की आबोहवा ही रुड़की से एकदम अलग थी (चित्र 1)।

एक अनोखा नूतन मनोहारी अनुभव था। डा. सुब्रमण्यम बातों ही बातों में मुझे सभी आवश्यक जानकारियाँ दे रहे थे। उन्होंने ऑफिस के नीचे मेरे ठहरने का इंतजाम किया था। अगली सुबह जल्दी ही अप्पा राव जीप लेकर ऑफिस पहुँच गये, हमने जीप में सामान लादा और सजुसा गाँव की तरफ रवाना हो गये। अप्पा राव बहुत ही सरल एवं सौम्य स्वभाव वाले व्यक्ति थे एवं हर कठिनाई को बहुत अच्छी तरह से समझते थे। शिलांग से सजूसा गाँव का पूरा रास्ता हरियाली से भरा हुआ था। अक्टूबर का महीना था और ठंडी-ठंडी हवा, खिली धूप में, और भी आनंद का अनुभव करा रही थी। रास्ते में रुककर हमने चाय आदि पी। अप्पा राव जी को भी लोगों से इशारों में बातचीत करके काम चलाना पड़ रहा था। अप्पा राव जी ने मुझे बताया कि वहाँ के लोग ‘‘खासी’’ एवं अन्य भाषाओं में बातचीत कर रहे हैं। दोपहर होते-होते हम सजुसा गाँव पहुँच गये।

यह गाँव बहुत ही घने जंगलों के बीच बसा था चारों तरफ फैली हरियाली एवं कहीं-कहीं लोगों ने बांस व फूंस से इक्का-दुक्का घर बना रखे थे। लगभग सभी घरों में बांसों की नीची मेड़ थी। अप्पा राव मुझे वहाँ एक पी.डब्ल्यू.डी. के गेस्ट हाउस में छोड़कर वापस शिलांग लौट गये। गेस्ट हाउस का चौकीदार एक नेपाली था, जो थोड़ी बहुत हिंदी बोल लेता था। मैंने अपने कमरे के एक कोने में अपने स्टेशन का सामान रखा। चौकीदार ने तब तक मेरे लिये भोजन तैयार किया। ऐसा लग रहा था मानो काफी दिन बाद ठीक से खाना खाया हो। अगली सुबह ही मैं उसके साथ भूकम्प स्टेशन लगाने के लिये उपयुक्त स्थान की खोज में निकल पड़ा। बस्ती से लगभग 2 किमी. दूर पैदल चलकर हमें कुछ कठोर चट्टानें दिखाई पड़ी। वहाँ पास में ही एक बांस की झोपड़ी थी उसमें एक बूढ़ा आदिवासी रहता था। उसकी झोपड़ी तक बिजली की व्यवस्था थी जो मेरे लिये, सिस्मोग्राफ की बैटरी चार्ज करने के लिये, अच्छी बात थी।

मैंने वापस गेस्ट हाउस लौटकर स्टेशन लगाने संबंधित सामान को एकत्रित किया एवं नाश्ता करने के बाद अन्य दो चौकीदारों की मदद से स्टेशन की ओर सामान को लेकर चला। स्टेशन लगाने के लिये मुझे रुड़की विश्वविद्यालय में मिली ट्रेनिंग बहुत काम आई। रुड़की विश्वविद्यालय में हमने अपने प्रोजेक्ट कार्य के दौरान कई बार बैटरी सिस्मोग्राफ एवं सिस्मोमीटर को जोड़कर व धुआँ किये हुए काले ड्रम पर चिपके हुये पेपर को सिस्मोग्राफ में व्यवस्थित करते थे। फिर सिस्मोग्राफ को चालू करते थे तथा काले पेपर पर भूकम्पनों को अंकित करते थे। धुँये से पेपर को काला करने के लिये पहले ड्रम पर एक सफेद रिकॉर्डिंग सीट को टेप से चिपकाते थे फिर ड्रम को मिट्टी के तेल के लैम्प के ऊपर स्टैंड पर रखकर ड्रम को घुमाते थे एवं पेपर को धुएँ से काला करते थे। कम्पन दर्ज करने से पहले सिस्मोग्राफ को उस क्षेत्र के अनुसार समायोजित करते थे। फिर रेडियों में एन.पी.एल. के समय संकेत से सिस्मोग्राफ की घड़ी के समय संकेतों का मिलान कराते थे एवं एन.पी.एल. समय संकेतों को धुआँ किये हुए पेपर पर दर्ज करते थे।

ताकि यदि सिस्मोग्राफ की घड़ी संकेत व एनपीएल के समय संकेत में कोई अंतर हो तो उसका पता चल जाये। या फिर घड़ी के क्रिस्टल में त्रुटि होने के कारण चौबीस घंटे में कोई अंतर होने पर भूकम्प के आने के समय को भारतीय मानक समय के अनुसार त्रुटिहीन किया जा सके। उस समय आजकल की तरह ग्लोबल टाइम क्लॉक नहीं होती थीं। भूकम्प स्टेशन को चलाने के लिये बहुत सा काम स्वयं ही बड़ी सावधानी से करना पड़ता था एवं बहुत से पैमानों को स्टेशन की स्थिति के अनुसार बदलना पड़ता था एवं बहुत से पैमानों को स्टेशन की स्थिति के अनुसार बदलना पड़ता था। जब हम अगले दिन धुएँ किए हुए पेपर को बदलते थे तो देखते थे कि पिछले चौबीस घंटों में कितने भूकम्प और कितनी-कितनी दूरी से एवं किस-किस आकार के दर्ज हुये हैं। आजकल जबकि हम रियल टाईम रिकार्डिंग करते हैं परंतु इतने चौकस नहीं होते हैं कि हर दिन पिछले चौबीस घंटों में आये भूकम्पों पर तुरंत विचार करें।

खैर, हमारा सजूसा का सिस्मिक स्टेशन ठीक प्रकार से स्थापित हो गया था। और उस पर कम्पन संकेतों का दर्ज होना प्रारंभ हो गया था (चित्र 2)। मेरे लिये वह क्षण बिल्कुल नवेला एवं नई उमंगों से भरा था। कंपन संकेतों के दर्ज होने के प्रारंभ में ही एक टेलिसिसमिक भूकम्प दर्ज हो रहा था। मैं बहुत ही रोमांचित था। यह क्षेत्र भूकम्पनीय दृष्टि से इतना सक्रिय था कि हर रोज बहुत सारे क्षेत्रीय भूकम्प रिकॉर्ड होते थे (चित्र 3)। कभी-कभी तो सिस्मोग्राम में उन्हें पढ़ना भी मुश्किल हो जाता था। यहाँ अभी एक माह की रिकॉर्डिंग ही हुई थी कि एक दिन इतना भयंकर तूफान आया जिसमें बहुत सारे पेड़ गिर गये और बिजली के खम्बे उखड़ गये। बिजली गुल हो जाने के कारण मेरे सिस्मोग्राफ को चलाने वाली बैटरी भी धीरे-धीरे डिस्चार्ज होने लगी थी। किसी तरह बिना बिजली के रिकार्डिंग एक सप्ताह तक चली।

सजूसा गाँव के आस-पास कोई ऐसा साधन भी नहीं था जिससे बैटरी चार्ज हो पाती। रेस्ट हाउस के चौकीदार ने बताया कि सजुसा से 45 किमी दूर एक कस्बे में बिजली आ रही है और बैटरी को चार्ज करने के लिये वहाँ ले जाना पड़ेगा। उस कस्बे में जाने के लिये केवल एक ही बस थी जो सुबह पाँच बजे निकलती थी और शाम पाँच बजे वापस लौटती थी। खैर मैं बैटरी को लेकर अगली सुबह ही उस कस्बे की तरफ रवाना हुआ। सजुसा से उस कस्बे तक का पूरा रास्ता पहाड़ी था। पहाड़ी रास्तों में चलने के लिये थोड़े छोटे आकार की बस थी और पूरी लकड़ी की बनी हुई थी। सौभाग्य से मुझे एक सीट मिल गई थी। मैंने अपनी एक अटैची में कुछ कपड़े एवं खाने का सामान भी साथ रख लिया था कि यदि आज काम नहीं बन पाया तो शायद रात में वहीं रुकना पड़ेगा। बस में अटैची को मैंने सिर के ऊपर बने सामान रखने के खांचो में फंसा दिया था।

पहाड़ी इलाका होने के कारण बस धीरे-धीरे चल रही थी, परंतु लकड़ी की बनी होने के कारण बहुत शोर कर रही थी। उस रास्ते के लिये केवल दिन में एक ही बस थी इसलिये वह खचाखच भरी हुई थी। ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर अचानक एक झटका सा लगा और मेरी अटैची खांचे से निकलकर एक आदिवासी महिला के सिर पर गिरी। उसके साथ बैठा आदमी जो शायद उसका पति था जोर-जोर से अपनी भाषा में चिल्लाने लगा। मैं बैठा ऊंघ रहा था उसकी आवाज सुनकर आँखे खोलकर उस ओर देखने लगा। अपनी अटैची को उसके हाथ में देखकर मैं समझ गया था कि वह पूछ रहा है कि यह अटैची किसकी है। उसके पहनावे व कर्कश आवाज सुनकर मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि उससे माफी मांगू एवं बताऊँ कि इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। खैर, उसके बार-बार चिल्लाने पर मैंने धीरे से उठकर उस महिला के पास जाकर बहुत ही धीमी एवं न्रम आवाज में कहा सॉरी कांग। (कांग खासी भाषा में बहन को कहते हैं)।

शायद मेरी डरी सहमी हुई शक्ल देखकर वह व्यक्ति कुछ बड़बड़ाया और वापस अपनी सीट पर बैठ गया। मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। उस कस्बे में पहुँच कर, मुझे उस स्थान तक पहुँचने में जहाँ बैटरी चार्ज हो सकती थी लगभग एक घंटा लगा। उस दुकान वाले ने कहा कि बैटरी सात बजे से पहले नहीं मिल पायेगी। मैं कुछ नहीं कर सकता था मेरी बस की वापसी पाँच बजे थी और मेरे पास इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था। बैटरी चार्ज पर लगवा कर मैं कस्बे में निकल पड़ा ताकि कोई ठहरने का उपयुक्त स्थान ढूंढ सकूँ। वहाँ कोई ठहरने का होटल तक नहीं था। यदि मैं अपना खाना साथ न लाया होता तो शायद मुझे भूखे ही रहना पड़ता। क्योंकि वहाँ कोई भी शाकाहारी खाने की दुकान भी नहीं थी। मैं अकेला था और अब मेरी चिंता बढ़ने लगी थी कि रात कैसे गुजारूँगा। दिन में ही इतना ठंड लग रहा था तो रात में क्या हाल होगा।

मुझे एक मजदूर ने बताया कि रात को यहाँ से सामान से लदे ट्रक जाते हैं आप उसमें वापस जाने की कोशिश कर सकते हैं। उस दिन वापस जाने के लिये केवल एक ही ट्रक था। मेरी बैटरी चार्ज होकर मुझे आठ बजे के करीब वापस मिली। और मैं उस मजदूर की मदद से बैटरी लेकर उस ट्रक के पास पहुँचा। ट्रक में लोहे की छड़ें लदी थीं जोकि ट्रक की लंबाई के आधे से ज्यादा पीछे की तरफ बाहर निकली हुई थीं। ट्रक में बैठने के अलावा और काई चारा नहीं दिख रहा था। धीरे-धीरे अंधेरा काला घना होने लगा था। पहाड़ों में वैसे भी रास्तों पर कोई बिजली की व्यवस्था नहीं होती है। मैंने हिम्मत करके उस ट्रक वाले से मुझे भी ट्रक में बैठाकर ले चलने की प्रार्थना की। ट्रक में ड्राईवर, कंडक्टर व उनके साथी नशे में थे। मुझे न तो स्थानीय भाषा आती थी और न ही मेरा पहनावा उन लोगों जैसा था। इसीलिये मैं थोड़ा डरा हुआ था।

वैसे भी ऐसे इलाकों में रात्रि में निकलना खतरों से खाली नहीं होता है। जी.एस.आई. के डायरेक्टर ने भी मुझे छ: बजे के बाद घर से न निकलने की सलाह दी थी। ट्रक के ड्राइवर ने मेरी प्रार्थना पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। और वह वहाँ, वापस जाने के लिये इक्कट्ठे लोगों से चिल्लाकर कह रहा था कि ट्रक में जगह नहीं है। मैंने झांककर ट्रक के ड्राईवर सीट के पास वाली तीन-चार सीटों पर नजर मारी तो वह भी महिलाओं बच्चों से ठसाठस भरी थीं। मेरे साथ सभी लोगों ने उससे पैसे लेकर वापस ले चलने की विनती की। किसी तरह ट्रक वाला मान गया और उसने ट्रक के पीछे लदी छड़ों के ऊपर सबको खड़े होने की इजाजत दे दी। मेरे जीवन की वह सबसे बड़ी रोमांचक यात्रा थी, घनी अंधेरी रात में जब भी ऊबड़-खाबड़ रास्ता आता था तो लोहे की छड़ों के साथ हम ऊपर नीचे झूलने लगते थे, वहाँ किसी भी प्रकार की कोई दुर्घटना होने की पूरी संभावना थी।

बीच-बीच में बड़े झटके के साथ छड़ें पीछे की तरफ झूल जातीं और हम सभी लोग ट्रक के ऊपर आगे का हिस्सा पकड़कर ऊपर उठ जाते। मैं मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि किसी तरह सकुशल सजुसा वापस पहुँच जाऊँ। रास्ते में ट्रक वाले ने ट्रक से सबको उतारकर छड़ों को ऊपर की तरफ खिसकाने के लिये ट्रक को पीछे की तरफ से पहाड़ से टकराया, यह कोशिश लगभग एक घंटा चली और फिर हम दोबारा उन छड़ों पर चढ़कर सजुसा वापस पहुँचे। आज भी उस यात्रा को याद करके मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

Fig-1Fig-2Fig-3सजूसा स्टेशन पर बिजली की व्यवस्था ठीक न हो पाने पर इस स्टेशन को मैंने श्री अप्पा राव एवं डा. सुब्रमण्यम जी से सलाह मशवरा करके इसे मेघालय के उम्लांग गाँव में स्थानान्तरित करने का निर्णय लिया। यह गाँव शिलांग से लगभग 55 किमी दक्षिण पूर्व में था। यहाँ बहुत बारिश होती थी। श्री अप्पा राव जी एक बार फिर मुझे जीप में सामान के साथ सजूसा से उम्लांग में छोड़ गये। यहाँ सजुसा से थोड़ी घनी बस्ती थी और वाहनों का आवागमन भी बहुत था। शायद इसलिये भी क्योंकि यह शिलांग के बहुत समीप था। स्टेशन लगाने के लिये मैंने गाँव से लगभग पाँच किलोमीटर बाहर एक रेशम उद्यान को चुना। इस फार्महाउस में बहुत कम लोग रहते थे। लोगों के पैरों का शोर अधिक नहीं था ना ही भारी वाहनों का आवागमन था। और यहाँ बिजली की व्यवस्था भी थी।

इस फार्म हाउस में कीड़ों से रेशम को तैयार करने का काम होता था। यहाँ का मैनेजर अक्सर शिलांग में रहता था और कभी-कभी इस उद्यान का दौरा करने आता था। उसने मुझे रहने के लिये अपने लकड़ी के बने बड़े घर में एक कमरा दे दिया था। इस उद्यान में एक नेपाली लड़का बहादुर रहता था। वह भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (जी.एस.आई.) के लिये काम करता था। जी.एस.आई. के वैज्ञानिक वहाँ अपने पत्थर के नमूने लाकर रखते थे और वह उनकी देखभाल करता था। मैंने बहादुर को सिस्मोग्राफ की देख रेख के लिये रख लिया। बहादुर ने बताया कि यहाँ के लोग बहुत ही अंधविश्वासी हैं और जादू-टोने में बहुत विश्वास रखते हैं। हमने फार्महाउस के पीछे लगभग 500 मीटर दूर एक उचित स्थान पर सिस्मोग्राफ स्थापित किया। क्योंकि वहाँ बारिश बहुत होती थी इसीलिये स्टेशन के लिये लकड़ी की एक झोपड़ी बनाई, सिस्मोग्राफ को उसके डब्बे में चालू करके उसे लॉक कर दिया और उसके ऊपर एक प्लास्टिक की चादर बिछा दी ताकि बारिश से उसकी पूर्ण सुरक्षा हो सके।

मैं बहादुर को स्टेशन की सुरक्षा के लिये वहीं छोड़कर वापस फार्महाउस लौट आया। अगले दिन सुबह-सुबह बहादुर ने मुझे जगाया वह बहुत ही डरा हुआ लग रहा था। मैंने पूछा- बहादुर क्या हुआ, वह बोला ‘‘साब मैं वहाँ नहीं रहूँगा’’, वहाँ पर आधी रात लगभग गाँव के 30-40 लोग इकट्ठा होकर आये थे। उनमें से एक ने बहादुर को थप्पड़ लगाये थे। वे सभी जोर-जोर से कुछ बोल रहे थे जो बहादुर को समझ नहीं आया था। बहादुर ने बताया कि उनमें से एक आदमी सिस्मोग्राफ के बक्से पर जोर-जोर से ठोकरें मार रहा था और उसे खोलने के लिये कह रहा था। जब बहादुर ने उन्हें इशारे से बताया कि उसके पास चाबी नहीं है तो वे आपस में कुछ बात कर रहे थे। उनके हाथों में लाठी और दाऊ (एक प्रकार का लम्बा चाकू) था। बहादुर इतना डर गया था कि वह बार-बार एक ही बात कह रहा था कि ‘‘मैं वहाँ नहीं जाऊँगा वो लोग मुझे मार देंगे।’’

मैंने बहादुर के साथ स्टेशन पर जाकर वहाँ की स्थिति का जायजा लिया। रात में उन्होंने लकड़ी के ढांचे को पूरी तरह से तोड़ दिया था। परंतु मशीन बक्से में लॉक होने के कारण सही सलामत थी। बाद में मैंने ग्राम प्रधान की मदद से स्टेशन को वहाँ चलाने के लिये उसी गाँव के दो लड़कों को चौकीदारी के लिये रखा। ग्राम प्रधान थोड़ा पढ़ा लिखा था हमने उसे सिस्मोग्राफ के बारे में पूरी जानकारी दी। वह सभी जानकारी उसने अपनी भाषा में उन लड़कों को समझाई। उन लड़कों की मदद से मैंने वह स्टेशन लगभग एक वर्ष चलाया और वहाँ आने वाले भूकम्पों की रिकॉर्डिंग की (चित्र 4)। उन लड़कों ने बाद में मुझे बताया कि गाँव वाले बहादुर को जादू टोना करने वाला व बच्चों को गायब करने वाला समझ रहे थे क्योंकि वहाँ उस समय बच्चों को गायब करने वाली काफी घटनाएं हो रही थी।

इसी दौरान मेरी सबसे बड़ी बहन की शादी तय हो गई, हमारे घर में वह पहली शादी थी। मेरे पिताजी ने मुझसे संपर्क करने की बहुत कोशिश की। परंतु उस समय, 1985-86 में, आजकल की तरह मोबाइल सुविधायें नहीं थी और मैं इतनी दूर था। मुझे शादी से दस दिन पहले अपने पिताजी का भेजा हुआ तार खत की तरह मिला। परंतु शादी में जा पाना संभव नहीं था क्योंकि इतने कम समय में न तो रुड़की में प्रोफेसर खत्री जी से संपर्क हो सकता था और न ही स्टेशन चलाने के लिये किसी रिलीवर की व्यवस्था हो सकती थी। स्टेशन बंद करके वापस आना मुझे मंजूर नहीं था। आज तक भी मेरी बहन ने मुझे इसके लिये माफ नहीं किया है। जब भी मैं उत्तर पूर्व की अपनी इस यात्रा एवं अपने उस पहले भूकम्पलेखी स्टेशन को स्थापित करने की घटना को याद करता हूँ तो रोमांचित हो जाता हूँ क्योंकि वास्तव में यह बहुत ही अविस्मरणीय था।

Fig-4(इस लेख के लिये मैं अपनी बेटी रश्मि को धन्यवाद देना चाहता हूँ क्योंकि रश्मि ने ही मुझे अपनी इस यादगार यात्रा के वर्णन को अश्मिका पत्रिका के लिये लिखने प्रेरित किया)

सम्पर्क


सुशील कुमार
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून


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