उत्तराखण्ड में आपदा प्रबन्धन

उत्तराखण्ड राज्य की भौगोलिक परिस्थतियाँ एवं संरचना ऐसी है जिसमें आपदाओं के जोखिम काफी अधिक हैं अतः यह आवश्यक है कि प्रभावशाली तरीके से अति दुर्घटना वाले क्षेत्रों की जानकारी एवं चिह्नीकरण, सुरक्षित निर्माण विधियाँ अपनाना, खोज तथा बचाव दलों का गठन एवं वैकल्पिक संचार के साधन को क्रियान्वित कर के जोखिमों से होने वाले दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है।उत्तराखण्ड अपनी विशिष्ट भौगोलिक एवं पारिस्थितिकीय संरचना के कारण प्राकृतिक एवं मानवजनित परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील है। अतः कोई भी ऐसा कार्य जो इस प्रदेश की दशाओं के प्रतिकूल होता है, आपदाओं को जन्म देता है। इन आपदाओं को पूर्ण रूप से रोक पाना मनुष्य के वश में नहीं है। परन्तु पूर्ण तैयारी और न्यूनीकरण के द्वारा प्राकृतिक एवं मानवजनित खतरों को आपदा में परिवर्तित होने से रोका जा सकता है तथा इसके बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है। उत्तराखण्ड प्रदेश में भू-स्खलन, त्वरित बाढ़, बादल फटना, अतिवृष्टि, ओला, सूखा, हिम-स्खलन एवं वनाग्नि आदि आपदाएँ प्रमुख हैं। इसके अलावा भूकम्प ऐसी विनाशकारी आपदा है जिसका पूर्व में अनुमान नहीं किया जा सकता। भूकम्प क्षेत्रीयकरण के अनुसार उत्तरांचल के कुल 13 जनपदों में से 4 जनपद जोन 5 में हैं, जबकि 3 जनपद जोन-4 में हैं, जहाँ भूकम्प के आने की सम्भाविता सामान्य से अधिक है।

उत्तराखण्ड को अत्यन्त समृद्ध प्राकृतिक संसाधन प्राप्त है परन्तु इसके साथ-साथ यह प्रदेश प्राकृतिक आपदाओं से अछूता नहीं है। पिछले कुछ वर्षों का इतिहास देखा जाए तो यहाँ आपदाओं के ऐसे बुरे अनुभव देखने को मिलते हैं जो मन को झकझोर देते हैं। वर्ष 1991 का उत्तरकाशी में आया भयानक भूकम्प इसका बड़ा उदाहरण है। इसमें 800 जानें गईं। इसी प्रकार 1998 का पिथौरागढ़ का भू-स्खलन जिसमें कैलाश मानसरोवर दल के अनेक सदस्य तथा आईटीबीपी के कुछ जवान भी मारे गए। इस आपदा में 219 जानें गईं। इसके अलावा भू-स्खलन, सड़क दुर्घटनाएँ, त्वरित बाढ़ के बुरे अनुभवों से भी यह प्रदेश अछूता नहीं है।

इन आपदाओं को हम ‘प्रकृति का प्रकोप अथवा ईश्वर की मर्ज़ी’ कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते। यह कहकर कुछ प्रयास न करना कायरता का परिचय देना होगा। अतः यह अति आवश्यक है कि हम अपने प्रयास बिल्कुल न छोड़ें। इन प्रयासों से मानव जीवन की क्षति तथा सम्पत्ति में होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है।

कोई भी दुर्घटना आपदा में परिवर्तित तब होती है जब परिस्थितियाँ घातक हों तथा कुप्रबन्ध हो। यदि प्रबन्ध उचित हो तो घटनाओं को आपदा में परिवर्तित होने से रोका जा सकता है तथा घटना के विपरीत प्रभावों को कम किया जा सकता है। अतः घटना के समय उचित प्रबन्ध के सिद्धान्तों का पालन कर तथा घटना से पूर्व तैयारियों के द्वारा इन आपदाओं से होने वाली क्षति व प्रभाव को कम किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में एक प्रमुख सुझाव राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबन्ध कोष का निर्माण करना है।

आपदा प्रबन्ध कोष वर्तमान समय की माँग


भारत के आपदा प्रबन्धन के इतिहास को देखा जाए तो हमेशा यह देखने में आता है कि प्राकृतिक आपदा के घट जाने के बाद राज्य सरकार केन्द्र सरकार से आर्थिक सहायता के लिए आग्रह करती है। केन्द्र सरकार भरसक प्रयास करती है तो भी यह प्रयास पर्याप्त नहीं होता।

वर्तमान में शिक्षा उपकर, आयकर व अधिभार की धनराशि का 3 प्रतिशत है। यदि इसी प्रकार आयकर व अधिभार का 1 प्रतिशत आपदा प्रबन्धन उपकर लगा दिया जाए तो कर देने वाले व्यक्तियों पर ज्यादा भार नहीं पड़ेगा और एक अच्छे कार्य में उनका योगदान भी रहेगा। ऐसा करने से सरकार को आपदाओं से निपटने के लिए पर्याप्त धनराशि भी प्राप्त हो जाएगी। यह उपाय काफी प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है।यदि आपदा बड़ी हो तो केन्द्र सरकार के बजट का पूरा नियोजन बिगड़ जाता है क्योंकि हर आपदा पूर्वानुमानित नहीं होती। इस स्थिति से निपटने के लिए यह सुझाव है कि आपदा से निपटने के लिए केन्द्र सरकार ‘शिक्षा उपकर’ की तरह ‘आपदा प्रबन्धन उपकर’ लगा सकती है। इससे एक विशेष कोष का निर्माण किया जा सकता है। इस तरह एकत्रित धनराशि को आपदा से निपटने के लिए ही खर्च किया जाए। वर्तमान में शिक्षा उपकर, आयकर व अधिभार की धनराशि का 3 प्रतिशत है। यदि इसी प्रकार आयकर व अधिभार का 1 प्रतिशत आपदा प्रबन्धन उपकर लगा दिया जाए तो कर देने वाले व्यक्तियों पर ज्यादा भार नहीं पड़ेगा और एक अच्छे कार्य में उनका योगदान भी रहेगा। ऐसा करने से सरकार को आपदाओं से निपटने के लिए पर्याप्त धनराशि भी प्राप्त हो जाएगी। यह उपाय काफी प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है।

उपर्युक्त सुझाव को क्रियान्वित करना केन्द्रीय सरकार के दायरे में आता है। परन्तु कुछ अन्य सुझाव जो कि राज्य सरकार के दायरे में आते हैं निम्न है :

1. अति दुर्घटना वाले क्षेत्रों की जानकारी एवं चिह्नीकरण : उत्तराखण्ड की एक बहुत बड़ी समस्या यहाँ की बढ़ती हुई सड़क दुर्घटनाएँ हैं जो कि मनुष्य की लापरवाही की वजह से मानवजनित आपदा में परिवर्तित हो चुकी हैं। इस क्षेत्र में सरकार द्वारा किए गए अनेक प्रयास भी कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। सैकड़ों जानें प्रति वर्ष उत्तराखण्ड में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में चली जाती है। सड़क दुर्घटनाएँ मनुष्य की लापरवाही का नतीजा है जिन्हें रोका जाना या कम किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसे क्षेत्रों का चिह्नीकरण आवश्यक है जहाँ सड़क दुर्घटनाओं का खतरा बहुत ज्यादा है। वहाँ पर प्रतिरोधक दीवार, गति नियन्त्रक तथा विशेष सूचना बोर्ड लगाए जाएँ जिससे की चालक अति सावधानी से वाहन चलाए और दुर्घटनाएँ कम हों। इसके अलावा चालकों को प्रशिक्षण देना, पुराने वाहनों को पहाड़ी क्षेत्रों में न जाने देना इत्यादि अनेक उपाय भी सख्ती से लागू करने होंगे। ऐसा देखा जाता है कि नियम तो बना दिए जाते हैं परन्तु उनका सख्ती से पालन नहीं होता जिसके परिणामस्वरूप दुर्घटनाओं की संख्याओं में वृद्धि होती है।

2. सुरक्षित निर्माण विधियाँ अपनाना : उत्तराखण्ड भूकम्पीय क्षेत्र 4 एवं 5 के अन्तर्गत आता है जिसमे भूकम्प आने की सम्भाव्यता बहुत अधिक है। भूकम्प को आने से रोकना मनुष्य के वश से बाहर है परन्तु उसके विनाश से बचने के लिए पहले से ही प्रयास किए जा सकते हैं जिसमें सबसे प्रमुख प्रयास भूकम्परोधी तकनीक से भवनों का निर्माण करना है फिर चाहे वे भवन रिहायशी अथवा वाणिज्यिक क्यों न हों। भूकम्परोधी तकनीक द्वारा भवन निर्माण करने से हानि न्यूनतम होगी। इस सम्बन्ध में आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन केन्द्र (डीएमएमसी) के प्रयास सराहनीय हैं। यह संस्था समय-समय पर लोगों को भवन निर्माण सम्बन्धी जानकारियाँ एवं सुझाव उपलब्ध करवाती रहती है। परन्तु ज्यादातर भवन के स्वामी परम्परागत तकनीक पर ही अपने भवनों का निर्माण करवाते हैं और बाद में उसके बुरे परिणाम भी भुगतते हैं। उन्हें चाहिए कि नवीनतम भूकम्परोधी तकनीकों का पालन करें और लाभ उठाएँ।

3. खोज तथा बचाव दलों का गठन : आपदा के उपरान्त किए जाने वाले प्रयासों के लिए विभिन्न प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता होती है। जैसे घायलों को निकालना, उन्हें चिकित्सा उपलब्ध करवाना, उनके लिए औषधि, भोजन, संचार इत्यादि की व्यवस्था करना। इन सभी कार्यों को सम्पन्न करने के लिए खोज तथा बचाव दलों का गठन पहले से ही करके रखना अत्यन्त आवश्यक है। इन दलों में इंजीनियर, डॉक्टर, पुलिस के सदस्य, शिक्षक, छात्र-छात्राएँ, नौजवान युवक, तैराक, सफाई कर्मचारी आदि सभी सम्मिलित होने चाहिए। इन सदस्यों के फोन नम्बर, पते पहले से ही तैयार रखे जाएँ। इससे भी ज्यादा आवश्यक यह है कि इन लोगों को पहले से प्रशिक्षण भी दिया जाए जिससे कि आपदा से निपटने के लिए ज्यादा प्रभावशाली तरीके से कार्य हो सके।

राज्य में जगह-जगह पर प्रशिक्षण शिविर लगाए जाएँ। इनमें स्थानीय नागरिकों की भागीदारी अत्यन्त आवश्यक है। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि सरकार कुछ पारिश्रमिक राशि इन बचाव दलों के सदस्यों को देने का प्रावधान करे, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। हालाँकि प्रशिक्षण का कार्य आपदा प्रबन्धन व न्यूनीकरण केन्द्र द्वारा किया जा रहा है परन्तु इसमें अभी और सुधार की आवश्यकता है। यह दल राज्य, जनपद तथा गाँव स्तर पर अलग-अलग बनाए जाएँ और उनके नाम, फोन नम्बर आदि सम्बन्धित सरकारी अधिकारियों तथा गाँव पंचायत स्तर पर उपलब्ध कराए जाएँ जिससे जल्दी से जल्दी राहत वांछित स्थानों पर पहुँच सकें।

4. वैकल्पिक संचार के साधन : आपदाओं के दौरान वैकल्पिक संचार के साधनों की अति आवश्यकता होती है। इन संचार माध्यमों से घटना की जानकारी को विभिन्न मुख्यालयों में सम्प्रेषित किया जाता है तथा विभिन्न संगठनों के बीच सम्पर्क व सहायता के लिए आवश्यक दिशा-निर्देशों का आदान-प्रदान किया जाता है। इसलिए वैकल्पिक संचार साधनों का विकास एवं व्यवस्था घटना से पूर्व ही करके रखना आवश्यक है।

उत्तराखण्ड राज्य की भौगोलिक परिस्थतियाँ एवं संरचना ऐसी है जिसमें आपदाओं के जोखिम काफी अधिक हैं अतः यह आवश्यक है कि प्रभावशाली तरीके से उपर्युक्त सुझावों को क्रियान्वित किया जाए ताकि जोखिमों से होने वाले दुष्प्रभावों को कम किया जा सके।

(लेखक डीएवी पीजी कॉलेज, देहरादून के वाणिज्य सम्भाग में रीडर हैं)
ई-मेल : gpdang@gmail.com

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