उत्तराखण्ड में धारे-नौले थे कभी जीवन और जीवन-दर्शन भी

जीव-जगत के लिये जल के महत्त्व के बारे में लिखने की आवश्यकता नहीं है। प्राणवायु ऑक्सीजन के पश्चात जल सबसे महत्त्वपूर्ण है। ऑक्सीजन के बिना तो जीवन कुछ पल के बाद ही समाप्त हो जाता है। और, जल के बिना भी जीवन अधिक समय तक नहीं रह सकता है। यह तो रही जीवमात्र की बात, पर मनुष्य के लिये तो जल जीवन के साथ-साथ पूरा जीवन-दर्शन भी हैं।

इसीलिये विभिन्न जीवन-पद्धतियों में जल का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व ही नहीं बल्कि धार्मिक माहात्म्य भी है। भारतीय संस्कृति में तो आज भी जल को ईश्वर के रूप में देखा जाता है। युगों-युगों से भारतीय जल-दर्शन व्यवहार में है और उसके अनेक रूप हैं। जीवन-शैलियों और संस्कृतियों का स्वरूप गढ़ने में जल की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

समस्त प्राणियों का अस्तित्व पृथ्वी की जैव-विविधता, जीवन्तता और सुन्दरता पर निर्भर है और ये तत्व जल की उपलब्धता पर निर्भर करते हैं, हालांकि यह निर्भरता पारस्परिक है। जल होगा तो जैव-विविधता सघन होगी और यदि जैव-विविधता सघन होगी तो जल कि उपलब्धता प्रचुर मात्रा में होगी।

अब बात करें उत्तराखण्ड की जल-संस्कृति के बारे में। उत्तराखण्ड भू-भाग भौगोलिक विषमता और आर्थिक दुर्बलता के बावजूद सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के मामले में सघन और सम्पन्न रहा है। यह ऐसा भू-भाग है जहाँ वर्ष भर कौथिग-मेले और त्योहार आयोजित होते रहते हैं- मेले और त्योहार कुछ धार्मिक तो कुछ सांस्कृतिक। और, जल इनमें से अनेक मेलों-त्योहारों के साथ किसी-न-किसी रूप में जुड़ा है। शिव से जुड़े त्योहारों से जल का जुड़ाव विशेष रूप से माना जाता है।

उत्तराखण्ड की राजनीति और वहाँ के पर्यावरण-पारिस्थितिकी से भी जल का नाता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यही कारण था कि बारह-चौदह वर्ष पहले उत्तराखण्ड के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने राज्य सरकार की प्रस्तावित जलनीति का विरोध करते हुए राजेन्द्र धस्माना और सुरेश नौटियाल के संपादकीय नेतृत्व में ‘उत्तराखण्ड लोक जलनीति’ का प्रारूप तैयार किया था, हालांकि इसे बनाने में अनेक संगठनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, जिनमें अग्रणी थेरू हिमालय पर्यावरण शिक्षा संस्थान लम्बगाँव, लोक विज्ञान संस्थान देहरादून, लक्ष्मी आश्रम कौसानी, अमन अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड लोक विद्यापीठ कौसानी, उत्तरांचल वन अध्ययन समिति लम्बगाँव, उत्तराखण्ड लोक वाहिनी अल्मोड़ा, जल संस्कृति मंच देहरादून, पहाड़ और ढेर सारे अन्य संगठन और डॉ. शेखर पाठक जैसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति।

इस प्रारूप में स्पष्ट किया गया कि उत्तराखण्ड के तमाम वर्गों के लिये आवश्यक है कि वे प्राकृतिक धरोहरों और संसाधनों के स्थानीय संरक्षक की भूमिका में रहें और अपने विवेक और लोक संचित ज्ञान के आधार पर अपनी जल-वन-भूमि से सम्बन्धित योजनाएँ बनाएँ। इन संगठनों की यह अवधारणा निश्चित रूप से संचित लोक ज्ञान पर आधारित थी। इसीलिये, उत्तराखण्ड में स्थित धारों-नौलों के बारे में भी यही समझ रही है कि ये स्थानीय जीवन का दर्शन हैं और इन्हें भावी पीढ़ियों के लिये स्वस्थ रखना समाज का दायित्व है।

उत्तराखण्ड में धारों-नौलों के उपयोग और संरक्षण में सामाजिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलता, लोक-व्यवहार, इत्यादि का पूरा ध्यान रखा जाता रहा है। सामूहिकता, सामंजस्यता, समन्वयता, सद्भावना और परस्पर सम्मान की परम्परा के वाहक भी ये धारे-नौले रहे हैं और साथ ही ग्राम-समाज की जीवनरेखा।

उत्तराखण्ड के नौलेधारे, नौले, मगरे, खाल, ताल इत्यादि आमतौर पर प्राकृतिक ही रहे हैं। समाज तो केवल इनके संरक्षण और संवर्धन का काम करते थे। खाल और ताल तो मानव-निर्मित भी हो ही सकते हैं, पर नौले, मगरे, पंदेरे और धारे नहीं। जहाँ जल के स्रोत हों, वहीं इनका निर्माण किया जाता रहा है। यदि स्रोत में जल का प्रवाह अधिक हो तो उसे धारे, पंदेरे या मगरे के रूप में विकसित किया जाता रहा है और यदि जल कम हो तो उसे नौले के रूप में विकसित किया जाता रहा है।

धारों और मगरों के मुख को विशेष रूप में सजाया जाता रहा है। उन्हें इस प्रकार से बनाया जाता था कि पानी उस आकृति के मुख से बाहर निकले जिसकी आकृति वहाँ स्थापित की गई हो। आमतौर पर धारों, नौलों, मगरों के मुख गणेश, नागदेवता, गाय, हाथी, बाघ की प्रतिमा से बना, जाते थे और इन्हीं मुखों से पानी की धार का निकास होता था। साथ ही, धारों, मगरों और नौलों के आस-पास अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक वास्तुशिल्प भी बना, जाते थे। आस-पास में मन्दिरों-धर्मस्थलों का भी निर्माण कर दिया जाता था ताकि इन स्थलों की पवित्रता निरन्तर बनी रहे।

धारों, मगरों और नौलों के इस प्रकार के मुख सदियों पहले से बना, जाते रहे हैं। गोपेश्वर, चमोली, जनपद के वैतरणी में दसवीं सदी से पहले बने ऐसे मुख प्राप्त हुए हैं। और जहाँ तक धारों-नौलों के इतिहास की बात है, कुमाऊँ मंडल में गंगोलीहाट के पास जान्हवी नौला उत्तराखण्ड का सबसे प्राचीन नौला माना जाता है। समझा जाता है कि ईसा पूर्व 1272 में इस नौले का निर्माण किया गया था।

धारे, नौले और मगरे वास्तव में संस्कृति के प्रतीक भी हुआ करते थे। धारों, नौलों और मगरों को जल-संस्कृति का वाहक मानते हुए जनचेतना के रूप में भी उपयोग किया जाता था। सामूहिक कार्यों का शुभारम्भ या तो धारों-नौलों से होता था या देवस्थानों से।

धारे, पंदेरे, मगरे और नौले गाँव की बहू-बेटियों के मिलनस्थल भी हुआ करते थे। पूरे दिन काम से थकी ये महिला, धारे-पंदेरे और नौले के पास बैठ आपस में बातें कर अपनी थकान ही नहीं उतारती थीं, बल्कि अगले दिन के सामूहिक और व्यक्तिगत कार्यों की योजना भी बनाती थीं। संक्षेप में, जन्म-विवाह से लेकर अन्तिम संस्कार जैसी अनेक धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में ये जल-प्रणालियाँ महत्त्वपूर्ण थीं।

धारों, मगरों, पंदेरों और नौलों को सूर्य की सीधी किरणों से भी बचाया जाता था। इसमें यह विज्ञान था कि सूर्य की सीधी किरणें पानी को न लगने देने से पानी का वाष्पीकरण कम होता है और जल की शीतलता भी बनी रहती है।

आज तो ये दोनों ही काम नहीं हो रहे क्योंकि नल-जल संस्कृति ने पारम्परिक जल-पद्धतियों को समाप्त करने का काम कर दिया है। विकास की तथाकथित नई सोच के कारण आज सब-कुछ बदल गया है। जहाँ धारे, पंदेरे, मगरे और नौले हुआ करते थे, उनके पास अब जल निगम या जल संस्थान के नल उग आये हैं।

उत्तराखण्ड के परम्परागत जलस्रोतये न तो देखने में सुन्दर लगते हैं और न ही स्थानीय परिवेश के अनुकूल दिखाई देते हैं। पर मजबूरी यह कि इनके बिना कोई चारा भी नहीं! जलस्रोत सूखते जा रहे हैं और पानी का संकट बढ़ता जा रहा है। यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ियाँ केवल पुस्तकों और इंटरनेट पर धारों, मगरों, पंदेरों और नौलों के चित्र देखेंगी।

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