उत्तराखण्ड में वनाग्नि के कारण


गत वर्ष के उत्तराखण्ड के वन फरवरी माह से जुलाई प्रथम सप्ताह तक जलते रहे हैं, और बढ़ा वन क्षेत्र खतरे की जद में आया है। तेजी से फैली जंगल की आग ने आपदा का रूप धारण करके 9 लोगों के जीवन को लील लिया जो अक्सर मानवीय हस्तक्षेप से अधिक फैलती और आग का पैमाना कम नहीं हो पाता है। इस वर्ष उत्तराखण्ड में वनाग्नि की भयावहता ने खतरनाक स्तर छुआ और वनस्पति, जीवों को नुकसान पहुँचाया व मानव जीवन भी खतरे में पड़ा।

उत्तराखण्ड में वनाग्नि के सम्भावित कारण
क्या लोग और प्रकृति ही मात्र जिम्मेदार हैं



फसलों के कूड़े को जलाने, ग्रामीणों की बीड़ी पीने की आदत को आधार बनाकर वनाग्नि के लिये किसानों पर आरोप लगाये जा रहे हैं और पत्थरों के रगड़ने से आग उत्पन्न होने जैसे प्राकृतिक कारणों को भी इस बात के लिये दोषी माना जा रहा है। यद्यपि बड़े पैमाने पर वनाग्नि के पीछे और भी कई कारण रहे हैं। शुष्क मौसम, अत्यधिक उच्च तापमान और हवा के बहाव की स्थिति निश्चित रूप से वनाग्नि को फैलाने में प्रमुख रूप से सहायक भूमिका रही है। सरकार द्वारा हमेशा की तरह गर्मियों में वनाग्नि की प्रमुख घटनाओं का अध्ययन करके तैयार कार्ययोजना के अनुसार बजट आवंटित कर दिया जाता है। गत वर्ष सभी परिकल्पनायें और योजनायें विफल हो गई और स्थिति अधिक खतरनाक हो गई। वायु सेना की 11 सदस्यों की टीम को भीमताल और पौड़ी क्षेत्र में अग्नि शमन के लिये आना पड़ा। इसलिये वनाग्नि की घटना के आस-पास के तथ्यों को जानने समझने का समय है।

1. लगभग 110 दिनों में वनाग्नि से 4500 हेक्टेयर जंगल स्वाहा हुआ और 9 लोगों की जान गई।

2. उत्तराखण्ड में वनाग्नि के पिछले 3 वर्षों के आंकड़ों से गत वर्ष की वनाग्नि दोगुनी थी। वर्ष 2014 में यह आंकड़ा 384.5 हेक्टेयर व 2015 में 930.55 हेक्टेयर था। जबकि गत वर्ष 4,423.35 हेक्टेयर जंगल आग से नष्ट होने के आंकड़े सामने आया है।

3. वर्ष 2016 में, पूरे उत्तराखण्ड में 2069 से अधिक स्थानों पर वनाग्नि की घटनायें पायी गई। अल्मोड़ा, चमोली, नैनीताल, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, टिहरी और उत्तरकाशी जिलों को बुरी तरह से प्रभावित घोषित किया गया।

4. वर्ष 2016 में 5 महीने की आग की 2069 घटनाओं ने 4,424 हेक्टेयर हरित वन क्षेत्र को अभिशप्त कर दिया।

5. उत्तराखण्ड में वनों की आग ने राज्यभर के वन्यजीव अभ्यारण्यों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। आंकड़ों के अनुसार राजाजी टाइगर रिजर्व में 70 हेक्टेयर और केदारनाथ कस्तूरी मृग अभ्यारण्य में 60 हेक्टेयर वन आग से प्रभावित हुआ है।

6. कार्बेट टाइगर रिजर्व और कालागढ़ टाइगर रिजर्व, जो कि रॉयल बंगाल टाइगर का घर माना जाता है, जो पहले से ही आग की 48 घटनाओं से 260.9 हेक्टेयर जंगल के नष्ट होने का साक्षी बना।

7. स्थिति की गम्भीरता के प्रति चिंतित पर्यावरण मंत्री ने पूर्व आग चेतावनी प्रणाली का परीक्षण शुरू किया, जो आग के संभावित प्रकोप के बारे में एसएमएस के जरिये देश भर में चेतावनी जारी करेगा। इस योजना के द्वारा वन विभाग को आग फैलने से पूर्व जानकारी पहुँचाई जायेगी।

8. वनाग्नि नियंत्रण के लिये उत्तराखण्ड के राज्यपाल ने कर्मियों की संख्या बढ़ाकर 6000 की है। उन्होंने एसडीआरएफ, जिला प्रशासन और स्थानीय लोगों से वनाग्नि को नियंत्रित करने में अपनी भूमिका निभाने को कहा।

9. केन्द्र सरकार के द्वारा वनाग्नि नियंत्रण के लिये करोड़ों रुपये का बजट निर्धारित किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय दोनों ही कार्यालयों ने कहा कि वे स्थिति पर निगरानी रखे हुये हैं।

अब हम प्रमुख सवाल पर आते हैं कि यह आग लगाता कौन है। आग आकस्मिक घटना है, जो लापरवाही और विशेषकर धूम्रपान करने वालों से लगने का विचार ही प्रमुख रूप से आता है। यह आग लगने के स्थानीय कारण कहे जाते हैं जो कम तिव्रता वाले और आसानी से नियंत्रित करने वाले होते हैं। यह वे कारण थे, जिनसे लोगों को पूर्व में जूझने की आवश्यकता थी। हिमालय में आग की घटनाओं का कोई वर्ष चक्र उपलब्ध नहीं है, जंगलों में गैर आकस्मिक आग की घटनाओं का अवलोकन नहीं किया गया। वर्तमान में लोगों और फायर फाइटरों पर आग के अनियंत्रित स्वरूप से निराशा की भावना बढ़ी है। आग की इन घटनाओं के पीछे कई वर्गों/समूहों के हित और कारक जिम्मेदार हैं। जिन्हें कई बार अस्पष्ट रूप में लकड़ी माफिया, किसान, धूम्रपान करने वाले, शिकारी और प्राकृतिक कारणों को उल्लिखित किया जाता है।

जंगल की आग का प्रमुख कारण भू-तृष्णा


जंगल की आग अब आकस्मिक घटना नहीं है। जंगल की आग बढ़ने के पीछे विभिन्न कारण कहे जा रहे हैं, जैसा उत्तराखण्ड के लोगों ने बताया। हाल ही की वनाग्नि की घटनाओं के बारे में यह जानबूझकर नहीं कहा गया, लोगों ने जोर देकर कहा कि इसमें भूमि को हथियाने की स्पष्ट तस्वीर देखी जा सकती है। लोगों का कहना है कि इस पहाड़ी राज्य में आग से विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के नष्ट हो जाने से वहाँ की जमीन पर हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति को और सुविधाजनक बना देती है। मैदानों में रहने वाले अमीर और समृद्धशाली लोग पहाड़ों पर घर, रिसार्ट और होटलों को बनाने के लिये जमीन की तलाश में रहते हैं। यहाँ के भी कुछ लोग इन निंदनीय गतिविधियों में सम्मिलित रहते हैं। उत्तराखण्ड से लोगों का पलायन इस समस्या को बढ़ा रहा है, जिसके कारण गाँव वास्तव में खाली हो रहे हैं। गढ़वाल में पलायन की घटना को अन्य स्थानों से अधिक देखा गया है। लूट में लिप्त लोगों के पीछे पड़ने के बजाय बहुत ही नगण्य राशि के लिये प्राकृतिक संसाधनों का शोषण और जमीनों को हथियाया जा रहा है। वास्तव में मानव के लालच के कारण वनों में आग की घटनाओं की भविष्य में वृद्धि होगी और तब प्राकृतिक संसाधनों की कमी से निपटने के लिये कोई सहायता नहीं मिल पायेगी।

नाम: कुंवर सिंह नेगी, उम्र: 68 वर्ष, ग्राम: पटुड़ी, ग्राम पंचायत: पटुड़ी, विकासखण्ड: चम्बा, जिला: टिहरी गढ़वाल - कुंवर सिंह नेगी पूर्व प्रधान हैं और वन पंचायत से अच्छी तरह जुड़े हैं। गाँव के पास 14 हेक्टेयर सिविल सोयम भूमि है जो टिहरी वन प्रभाग के सकलाना रेंज के अंतर्गत आता है। अब उनकी पुत्र वधु ग्राम प्रधान हैं। जंगल की आग पर कहते हुए उन्होंने बताया कि इस वर्ष बड़े पैमाने पर आग ने उनके गाँव के आस-पास के जंगल को गंभीर रूप से प्रभावित किया है उन्होंने पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि वन विभाग के कारण उनके कीमती जंगल खतरे में हैं। वे यहाँ पर जंगल की सुरक्षा के लिये नहीं बल्कि उनकी भूमिका जंगल में आग लगने की है। वे आग और धुयें के पीछे अपने भ्रष्टाचार को छिपाना चाहते हैं। वृक्षारोपण के नाम पर सरकार करोड़ों रुपये व्यय करती है और वन विभाग के अधिकारी उसे गटक जाते हैं। आग उनके इस भ्रष्टाचार को निगल जाती है। उन्होंने कहा कि वन उपयोग के लिये व्यवस्थित प्रणाली, गाँव से बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश को ह्रास करने व वन संसाधनों के संवर्द्धन के लिये वन पंचायतों की स्थापना की गई थी। वन न केवल हमारे उपयोग के लिये था बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के उपयोग के लिये भी हम अपने स्तर पर वन संरक्षण के लिये अभ्यस्त थे। इस व्यवस्था में हम सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए वन संसाधनों का ज्यादा विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करते थे। हमें जंगल में प्रवेश की अनुमति थी और जंगल जाने में कोई मुश्किल नहीं थी। हम हमारे जंगलों से ज्यादा जुड़ाव रखते थे और आग व अन्य विनाशकारी गतिविधियों पर निगरानी भी रखते थे। अब स्थितियाँ पूरी तरह से बदल गई हैं। हमारे साथ जंगल के बारे में कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता है। यह वन विभाग है जो जैसा चाहता है, वैसे प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहा है। हम अपने जंगलों को अच्छे से जानते हैं और पारंपरिक रूप से इनका प्रबंधन करने के सक्षम हैं, इससे स्पष्ट है कि जंगलों में आग लगने की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है। चीड़ देवदार आग को बढ़ाने वाले होते हैं और हम परम्परागत रूप से इनकी संख्या को नियंत्रित करते थे, जिससे मिश्रित वन बढ़ते थे, और हमें भी अधिक फायदा मिलता था। इस वजह से जंगलों में आग का फैलाव कम होता था। हम अपने जलस्रोतों को बरकरार रखते थे, जिससे हमें वर्ष भर भरपूर पानी मिलता था और यह छोटी नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र भी बने रहते थे। जल संग्रहण क्षेत्रों का संरक्षण हम अपना कर्तव्य समझते थे। जंगलों में पानी संरक्षण की गतिविधियों से आग लगने और इसके फैलने को रोकने में सहायता मिलती है। लेकिन अब हम इस प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर पा रहे हैं। हमें जंगलों से विमुख किया जा रहा है और हम जंगलों में आग के फैलने से चिंतित हैं। इसी वजह से इस वर्ष आग इतनी विनाशकारी हुई है और वन विभाग व सरकार की इसी मानसिकता के कारण यह हर साल बढ़ता ही जा रहा है। पूर्व में जंगल की आग के लिये वन पंचायतों को बजट आवंटित किया जाता था और लोग आग बुझाने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते थे। अब यह बजट गाँवों में नहीं आ रहा है और हम यहाँ पर वन विभाग के श्रमिक के रूप में चलने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने आगे कहा कि वन विभाग जब वृक्षारोपण करने आता है, तो ग्रामीण के साथ कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता है और न ही ग्रामीणों की आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है। जैसे चीड़ देवदार के पौधे का मूल्य (रु. 5) बांज के पौधे के मूल्य (रु.100) से अपेक्षाकृत कम है, वन विभाग के द्वारा चीड़ देवदार के पौधों को महत्व दिया जा रहा है। उगने में भी बांज का पौधा चीड़ देवदार के पौधों से ज्यादा समय लेता है, इस वजह से भी वन विभाग के द्वारा जंगलों में चीड़ देवदार के वृक्षों का ज्यादा रोपण किया जाता है। इन दिनों जंगलों में आग फैलने का यह प्रमुख कारण है।

इमारती लकड़ी माफिया जंगल की आग से लाभान्वित हो रहे हैं।


लोग अभी भी विश्वास कर रहे हैं कि जंगल में आग की घटनाओं की वृद्धि पत्थरों के गिरने, किसी के बीड़ी के जलते हुये बचे टुकड़े या फिर प्राकृतिक कारणों से हो रही है। हालाँकि अब प्रकृति संरक्षणवादियों और पर्यावरणवादियों के साथ ही लोगों ने इसके कारणों क्यों और कैसे का पर्दाफाश करना शुरू कर दिया है। उत्तराखण्ड में जंगल की आग के बारे में लोग कहने लगे हैं कि बिल्डर चाहते हैं कि लोगों के हक हकूक वाले जंगलों में पेड़ जलें और सूख जायें। वे तब ही पेड़ को बेच सकते हैं जब वो मृत हो जाये और फिर उस खाली पड़ी जमीन पर वे निर्माण कर सकें। ग्रामीणों/सरकार/माफिया ने लकड़ी बेचने के लिये एक गठजोड़ तैयार किया है, इतनी बड़ी मात्रा में राज्य भर में एक साथ जंगल में आग की घटनायें दिमाग में शक पैदा करती हैं। इस आग से केवल लकड़ी से ही अवैध लकड़ी के काला बाजारी हजारों करोड़ कमायेंगे। कोई भी माफिया से नहीं लड़ सकता है, वे बहुत ताकतवर हैं और जब तक की उनका अच्छा गठजोड़ वन विभाग के अधिकारियों और राजनैतिक प्रतिनिधियों के साथ बना रहता है। उत्तराखण्ड के सुंदर प्राकृतिक जंगलों का जीवनकाल छोटा होगा, जब तक कि विनाशकारी विकास और औद्योगिक वृद्धि के हाथ यहाँ की प्रत्येक घाटी, गाँवों और छोटे-छोटे नगरों पर प्रहार करते रहेंगे। गढ़वाल और कुमाऊं के जंगलों में कई प्रकार के लोगों के द्वारा आग लगाई जा रही है, कुछ लोग अच्छी घास की वृद्धि के लिये आग लगाते हैं तो कुछ को मृत पेड़ चाहिये तो कोई चीड़ की वृद्धि को नियंत्रित करके मिश्रित वन को बरकरार रखना चाहता है। लेकिन पिछले साल राज्य के सभी हिस्सों में बड़े पैमाने पर आक्रमक रूप से आग लगी है। हिमालयी क्षेत्र में इस बार की वनाग्नि लकड़ी माफिया की रुचि को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है जिसके कारण आबादी और गैरआबादी वाले क्षेत्र प्रभावित हुये हैं। हालात बहुत गंभीर हैं सिविल और रिजर्व दोनों प्रकार के जंगल आग की चपेट में आये हैं।

वनाग्नि संकट से जूझता हिमालय उत्तराखण्ड वर्ष 1981 के बाद से 1000 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्र के हरे वृक्षों के कटान पर प्रतिबंध लगने के बाद से ही यह देखा जा रहा है कि उस क्षेत्र में आग लगने की घटनायें निरंतर घटित हो रहा है। कानून सूखे और मृत पेड़ों को हटाने की अनुमति देता है। माफिया द्वारा कानून की इस बाध्यता को पूरा करने के लिये पेड़ों को मृत दिखाने हेतु जंगल में आग लगाई जा रही है। आग के बाद मृत पेड़ों की बेहद कम संख्या ही दर्ज की जा रही है। मृत पेड़ों को जंगल से गोदाम तक ढोने के लिये संविदायें जारी की जाती हैं। ठेकेदार सभी मृत पेड़ों और इसी आड़ में अक्सर कुछ हरे पेड़ों को भी जंगल से हटा देते हैं। सूखे पेड़ों की प्रतिवेदित संख्या को विधिवत गोदाम में लाया जाता है और शेष पेड़ों की आपूर्ति बाजार तक की जाती है। उपरोक्त के अलावा अन्य क्षेत्र भी हैं जहाँ वन रक्षकों को भुगतान के बाद स्थानीय छोटे ठेकेदारों द्वारा मांग के आधार पर लकड़ी की पूर्ति की जाती है। कुल मिलाकर यह एक बड़ा बाजार है और उसी अनुपात में वनों में आग लगने का बड़ा कारण भी है। यह स्पष्ट है कि जंगलों में आग कानून को तोड़ने और सबूतों को नष्ट करने के लिये लगाई जा रही है। इस सबके बाद हिमालय के जंगलों के प्रति शोषण का आकर्षण रहा है और जाहिर है यह अब भी है, कानून की परवाह किये बगैर शोषण को नहीं रोका जा सकता।

नाम: विक्रम सिंह पवांर, उम्र: 80 वर्ष, ग्राम: कोटी, ग्राम पंचायतः कोटी, विकासखंड: नरेन्द्र नगर, जिला: टिहरी गढ़वाल-बहुत युवा दिखने वाले विक्रम सिंह 80 वर्ष के बुजुर्ग हैं, जो जंगल के साथ अपने रिश्तों और जुड़ाव को याद करते हुये कहते हैं, कि जंगल उनके घर और जीवन का हिस्सा है। उन्होंने बताया कि उनके लिये वह समय अच्छा था जब वे राजशाही के अधीन रहते थे। जब हमारी रियासत का भारत में विलय नहीं हुआ था, तब वन विभाग की निरंकुशता भी हमारी व्यवस्था में सम्मिलित नहीं हुई थी। विलय के साथ हमने जंगलों पर अपने अधिकारों को खो दिया। उस समय कोई भी हमें जंगल से अलग करने के बारे में नहीं सोचता था। उन्होंने याद करते हुए बताया कि उस समय भी वन विभाग होता था परन्तु वह हमें हतोत्साहित नहीं करते थे और उनके साथ सौहार्दपूर्ण संबंध थे। उस समय राजा द्वारा मालगुजारों के माध्यम से लोगों को आवश्यकताओं के अनुसार वनों का उपयोग करने का अधिकार दिया जाता था। परम्परागत रूप से हमें दिवाली के समय भैला खेलने हेतु जंगल से चीड़ की लकड़ी लेने का अधिकार था। बेटियाँ अपनी ससुराल से आकर भैला खेलने के लिये चीड़ की लकड़ी को अपने साथ वापसी में ले जाती थीं। लेकिन अब हमें जंगल से भैला खेलने के लिये चीड़ की लकड़ी लेने की अनुमति नहीं है। जंगलों के साथ लगाव को बनाये रखा गया था और गाँव वालों के साथ अच्छी नेटवर्किंग और समन्वय से जंगल की सुरक्षा कर रहे थे। पहाड़ के आस-पास चारों ओर के जंगल ठांक का डाण्डा और अदवाणी और उद्खण्डा के जैसे अन्य जंगलों से गाँव के लोग बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुये थे और हम हमेशा से ही अपने जंगलों को आग और अन्य विनाशकारी गतिविधियों से बचाते थे। अपने युवा दिनों को याद करते हुये उन्होंने बताया कि वे जंगलों को आग से बचाने के लिये अपने साथी ग्रामीणों के साथ जंगल में हफ्तों गुजार देते थे। हम अपने जंगलों को बचाते थे, जंगल और हमारे बीच गहरा रिश्ता था। अब यह हमारे जंगल नहीं हैं बल्कि वन विभाग की सम्पत्ति है और हमें जंगलों का घुसपैठिया समझा जाता है। छोटे-छोटे कारणों से वन विभाग द्वारा हमें डराया, धमकाया जाता है, परेशान किया जाता है और जुर्माना व सजा तक दी जाती है। अब हमें अपने वन संसाधनों से विमुख किया जा रहा है यहाँ तक कि गाँव के जंगल पर भी अधिकार नहीं रहा। हमें अपनी बुनियादी आवश्यकताओं के लिये भी अनुमति लेनी पड़ती है या तो हमें इनकार किया जाता है या फिर हमें घुस देने के लिये मजबूर किया जाता है। वन विभाग और माफिया के बीच हम पिस रहे हैं। ग्रामीणों को अधिकांश अवसरों पर बिना किसी बात के भी जेल में डाल दिया जाता है। अब यह दूरी काफी बढ़ गई है और हम कम से कम जंगलों की सुरक्षा के बारे में चिंतित हैं। हम इनका संरक्षण वन विभाग के लिये क्यों करें? इस वर्ष पूरे उत्तराखण्ड में जंगलों में लगी भीषण आग का कारण स्पष्ट है। साथ ही वह यह चेतावनी भी देते हैं कि आने वाले वर्षों में यह स्थिति अधिक भयानक रूप लेगी।

 

वनाग्नि संकट से जूझता हिमालय उत्तराखण्ड

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

क्या होती है वन प्रकृति

2

वनाग्नि और इसके प्रभाव

3

उत्तराखण्ड में वनाग्नि के कारण

 

 

आगोन्मुखी चीड़ के जंगल से आग का खतरा


लोग भलि-भाँति आश्वस्त हैं जंगल की आग की प्रमुख घटनायें चीड़ के पेड़ से लीसा निकालने के कारण हुई हैं। चीड़ के वृक्ष आग को भड़काने में सहायक होते हैं, यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि अधिकांश वनाग्नि प्रभावित क्षेत्र चीड़ के जंगलों के अंतर्गत आता है, मिश्रित वन आग के प्रति कम संवेदनशील होते हैं। लीसा दोहन वन विभाग की आय का प्रमुख स्रोत है और इससे राजस्व प्राप्ति के लिये वे जंगल की आग जैसे कई अन्य कारणों को अनदेखा कर देते हैं। दुर्भाग्य से लीसा अत्यधिक ज्वलनशील है और बाद में जंगल की आग के दौरान ज्यादा से ज्यादा वृक्षों के नुकसान का कारण बनता है। एक औसत घाव 4 किलोग्राम लीसा पैदा करते हैं और कई वृक्षों के तनों पर एक से अधिक घाव होते हैं। वन विभाग द्वारा संलग्न किये गये ठेकेदारों के द्वारा लीसा प्राप्त करने के लिये पेड़ों पर घाव किया जाता है और लीसा एकत्रित करके गोदाम में जमा करते हैं। उत्तराखण्ड वन विकास निगम लिमिटेड के माध्यम से लीसे की नीलामी की जाती है। वन विभाग निगम द्वारा लीसे को सामान्यतः 2400-2500 प्रति क्विंटल बेचा जाता है। वन विभाग के रिकॉर्ड के बिना भी बड़ी मात्रा में लीसे का दोहन किया जाता है। वन विभाग के दस्तावेज कुल एकत्रित किये गये लीसे के दोहन का छोटा अंश मात्र ही दर्शाते हैं। वास्तविकता में ठेकेदार वन विभाग के अधिकारियों और राजनीतिज्ञों की मिली-भगत से लीसे को बहुत हम कीमत पर बेचते हैं, जो उनके लिये फायदेमंद होता है। मुख्य दिक्कत यह है कि ठेकेदार गैरकानूनी ढंग से पेड़ों से लीसा निकालते हैं तब वे मिश्रित वनों की अपेक्षा चीड़ के वृक्षों का फैलाव चाहते हैं। ठेकेदारों के लीसा निकालने के बाद परिवेश के तापमान में वृद्धि होने से पुनः लीसा निकलने लगता है, जो कि बूँदों के रूप में पड़े के तनों पर अटका रह जाता है। लीसा अत्यधिक ज्वलनशील है, जंगल में आग लगने पर पेड़ों के तनों पर अटकी लीसे की बूँदे तुरंत आग पकड़ती हैं। जहाँ पर लीसा निकाला जाता है वहाँ पर कार्बन की एक मोटी परत बन जाती है। जंगल की आग के कारण कार्बन की यह परत और बढ़ जाती है। लीसा निकालने से पेड़ के तने पर एक बड़ा छेद हो जाता है जो आग के कारण निरंतर बढ़ता रहता है। आमतौर पर चीड़ के जंगलों में प्रतिवर्ष आग की घटनायें होती हैं और गत वर्ष वनाग्नि की तीव्रता गंभीर रूप में देखी गई है।

वनाग्नि संकट से जूझता हिमालय उत्तराखण्ड नाम: बड़देई देवी, उम्र: 65 वर्ष, ग्राम: कोटी, ग्राम पंचायत: कोटी, विकासखंड: नरेन्द्र नगर, जिला: टिहरी गढ़वाल - हम महिलायें जंगल के सबसे करीब हैं और इसके बारे में सब जानते हैं। हम जंगलों में चारा, ईंधन और खाने के लिये कंदमूल एकत्रित करने जाते हैं और हम जानते हैं कि जंगल में पानी कहाँ पर है। बड़देई देवी जो कि महिला नेता हैं, ने जंगल की आग के कई पहलुओं को अनावरित किया। वे कहती हैं कि हम अपने लिये, दुनिया और आने वाली पीढ़ियों के लिये वनों का संरक्षण व संवर्द्धन करते हैं, पूर्व में इस क्षेत्र के अधिकांश वनों को घटाया गया। जंगल के निचले भाग में चौड़ी पत्ती वाले जैसे बांज के वृक्ष पा सकते थे और अब बीच में चीड़, देवदार जंगल पर हावी हो रहे हैं और अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में अब बंज और कैल के साथ देवदार भी दिखाई दे रहा है। जंगल हमें चारागाह की भूमि भी उपलब्ध कराते थे जहाँ पर लोग अस्थाई निवास (छानी) बनाकर अपने पशुओं को चराते थे हम अपने घरों की सुरक्षा के साथ जंगल को भी आग से बचाते थे। हम किसान हैं और हम पर हमेशा ही यह आरोप लगाया जाता है कि हम जंगल के निकट कृषि अपशिष्ट को जलाते हैं जिसकी वजह से जंगल में आग लगती है। यह सच नहीं है, एक किसान जानता है कि जंगल पानी का घर है और पानी के बिना खेती नहीं की जा सकती है। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि नियंत्रित आग जंगली वनस्पतियों को बढ़ाने में सहायक होती है, घास के मैदानों का रख-रखाव करती है और बड़ी आग लगने से रोकती है, कुछ बीजों का पुनर्जनन करती है और कुछ हानिकारक कीड़ों को समाप्त करती है। जंगल के अंदर शाकाहारी जीवों को भोजन उपलब्ध करवाकर उन्हें हमारे खेतों की ओर आने से भी रोकती है। हमारे लिये आग वन संरक्षण का एक साधन है। अब यह ठीक से व्यवस्थित नहीं हो पा रहा है, विनाश का कारण बन रहा है।

वह फिर से अपने वन संरक्षण के परम्परागत तरीकों के बारे में बताती हैं। हम एक निश्चित वन क्षेत्र को अपने देवता को समर्पित कर देते हैं। विशिष्ट सुरक्षा ने इन परम्पराओं की प्रेरणा से संसाधनों के सतत और व्यवस्थित उपयोग के लिये यहाँ की आबादी में चेतना जगाई है, जिससे वन संरक्षण को लाभ हुआ। पहाड़ी इलाकों में कृषि योग्य काफी कम भूमि है, जिस पर हमलोग खाद्य उत्पादन का काम करते हैं। चारे की खेती हमारी गौण प्रथामिकता होती है, हम घास के मैदानों का महत्व जानते हैं जिसके कारण पशुओं की बड़ी आबादी का भोजन निर्भर है। वन संसाधनों पर हमारी निर्भरता जो चारागाह ईंधन व चारे के प्रबंधन में समावेशी है ने हमें जंगल से लगाव करना सिखाया है। जंगलों के उपयोग करने के लिये परम्परा के द्वारा लगाये गये प्रतिबंध सभी पर लागू होते हैं। लेकिन अब यह नहीं होता है और हम असहाय होकर जंगलों को जलता हुआ देख रहे हैं।

यह वन विभाग द्वारा साजिश का स्पष्ट मामला है


भारतीय वन सर्वे द्वारा पहली बार 1987 में वनाग्नि पर स्टेट रिपोर्ट जारी करने के बाद हिमालयी वनों में आग का समाचार सामने आया। तब बड़े पैमाने पर वार्षिक स्तर पर वनाग्नि की घटनायें नई थी, मुख्य धारा के मीडिया ने इन समाचारों को प्रसारित किया। यह बेहद खतरनाक है कि यह 1987 के बाद सर्वाधिक उच्च तीव्रता की वनाग्नि है। वनाग्नि की घटनाओं और वन का नुकसान 1987 की तुलना में 1987 से पहले अपेक्षाकृत कम था। वनाग्नि अब वार्षिक परिघटना बन गई है। लोगों के द्वारा इसके पीछे ज्यादा परेशान करने वाले कारण बताये गये हैं। उन्होंने बताया कि वन विभाग द्वारा प्रतिवर्ष वृक्षारोपण के लिये भारी भरकम बजट आवंटित किया जाता है। वे पौधशालाएं लगाते हैं व वृक्षारोपण करते हैं, लेकिन सिर्फ कागजों में। प्रभावी मूल्यांकन और लोक भागीदारी के अभाव में जमीन पर कुछ भी नहीं हो रहा है। वन विभाग के अधिकारी अक्सर पूरी संख्या में पौधों का रोपण नहीं करते हैं जिनके लिये धनराशि स्वीकृत होती है और सबूतों को नष्ट करने के लिये जंगल में आग लगाते हैं और दावा करते हैं कि सभी पौधे (वे पौधे भी जिनका अस्तित्व कागजों पर ही था) जलकर नष्ट हो गये हैं। जंगल की आग की घटनाओं में बढ़ोतरी के कारण अधिकारियों को यह कहने का मौका मिलता है, कि उनके द्वारा रोपित पौधे आग की भेंट चढ़ गये हैं और वे पेड़ों को असुरक्षित और सूखा घोषित करके काटने में समर्थ हो जाते हैं। वनों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। गिरे हुये पेड़ों को हटाना वनाधिकारियों को बहुत आकर्षक लगता है। ज्यादा पेड़, वे आनंदमय। वे इस रास्ते बहुत पैसा बनाते हैं। वन माफिया, विभाग और कई संगठन अवास्तविक वृक्षारोपण कार्यक्रमों में भागीदार बनकर अपने बड़े हित के लिये जंगलों की आग को प्रोत्साहित करते हैं। आग इनके अपराधों को छिपाती हैं, जैसे भू-स्खलन लोक निर्माण विभाग के अपराधों को और बाढ़ बाँध निर्माताओं के अपराधों को छिपाती है।

नाम: दिलीप सिंह रणावत, उम्र: 56 वर्ष, ग्राम: डाबरी-काण्डीखाल, विकासखण्डः थौलधार, जिला: टिहरी गढ़वाल - दिलीप सिंह जो ग्राम प्रधान हैं कहते हैं जंगल की आग स्वतः नहीं लगी है। यह सुनियोजित और व्यवस्थित ढंग से अपने हित साधने के लिये कर्ताओं द्वारा लगाई गई है। हम कुछ शरारती तत्वों को दोष दे सकते हैं, ग्रामीण जो घास को पुनः उगाना चाहते हैं, शिकारी जो शिकार करना चाहते हैं, किसान जो जंगली सुअरों को अपने खेतों से दूर रखना चाहते हैं और वे जो धूम्रपान करके बीड़ी के जले ठुड्डे चीड़ के सूखे पत्तों पर फेंक देते हैं। लेकिन यह सही कहानी नहीं है, यह तो प्राचीन समय से होता आया है और हमने इस वर्ष जैसी आग कभी नहीं देखी। इसलिये अपराधियों की पहचान करना जरूरी है। जलवायु परिवर्तन कम हिमपात और सर्दी के मौसम में बदलाव भी प्रमुख कारण है। कम हिमपात के कारण जंगल नमी को बनाये रखने में सक्षम नहीं हो पाये और सूखे जंगल आग के प्रति उन्मुख हुये। जलस्रोत धीरे-धीरे घट रहे हैं। हम अपने जल निकायों को बचाने में सफल नहीं हो पाये। हमारे क्षेत्र में जल संरक्षण को परम्परागत तरीके सरल और व्यवहारिक हैं- विभिन्न जल संरचनाओं चाल, खाल और ताल की सहायता से पानी को ऊपर से नीचे बहने से रोका जाता है। सभी पहाड़ी गाँवों, गाँव के ऊपर और गाँव के नीचे इन संरचनाओं का निर्माण किया जाता है। इस वजह से जंगल में नमी बढ़ती है और पूरे वर्ष पर जंगल में वृद्धि होती है। इससे जलस्रोतों, नदी-नालों और अन्य जल निकायों का पुनर्भरण होता है। तब यह बिना एक पैसा व्यय किये सबसे अच्छा फायर ब्रिगेड होगा। यह आग के विरुद्ध ऊपर से नीचे तक जंगलों की सुरक्षा करेगा। यह इस वर्ष वायु सेना के हेलीकॉप्टरों से बेहतर फायर फाइटर होगा।

वनाग्नि संकट से जूझता हिमालय उत्तराखण्ड यह स्पष्ट है कि, वन पंचायतों को वन संसाधनों पर लोगों के अधिकारों को बढ़ाने के लिये तैयार करके वन प्रबंधन का बेहतर उदाहरण प्रस्तुत किया जाये। अब इसका नियंत्रण लोगों से ले लिया गया है। अब वहाँ पर प्रबंधन में नौकरशाही का नियंत्रण बढ़ गया है और इसके परिणाम स्वरूप जंगलों पर स्थानीय स्वशासन के अधिकार कम हो गये हैं। वन विभाग के बढ़ते नियंत्रण के कारण वन पंचायतों की स्थानीय ताकत में सामान्यतः कमी आई है। जिसके कारण कुल स्वायतता का नुकसान हुआ और गाँव के भीतर संघर्ष तेज हुये हैं। इस प्रकार लेने देने के व्यापक सिद्धांत पर आधारित विकेन्द्रीकरण के दृष्टिकोण से सहभागी प्रबंधन आवश्यक है। यदि वन पंचायतों को आग से लड़ने के लिये दिस्मबर माह में बजट आवंटित किया जाता है, तो यह प्रभावी होगा और तब हम लोग ही जंगल की आग पर नियंत्रण पा सकते हैं।

यह एक प्राकृतिक घटना नहीं है


आज हर कोई उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी भीषण आग को स्वाभाविक घटना के रूप में देख रहा है। वास्तव में इस विचार को विभिन्न स्तरों पर चतुराई से स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। दूसरी तरफ स्थानीय लोग इस प्रकार की आग को दुर्लभ श्रेणी की घटना के रूप में देखते हैं। वहीं गत वर्ष की सैकड़ों हेक्टेयर जंगल में लगी आग का स्वाभाविक रूप से एक बड़े क्षेत्र में फैलना निश्चित ही बेहद अजीबों गरीब है। हिमालय में यह धारणा बनी है कि, मौसम में तापमान उस स्तर तक नहीं पहुँचा है जिसके कारण पेड़ और झाड़ियाँ पत्थरों के रगड़ने से आसानी से आग पकड़ सकती है। वर्तमान संदर्भ में हम आश्वस्त है कि ऐसी कोई घटना नहीं हो सकती थी, जबकि फरवरी माह की शुरुआत में हिमालय में सर्दियों के मौसम में भी आग भड़क रही थी।

नाम: इंदिरा राणा, उम्र: 45 वर्ष, ग्राम: भड़कोट, ग्राम पंचायत: ल्वारखा, विकासखंड: डुण्डा, जिला: उत्तरकाशी- इंदिरा राणा ने फरवरी माह में जंगल की आग के प्रारंभिक समय में विमला देवी और कमला देवी की दुखद मौत की घटना के बारे में बताया। वे दोनों सास बहू थी और अपने पशुओं के लिये जंगल से चारा लेने के दौरान आग की चपेट में आकर जलने से उनकी मौत हुई। वे आग की भयावहता को नहीं समझ पाये और चारों तरफ से आग से घिर जाने के कारण बाहर नहीं निकल पाये। त्रासदी यहीं पर खत्म नहीं हुई, शिवदत्त सिंह जो 70 वर्षीय कमला देवी के पति थे अपनी पत्नी और पुत्रवधु की हुई आकस्मिक मौत के सदमें से चल बसे। अब हर सिंह अपने बच्चों के साथ परिवार में अकेला वयस्क बचा हुआ है। सरकार की ओर से पीड़ित परिवार को 4 लाख का मुआवजा मिला है। वह कहती हैं कि हम अपने जंगल के बहुत करीब हैं, परन्तु इस प्रकार की घटना जीवन में पहली बार देखी है। वह यह भी देखती हैं कि चौडी पत्ती वाले वृक्षों के कम होने के कारण गाँवों में पानी का संकट बढ़ रहा है, जो जंगल की आग का कारण भी बन रहा है, यहाँ पर बड़े पैमाने में मानव निर्मित आपदाओं को तैयार किया जा रहा है। चारागाह की भूमि सिकुड़ रही है इस कारण कई पशुओं की मौत हो जा रही है। इस मुद्दे पर बहुत ज्यादा देर नहीं की जा सकती है। कई जन प्रतिनिधि व लोग धारा को बदलने की परवाह नहीं करते हैं।

वह आगे कहती हैं कि इस वर्ष जंगल में चीड़ देवदार का प्रभुत्व आग को बढ़ाने का प्रमुख कारण है। इस मुद्दे से निपटने के लिये वे बांज के महत्व पर जोर देती हैं। उत्तराखण्ड के जंगलों में बांज बहुतायत में पाया जाता रहा है। समय के साथ धीरे-धीरे चीड़ ने अन्य किसी प्रजाति की तुलना में तेजी से फैलना शुरू किया। जब बांज के पेड़ जंगल में बहुतायत में होते हैं, तो वे कई प्रकार से उपयोगी होते हैं। इतना ही नहीं बांज के पेड़ के चारों ओर अन्य वानस्पतिक प्रजातियाँ भी उगने लग जाती हैं, लेकिन ये कई अलग मायनों में मिट्टी के लिये बहुत उपयोगी होते हैं। बांज के पत्ते जमीन पर गिरने के बाद जल्दी ही खाद में बदल कर जमीन की सतह में मिल जाते हैं। इसका मतलब यह है कि बांज के आस-पास की जमीन हमेशा ही उपजाऊ होती है। बांज की जड़ें मिट्टी को सुरक्षित ढंग से पकड़े रखती हैं। इसके विपरीत चीड़ के एक मुश्किल प्रजाति है, जो बहुत तेजी से फैलता है और वास्तव में यह उस क्षेत्र को पूरा खत्म कर देता है जहाँ पर उगता है। सूई की तरह के पत्ते जंगल में नमी को बनाये नहीं रख सकते हैं। चीड़ की पत्तियाँ अम्लीय होती हैं और जब सूखकर जमीन पर गिरती हैं तो अन्य किसी वनस्पति को उगने नहीं देती हैं। दूसरे शब्दों में चीड़ का वृक्ष स्थानीय पारिस्थितिकी को सहयोग नहीं करता है।

वनवासी स्वयं के जंगलों में आग नहीं लगा सकते


कई लोग यह दावा करते हैं कि, स्थानीय लोगों में नई बारिश के बाद पौष्टिक घास को उगाने के लिये जंगल में आग लगाने की परम्परा है। दो सामान्य तथ्यों के आधार पर वर्तमान संदर्भ में यह धारणा नई नहीं है, पहला तथ्य यह है कि इतनी व्यापकता में आग लगने के लिये यह उपयुक्त समय नहीं है, सामान्य से सामान्य ग्रामीण भी यह जानता है कि इस प्रकार की आग मई के अंत और जून में लगाई जाती है ताकि इसके बाद होने वाली बारिश से घास की नई कोपलें उग आयें। शुष्क मौसम की शुरुआत में ही फरवरी माह में आग लगने की घटनायें शुरू हुईं, जो कि जून माह की बारिश से पहले ही हरी घास के सूखने और मृत होने का कारण बनी। दूसरा तथ्य यह है कि इस प्रकार की आग घास वाली पहाड़ियों पर लगाई जाती है, न कि जंगल में। अब उत्तराखण्ड में जंगलों को वर्षों तक जलाने के लिये तैयार किया जा रहा है। यह चरवाहों के लिये फायदेमंद नहीं है, क्योंकि जंगल में हरी घास ही नहीं होगी। कुछ लोगों के द्वारा यह भी स्थापित करने के प्रयास किये गये हैं कि रास्तों को फिसलन से बचाने और हरी घास के ऊपर से चीड़ की पत्तियों को हटाने के लिये ग्रामीणों द्वारा आग लगाई जाती है। लोगों के द्वारा इस धारणा का पूरी तरह से खंडन किया गया कि वे सर्दियों में ईंधन के लिये इसका उपयोग करते हैं और अब वे वन विभाग के उत्पीड़न के बाद इसको जंगल से ले जाने में सक्षम भी नहीं हैं।

कौन अपराधी है और किसे दोष दें


अब एक बड़ी बहस चल रही है कि जंगल में आग कौन लगाता है? यह देखा गया है कि हर कोई इस आपराधिक कृत्य को मान्यता देने की तलाश में है, विशेषकर तब, जब इस पूरी प्रक्रिया में मानव जिंदगी खत्म हुई हों और बड़े स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान हुआ हो। लोगों का कहना है कि वन क्षेत्र में छोटे से हस्तक्षेप के लिये उन्हें वन विभाग द्वारा कठोर दण्ड दिया जाता है। वन से कोई भी उत्पादन लेने पर धमकाया जाता है और मृत पेड़ भी बिना वन सुरक्षा कर्मियों को रिश्वत दिये बिना नहीं मिल पाता है। इस मामले में जो लोग जंगल में आगजनी और आग लगाने के लिये जिम्मेदार होते हैं उनके कृत्य को आपराधिक नहीं माना जाता है। जब तक भारत के कानून में ये धारायें रहेंगी, यह एक आपराधिक कृत्य है, जो प्रतिबद्धता के बावजूद हमारे जंगलों को जलता और नदियों को सूखते हुये देख रहे हैं।

वन के संरक्षण में समुदाय को अलग-थलग किया गया


वनाग्नि संकट से जूझता हिमालय उत्तराखण्ड वन समुदाय के पारिस्थितिकी और आजीविका के प्रमुख संसाधन हैं। मानव सभ्यता की शुरुआत से ही समुदायों के द्वारा वनों के संरक्षण और संवर्द्धन के कार्य किये गये। हालाँकि वनों को राजस्व उगाही के नाम पर लूटा और नष्ट किया गया। समुदाय को धीरे-धीरे वनों से विमुख किया गया। विकास गतिविधियों और जनसंख्या वृद्धि के कारण से जंगलों पर तेजी से दबाव बढ़ा है। जंगलों का प्रबंधन वन विभाग द्वारा किया जाने लगा और लोगों को नियोजन की प्रक्रिया से पूरी तरह किनारे कर दिया गया। यह पूरे भारतवर्ष में हुआ और हिमालय के जंगलों को लूटा जाने लगा। तत्कालीन राजा के शासनकाल में उत्तराखण्ड के टिहरी रियासत क्षेत्र में लोगों की वनों में भागीदारी रही है। हालाँकि आजाद भारत में रियासत के विलय के बाद लोगों का जंगलों से जुड़ाव धीरे-धीरे कम होने लगा है। जंगलों का संरक्षण उनका कार्य अब उनका कार्य नहीं रहा, इसके परिणाम स्वरूप बाद में जंगलों को भीषण आग का सामना करना पड़ रहा है। स्थानीय लोगों को सामाजिक आर्थिक पहचान देने के लिये वनाधिकारियों के द्वारा सामाजिक वानिकी की योजना बनाई गई। सामाजिक वानिकी नीति का प्रारंभिक चरण 1970 से 1980 के दशक में रहा है। इस नीति की प्राथमिकता प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों की निर्भरता को कम करने पर केन्द्रित था। उदाहरणार्थ, निजी भूमि पर वुडलॉट बनाने के लिये स्थानीय व्यक्तियों को पौधे उपलब्ध करवाने के कार्यक्रमों को विकसित किया गया था, जलाऊ लकड़ी के उपयोग को कम करने के लिये वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को स्थापित करने से गाँव के बुनियादी ढाँचे को विकसित करने और जंगल के बाहर रोजगार उपलब्ध कराने में सहायक हुये। इन क्रियाओं ने लोगों को जंगल के बारे में निर्णय लेने की भूमिका से बाहर किया। भारत की वन नीतियाँ हमेशा ही वाणिज्यिक वानिकी के अनुकूल बनाई गई हैं, जो जंगलों में स्थानीय ग्रामीणों की पहुँच निषिद्ध करता है। परिणामस्वरूप बड़े स्तर पर तेजी से वनों में गिरावट आई। जिससे ऊपर से नीचे तक वन संसाधन प्रबंधन नीतियों की विफलता उजागर हुई। वन विभाग और स्थानीय वन उपयोगकर्ताओं अर्थात ग्रामीणों के मध्य संघर्ष पैदा हुआ। संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) से 60 वर्ष पहले से ही उत्तराखण्ड में विकेन्द्रित वन प्रबंधन का अभ्यास किया गया था। यह स्वयं की पहल से गठित वन संरक्षण समूह ‘‘वन पंचायत’’ हैं, जो वन पंचायत नियमावली के द्वारा अभिशासित होते हैं, वन पंचायत नियमावली सर्वप्रथम 1931 में प्रकाशित हुई तथा बाद में तदनुसार 1976, 2001 व 2005 में संशोधित की गई, राज्य के राजस्व विभाग के अंतर्गत उप जिलाधिकारी की स्वीकृति के पश्चात वन पंचायतों का गठन होता है जिसमें सभी ग्रामीण सदस्य होते हैं। सभी ग्रामीण वन पंचायत की सामान्य सभा में सम्मिलित लोक तांत्रिक प्रक्रिया से कार्यकारी समिति का चुनाव करते हैं। वन पंचायतें अब सिर्फ कागजों पर ही संचालित होती हैं। वन पंचायतों की क्रियाशीलता में तेजी से गिरावट आई। अब इनको पूरी तरह से वन विभाग के द्वारा संचालित किया जा रहा है, जंगल की आग से निपटने और अन्य संरक्षण गतिविधियों के लिये वन पंचायतों को कोई बजट भी आवंटित नहीं किया जाता है।

राजस्व विभाग व वन विभाग का इन पर बढ़ता नियंत्रण और कमजोर समर्थन प्रणाली भी वन पंचायतों की अवनति के सम्बन्ध में अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू है। वन पंचायतें, वन संसाधनों पर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिये संघर्ष व कठिनाइयों का सामना कर रही हैं। इसके अलावा, लोक संगठनों पर वन विभाग के बढ़ते नियंत्रण और जमीनी स्तर पर स्वायत्तता की क्षति ने प्रबंधन समिति के भीतर के संघर्ष को बढ़ावा दिया है।

नाम: सुभाष जोशी, उम्र: 45 वर्ष, पिथौरागढ़- वर्ष 2015 में भीषण दावाग्नि लगने से बैकोट तोक की 6 हेक्टेयर भूमि में लगे वृक्ष आग में जलकर नष्ट हो गये साथ ही ग्राम वासियों के घास के लुट्टे भी आग में जलकर राख हो गये। आग को बुझाने में कई लोगों को पत्थर खिसकने से भयंकर चोटें भी आयी। इस अग्नि से 15 परिवार बुरी तरह से प्रभावित हो गये श्रीमती कौशल्या देवी जिनका परिवार 2013 की प्राकृतिक आपदा से प्रभावित था जिनका आजीविका का साधन आटा चक्की थी। वह आपदा आने से बह गई कौशल्या देवी का परिवार आपदा से उभर भी नहीं पाया था कि आग बुझाने में इतना झुलस गयी कि उन्हें तुरंत पिथौरागढ़/हल्द्वानी इलाज के लिये जाना पड़ा साथ ही पत्थर गिरने से लगी चोट से एक आँख से भी कम देखने लगी हैं। वनाग्नि से लुमती गाँव के कई परिवारों के घास के लुट्टे जलकर राख हो गये जिससे लोगों का आर्थिक व मानसिक नुकसान हुआ। वनाग्नि से अन्य गाँव लौल, बरम तथा पूरा जाराजिबली गाँव प्रभावित रहे। वनाग्नि से ग्राम वासियों की गेहूँ की फसल जलकर नष्ट हो गयी।

बदलते हुये मौसम ने जंगल की आग को बढ़ावा दिया


गत वर्ष उत्तराखण्ड में बिगड़ती जलवायु स्थितियों ने मानव जनित कारणों से वनों को गंभीर क्षति पहुँचाई है। कई लोगों द्वारा कहा गया है कि उत्तराखण्ड में वनों की कटाई, बढ़ते तापमान, पानी की कमी और कम हिमपात के कारण उत्तराखण्ड के जंगलों में आग भड़की है। देश के प्रमुख जंगलों में फरवरी से जून माह तक वनाग्नि सीजन रहता है। उच्च तापमान और वायुमंडलीय सूखापन इस वर्ष की आग को बढ़ाने के प्रमुख कारण रहे हैं। उच्च वायुमंडलीय तापमान और सूखेपन ने जंगल की आग को बड़े परिमाण में फैलाने के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ बनाई। कई जंगलों में पारिस्थितिकी तंत्र है जो शुष्क मौसम के दौरान और बाद में ईंधन की नमी और सतह की कम नमी को और कम कर सकते हैं, आग को अधिक सरलता से मानव नियंत्रण से बचाते हैं और परिवेश में तेजी से आग फैलाते हैं, ईंधन की नमी की कमी आग को और अधिक प्रचंड कर देती है और इससे ज्यादा ईंधन की खपत की गुंजाइश आग की परिधि के अंदर ज्यादा पेड़ों को समाप्त करती है। गत वर्ष 2015-2016 में उत्तराखण्ड में वार्षिक वर्षा सामान्य 1581 मिमी की तुलना में कम 1246 मिमी ही बारिश हुई। जलवायु परिवर्तन सतह में हवा के तापमान में क्रमिक लेकिन तीव्र वृद्धि की प्रवृत्ति को पैदा कर रहा है। इसने कई क्षेत्रों में चरम सीमाओं का रिकार्ड तोड़ा है और जब यह कम वर्षा के साथ सामान्य आवधिक ऊष्णता के साथ जुड़ता है। गर्म तापमान के रूप में वाष्प दबाव घटा के आग के लिये एक महत्त्वपूर्ण जलवायु परिवर्तक है और नमी में कमी के कारण वाष्प दबाव बढ़ जाता है, जो ईंधन को तेजी से सुखाता है और आग तेजी से भड़कती है। वर्ष 2015 में ताप लहर की स्थिति भारत के विभिन्न भागों में गंभीर और व्यापक स्तर पर देखी गई। उत्तराखण्ड और इससे जुड़े भारत के मध्य व पूर्वी क्षेत्रों में जून माह के दूसरे सप्ताह में ताप लहर अपने चरम पर थी। उत्तराखण्ड में मानसून और मानसून से पहले बहुत कम बरसात हुई। वनाग्नि के एक दृष्टिकोण से, एलनीनो और जलवायु ताप के मध्य परस्पर क्रिया आग के व्यवहार के नई सीमाओं को बना सकता है, जो कम वर्षा और उच्च तापमान से प्रेरित होता है।

मानव और जानवरों के संघर्ष से शिकारियों को लाभ


लेकिन क्या कभी लोगों और पर्यावरणविदों का ध्यान इस तथ्य की ओर जायेगा कि जंगल की आग अक्सर वन्यजीवों के स्थान को कम कर देता है जो मानव और जानवरों के बीच संघर्ष पैदा करता है जहाँ पर स्थानीय ग्रामीण निवास करते हैं। उत्तराखण्ड में जहाँ पर रिजर्व वनों यहाँ तक कि सिविल सोयम के जंगलों में भी वन्य जीवों की प्रचूरता है वहाँ बाघ, हाथी और हिरण सहित अन्य जीवों के साथ मानव-जानवर संघर्ष की खबरें आ रही हैं। पर्यावरणविदों और लोगों में जंगल की आग के प्रति बहुत संदेह है, कि शिकार के उद्देश्य से वन आवरण हटाने के लिये जंगल को आग में झोका जाता है और किसानों पर आरोप लगाया जाता है कि वे मानव बस्तियों को बढ़ाने के लिये आग लगाते हैं और जंगली जानवरों के साथ उनकी प्रतिद्वंदिता है। हिमालय की तलहटी में एक बड़ा क्षेत्र है जो तराई के नाम से जाना जाता है, बाहर से आये किसानों ने जंगल भूमि पर अतिक्रमण किया और जमीन पर कब्जे का विस्तार कर रहे हैं। हजारों फार्म हाउसों के कारण बड़ी भूमि पथ पहले अक्सर सटा हुआ जंगल का मध्यवर्ती भाग होता था। बाघ, हाथी, जंगली सुअरों और तेंदुओं का मानव से सीधे-सीधे संघर्ष के कई मामलों की यहाँ पर संख्या बढ़ी है। पर्यावरणविद और वन विभाग के अधिकारी इस बात से इनकार नहीं करते कि उत्तराखण्ड में बारम्बार जंगलों में आग की घटनायें जंगली-जानवरों के शिकार से जुड़ी हुई हो सकता है।

वन विभाग में तकनीकी कठिनाइयाँ


जंगलों में फायर लाइनों को बनाने की प्रक्रिया में भ्रम की स्थिति है। प्रत्येक वर्ष गर्मियों की शुरुआत में फायर लाइनों की सफाई की जानी चाहिये। जंगल में नियंत्रित आग वनाग्नि की बड़ी घटनाओं की संभावना को कम करती है। हालाँकि तथ्य यह है कि अक्सर वित्त वर्ष के अंतिम समय में धनराशि के जारी होने के कारण जमीनी स्तर पर उचित समय पर कार्रवाई नहीं हो पाती है। तब स्थानीय स्तर पर वन कर्मचारियों को फायर सीजन शुरू होने से पहले गतिविधियों को क्रियान्वित कराने के लिये श्रमिक जुटाना बेहद मुश्किल हो जाता है। फील्ड स्टाफ इस बात को महसूस करता है, कि जंगल को आग से बचाने के लिये ग्रामीणों के स्वयंसेवी प्रयासों की रुचि कम हुई, जबसे लोगों का वन संसाधनों पर अधिकार नहीं रहा और वन विभाग अधिकारियों के द्वारा उन्हें हत्सोसाहित किया जाता है। नीतियों ने राज्य के वन प्रबंधन में भागीदारी से लोगों को अलग किया है। कुछ जंगलों को जला दिया जाता है क्योंकि वहाँ पर वन विभाग और समुदायों के मध्य सामुदायिक अधिकारों का संघर्ष चल रहा है, या जब समुदाय के संकट के समय वन विभाग अनुपयोगी पाया जाता है। नियंत्रित आग के साथ समस्या यह है कि यह असंगठित होती है या इसको क्रियान्वित नहीं किया जाता है। यह प्रक्रिया सभी प्रकार के वनों के लिये विकसित नहीं की गई है और इसको सामान्य चलाऊ ढंग से लिया जाता है। लंबे समय का शुष्क मौसम और कम अवधि कम बारिश और हिमपात के कारण स्थितियाँ और अधिक बिगड़ जाती हैं। हाल के दिनों में देखा गया है कि फरवरी माह में ही आग भड़क जाती है, जबकि पहले आग लगने की घटना मई की शुरुआत के बाद घटित होती थी।

जंगल में बढ़ती आग से निवारण हेतु संस्तुतियां


जंगल में बढ़ती आग की घटनाओं ने पारिस्थितिकी तंत्र के लिये जोखिम पैदा किया है। जिसकी वजह से जंगल की जैव विविधता के लिये खतरे बढ़ रहे हैं। सर्दियों में कम बरसात और सूखे जैसे हालातों के कारण न्यूनतम तापमान में बढ़ोत्तरी से जलवायु में गर्मी बढ़ रही है और वन पारिस्थितिकी तंत्र पर ज्यादा दबाव पड़ रहा है। इसके अलावा, कई जंगलों में वनाग्नि की तीव्रता से जैव विविधता और वैकल्पिक संसाधनों के लिये गंभीर खतरा बनी है। समाज की भागीदारी और प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों के स्वामित्व के साथ रणनीति बनाकर जंगल की आग पर काबू करने के लिये प्रबंधन व्यवस्था बनाई जा सकती है। हालाँकि यह देखा गया कि छः माह तक उत्तराखंड के जंगलों में भभक रही आग से होने वाले नुकसान के प्रति राज्य और केन्द्र के अधिकारियों की नींद जब खुली, तब तक काफी देर हो चुकी थी। उत्तराखंड के छह जिलों में वनाग्नि की कई घटनाओं और वनस्पतियों और जीवों के नष्ट होने के बाद ही जंगल की आग के मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ। इसीलिये आग नियंत्रण रणनीति में इलाज़ के बजाय रोकथाम पर जोर दिया जाना चाहिये। जैव विविधता, वन सम्पदा, सम्पत्ति और जीवन के नुकसान के बाद इलाज का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।

राज्य का सम्पूर्ण वन क्षेत्र वन विभाग के अधीन है। वनक्षेत्र में होने वाली सभी गतिविधियों पर नियंत्रण का व्यवस्थित तंत्र और अधिकार वन विभाग के पास ही है। जिस वन क्षेत्र में आग लगी है, उस वन क्षेत्र के लिये जिम्मेदार वनाधिकारियों के ऊपर जिम्मेदारी तय हो और उन पर कार्यवाही की जाये।

हर वर्ष आग लगने की घटनाओं से अनमोल वन सम्पदा की हानि होती है। यह मात्र वन सम्पदा का ही नुकसान नहीं है अपितु पूरे पारिस्थितिकी तंत्र, जीवन को प्रभावित करने वाला है। वनाग्नि पर समझ तैयार करने और इसे रोकने के लिये समग्र जाँच और अध्ययन की आवश्यकता है। इतने बड़े वन क्षेत्र में आग लगने के कारणों की सघन जाँच की जाये। इसके लिये एक विशेष जाँच दल का गठन करके जिसमें विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, नागरिक समाज और समुदाय की भागीदारी हो।

सरकार के स्तर पर विभागीय रिपोर्ट तैयार की जाती है। यह सरकार की जिम्मेदारी है, कि यदि कोई अध्ययन इस सम्बंध में सरकार के द्वारा किया गया है, तो उसे सार्वजनिक किया जाये। वनाग्नि पर सरकार श्वेत पत्र जारी करे।

वनाधिकार कानून के लागू होते समय यह माना गया था कि यह जन हितकारी कानून है जो आदिवासियों व वनवासियों के हितों को सुरक्षित करेगा। इस कानून को क्रियान्वित करने में अधिकतर सरकारों ने उदासीनता दिखाई है। वनाधिकार कानून के अंतर्गत प्रत्येक ग्राम स्तर पर वन अधिकार समितियों का गठन एवं उन्हें सशक्त करने की प्रक्रिया शुरू एवं तेज की जाये।

व्यापक स्तर पर वनाग्नि की घटनाओं एवं वन सम्पदा के नुकसान होने पर भी कोई कार्यवाही इसके लिये जिम्मेदार व्यक्तियों पर न होने से वनाग्नि को आने वाले समय में रोकना कठिन होगा। न्यायालय एवं ग्रीन ट्रीब्यूनल के माध्यम से वनाग्नि की घटनाओं की विस्तृत जाँच करवाई जाये।

युवाओं का रुझान प्रकृति और पर्यावरण के प्रति बढ़ाने के प्रयासों को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है। वन क्षति का आकलन करने के लिये विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शोध व अध्ययन की प्रक्रिया को प्रारंभ करने के लिये माहौल तैयार किया जाये।

छात्रों में वनाग्नि को रोकने की रुचि बढ़ाने और भविष्य में वनाग्नि को रोकने में युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये वनाग्नि के प्रबन्धन और रोकथाम के विषय को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाये।

विद्यालयों और कॉलेजों में सक्रिय और प्रभावी संसाधन के रूप में एन.सी.सी., एन.एस.एस. एवं स्काउट व गाइड बेहतर समूह हैं। वनाग्नि प्रबंधन में एन.सी.सी., एन.एस.एस. एवं स्काउट को भी शामिल किया जाये।

वनाग्नि से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिये कोई व्यवस्था सक्रिय नहीं है। इंश्योरेन्स ट्रिब्यूनल को सक्रिय करके प्रभावित परिवारों को वनाग्नि से होने वाले नुकसान का मुआवजा दिया जाये।

राज्य के पर्वतीय वनवासी समुदाय के प्रयासों एवं संघर्षों के परिणाम स्वरूप देश का यह भूभाग हरियाली से भरापूरा है। पर्वतीय समाज के कठोर जीवन के कारण ही राज्य को ग्रीन बोनस मिल रहा है। ग्रीन बोनस से मिलने वाली धनराशि पर ग्राम समुदाय का अधिकार एवं स्वामित्व तय किया जाये।

उत्तराखंड राज्य में आपदा की घटनाओं की निरंतर पुनरावृत्ति होती रही है। सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता कई बार पात्र तक नहीं पहुँच पाती है। पात्र व्यक्तियों को उचित और समय पर सहायता मिल पाये इसके लिये रिलीफ कोर्ट का गठन एवं सक्रिय करण किया जाये।

प्रति वर्ष वृहद स्तर पर नुकसान होने के बावजूद वनाग्नि को प्राकृतिक आपदा नहीं माना गया है। इस वजह से भी वनाग्नि को रोकने के समुचित प्रयास नहीं हो पाते हैं। वनाग्नि की घटनाओं को गंभीरता से लेने के लिये आवश्यक है कि वनाग्नि को भी प्राकृतिक एवं राष्ट्रीय आपदा के रूप में सरकार मान्यता दे ताकि उसको रोकने, बुझाने और प्रबन्धन की विभिनन तकनीकों का प्रशिक्षण और संसाधनों की उपलब्धता हो सके।

सरकार के द्वारा योजनाओं का नियोजन व क्रियान्वयन समग्रता में किया जाना चाहिये, जिसमें वनाग्नि जैसी आपदाओं को रोकने व प्रबन्धन के लिये समुचित प्रावधान किये गये हों।

जब तक जनता को वनों में उसके सामाजिक सांस्कृतिक और जीवन शैली सम्बन्धी अधिकार नहीं मिलते, वनों की सुरक्षा, संवर्धन एवं वन-विभाग से सहयोग करने में उनकी रुचि भी नहीं बढ़ाई जा सकती है। अतः वन सम्बन्धी जनता से जुड़े कई वर्तमान कानूनों को जनाभिमुख बनाने के लिये परिवर्तित करना होगा। वनों से सम्बन्धित जनता के हक-हकूक जो कम कर दिये गये हैं, उन्हें जनसंख्या के आधार पर पुनः बहाल किया जाए।

वनाग्नि को तेजी से बढ़ाने में चीड़ की पत्तियों पिरूल का अहम योगदान होता है। पिरूल का वैकल्पिक उपयोग करके आग बढ़ने की सम्भावना को कम किया जा सकता है। पिरूल से विद्युत उत्पादन के संयंत्र की व्यवहारिकता को अध्ययन करके परखा जाये और उत्तराखंड में कई संभावित स्थानों में उसे लगाने का अभिक्रम सरकार करे। पिरूल के चेक डैम बनाने का अभिनव प्रयोग भी विभिन्न स्थानों पर हुआ है। इस प्रकार के प्रयोगों को सरकार के स्तर पर प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है।

गाँवों में वन सुरक्षा समितियाँ पंचायतों के अंतर्गत गठित हों और उनके कार्यों का स्पष्ट निर्धारण किया जाये। ये समितियाँ गाँव में ऐसे नियम बनवायें कि गाँव के कार्य-कलापों जैसे खेतों में कचरा, पिरूल या कांटे जलाने से आग न फैले, जब तक वह आग बुझ न जाए व्यक्ति उसे छोड़कर ना जाए। गाँवों से जड़े वन पंचायत के वनों अथवा आरक्षित वनों में खेल-खेल में कोई आग जलाने का प्रयास न करे। यदि ऐसी गलतियाँ की जायेंगी तो ये समितियाँ उनलोगों को ग्राम सभा द्वारा निर्धारित दण्ड भी दे सकेंगी। जंगल में कहीं भी आग लगी दिखाई दे, तो वन विभाग के स्थानीय कर्मचारियों को सूचित करें और स्वयं भी ग्रामजनों को साथ लेकर आग बुझाने जायें। इन समितियों को वन विभाग आग बुझाने के संसाधन फायर बीटर आदि प्रदान करे और वन कर्मचारियों व समितियों को अधिकारियों के फोन नम्बर भी उपलब्ध कराये जायें।


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