उत्तराखंड जंगल की आग : कई सवाल कई आरोप

4 Aug 2012
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उत्तराखंड के जंगलों में आग कुदरत की बजाय इंसानी हरकतें ज्यादा है। पिछले दस सालों में हर साल औसतन तीन हजार हेक्टेयर वन जले हैं। उत्तराखंड में जंगलों का बदस्तूर जलना कई तरह के संकटों को निमंत्रण देना है। जंगलों के जलने से उपजाऊ मिट्टी का कटाव तेजी से होता है। साथ ही जल संभरण का काम भी प्रभावित होता है। वन विभाग के मनमानेपन ने आम लोगों को उनके हक हकूकों से दूर करके इस संकट को और बढ़ा लिया है। वनाग्नि का बढ़ता संकट जंगली जानवरों के लिए अस्तित्व पर सवाल बन पड़ा है। वनाग्नि सरकारी तंत्र का सारी कमियां छिपा लेती हैं और जंगल की सभी अनमोल खूबियां लील जाती है बता रहे हैं मनोज रावत।

उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग से शावकों को आग में जलता देख उनकी असहाय मां दहाड़ती रही। लेकिन समय रहते कुछ नहीं हो पाया। जिस इलाके में आग लगी वह कार्बेट रिजर्व पार्क के भी बेहद नजदीक है। बाघ शावकों के अलावा भी उस आग में कई ऐसी प्रजातियों के निरीह जानवर और उनके बच्चे भी भस्म हुए होंगे जिनकी कातर पुकार, दहाड़ बन कर मनुष्य के कानों तक नहीं पहुंच सकती। आग में जलने वाले पेड़ों, घोंसलों में खाक हो गए पक्षियों के अंडों और अजगर जैसे सुस्त सरीसृपों की तो जुबान ही नहीं होती।

आग की चपेट में आकर बाघ के चार बच्चों की मौत के बाद उत्तराखंड में जंगलों में हर साल लगने वाली आग एक बार फिर सुर्खियों में है। यह दर्दनाक घटना नैनीताल और उधमसिंहनगर जिले की सीमा पर सेना के गौशाला क्षेत्र में हुई थी। इतिहास टटोलें तो पता चलता है कि हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के जंगल धू-धू कर जलते रहे हैं। लोग इस आग की चपेट में आकर जान गंवाते हैं और वन्य संपदा के लिए भी यह भयानक नुकसान का सबब बनती है। इतिहास से सबक लेने की बात कही जाती है, लेकिन आज भी स्थिति यह है कि यहां मार्च से लेकर जून के आखिरी हफ्ते तक का समय, जिसे वनाग्नि काल भी कहा जाता है, आग लगने के कारणों, बुझाने के उपायों और जिम्मेदारी तय करने के आरोप-प्रत्यारोपों में बीत जाता है। राज्य की राजधानी देहरादून में देश का वन अनुसंधान संस्थान है। इसके बावजूद वन विभाग के पास वनों में लगने वाली आग से संबंधित सवालों के न तो तर्कसम्मत जवाब हैं और न ही वनाग्नि की रोकथाम की कोई ठोस कार्ययोजना। पेशेवर तरीकों से आग से निपटना तो दूर की बात है, विभाग उपलब्ध सूचनाओं का भी फायदा नहीं ले पा रहा। नतीजा यह होता है कि हर साल जंगलों की आग तभी शांत होती है जब उत्तराखंड में मानसून पूर्व बरसात की फुहार पड़ती है। उत्तराखंड के 65 फीसदी हिस्से में वन हैं। हर साल राज्य में हजारों हेक्टेयर जंगल राख होता है। कुछ समय पहले विधानसभा में एक सवाल के जवाब में वन विभाग ने बताया कि इस साल छह जून तक वनाग्नि की 1,086 घटनाएं दर्ज की गई हैं जिनमें 2,542 हेक्टेयर वन क्षेत्र जल कर खाक हो गया है।

इस पूरे मसले की विस्तार से पड़ताल की जाए तो इसकी जड़ में उपेक्षा नजर आती है। अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा और अपने समाज को समझने की जरूरत की उपेक्षा भी। गौशाला क्षेत्र की घटना के बारे में तराई-पश्चिमी वन प्रभाग में तैनात वनाधिकारी निशांत वर्मा बताते हैं, ‘पांच जून की शाम सेना के चरागाह और वन क्षेत्र में आग लगी थी जिसकी सूचना सेना ने वन-विभाग को छह जून की सुबह दी।’ लेकिन तथ्यों को टटोला जाए तो सूचना सही समय पर न मिलने की बात सच नहीं लगती। देहरादून में ही स्थित फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने देश भर में लगने वाली आग की सूचना पहुंचाने के लिए सैटेलाइट आधारित सूचना देने की एक प्रणाली विकसित की है। इसकी मदद से जंगल में कहीं भी आग लगने के चार घंटे के भीतर अपने आप ही उस इलाके में तैनात डीएफओ के मोबाइल पर इसकी सूचना आ जाती है। यानी उस क्षेत्र में आग लगने की खबर वन विभाग को निश्चित रूप से रात में ही मिल गई होगी। लेकिन उस सूचना को भी आम आग लगने की सूचना मान कर वन विभाग ने भी बचाव कार्रवाही करना उचित नहीं समझा होगा। नतीजा बाघ के चार शावकों की मौत के रूप में सामने आया। अब तक आधा दर्जन इंसानी जिंदगियां भी इस आग की भेंट चढ़ गई हैं। आग लगने की सूचना पाने और उसके बचाव के लिए नवीनतम तकनीकों को अपनाने में मध्य प्रदेश अन्य राज्यों की तुलना में अभी बहुत पीछे है। राज्य के ही एक वनाधिकारी बताते हैं कि मध्यप्रदेश के वन विभाग ने अपनी स्वतः सूचना प्रणाली विकसित की है। इस प्रणाली से सैटेलाइट के जरिए आग की सूचना फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के साथ-साथ वन विभाग के पास पहुंचती है। जिससे फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया में जानकारी के विश्लेषण में लगने वाला चार घंटे का समय बर्बाद नहीं होता।

उत्तराखंड में वन क्षेत्र के 30 फीसदी हिस्से में आग बुझाने की कोई व्यवस्था नहीं है। इन्हीं क्षेत्रों से आग शुरू होती है और बिना अंकुश के विकराल हो जाती है

वन विभाग पर यह भी आरोप लगता है कि वह आग में झुलस गए वन का क्षेत्रफल और उससे होने वाली हानि भी कम करके दिखाता है। विभाग के अनुसार पिछले दस साल में हर साल औसतन 3,000 हेक्टेयर वन जले हैं। सामाजिक कार्यकर्ता मनोज जग्गी कहते हैं, ‘कई बार इससे अधिक क्षेत्रफल तो एक वन रेंज में ही जल जाता है। इस साल रुद्रप्रयाग वन प्रभाग के अधिकांश वन क्षेत्र में आग लगी है। विभाग खुद ही कहता है कि एक लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले इस वन प्रभाग के 14000 हेक्टेयर में अकेले चीड़ के जंगल हैं। जो पूरे जल गए हैं। फिर वह किस आधार पर कह रहा है कि यहां सिर्फ 94 हेक्टेयर जंगल जला है?' ‘तहलका’ से बातचीत में वन विभाग के लगभग सभी अधिकारियों ने माना कि ज्यादातर मामलों में आग का लेना-देना कुदरत के बजाय इंसानों से होता है। उनके मुताबिक ग्रामीण लोग विभिन्न कारणों से अपने खेतों या पास के वनों में आग लगाते हैं। उधर, ग्रामीण वन विभाग पर आरोप लगाते हैं कि हर साल होने वाले फर्जी वृक्षारोपणों की असफलता को छिपाने के लिए वनकर्मी खुद भी जंगलों में आग लगाते हैं।

उत्तराखंड में कुल वन क्षेत्र का 70 फीसदी रिजर्व वन क्षेत्र ही वन विभाग के अधिकार और नियंत्रण में है। बाकी बचे 30 फीसदी वन सिविल फॉरेस्ट के रूप में हैं। ये राजस्व विभाग या वन पंचायतों के रूप में ग्राम-पंचायत के अधिकार में हैं या फिर सेना की तरह विभागों या व्यक्तिगत नियंत्रण में। वन विभाग के पास तो आग लगने की सूचना के आदान-प्रदान और फिर उसे बुझाने के लिए फिर भी एक व्यवस्था है लेकिन 30 फीसदी हिस्से के वनों में आग बुझाने का कोई प्रबंधन नहीं है। आग की शुरुआत खेतों या गांव के पास के सिविल या वन पंचायत वन क्षेत्रों से होती है। यदि शुरुआत ही में आग पर नियंत्रण हो जाए तो वह अधिक नहीं फैलेगी। लेकिन वन विभाग के उलट राजस्व विभाग और वन पंचायतों के पास आग लगने की सूचनाओं और उसे बुझाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा वन विभाग, राजस्व विभाग और वन पंचायतों के बीच शासन से लेकर ग्राम स्तर तक आग पर काबू पाने के लिए समन्वय की कोई व्यवस्था नहीं है। एक वनाधिकारी कहते हैं, ‘यह तो ऐसा ही है जैसे शरीर के एक अंग को दूसरे के जलने की खबर ही न हो।’

उत्तराखंड में 40,000 हेक्टेयर भूमि पर अकेले चीड़ के जंगल हैं। मार्च से लेकर जून तक चीड़ के पेड़ से उसकी नुकीली गुच्छेदार पत्तियां (पिरुल) गिरती हैं। भारतीय वन संस्थान के अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले चीड़ के जंगल से साल भर में छह टन तक पिरुल गिरता है। उत्तराखंड में अधिकांश सड़कें जंगलों से गुजरती हैं। 5,000 फुट से कम ऊंचाई के अधिकांश क्षेत्रों में ये जंगल चीड़ प्रजाति के पेड़ों के हैं। कुमायूं के वन संरक्षक रहे रसायली बताते हैं, ‘सड़कों पर गिरे पिरुल पर गाड़ियों के चलने से सड़क के किनारे पिरुल का बुरादा जमा हो जाता है। चीड़ जैसे पेड़ों की पत्तियों में काफी मात्रा में ज्वलनशील तेल होना। चिनगारी पड़ने पर सड़क किनारे जमा हुआ चीड़ का यह बुरादा आग को बारूद की तरह भड़काता है। चिनगारी का कारण बीड़ी-सिगरेट का अनजाने में फेंके गए टुकड़े की हल्की तपिश या गाड़ियों के बैक-फायर की चिंगारी हो सकता है। चीड़ के शंक्वाकार फल तो आग फैलाने में सबसे अधिक मददगार होते हैं। ऊंचाई से जलता हुआ चीड़ का फल कई किलोमीटर नीचे तक जलती स्थिति में आकर जंगल में आग फैला सकता है। 'गढ़वाल विश्वविद्यालय के औद्यानिकी विभाग के वैज्ञानिक डा. जगमोहन सिंह बताते हैं कि चीड़ के जंगलों में मिश्रित वनों की तुलना में बहुत कम नमी होती है इसलिए भी इन जंगलों में आग जल्दी लगती व तेजी से फैलती है।

हालांकि सरकार अब इस मोर्चे पर कुछ चुस्त दिख रही है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं, ‘हमने पिरुल से ईंधन या बिजली बनाने के लिए प्रस्ताव मंगाए हैं और छह कंपनियों ने इस काम में दिलचस्पी दिखाई है। इस योजना के तहत ग्रामीण जो पिरुल इकट्ठा करेंगे उन्हें प्रति किलो एक रुपये के हिसाब से भुगतान किया जाएगा। सरकार भी एक पैसा प्रति किलो के हिसाब से रॉयल्टी लेगी।’ यानी लोगों को भी फायदा होगा, सरकार को भी और जंगल को भी। लेकिन एक हद तक यह भी असल बीमारी की जगह उसके लक्षणों के इलाज वाली बात लगती है। दरअसल चीड़ उत्तराखंड का मूल वृक्ष नहीं है। तेजी से बढ़ने वाली इस प्रजाति को अंग्रेजों ने बढ़ावा दिया था। मकसद यह था कि ब्रितानी सल्तनत के फायदे के लिए किए जा रहे औद्योगीकरण, रेल लाइनों और भवन निर्माण की जरूरतें पूरी हों। जाने-माने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र बताते हैं, ' एक बार विकसित होने के बाद चीड़ का जंगल कुदरती रूप से जल्दी फैलने की क्षमता भी रखता है इसलिए वन विभाग भी वन विकास के नाम पर कई दशक तक चीड़ पर ही ध्यान देता रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे यह उत्तराखंड के बड़े इलाके में पसर गया।’ लेकिन इस पेड़ का यहां के स्थानीय समाज से कोई खास रिश्ता नहीं बन पाया। बांज, बुरांस जैसे दूसरे पेड़ों की पत्तियां जानवरों के खाने के काम आती हैं। उनकी जड़ों में पानी को रोकने और नतीजतन स्थानीय जलस्रोतों में जीवन बनाए रखने का गुण होता है। चीड़ में ऐसा कुछ तो था नहीं। ऊपर से जमीन पर गिरी इसकी पत्तियां घास तक को पनपने नहीं देती थीं। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि लोगों में यह सोच पैदा होने लगी कि इनमें आग ही लगा दी जाए। पत्तियां जल जाएंगी और इसके तुरंत बाद शुरू होने वाले बरसात के मौसम में थोड़े समय के लिए ही सही, घास के लिए जगह खाली हो जाएगी जिससे लोग अपने जानवरों के लिए चारे का इंतजाम कर सकेंगे। मिश्र कहते हैं, ‘जब तक आप उत्तराखंड के लोगों को उनका वही जंगल वापस नहीं लौटाएंगे तब तक आग को भी नहीं रोक पाएंगे।’

जंगलों में आग से बेबस होते जानवरजंगलों में आग से बेबस होते जानवर'इंदिरा गांधी वृक्ष मित्र पुरस्कार विजेता जगत सिंह ‘जंगली’ भी बताते हैं कि हर साल उनके गांव के आस-पास और ऊपर-नीचे रिजर्व फॉरेस्ट में पड़ने वाले चीड़ के जंगल जल जाते हैं लेकिन उनके द्वारा पांच हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया मिश्रित वन (बांज, बुरांस और काफल जैसी प्रजातियों के मेल से बना वन) आग के दौरान थोड़ी-सी सावधानी बरतने पर भी बच जाता है। 1993 में रुद्रप्रयाग जिले के कोट मल्ला गांव स्थित जगत सिंह ‘जंगली’ के मिश्रित वन को देखने उ.प्र. के तत्कालीन प्रमुख सचिव आरएस टोलिया (बाद में उत्तराखंड के मुख्य सचिव) आए थे। उन्होंने तब वन विभाग को गढ़वाल और कुमाऊं में मिश्रित वनों को तैयार करने की कार्ययोजना बनाने के लिए आदेश दिया था। वह योजना आज तक जमीन पर नहीं उतरी है। वह भी तब जब राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री, एक पूर्व राज्यपाल और कई दिग्गज मिश्रित वनों के इस मॉडल की सराहना कर चुके हैं।

वन विभाग के पास भी पैसे और संसाधनों की कमी है। आग बुझाने की व्यवस्था करने के लिए जो धन गर्मियों में पहुंचना चाहिए वह कई बार सर्दियों में पहुंचता है।

अब वनों की आग पर नियंत्रण के उपायों पर आएं। वन विभाग से वर्षों पहले सेवानिवृत हुए एक रेंजर बताते हैं,‘पहले गर्मियों के चार महीनों के लिए हर गांव में एक अस्थायी आग-पतरोल रखा जाता था। वह आग लगने पर गांव वालों को आवाज देकर इकट्ठा करता था। तब बाकायदा आग को बुझाने के लिए आने वाले ग्रामीणों की हाजिरी लगती था और बाद में उन लोगों को जंगलों से मिलने वाले हक-हकूकों में प्राथमिकता मिलती थी। पर अब ये परंपराएं बंद हो गई हैं।' पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता सुरेन्द्र भंडारी भी बताते हैं कि पिछले 15-16 सालों से उन्होंने आग पतरोल नहीं देखे। जंगलों की आग को बुझाने में पर्याप्त सामुदायिक सहयोग न मिलने की बात राज्य के वनाधिकारी भी स्वीकारते हैं। इनमें से ज्यादातर मानते हैं कि उत्तराखंड में वन विभाग को सभी ने खलनायक मान लिया है। राज्य का 65 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है। इसलिए निर्माणाधीन सड़क हो या पानी की योजना, कड़े वन कानूनों के कारण वन विभाग व्यवहार में हर योजना में बाधा बनता है। उसकी इस नकारात्मक छवि के चलते उसे लोगों का सहयोग नहीं मिलता।

सवाल वित्तीय और मानव संसाधनों की कमी का भी है। अपर प्रमुख वन संरक्षक एस। टीएस लेप्चा बताते हैं, ‘इस वित्तीय वर्ष के लिए वनाग्नि बुझाने के मद में बजट में वन विभाग को केवल 1 करोड़ 79 लाख रुपये मिले हैं।’ इस धन को यदि राज्य के 40 फॉरेस्ट डिविजनों में बांटा जाए तो हर डिविजन के हिस्से लगभग 45 हजार रुपये आते हैं। गौरतलब है कि वन विभाग ने जंगलों को आग से बचाने के लिए 15 करोड़ रुपये की मांग की थी। एक वन-क्षेत्राधिकारी बताते हैं, ‘पिछले साल अग्नि काल का धन हमारी रेंज में दिसंबर के महीने यानी सर्दियों में पहुंचा था, वह भी छन-छन कर। इस साल अभी तक इस मद में कोई धन नहीं मिला और वनाग्नि काल समाप्त होने पर है।’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘वनाग्नि काल के लिए गए किराये के वाहनों को कम से कम डीजल तो देना ही पड़ता है, जिसे हम अपनी जेब से देते हैं। मंझले दर्जे के इन अधिकारियों को पता नहीं होता कि जेब से खर्चा पैसा वापस भी मिलेगा या नहीं। मानवीय संसाधन की दृष्टि से भी देखें तो वन विभाग के एक बीट के प्रभारी फॉरेस्ट गार्ड के पास 50 से लेकर 100 वर्ग किमी के वन क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी के अलावा अन्य प्रशासनिक काम भी होते हैं।'

ग्रामीणों के जंगलों में आग लगने के बाद अच्छी घास आने की परंपरागत थ्योरी को अधिकांश वनाधिकारी नकारते हैं। परंतु दबी जुबान में कुछ वनाधिकारी मानते हैं कि सीमित तरीके से लगाई गई आग वास्तव में अच्छी घास और जैव विविधता लाती है। इसे कंट्रोल्ड फायर कहा जाता है। एक वनाधिकारी बताते हैं, कि एक बार उनके प्रभाग में बांज के जंगलों में आग लग गई थी। अगले साल उन्होंने उस जले हुए क्षेत्र का निरीक्षण किया तो देखा कि उस जले हुए क्षेत्र में काफल (माइरिका) के पौधे उग रखे हैं। वे कहते हैं कि वन विभाग के पुराने वर्किंग प्लानों में भी कंट्रोल्ड फायर की व्यवस्था की जाती थी और अभी भी की जाती है। वनाधिकारी ग्रामीणों के व्यावहारिक अनुभवों को स्वीकारते हुए बताते हैं कि सीमित आग जंगलों में जैव विविधता बढ़ाती है लेकिन हर साल और बार-बार लगने वाली भयंकर आग न केवल जैव विविधता बल्कि वन्य जीवन भी नष्ट करती है।

उत्तराखंड में भी पहले जनवरी के महीने जंगलों में कंट्रोल फायर लाइनें काट दी जाती थीं। इसमें एक निश्चित क्षेत्र को आग से जला दिया जाता था, ताकि वनाग्नि काल में लगने वाली आग इस इलाके में ही थम जाए। मुख्यमंत्री विजय बहगुणा कहते हैं, ‘उत्तराखंड में 9,000 किमी फायर लाइन की जरूरत है। अभी यह आंकड़ा 2,000 है।’ निष्कर्ष यह कि आग के कारण और उससे होने वाली लाभ-हानि की बहस तब तक नहीं रुक सकती जब तक वनाग्नि पर ठोस शोधपरक कार्य न हो और वनाग्नि को रोकने के समन्वयित प्रयास। बताया जाता है कि शावकों को आग में जलता देख उनकी असहाय मां दहाड़ती रही। लेकिन समय रहते कुछ नहीं हो पाया। जिस इलाके में आग लगी वह कार्बेट रिजर्व पार्क के भी बेहद नजदीक है। बाघ शावकों के अलावा भी उस आग में कई ऐसी प्रजातियों के निरीह जानवर और उनके बच्चे भी भस्म हुए होंगे जिनकी कातर पुकार, दहाड़ बन कर मनुष्य के कानों तक नहीं पहुंच सकती। आग में जलने वाले पेड़ों, घोंसलों में खाक हो गए पक्षियों के अंडों और अजगर जैसे सुस्त सरीसृपों की तो जुबान ही नहीं होती।

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