यहां के जंगलों का जम कर दोहन हुआ। तब यहां पहाड़ में ज्यादातर सड़कें लोगों की सहुलियत के लिए नहीं बल्कि इस हरे सोने की लूट और सामरिक नजरिए से बनी। पर स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी यहां की वन और जल संपदा के व्यवसायिक दोहन को ही ज्यादा तरजीह दी।
नैनीताल, 27 अप्रैल,2011। गर्मी का मौसम आते ही उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का सिलसिला शुरू हो गया है। अप्रैल के पहले पखवाड़े में कुमाऊं मंडल के जंगलों में आग लगने की दर्जनों घटनाएं हो चुकी हैं। कई जंगल राख हो गए हैं। उत्तराखंड में मौजूद जंगलों के एवज में ‘ग्रीन बोनस’ की माग करने वाली राज्य सरकार ने पहाड़ के जंगलों की आग से हिफाजत के प्रति कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है।कुमाऊं मंडल में पिछले छह साल के दौरान वन महकमें ने जंगलों में आग लगने के 1639 मामले दर्ज किए। इन हादसों में 4320.61 हेक्टेयर वन क्षेत्र राख हो गया था। कुमाऊं में 2005 में आरक्षित वन क्षेत्र, सिविल वन और पंचायती वन क्षेत्रों में आग लगने की 403 घटनाएं हुई। इसमें 1196.25 हेक्टेयर वन क्षेत्र जला। 2006 में आग लगने के 37 हादसों में 76.35 हेक्टेयर जंगल जले। 2007 में वनों में आग लगने की 96 घटनाएं हुआ और 196.75 हेक्टेयर जंगल आग के हवाले हुए। 2008 में आग लगने की 305 घटनाओं में 824.95 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। 2009 में आग लगने के 485 हादसों में 1314.17 हेक्टेयर वन क्षेत्र जला। जबकि पिछले साल 2010 में आग लगने की 313 घटनाएं हुई।
वनों में आग लगने के सबसे ज्यादा हादसे सीधे वन विभाग के अधीन आरक्षित वन क्षेत्रों में हुए। इस दौरान आरक्षित वन क्षेत्रों में आग लगने की 1040 घटनाएं हुई। इन हादसों में 2474.70 हेक्टेयर आरक्षित वन क्षेत्र राख हो गया। आग लगने की सबसे ज्यादा घटनाएं चीड़ बहुल वन क्षेत्रों में हुई। वनों में आग लगने की इन घटनाओं में करोड़ों की वन संपदा नष्ट हो गई। अनेक प्रजाति के पौधे, दुर्लभ जड़ी-बूटी और वनस्पति भस्म हो गई। सैकड़ों वन्य जीवों और पशु-पक्षियों की मौत हो गई। आग बुझाने की कोशिशों में कई लोग झुलस गए।
पहाड़ के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की तपिश भी वन विभाग की नींद नहीं तोड़ पाई। राज्य सरकार ने जंगलों में आग लगने की घटनाओं को कभी गंभीरता से नहीं लिया। पहाड़ के जंगलों में हर साल लगने वाली आग के बाद वन महकमा आग लगने के कारणों की सतही जांच कर मामले को दाखिल-दफ्तर कर देता है। जंगलों में आग लगने का मुद्दा पहाड़ में राजनीतिक चिंता का विषय भी नहीं बन सका।
उत्तराखंड के जंगलों के प्रति केंद्र और राज्य सरकार का रवैया शुरू से ही विवेकपूर्ण नहीं है। दरअसल, यहां के जंगलों के साथ ब्रिटिश राज के दिनों से ही दोहन होता रहा है। तब उत्तराखंड की वन संपदा को हरा सोना मानकर यहां के जंगलों का जम कर दोहन हुआ। तब यहां पहाड़ में ज्यादातर सड़कें लोगों की सहुलियत के लिए नहीं बल्कि इस हरे सोने की लूट और सामरिक नजरिए से बनी। पर स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी यहां की वन और जल संपदा के व्यवसायिक दोहन को ही ज्यादा तरजीह दी। वनों की सुरक्षा और विकास के पुख्ता इंतजाम करने की बजाए अव्यवहारिक वन कानूनों के जरिए जहां की जनता और जंगलों की दूरी पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा बढ़ा दी।
उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53843 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 फीसद यानी 3651.014 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। 24414.408 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जंगलात महकमें के नियंत्रण में है, जिसमें 24260 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन क्षेत्र है। 139.653 वर्ग किलोमीटर वन पंचायतों के नियंत्रण में है।
यहां सबसे ज्यादा चीड़ के वन हैं। वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि वन विभाग के नियंत्रण वाले 24260.783 किलोमीटर वन क्षेत्र में से 3,94,383,84 हेक्टेयर में चीड़ के वन हैं। देवदार, फर, टीक, खैर, शीशम, यूकेलिप्टस के वनों के अलावा 6,14,361 हेक्टेयर क्षेत्र में मिश्रित वन हैं। जबकि 541299.43 हेक्टेयर यानी 22.17 फीसद क्षेत्र अनुत्पादक है।
राज्य के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा उत्तराखंड की वन उपज से आता है। लेकिन यहां के वनों की आमदनी का एक छोटा हिस्सा ही यहां के वनों की हिफाजत में खर्च हो रहा है। वन महकमे के हिस्से आने वाली रकम का ज्यादातर हिस्सा वन विभाग के अफसरों और कर्मचारियों की तनख्वाह वगैरह में खर्च हो जाता है।
राज्य का जंगलात महकमा यहां के जंगलों की आमदनी के मुकाबले वनों की हिफाजत, पौधा-रोपण और विकास के काम में नाम मात्र की रकम खर्च करता है। यह रकम भी ईमानदारी के साथ जमीन तक नहीं पहुंच पाती। वन विभाग के अपर प्रमुख वन संरक्षक एमसी पंत बताते हैं कि जंगलों की आग से निपटने के लिए हालांकि अभी तक बजट नहीं मिला है। बावजूद इसके जंगलों को आग से बचाने के लिए वन महकमे ने प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया है। अग्नि सुरक्षा पष्यां बनाई गई हैं। वन विभाग वनों को आग से बचाने के लिए जन-जागरुकता अभियान चला रहा है।
पंत के मुताबिक फायर वाच टावरों और वायरलैस सेटों की मरम्मत की जा रही है। अग्नि सुरक्षा दल बनाए जा रहे हैं। उन्हें नए उपकरणों से लैस किए जाने का प्रस्ताव है। पंत मानते हैं कि इन सारे उपायों के बावजूद जंगलों में आग के हादसों को रोका जाना नामुमकिन है। इससे आग की घटनाओं और आग लगने पर वनोपज के नुकसान को जरूर कम किया जा सकता है।
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