उत्तराखंड के नवनिर्माण में मीडिया की भूमिका

10 Jun 2014
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उत्तराखण्ड
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पहाड़ के जो हित हैं या फिर इकोलाॅजी, संस्कृति और पर्यावरण से जुड़े सवाल हैं उनकी तरफ उसका ध्यान बहुत कम रहता है। पिछले दिनों मैं एक लेख पढ़ रहा था कि हाईस्कूल पढ़ा हुआ आदमी चपरासी बनता है लेकिन पत्रकार के लिए कोई योग्यता नहीं होती है। हर कोई देहरादून में अखबारों का पंजीकरण करवा रहा है और सैकड़ों नाम रजिस्टर हो रहे है। तो ये एक समस्या है। दो-तीन साल पहले जब धस्माना जी उत्तराखंड पत्रकार परिषद के अध्यक्ष थे। तो हम लोगों ने तय किया कि हर महीने-दो-महीने में किसी एक विशेषज्ञ को बुलाकर गोष्ठी करवाएं। गोष्ठी का विषय अलग-अलग होता था, पहाड़ में विकास के जो अलग-अलग आयाम हो सकते हैं उन विषयों पर हम गोष्ठी करवाते थे। तो ऐसे ही एक गोष्ठी में हेस्को वाले अनिल जोशी आए थे और उस गोष्ठी की अध्यक्षता हिमाचल के पत्रकार सुधेन शर्मा कर रहे थे। तो उन्होंने कहा कि भाई ये अच्छी बात है लेकिन उत्तराखंड के लोग आंदोलन बहुत करते हैं, काम नहीं करते हैं। तो ये हमारे बारे में एक ऐसी टिप्पणी थी जिसका उत्तर हम लोग ठीक-ठीक नहीं दे सकते थे। क्योंकि वास्तव में लगता था कि हम लोग काम बहुत कम करते हैं और बातें बहुत ज्यादा करते हैं।

दूसरा आरोप हम लोगों पर लगता रहा है कि अलग उत्तराखंड राज्य इसलिए बन पाया क्योंकि उत्तराखंड के बहुत सारे पत्रकार यहां पर हैं। राष्ट्रीय पत्रकारिता में उत्तराखंड के बहुत ज्यादा लोग हैं और दिल्ली में ही करीब 500 पत्रकार माने जाते हैं और अगर इसमें फ्रीलांसर मिला दिए जाएं तो संख्या और भी ज्यादा होगी। इसलिए ये आरोप लगता रहा है कि पत्रकार ज्यादा हैं, साक्षरता ज्यादा है, स्मारिकाएं और पत्रिकाएं निकलती है, लीफलेट निकलते हैं आदि। उन दिनों गली-गली से छोटे-छोटे अखबार निकलने शुरू हो गए थे।

मुझे लगता है कि ये दोनों ही आरोप सही नहीं है। जहां तक बात ज्यादा करने और काम न करने की बात है उसमें अब थोड़ी बहुत सच्चाई लगती है। लेकिन जहां तक दूसरा मुद्दा है कि पत्रकारिता की वजह से उत्तराखंड अलग राज्य बन गया। ये ठीक नहीं लगता क्योंकि उत्तराखंड आंदोलन अपने आप में इतना बड़ा आंदोलन था कि पत्रकार कुछ नहीं कर सकते थे।

चूंकि मैं टेलीविजन में रहा हूं दो-तीन साल तो मैं ये देखता हूं कि मीडिया वाले किस तरह की खबरों को उछालते हैं। मतलब जहां कहीं बलात्कार हो गया, कहीं बड़ी घटना घट गई या कोई घटना घट गई तो उसको स्वाभाविक तौर पर उछाल देते हैं। चूंकि उत्तराखंड आंदोलन था इसलिए अखबारों ने उछाला। तो ऐसा नहीं है कि पत्रकार बहुत ज्यादा हैं और उन्होंने उत्तराखंड आंदोलन पर बड़ी कृपा की। उत्तराखंड आंदोलन अपने आप में इतनी बड़ी चीज थी कि राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान उसकी ओर गया और उसे उठाया गया। तो जो लोगों का बलिदान था उसकी वजह से अलग राज्य बना।

यह बात सही है कि जो हमारे पत्रकार हैं उन्होंने निश्चित रूप से उस दौर में भूमिका निभाई। उन दिनों उत्तराखंड पत्रकार परिषद के अध्यक्ष नवल किशोर डोभाल कहा करते थे कि आप लोग जो गिल्ली और जो छेद है उसको तो बनाइए, जो पत्रकार हैं वो तो उछालने का काम करेगा। आपके पास गिल्ली नहीं होगी तो आप डंडा कैसे पीटोगे। तो पत्रकार का काम उछालने का है, पीटने का है। असली भूमिका वहां के स्थानीय लोगों को जन आंदोलनों को बनानी है। तो इस बात को ध्यान में रखा पत्रकारों ने, जो दिल्ली में हैं या पहाड़ से बाहर हैं। उन पत्रकारों ने आंदोलन की जमीन को बहुत अच्छी तरह से महसूस किया और उसको बहुत अच्छी तरह से किया इसलिए उनकी इतनी भूमिका जरूर है।

जहां तक राज्य बनने के बाद की भूमिका का सवाल है उसमें मुझे थोड़ा सा भटकाव लगता है। क्योंकि जिन पत्रकारों ने आंदोलन में शिरकत की थी उसमें से ढेर सारे लोग खुद राजनीति में शामिल हो गए, खुद दलों में शामिल हो गए जो मुझे लगता है, ठीक नहीं है। पत्रकारिता एक अलग तरह का काम है और राजनीति एकदम अलग तरह की बात है। ठीक है यदि वो लोग राजनीति में शामिल हो जाते हैं तो उनको फिर पूरी तरह से राजनीति करनी चाहिए, फिर पत्रकारिता नहीं करनी चाहिए। पत्रकारिता और राजनीति का घाल-मेल नहीं होना चाहिए। उससे पत्रकारिता की क्रेडिबिलिटी खत्म हो जाती है और राजनीति पर भी लोग बेवजह शक करने लगते 104हैं या उनका ध्यान इधर भी और उधर भी जाता है। तो ये थोड़ा गड़बड़ लगता है। जो दिल्ली में पत्रकार थे उनमें से बहुत लोगों ने कोशिश की थी कि किसी तरह हमें विधायक का टिकट मिल जाए।

सच बात ये है कि उनमें से किसी को टिकट नहीं मिला। ये उसका एक दूसरा पक्ष है। टिकट मिले भी तो क्यों मिले? ठीक है आपने पत्रकार के तौर पर योगदान दिया। लेकिन ये अपेक्षा कि पत्रकारिता के बदले आपको विधायक बना दिया जाए, ठीक नहीं है। ये पत्रकारिता के जो मूलभूत सिद्धांत हैं उसके भी खिलाफ हैं। अब हम सेमिनार के विषय पर आते हैं। उसके तीन-चार रूप दिखाई देते हैं। एक तो राष्ट्रीय पत्रकािरता है, टीवी चैनल हैं, दिल्ली से निकलने वाले अंग्रेजी, हिंदी के अखबार हैं और इसके अलावा रेडियो हैं बीबीसी है और अन्य चैनल हैं।

दूसरे वे अखबार हैं जो देहरदून से या नैनीताल-हल्द्वानी से निकलते हैं, जिनका अच्छा खासा सर्कुलेशन है, खासकर अमर उजाला। देहरादून में एक-आध और है जिनका सर्कुलेशन काफी माना जाता है।

तीसरी श्रेणी में वो हैं जैसे मालूम पड़ा है कि पूरे उत्तरांचल से लगभग 35 के करीब दैनिक अखबार और 350 के करीब साप्ताहिक अखबार निकल रहे हैं। उसके अलावा साढ़े तीन सौ से अधिक पाक्षिक या मासिक या त्रैमासिक अखबार, पत्रिकाएं या स्मारिकाएं आदि निकलती हैं। इनकी संख्या लगभग 1 हजार के करीब बैठती है।मुझे लगता है कि इन तीनों वर्गों की अलग-अलग भूमिका है। जो राष्ट्रीय पत्रकारिता है निश्चित रूप से वो आपका विशेष ध्यान नहीं रख सकते हैं, क्योंकि दिल्ली में जिस तरह से पत्रकारिता के मापदंड तय होते हैं उसका एकदम अलग तरीका है। जो घटना होगी, निश्चित रूप से उसकी तरफ ध्यान जाएगा। घटना पैदा करने के लिए जो स्थानीय जन आंदोलन हैं उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है।

दूसरी ओर जो अमर उजाला और दैनिक जागरण जैसे स्थानीय अखबार हैं, चूंकि वो गांव-गांव तक पहुंच रहे हैं हर कस्बे में जहां भी एक पोस्ट ऑफिस है वहां उनका एक संवाददाता है। जहां 10 कॉपी जाती हैं वहां भी उनका एक एजेंट है जो रिपोर्ट भी भेजता है तो मुझे लगता है कि उनकी जो भी भूमिका है वो महत्वपूर्ण है। उसमें हमें कुछ गड़बड़िया लगती हैं। चूंकि धन कमाना या पाॅवर सेंटर के तौर पर उभरना अखबार का मुख्य उद्देश्य होता है। इसलिए वो किस तरह पहाड़ की समस्याओं और सरोकारों पर किस तरह सोच पाएंगे या ध्यान रख पाएंगे ये सोचने का विषय है। मुझे नहीं लगता कि उनके हित पहाड़ के या स्थानीय लोगों की समस्याओं से जुड़े होते हैं।

तीसरी श्रेणी के जो समाचार पत्र हैं उनकी भूमिका काफी अच्छी हो सकती है। जैसे नैनीताल समाचार काफी अच्छा रोल अदा कर रहा है या अन्य जगहों पर जो छोटे-छोटे अखबार निकल रहे हैं उनमें से एक दो होंगे जो जरूर अच्छा काम कर रहे होंगे। तो उनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। जैसे बचपन में हम पढ़ा करते थे।

उत्तराखंड ज्योति एक अखबार हुआ करता था जो हमारे प्राथमिक विद्यालय में आता था। तो उसी से हमको खबरों का पता चलता था और हम लोग बड़े ध्यान से उसको पढ़ते थे। एक तरह से समझिए कि ब्रह्म वाक्य की तरह हम उसके शब्दों की तरफ ध्यान दिया करते थे। तो इसलिए उन अखबारों का जो रोल है वो काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन ये जो बड़े अखबार हैं अमर उजाला, जागरण इन्होंने उनको खत्म कर दिया है। तो फिर मजबूरी ये हो गई उनकी कि कैसे भी बचे रहें। या फिर ऐसे अखबार हैं जो इन्हीं की श्रेणी में है जो केवल न्यूज प्रिंट बेचने के लिए निकल रहे हैं। या फिर उनको कहीं कुछ मिल जाए नगरपालिका में सदस्यता मिल जाए, या कहीं कोई ऐसी सदस्यता मिल जाएं जिससे वो थोड़ा सा पावर के हकदार जिले या तहसील हेडक्वार्टर में बन जाएं। तो वो एक खराब ट्रेंड नजर आता है।

चूंकि वो विज्ञापन के लिए प्रशासन पर निर्भर रहते हैं। इसलिए वो उसकी खिलाफत कभी कर नहीं सकते। उनका काम है कि बस जिलाधीश या एस.पी. वगैरह को खुश रखो और अपनी दुकानदारी चलाते रहो। तो पहाड़ के जो हित हैं या फिर इकोलाॅजी, संस्कृति और पर्यावरण से जुड़े सवाल हैं उनकी तरफ उसका ध्यान बहुत कम रहता है। पिछले दिनों मैं एक लेख पढ़ रहा था कि हाईस्कूल पढ़ा हुआ आदमी चपरासी बनता है लेकिन पत्रकार के लिए कोई योग्यता नहीं होती है। हर कोई देहरादून में अखबारों का पंजीकरण करवा रहा है और सैकड़ों नाम रजिस्टर हो रहे है। तो ये एक समस्या है।

मुझे लगता है कि इस तरह से तस्वीर धुंधली है और ज्यादातर पत्रकार पहाड़ों में स्ट्रिंगर हैं। पिथौरागढ़ में जैसे कोई अखबार नहीं है। 10-12 पत्रकार स्ट्रिंगर है। अमर उजाला के जागरण के या नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, हिन्दुस्तान के स्ट्रिंगर है। और वे लोग खुद ही परेशान रहते हैं। चूंकि पूरी तनख्वाह किसी को नहीं मिलती है। उनके पास नियमित रोजगार नहीं है। उनको लगता है यदि थोड़ा-बहुत किसी तरह छप जाए, क्योंकि भुगतान काॅलम सेंटीमीटर के हिसाब से होता है। तो ये उनकी एक बड़ी भारी चिंता रहती है। उनके सामने बड़ी घनघोर समस्याएं हैं। इसलिए जाहिर है कि फिर वो कहीं न कहीं से अपनी आय जुटाने की कोशिश करते हैं।

किसी की दुकान है जैसे मैं, घारचूला में गया तो वहां तेजसिंह गुंज्याल नाम का एक रिपोर्टर है। मुझे बता दिया गया था पिथौरागढ़ में कि वहां पर इससे मिलना। तो गया तो मैंने पूछा कि तेज सिंह गुंज्याल कहां हैं तो उन्होंने कहा कि ये सामने हैं। तो उसके पास गया, जूतों की दुकान थी। पूछने पर उसने कहा कि मैं ही तेज सिंह गुंज्याल हूं। जूते की दुकानदारी कर रहे थे और साथ में अखबार की रिपोर्टरी कर रहे थे। मैं ये नहीं कहता कि जूते का काम करना गलत है। लेकिन जो पत्रकार हैं, उसका जो आधारभूत प्रशिक्षण है या पहाड़ के जो मुद्दे या सरोकार है उनके प्रति उनका कोई इच्छा या जिज्ञासा नहीं है।

चूंकि रोजगार कुछ हैं चिंताए कुछ हैं। तो इनको देखते हुए हम अपेक्षा नहीं कर सकते कि ये हम यहां पर जो गंभीर सवाल पर बहस कर रहे हैं इनको देखते हुए अपनी रिपोर्टिंग करें। तो ये कुछ समस्याएं हैं, और पत्रकारों की जो भूमिका हो सकती है, जो खासकर दिल्ली में बैठे हैं कि वे लोग पहाड़ के मुद्दों पर थोड़ा संवेदनशील हों लेकिन वो संवेदनशील तभी होंगे जब जन आंदोलन कोई सवाल खड़े करेंगे। वही गिल्ली उछालने की बात है, पत्रकार तो वही कर सकते हैं।

जहां तक जन आंदोलनों का सवाल हैं उत्तराखंड आंदोलन के बाद यह मामला बहुत ही ढीला पड़ गया, क्योंकि आंदोलन खुद भटकाव का शिकार हो गया और ज्यादातर जो आंदोलनकारी नेता थे वे राजनीति में चले गए या फिर दूसरे कामों में लग गए। तो ये एक घनघोर समस्या है एक तरफ स्वार्थ है दूसरी तरफ त्याग और बलिदान है। निश्चित रूप में त्याग और बलिदान बहुत कठिन काम है, लेकिन जैसे हमारा चिपको आंदोलन शुरू हुआ था तो उसमें बलिदान बहुत बड़ी चीज थी, काफी लोगों ने बलिदान दिए, तब उस आंदोलन को एक अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली और पत्रकारिता में भी एक जगह मिली। यदि स्थानीय स्तर पर त्याग और बलिदान नहीं होंगे तो मुझे लगता नहीं कि पत्रकार भी कुछ कर पाएंगे।

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