उत्तराखंड में जल समस्या के समाधान हेतु जलस्रोत अभ्यारण का विकास

21 Feb 2020
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नौला, उत्तराखंड
नौला, उत्तराखंड

प्रस्तावना

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में नौले (भूमिगत जल एकत्र करने हेतु पत्थर की सीढ़ीनुमा दीवारों वाले 1-2 मीटर गहरे चौकोर गड्ढे) एवं धारे (चट्टान से धारा के रूम में जल प्रवाह) अनादि काल से पेयजल के स्रोत रहे हैं। दुर्भाग्यवश हाल के दशकों में लगभग 50 प्रतिशत जलस्रोत या तो सूख गए हैं या उनका जल प्रवाह कम हो गया है। जनसंख्या बहुल क्षेत्रों में तो गर्मियों में जल एकत्र करने हेतु लम्बी कतारें एवं कुछ इलाकों में महिलाओं एवं बच्चों द्वारा 2 कि.मी. से भी अधिक दूर स्रोतों से जल लाना एक सामान्य बात है। कुछ पहाड़ी कस्बों में तो गर्मियों में प्रति घर लगभग 25-50 रु. मजदूरी में लगभग 20-25 लीटर पेयजल दूर क्षेत्रों से मगाया जाता है। जल समस्या से निपटने हेतु लोगों ने नौलों में ताला लगाकर रात भर के एकत्र जल का ग्राम समुदाय के मध्य बंटवारा, छत के वर्षा जल को एकत्र करना, घरेलू अवशिष्ट जल का किचन गार्डन में उपयोग, इत्यादि उपाय किए हैं (चित्र-1)। एक अनुमान के अनुसार हिमालयी क्षेत्र से प्रतिवर्ष लगभग 500 घन कि.मी. जल उत्पन्न होता है। तथापि यहां के निवासी वर्षा ऋतु के अलावा वर्ष भर जल का अभाव, दूषित जल का उपयोग एवं जल हेतु झगड़ने को मजबूर हैं। अनुमान है कि हिमालय क्षेत्र की वर्तमान घरेलू जल खपत (4500 लाख घन मीटर प्रतिवर्ष) 3 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ती हुई जनसंख्या हेतु आगामी समय में एक प्रमुख समस्या बन सकती है एवं ऐसा भी कहा जा रहा है कि आगामी विश्व युद्ध सम्भवतः जल के कारण होगा।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में पेयजल समस्या मुख्यतः जल स्रोतों के सूखने, पहाड़ी कस्बों की बढ़ती जनसंख्या की जल की खपत, प्रति व्यक्ति जल उपयोग में वृद्धि, जल प्रदूषण इत्यादि कारणों से उत्पन्न हुई है। अप्रत्यक्ष रूप से जल स्रोतों के सूखने का कारण वर्षा के जल का भूमि में अवशोषित हुए बिना नदी नालों से बाढ़ के रूप में बह जाना है। इस कारण भूमिगत जल स्रोतों के स्तर में वृद्धि नहीं हो पाती है, एवं निरंतर प्रवाह के बाद वह सूख जाते हैं। अतः मुख्य चुनौती यह है कि वर्षा जल का भू सतह के अन्दर अवशोषण को बढ़ाकर गर्मियों में स्रोतों के जल उत्पादन को कैसे निरन्तर प्राप्त किया जाए। उल्लेखनीय है कि पुनः पर्वतीय क्षेत्र के वनों पर चारा, लकड़ी एवं बिछावन हेतु बढ़ता दबाव, पशुओं के खुरों से दबकर भूमि का कठोर होना, वनों की आग, जलवायु परिवर्तन, वर्षा का समय चक्र बदलना, भू-क्षरण, सड़क एवं भवन निर्माण एवं खनन आदि में हुई वृद्धि से भू-जल चक्र असंतुलित हुआ है एवं क्षणभंगुर सूक्ष्म जलागमों की जलग्रहम क्षमता में कमी आई है। इसके अलावा पेयजल योजनाओं को जन आक्रोश एवं तोड़ फोड़ द्वारा भी क्षति पहुंचती है। पेयजल योजनाओं से वसूला जाने वाला शुल्क इसके रख रखाव हेतु अपर्याप्त है। जनता की  भागीदारी के अभाव एवं बदलते सामाजिक परिवेश में हमारी जल संरक्षण एवं प्रबंधन की क्षमता एवं परम्परागत ज्ञान का भी ह्रास हो रहा है। अतः उपरोक्त परिस्थितियों के मध्यनजर जल स्रोतों का संरक्षण एवं विकास आवश्यक है।

उत्तराखंड के पौड़ी जिले में जलस्रोत अभ्यारण का विकास

भू-जल विज्ञान पर किए गए विस्तृत शोधकार्य के उपरान्त कुमाऊ विश्वविद्यालय, नैनीताल के प्रो.के.एस.वल्दिया, पदमश्री ने वर्ष 1990 के दशक में सूख रहें जल स्रोतों के पुनर्जीवन हेतु जल स्रोत अभ्यारण विकसित करने का सुझाव दिया। इस तकनीक के अन्तर्गत वर्षा जल का अभियान्त्रिक एवं वानस्पतिक विधि से जलस्रोत के जल समेट क्षेत्र में अवशोषण किया जाता है। भूमि के ऊपर वनस्पति आवरण एवं कार्बनिक पदार्थों से युक्त मृदा एक स्पंज की तरह वर्षा के जल को अवशोषित कर लेती है। अतः जल समस्या के समाधान का मुख्य कार्य बिन्दु यह है कि हम सूक्ष्म जलागमों एवं स्रोतों के जल ग्रहण क्षेत्रों में  वर्षा जल का भूमि में अवशोषण होने में वृद्धि, करें, जिससे कि तलहटी के भू जल स्रोतों में वृद्धि हो सके। जल स्रोत अभ्यारण विकास में निम्नलिखित विभिन्न अभियान्त्रिक, वानस्पतिक एवं सामाजिक उपाय किए जाते हैं।

अभियान्त्रिक उपायः (i) जल स्रोत के जल समेट क्षेत्र की पहचान हेतु भौगोलिक एवं जल धारण करने योग्य चट्टानी संरचनाओं का भू-गर्भीय सर्वेक्षण। सामान्यतः जल स्रोत के ऊपर पहाड़ों की चोटियों से घिरी भूमि जल समेट क्षेत्र बनाती है। (ii) जल समेट क्षेत्र की पत्थर/कांटेदार तार/कंटीली झाड़ियों अथवा समीप के गांव समुदाय के सहयोग से सुरक्षा। ताकि जल समेट क्षेत्र में पशुओं द्वारा चराई एवं मनुष्य द्वारा छेड़छाड़ न हो। (iii)  जल समेट क्षेत्र में कन्टूर रेखाओं पर 30-60 से.मी. चौड़ी नालियों की खुदाई एवं भू-गर्भीय दृष्टि से जल अवशोषण हेतु उपयुक्त स्थानों (परत, जोड़, दरार, भ्रंश) पर गड्ढों की खुदाई। सामान्यतः बलुई दोमट मिट्टी में जल अवशोषण तीव्र गति से होता है। (iv) जल समेट क्षेत्र में छोटी-छोटी नालियों के मुहानों को पत्थर व मिट्टी से बंद करना एवं उपयुक्त जगह पर बरसाती धाराओं पर बहते हल को एकत्र करने हेतु मिट्टी व पत्थर के छोटे तालाब बनाना। एवं ( v) सीढ़ीदार खेतों को ढ़ाल के विपरीत दिशा में ढ़ालू बनाना व उनकी मेड़ को लगभग 15 से.मी. ऊंची करना एवं जमीन को समतल करना।

वानस्पतिक उपायः (i) जल समेट क्षेत्र के ऊपरी ढ़ालदार हिस्से में कम गहरी जड़ों वाले स्थानीय वृक्ष तथा तलहटी क्षेत्र में झाड़ियों एवं घास का रोपण करना। स्थान विशेष की जलवायु के अनुसार रोपित की जाने वाली वनस्पतियां भिन्न हो सकती हैं। वृक्ष प्रजातियों का रोपण जलस्रोत से काफी हटकर किया जाना चाहिए। सामान्यतः चौड़ी पत्ती वाले स्थानीय वृक्ष प्रजातियों (बांज, उतीस, पदेन आदि) इस प्रयोजन हेतु उपयुक्त समझी गई है। एवं (ii) स्रोत के जल समेट क्षेत्र में बिना वनस्पति आवरण वाले स्थानों को अनुपयोगी खरपतवार या चीड़ी की पत्तियों से ढ़कना ताकि मृदा जल का वाष्पीकरण कम हो एवं वर्षा जल को भूमि में अवशोषण हेतु उपयुक्त अवसर मिल सके।

सामाजिक उपायः (i) ग्राम समुदाय की सहमति से जल समेट क्षेत्र में आगजनी, पशु चराई, लकड़ी एवं चारे हेतु वनस्पतियों का दोहन एवं खनन इत्यादि वर्जित करना। यह उपाय सामाजिक घरेबाड़ के रूप में कार्य करेगा। (ii) स्रोत के जल प्रवाह जो फेरों सीमेंट व अन्य कारगर तथा सस्ती टंकियों में संचित करना, नलों के जोड़ों एवं टोंटी से रिसने वाले जल की बर्बादी रोकना, नलों को जमीन के अन्दर गहरे गाढ़ना, जल वितरण को समयबद्ध करना एवं पेयजल का सिंचाई एवं अन्य कार्यों हेतु उपयोग कपर रोक लगाना। एवं (iii) पेयजल की गुणवत्ता, जल अधिकार सम्बन्धी कानून एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के जल उपयोग मानकों का आम जनता को ज्ञान कराना।

उपरोक्त वर्णित जलस्रोत अभ्यारण विकास का प्रायोगिक प्रदर्शन हमारे संस्थान द्वारा वर्ष 1994-2000 के मध्य पौड़ी गढ़वाल जिले के परसुन्डाखाल क्षेत्र के डुंगर गाड जलागम में किया। उपरोक्त जलागम के अन्तर्गत एक सूक्ष्म जलागम (18.5 हे.) को प्रायोगिक तौर पर चयनित किया गया एवं इसके जल संभरण क्षेत्र में विभिन्न अभियान्त्रिक, वानस्पतिक उपाय किए गए (चित्र 2) जिससे वानस्पतिक आवरण 96 प्रतिशत तक बढ़ गया। उपरोक्त उपायों से जहाँ वर्ष 1994-95 की ग्रीष्म ऋतु में इसके मृतप्राय स्रोत का जल उत्पादन 1055 लीटर/प्रतिदिन था जो कि वर्ष 2000 की ग्रीष्म ऋतु में बढ़कर लगभग दोगुना 2153 लीटर/ प्रतिदिन हो गया (तालिका-1)। हालांकि बीच के वर्षों में कन्दूर नालियों में मिट्टी के जमाव के कारण स्रोत के जल उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई। उक्त जल स्रोत अभ्यारण विकास की लागत का तत्कालीन दरों के अनुसार विवरण तालिका 2 में दिया गया है। उक्त लागत में यदि तार बाड़ की जगह सामाजिक सुरक्षा उपाय किए जाए तो कुल लागत मात्र रू. 10050 प्रति हेक्टर आएगी।

तालिकाः1 डूंगर गाड़ जलागम में सरल अभियांत्रिक, वानस्पतिक उपायों के पश्चात विलुप्त हो रहे जलस्रोत में जल प्रवाह का पुनरूद्धार

जल वर्ष (1 जुलाई- 30 जून)
 

वर्षा (मिलीमीटर)

स्रोत से प्रवाह (लीटर/दिन)

जल स्रोत से प्रवाहित कुल जल की मात्रा (103 लीटर/वर्ष)

जल संचयन (वर्षा का प्रतिशत)

 

अप्रैल-जून

 

 

जुलाई-मार्च

 

जुलाई-मार्च


जुलाई-मार्च


जुलाई-मार्च

 

1994-95

11084610555033812403 
1995-962011366127159009164940-7
1996-97428831231156700158811-0
1997-9824310524093317909190309
1998-99154118313601090243090412-3
1999-200050598221533441634416

12-5

 

तालिका-2 एक हेक्टेयर पर्वतीय क्षेत्र में जल स्रोत अभ्यारण विकास की लागत

(पौड़ी गढ़वाल में एक प्रयोग पर आधारित)

कार्य विवरण

अनुमानित लागत (रु.)

कन्टूर की दिशा में नालियों (250) की खुदाई5000
मिट्टी/पत्थर के तालाब/गली बन्द करना2500
ताड़ बाड़25000
तीव्र ढालों में गड्ढे खुदाई (250)400
पौधों की कीमत1250
गोबर की खाद100
वृक्षारोपण300
सिंचाई/खर पतवार उखाड़ना500
कुल लागत

35050

 

उपरोक्त डूंगर गाड़ जलागम के चार ग्रामों की कुल 957 जनसंख्या हेतु उनके जल उपभोग की 27 लीटर /व्यक्ति/ दिन की जरूरत को पूरा करने हेतु इस जलागम में स्थित पांच जलस्रोतों के जल प्रवाह को अग एकत्र करके सुचारू रूप से वितरण किया जाए तो इन ग्रामवासियों कि पेयजल एवं घरेलू जल उपयोग की मांग को लगभग पूरा किया जा सकता है। (तालिका 3)। तालिका-3 से ज्ञात होता है कि मल्ली भिमली ग्राम में ग्रीष्म ऋतु में प्रति व्यक्ति सामान्य जल की खपत की पूर्ति के उपरान्त भी वहां के जल स्रोत से 43.5 लीटर/प्रति व्यक्ति/ प्रति दिन जल प्रवाह शेष बच जाता है जिसे एकत्र करके जलागम के अन्य ग्रामों में जल उपलब्ध कराया जा सकता है।

तालिका 3 : डूंगर गाड़ में स्रोत से जल का प्रवाह व जल की उपलब्धता

जलस्रोत (गांव)

आबादी

स्रोत से जल प्रवाह (लीटर/दिन)

जल उपलब्धता (लीटर/व्यक्ति/दिन)

गर्मियों में सामान्य खपत हेतु जल उपलब्धता

 

 

गर्मी

वर्षा

सर्दी

गर्मी

वर्षा

सर्दी

 

आली

167288511910490817.371.329.4- 9.7
मल्ली भिमली14210005291621136470.5205.480.0+ 43.5
तल्ली भिमली398504413449609912.733.815.3- 14.3
पालसेंण2508451168940203.446.816.1- 23.6
सेंणचार-33801201545423.512.64.8+
औसत/कुल95722159782253093323.281.732.3- 0.3

 

पर्वतीय क्षेत्रों के जलागमों में जलस्रोतों की प्रचुरता है। अतः सूक्ष्म जलागम स्तर पर जल स्रोत अभ्यारण विकास कार्य किए जाने जरूरी हैं, ताकि स्रोतों में ग्रीष्म ऋतु में जल वृद्धि हो सके। पेयजल उपलब्धता हेतु बहुआयामी सोच एवं क्रियान्वयन की जरूरत है। जल संसाधन प्रबंधन के साथ-साथ जल का तर्कसंगत उपयोग एवं लाभान्वित जनता की सहभागिता द्वारा ही जल स्रोतों का दूरगामी संरक्षण सुनिश्चित होगा। जल स्रोत अभ्यारण विकास हेतु स्रोतों के जल समेट क्षेत्र में विवादास्पद भूमि स्वामित्व का हल करके समुचित भूमि उपयोग लागू कराना आवश्यक है। जल संसाधन प्रबंध में व्याप्त अंधविश्वास, अनुमान एवं भ्रम का जो बोलबाला सार्वजनिक सोच में है उसमें सुधार आवश्यक है। वास्तव में इस बेहद जटिल इकोतंत्र की कार्यविधि से निपटने हेतु जन सामान्य का सहयोग अनिवार्य है। यह कहना उपयुक्त होगा कि पर्वतीय क्षेत्र में जल स्रोत में जल संभरण एवं जल की उत्पत्ति कई कारकों से प्रभावित होती है एवं जल संभरण क्षेत्र में भूमि उपयोग परिवर्तन का जल स्रोतों की जल उत्पादन क्षमता पर सीधा असर पड़ता है। इस ज्वलन्त समस्या से निपटने हेतु और अधिक गहराई से शोधकार्य की आवश्यकता है, जिसमें मुख्य रूप से भू-गर्भ जल विज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

आभारः लेखक संस्थान के पूर्व वैज्ञानिक (वर्तमान में इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली) में कार्यरत प्रो. वरुण जोशी का इस शोधकार्य में भू-गर्भ विज्ञान से सम्बन्धित कार्य हेतु सदैव आभारी है।


डॉ.गिरीश नेगी

गो.ब.प. राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण एवं सतत विकास संस्थान, कोसी-कटारमल, (अल्मोड़ा)

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