उत्तराखंड पर कुदरत के कहर का अर्थ

29 Jun 2013
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विकास और पर्यटन के नाम पर नदी, पहाड़, जंगल के अंधाधुंध दोहन ने प्रलय के दरवाजे खोले।

मनमाने ढंग से जंगल और पहाड़ों में लूट-खसोट चली है, जो पर्यावरण बिगाड़कर बादल फटने का कारण भी बना और बेहिसाब सैलाब का भी, शहरों और पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों ने भी जिस तरह से शहर को विकसित किया, वह तो दुर्घटनाओं को न्यौता ही दे रहा था। किस तरह नदी में लटके होटल या भवन टिके हुए थे, यही आश्चर्य का विषय था। उनका गिरना तो स्वाभाविक ही था और अब जगह-जगह से खबर आ रही है कि निजी बांध और बिजलीघर पर तैनात लोगों ने ज्यादा पानी आता देखकर सारे फाटक खोल दिए और गांव के गांव बह गए।अच्छा होता कि उत्तराखंड की भयंकर तबाही के बाद कांग्रेस और भाजपा के कुछ नेता और कथित प्रवक्ता राजनीतिक खेल और एक- दूसरे को नीचा दिखाने की बयानबाजी से बचते। जो लोग या राज्य सरकारें धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने का शोर मचाती हैं, उनकी कोई जिम्मेवारी तीर्थयात्रियों के प्रति भी थी, यह बात तो बहस में ही नहीं आई। यह बयानबाजी असल में एक-दूसरे को नीचा दिखाने या राजनीतिक लाभ लेने की जगह बड़ी और सच्ची बहस से बचने, असली मुद्दों पर परदा डालने और उत्तराखंड तथा मुल्क में सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाली दोनों पार्टियों द्वारा अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेने की रणनीति का हिस्सा हो सकती है। कौन माई, कौन नक्षत्र या स्वयं महादेव केदारनाथ कितने नाराज थे और क्यों अपने सबसे प्रिय भक्तों को इतना कष्ट देते यह समझना तो बहुत मुश्किल है, पर यह देख-समझ लेना आसान है कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट के क्रम में अभी भी बन रहे प्रदेश का क्या बुरा हाल कर दिया गया है।

और एक अर्थ में यह आपदा हमारे लिए चेतावनी बने, हम सही ढंग से विकास बनाम पर्यावरण के मसले को समझें और आगे से दिशा सुधारें तो भी एक सही बात होगी। उत्तराखंड या ऐसे क्षेत्रों से पहले मिली चेतावनियों पर ही हमने कितना ध्यान दिया है, यह सवाल भी उठाना होगा और यह दावा करना गलत होगा कि उत्तराखंड और झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडीशा, छत्तीसगढ़, आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र वगैरह में खनिज संपदा के साथ जंगल, जमीन, पानी, रेत, मिट्टी समेत हर कुछ को बेच डालने की जो अंधी होड़ शुरू हुई है, वह विकास भर के लिए है। इसमें अपनी, अपने प्रियपात्रों और कुछ न्यस्त स्वार्थ वालों को लाभ पहुंचाने की मंशा सर्वोपरि है। पर विकास का सवाल भी है और कम बड़ा नहीं है और आज बिजली, पानी, जमीन और खनिजों के बगैर विकास की कल्पना भी मुश्किल है।

अगर केदारनाथ में लगभग 130 साल से कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ था तो शहर और तीर्थस्थल का विकास अपने ढंग से हुआ था। अब एक बार में वह सब धुल गया है। शहर, बस्ती, होटल, धर्मशाला की कौन कहे, असली मंदिर में भी पूजा बंद है। यही बात बहुत बड़ी है कि मुख्य मंदिर बच गया है, पर यह शहर और तीर्थ न तो अपने बोझ से ध्वस्त हुआ, न तीर्थयात्रियों से। यह तो कहीं दूर से आए सैलाब और मलबे की चपेट में आकर पस्तहाल हुआ है। ऐसा अकेले केदारनाथ में नहीं है, वहां जाने के रास्ते का मुख्य पड़ाव और दूसरे सबसे बड़े ठिकाने गौरी कुंड का तो कुछ भी नहीं बचा है। मंदिर भी नहीं और बर्बाद होने वाले कस्बों, गांवों, सड़कों, पुलों की गिनती तो अभी ढंग से हुई भी नहीं है। अभी तो मौत, बर्बादी, लोगों को निकालना जैसे जो काम हुए हैं, वे सभी बाहरी लोगों से ही जुड़े हैं।

उत्तराखंड वालों का दुख-दर्द जानने का होश तो अभी तक किसी को दिखता ही नहीं और वे बेचारे हैं कि अपने घर में रखा राशन समेत सब कुछ संकट में पड़े बाहरी लोगों पर लुटा रहे हैं, जितनी मदद सेना और आपदा प्रबंधन वालों या राज्य सरकार के लोगों ने की है, प्रदेश के भोले-भाले लोगों ने उससे कम मदद नहीं की है। जिस राज्य सरकार को सब कुछ करना था, उसकी कमियां भी सामने आ गई हैं। चेतावनी के बावजूद कोई इंतजाम नहीं थे और आपदा आने के बाद तो राज्य के कर्मचारी नदारद ही हो गए। सेना और आपदा राहत के जवानों ने सचमुच सब कुछ संभाल लिया। बाहर से भी मदद आई, पर देर से और कम। इसमें राजनीति भी हुई, जिसकी हल्की चर्चा पहले की गई है। बाहर से हर राज्य सरकार इस बार अलग-अलग सक्रिय नजर आई। अपने प्रदेश की चिंता ठीक है पर ऐसे आफत के वक्त भी यह संकीर्णता अखरती है। कायदे से तो होड़ लगाकर राहत का काम करना चाहिए था। यह राजनीतिक लाभ भी देता है।

गांधीजी द्वारा उत्तर भारत में आए तीस के दशक वाले भयावह भूकंप के समय के राहत को या बंगाल अकाल के समय किए गए राहत काम को याद करना जरूरी है, पर राहत और विपदा का अवसर ही क्यों आया, यह भी विचार करना जरूरी है। इस वक्त भी उत्तराखंड में करीब सौ बांधों और जलाशयों का काम चल रहा है। कोई पहाड़ नहीं बचा है, जिससे छेड़छाड़ नहीं की गई है, बल्कि सैकड़ों की संख्या में पनबिजली योजनाओं की मंजूरी और उसमें धांधली के आरोप पर ही भाजपा ने अपने एक मुख्यमंत्री को बदला था। वहां रेत और त्थर माफिया, लैंड डेवलपर और खनन के लोग किस तरह नए बने राज्य के शासन पर हावी रहे हैं, यह छुपा हुआ नहीं है, बल्कि इसके खिलाफ चले आंदोलनों में एक में तो एक युवा संन्यासी की जान भी चली गई थी। अब जो लोग सिर्फ लाभ के लिए प्रोजेक्ट लेकर आते हैं, उनका प्रकृति से क्या लगाव होगा और जो लोग पैसे या दूसरे लाभ लेकर प्रोजेक्ट देते हैं, वे उनसे कितने कानून मनवा सकते हैं।

सो मनमाने ढंग से जंगल और पहाड़ों में लूट-खसोट चली है, जो पर्यावरण बिगाड़कर बादल फटने का कारण भी बना और बेहिसाब सैलाब का भी, शहरों और पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों ने भी जिस तरह से शहर को विकसित किया, वह तो दुर्घटनाओं को न्यौता ही दे रहा था। किस तरह नदी में लटके होटल या भवन टिके हुए थे, यही आश्चर्य का विषय था। उनका गिरना तो स्वाभाविक ही था और अब जगह-जगह से खबर आ रही है कि निजी बांध और बिजलीघर पर तैनात लोगों ने ज्यादा पानी आता देखकर सारे फाटक खोल दिए और गांव के गांव बह गए। अब यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि इतने लोगों की कुर्बानी और कष्ट के बाद जगी सरकार और उसकी एजेंसियां ऐसी चूकों और शरारतों की पहचान करके दोषियों को सजा देंगी। जब बड़ा ढांचा बनेगा, स्थानीय प्रकृति की परवाह नहीं की जाएगी और सिर्फ अपने लाभ और बचाव से मतलब होगा या किसी स्थानीय सत्ता का डर नहीं होगा तो ऐसे हादसे होंगे ही। सो विकास के कथित कार्यक्रमों की दिशाएं उनको जमीन पर उतारने के ढंग और उनके संचालन में कायदे-कानून के पालन पर पूरी चौकसी का हिसाब भी बनाना होगा और इस काम में स्थानीय और जानकार लोगों की जितनी ज्यादा से ज्यादा भागीदारी होगी, काम उतना ही अच्छा होगा।

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