उत्तराखंड: विकास ने लिखी बर्बादी की दास्तान

12 Aug 2013
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प्रकृति को पढ़ने वाला स्थानीय समाज अब जान गया है कि इसमें प्रकृति से ज्यादा करामात है जेपी एसोसिएट्स की 300 मेगावाट की विष्णुप्रयाग जलविद्युत परियोजना की। जब ऊपर से बाढ़ आई तो जेपी ने रात 12 बजे कुछ गेट खोल दिए। यह पानी नीचे गांव में घुसा। बांध वालों ने बिजली से कमाई का नुकसान न हो ऐसा सोचकर गेट फिर बंद कर दिए। लेकिन पानी बांध और गेट (दरवाजे) तोड़कर “बेहिसाब’’ सैलाब जैसा निकल पड़ा। सभी स्थानीय एकमत हैं कि जेपी ने अपने टरबाइन बचाने के लिए यह खेल खेला। उत्तराखंड में आई विपदा प्राकृतिक हो सकती है, लेकिन उससे हुआ विध्वंस मानव निर्मित है। ठीक ऐसा ही कुछ वर्षों पूर्व भारत के समुद्र तटों पर आई सुनामी ने भी हमें समझाया था। मेधा पाटकर पिछले 30 वर्षों से बांधों के निर्माण में हो रही लापरवाही, अवैधानिकता और भ्रष्टाचार के खिलाफ सतत चेताती रहीं हैं। उत्तराखंड के बाशिंदे भी यह जानते थे और विकास के ’बम’ के फटने के टलते रहने पर खैर मना रहे थे। लेकिन अंततः विकास यह ‘बम’ फटा और परिणाम हमारे सामने है। मेधा जी उत्तराखंड में सहायता पहुंचाने हेतु अपने साथियों के साथ पहुंचीं थीं। हम गांववासियों से घिरे हुए गोविंद घाट में खड़े थे और 50 फिट नीचे 20 मीटर चौड़ी अलकनंदा गड़गड़ाहट के साथ बह रही थी। लोग हमें बता रहे थे कि 16 जून की रात पानी बढ़ने लगा और इसकी कोई उद्घोषणा भी नहीं हुई तो पांडुकेश्वर, गोविंदघाट के ग्रामीणों ने अनुमान लगाया कि नदी का पानी सन् 2012 की तरह पार्किंग स्थलों को छूकर उतर जाएगा। सिक्खों के पावन तीर्थ हेमकुंड साहब व बद्रीनाथ की ओर जाने वाली लगभग 800 गाड़ियां इस पार्किंग में खड़ी थीं। स्थानीय लोगों व बाहरी लोगों द्वारा निर्मित होटलों में बड़ी संख्या में लोग ठहरे हुए थे, यानि पर्यटन चरम पर था। रात करीब 1.30 पर पानी ने गाड़ियों को छुआ और सुबह 3 बजे बेहिसाब पानी में 3-4 मंजिला होटल भी ताश के पत्तों की तरह ढह गए। सबकुछ एकदम अनपेक्षित।

प्रकृति को पढ़ने वाला स्थानीय समाज अब जान गया है कि इसमें प्रकृति से ज्यादा करामात है जेपी एसोसिएट्स की 300 मेगावाट की विष्णुप्रयाग जलविद्युत परियोजना की। जब ऊपर से बाढ़ आई तो जेपी ने रात 12 बजे कुछ गेट खोल दिए। यह पानी नीचे गांव में घुसा। बांध वालों ने बिजली से कमाई का नुकसान न हो ऐसा सोचकर गेट फिर बंद कर दिए। लेकिन पानी बांध और गेट (दरवाजे) तोड़कर “बेहिसाब’’ सैलाब जैसा निकल पड़ा। सभी स्थानीय एकमत हैं कि जेपी ने अपने टरबाइन बचाने के लिए यह खेल खेला। सिर्फ एक बार सायरन बजाया और इसके अलावा गांव, घर, होटल, खच्चरों और हजारों-हजार लोगों को बचाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। इसी कारण परियोजना का विरोध करने वालों का गुस्सा उबल पड़ा। वैसे भी जे.पी. एसोसिएट्स राजनीतिक दादागिरी के लिए कुख्यात है। मध्य प्रदेश के रीवा में हुआ गोली चालन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सरदार सरोवर में जे.पी. ने यूनियन लीडर नकरदास शाह पर जानलेवा हमला किया तथा गुजरात के बांध विस्थापितों के घरों पर भी हमला करवाया था। मैं भी बदनाम जेपी कंपनी को कोसते हुए अंदर ही अंदर सुलग सी रही थी और मेरे दिमाग में उनके द्वारा पहले किए गए कारनामे कौंध रहे थे।

नदी के उस पार 800 खच्चरों के साथ पर्यटक व पहाड़ी लोग 16 जून से अटके पड़े थे। उन्हें जैसे-तैसे खुराक तो पहुंचा दी गई, लेकिन एक भी पुल अभी तक नहीं बना है। उजड़े स्थानीय नागरिकों के अलावा होटल मालिक से लेकर छोटे दुकानदारों के साथ माटू जनसंगठन के और जनआंदोलन समन्वयक विमल भाई भी धरने पर बैठे थे। हमारे आने की खबर, सेना और बार्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन को लग गई थी। उनके दो अधिकारी गोविंद घाट आए। हमने उनसे पूछा कि मात्र 20 मीटर चौड़ी नदी पर क्या रस्सी (रोप) पुल भी नहीं बन सकता था? वहां मौजूद पीडब्ल्यूडी के एक अधिकारी ने हमें सच बात बता दी, कि आदेश था कि उन्हें सिर्फ राष्ट्रीय राजमार्गों पर ही ध्यान देना है। मीडिया भी वहीं केंद्रित था और जैसे सबकुछ राहत भरे ट्रकों पर ही निर्भर था। 15 दिनों से यहां अटके 800 खच्चरों में से 40-50 मर चुके थे और अनेकों बीमार भी थे। अंततः उन्हें निकालने लायक पुल बनाया गया।

उत्तराखंड के पुल और रास्तों की कहानी भी यही त्रासदी बता रही है। इसी के साथ सच्चाई सामने आ रही है कि वर्तमान में बांध, बराज व जलविद्युत परियोजनाओं से भरे उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाकों में तो पैदल चलने की ही परंपरा है। लेकिन विकास के शुरू होते ही गांव तक पहुंचने के लिए पगडंडी के बाद बनी सड़कें धीरे-धीरे लंबे चौड़े राजमार्ग में बदल गई और जैसा नियोजन देशभर में चल रहा है वैसा यहां भी शुरू हो गया। जब मेहनत, हाथ-हथौड़े से यहां रास्ते बनाते थे तो उनकी बात ही अलग थी। छोटे-बड़े पत्थर तो यहां हमेशा ही गिरते रहते थे, लेकिन पहाड़ के पहाड़ जमींदोज नहीं होते थे। लगातार हो रही ब्लास्टिंग से रोजगार नहीं, भू-स्खलन बढ़ा है। स्थानीय निवासियों का कहना है कि यात्री तो बाहर निकल गए पर स्थानीय निवासी अब यहां कैसे रहेंगे?

पीपलकोटी के लोगों ने कहा कि हम लोग तो जैसे पलायन करने को ही पैदा हुए हैं। वहीं एक अधिकारी ने बताया कि विजन 2020 के नाम पर सालभर के लक्ष्यों में सड़क की लंबाई के अलावा और कुछ नहीं होता। बढ़ा-चढ़ा के आंकड़े तैयार किए जाते हैं। हर दल के अधिकारी को सालभर में 20 कि.मी. सड़क तक बनाने का दबाव होता है। ऐसे में जल्द पूरा करने के लिए ब्लास्टिंग करना जरूरी हो जाता है। इससे बजट भी बढ़ता है और कमाई भी बढ़ती है। सभी लाभ पाने वाले खुश रहते हैं। पीडब्ल्यूडी हो या बार्डर रोड संगठन सब टेंडर निकालने में व्यस्त रहते हैं। गौरतलब है मशीनीकरण से जहां रोजगार कम हुआ है वहीं दूसरी ओर पहाड़ों की अस्थिरता बढ़ गई है। हमें यात्रा शुरू किए अभी दो घंटे ही बीते थे कि चित्र एकदम से बदल गया। पहाड़ों से पत्थर गिरने से मोटर का आगे का रास्ता बंद हो गया। हम नीचे पत्थर हटा रहे थे तो ऊपर से पहाड़ पत्थर गिरा रहा था। अजीब सी जद्दोजहद हममें और पहाड़ में चल रही थी।

रास्ते का मसला और बांध की समस्या के बीच का संबंध उत्तराखंड जाकर ही समझा जा सकता है। अलकनंदा, मंदाकिनी नदियों में लाखों टन मलबा गिरा पड़ा है। हिमालय की भुरभुरी मिट्टी ने बाकी सब कुछ मटियामेट करने के अलावा 35 लाख लोगों को बेघरबार भी कर दिया है। लोगों का कहना है कि खेतों में 2 फुट तक सफेद रेत भरी है। इन्हें देखकर लगता है। उत्तराखंड में मानों नदियों का तल ऊपर उठा है और पहाड़ नीचे आ रहे हैं। इसी के साथ हो रहा रेत खनन भी तल को उखाड़ रहा है। उत्तराखंड में हो रहा 50 प्रतिशत रेत खनन अवैध है। इसे किसी भी प्रकार की वैधानिक यहां तक कि पर्यावरणीय मंजूरी भी नहीं है। आपसी लोगों को बाटे गए इन ठेकों में फरवरी 2012 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों तक का उल्लंघन हो रहा है। अब तो 5 अगस्त 2013 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का आदेश भी आ गया है। वैसे भी इस प्रक्रिया में निकली गाद फिर नदी में मिल जाती है। हमने देखा कि हादसे के 20 दिन बाद भी मशीनें नदी से गाद निकाल रही थीं।

उत्तराखंड की यह “देवभूमि’’ आज विचलित है। मुख्य पहाड़ से अलग हुए 20 फुट ऊंचे और 7-8 फिट चौड़े हिस्से देखकर अचंभा होता है और भय भी लगता है। क्या ऐसा पहाड़ फटने या ग्लेशियर के टूटने से हुआ होगा? आवश्यकता इस बात की है कि जलविद्युत परियोजनाओं की बारीकी से पड़ताल हो। यहां जलविद्युत परियोजनाओं की संख्या 650 तक पहुंच गई है। विद्युत यानि विकास, लेकिन इसके दुष्प्रभाव उत्तराखंड से लेकर नर्मदा घाटी तक सब जगह छुपाए गए हैं। अब सोचना होगा कि क्या ये वास्तव में साफ सुथरी योजना है? इसके जंगल और पहाड़ पर प्रभाव भी आंकने हेतु उत्तराखंड की आवश्यकता से कई गुना अधिक बिजली बनाकर क्या सिद्ध किया जा रहा है?

इतना ही नहीं, 25 मेगावाट से कम की जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय मंजूरी का, कानूनन आवश्यक न होना भी बड़ी त्रुटि है। इसे दूर करना बेहद जरूरी है।

उत्तराखंड के प्रत्येक संवेदनशील हिस्से में 8 मीटर की चौड़ी सुरंगे 30 कि.मी. तक लाई गई हैं। योजना चाहे कितनी भी छोटी हो वह पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकती है। इस हेतु केरल की 10 मेगावाट की चालाकड़ी परियोजना या उत्तराखंड में स्वयं ही कई उदाहरण सामने आए हैं। 300 मेगावाट की विष्णुप्रयाग बांध की दीवार बह गई अस्सीगंगा जैसी नदी पर बनाई कुछ छोटी परियोजनाएं नष्ट हो गई। एनटीपीसी की 520 मेगावाट वाली योजना भी बर्बादी का शिकार होकर बंद पड़ी है। आज भी पता नहीं चल पाया है कि कितनी परियोजनाओं में कुल कितने करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। यहां बात सिर्फ आर्थिक हानि तक ही सीमित नहीं है।

आधुनिक विज्ञान, तंत्र ज्ञान और अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय विकास का दबाव सिर्फ उत्तराखंड में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में साफ दिखाई दे रहा है। बांध बनाने में बाढ़ की मात्रा का आधार अधिकतम 1000 या कम से कम 100 वर्षों की बाढ़ से होता है और इसी से जलविद्युत परियोजनाओं का नियोजन भी होता है। ऐसा करने का दावा हमारी सरकार व विश्वबैंक दोनों ही करते हैं। नैनीताल में रह रहे एक भूगर्भशास्त्री ने इस दुर्घटना के 20 दिन पहले ही कहा था कि “आप तो बम पर बसे हुए हैं।’’ एक ओर रास्तों का जाल और दूसरी ओर जलविद्युत योजनाओं का जाल बिछाकर सरकार व एडीबी जैसी संस्थाएं बहेलिए जैसा व्यवहार कर हमारा सुंदर व शांत परिवेश हमसे छीन रही है। पूंजी लगाने की जल्दबाजी और उन पर राजनीति करने वाली सरकारें कोई भी समीक्षात्मक कार्य नहीं करतीं। वे उस इलाके की आर्थिक पर्यावरणीय, राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत पर ध्यान नहीं देती! एडीबी व विश्व बैंक जैसी संस्थाएं एकबार पुनः विशाल जलविद्युत परियोजनाओं के निजीकरण के एजेंडे पर कार्य कर रही हैं। वैसे स्नोडेन के द्वारा की गई पोलखोल से थोड़ा छोटा रूप हमें उत्तराखंड में दिखता है। इन साहूकारों की अपनी नियम और शर्तें यदि बाढ़ में बह भी गई हों तो भी उन्हें पकड़कर पूछना होगा कि यह सब कब और कैसे खत्म होगा।

सारा विश्लेषण, शोध, चर्चा, बहस और लेखन चलता रहेगा। लेकिन उत्तराखंड की जनता जो भुगत रही है, वह देखने-समझने के बाद ही हम कुछ कर पाएंगे। हमारी यह यात्रा हमें समझा रही थी कि धार्मिक व सांस्कृतिक स्थलों को पर्यटन व्यवसाय में बदलने के क्या परिणाम निकल सकते हैं। पहाड़ पर गिल्डा (टोकरी) लेकर चढ़ने वाली महिला का जीवन व जीविका आज दोनों ही खतरे में हैं। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर उत्तराखंड की लूट वास्तव में समृद्धि की लूट है। पिछले 20 वर्षों में पर्यटन बढ़ता गया और 70 से 80 प्रतिशत लोग उस पर निर्भर हो गए। मोटर वाहनों ने प्रकृति के नजदीक पैदल पहुंचने की परंपरा नष्ट कर दी। शराब से लेकर हर असामाजिक कृत्य इस देवभूमि में प्रवेश कर गया है। वैसे इस विभीषिका ने चर्चा के बहुत सारे नए आयामों को भी जन्म दिया है।

हमें सोचना होगा कि किस प्रकार ब्लास्टिंग न हो, पहाड़ों में सुरंगे न हों, जलविद्युत परियोजनाएं मर्यादा में रहे, भागीरथी और अलखनंदा, मंदाकिनी को पूर्णतया बांध में न बांध जाए, मलबा नदी में न जाने दें, बाढ़ का पानी समाने के लिए बांधों के जलाशय खाली रखें। पर शासन-प्रशासन ठेकेदार की यह तिकड़ी क्या ऐसा संभव होने देगी?

सब खतरे मोल लेते हुए उत्तराखंड पुनः एक बार नवनिर्माण आंदोलन की राह देख रहा है। बहुत सारे लोग जैसे विमला पंत, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, एन.डी. जयाल, विमल भाई, सुरेश भाई, वंदना शिवा, रवि चोत्रा, शेखर पाठक व श्रीधरन जैसे लोग इस प्रक्रिया में शामिल हैं। आप भी उत्तराखंड के नवनिर्माण में सहायक हो सकते हैं।

याद रखिए यदि उत्तराखंड बचेगा तो देश बचेगा और शासन द्वारा निर्मित इस विपदा से मानव निर्मित कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता।

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