वैश्विक जलवायु परिवर्तन एवं आई.पी.सी.सी. का सच

7 Oct 2016
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वहाँ, जहाँ एक ओर विकसित देशों ने प्रदूषण उत्सर्जन की जिम्मेदारी लेने से साफ मना कर दिया वहीं विकासशील देशों ने भी अपने विकास में बाधक कटौतियों एवं नियंत्रण पर सहमति नहीं जताई है। वस्तुत: जलवायु के बारे में कोपेनहेगन सम्मेलन में बहुत ही कम चर्चा हुई, अधिकांश समय विकसित देशों से विकासशील देशों को धन स्थानांतरण की चर्चा में ही खर्च हो गया।

विश्व के जलवायु परिवर्तन पर पैनी निगाह रखने हेतु गठित विशेषज्ञ समूह (आई.पी.सी.सी.) की वर्ष 2010 में जारी रिपोर्ट में हिमालय के ग्लेशियरों के 2035 तक पिघल जाने की घोषणा ने वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों एवं सामाजिक सरोकारों से संबंध रखने वाले जानकारों के बीच अघोषित बहस छेड़ कर तूफान खड़ा कर दिया। विवाद एवं बहस मात्र ग्लेशियरों को लेकर ही नहीं थी बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय कार्यदायी संस्थाओं की कार्यशैली एवं वैज्ञानिक प्रमाणिकता का भी यक्ष प्रश्न था। क्योंकि उक्त संस्था मौसम संबंधी आँकड़ों का संकलन कर उसके आकलन के लिये अधिकृत भी है। किंतु वर्ष 2010 में जारी रिपोर्ट में हिमालय के ग्लेशियरों संबंधी गैर धरातलीय तथ्यों का उल्लेख कर संस्था सिर्फ सुर्खियों में ही नहीं छाई रही बल्कि विवादित व संदेहास्पद भी हो गई है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघल जाने का मतलब भारत की प्रमुख गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के जल प्रवाह में भारी कमी है जिससे संपूर्ण एशिया का भूभाग प्रभावित होता।

हिमालय के बारे में जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों ने इस रिपोर्ट को अवैज्ञानिक एवं गैर धरातलीय मान कर अस्वीकार कर दिया। वस्तुत: हिमालय के ग्लेशियर मात्र जलस्रोत ही नहीं है बल्कि क्षेत्रीय पारिस्थतिकीय संतुलन से लेकर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक सरोकारों के वाहक भी हैं। अत: समाज के सभी वर्गों द्वारा इस रिपोर्ट पर तूफानी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी किंतु इस बहस का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि भारत से ज्यादा इसकी चर्चा विश्व के विकसित देशों द्वारा की गई एवं इस विषय को विश्वव्यापी बनाने में उन्हीं देशों की भूमिका ही महत्त्वपूर्ण है।

आई.पी.सी.सी. के वर्तमान अध्यक्ष ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी तरफ से दिखने वाली मामूली गलती पर भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विशेषज्ञ एवं समाज एक अनवरत प्रतिक्रिया को जन्म दे देगा।

सारणी- 1 में प्रदर्शित हिमालय के कुछ ग्लेशियरों के पिघलने की दर से ज्ञात होता है कि हिमालय के ग्लेशियरों में अत्यधिक विविधता होने के कारण ये सभी बहुत ही असमान दर (1.5 मी. से 31.28 मी./वर्ष) से पिघल रहे हैं किंतु आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट के अनुसार उनके 2010 तक पिघलने की कोई संभावना नहीं है। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि अधिकांश ग्लेशियर क्षेत्रीय कारकों की जगह स्थानीय कारकों से अधिक प्रभावित हैं। यद्यपि आई.पी.सी.सी. ने तूफानी प्रतिक्रिया के पश्चात यह स्वीकार कर लिया है कि हिमालय के ग्लेशियरों के संबंध में उससे गलती हुई है किंतु इसी संस्था ने पूर्व में भी इस प्रकार के गलत तथ्य प्रसारित किये हैं। आई.पी.सी.सी. की 2001 की रिपोर्ट में भी बीसवीं सदी को असामान्य गर्म घोषित किया गया था तथा इसमें दिखाये गये तापमान के ग्राफ वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादित घटनाओं जैसे मध्यम गर्म समय अंतराल (मीडिवल वार्म पीरियत, 1000 ए.डी. के लगभग) एवं छोटा हिमयुग (लिटिल आइस एज, 1400 से 1800 ए.डी. के लगभग) जैसी घटनाओं से मेल नहीं खा रहे थे।

इस गम्भीर खामी का खुलासा सर्वप्रथम कनाडा के दो वैज्ञानिकों द्वारा किया गया उन्होंने जलवायु परिवर्तन के आंकलन हेतु उपयोग होने वाले आंकड़ों की सत्यता एवं उनके सांख्यिक विश्लेषण पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। सूचना की स्वतंत्रता कानून के अंतर्गत काफी मशक्कत के बाद पूर्वी एंगलिया विश्वविद्यालय में कार्यरत जलवायु शोध इकाई (सी.आर.यू.) ने यह घोषणा की कि उसने वैश्विक सतही तापमान की गणना करते समय अप्रकाशित आँकड़ों को संज्ञान में नहीं लिया। विदित है कि उक्त एंगलिया विश्वविद्यालय स्थित यह इकाई अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर तापमान के आँकड़ों का संकलन एवं विश्लेषण करने हेतु तीन में से एक इकाई है। उक्त इकाई द्वारा जारी आँकड़ों एवं तापमान वृद्धि के रुझान भी स्वतंत्र परीक्षण एवं सत्यापन के पश्चात असंगत पाये गये जिसको कि विज्ञान के सिद्धांतों एवं नियम के विरुद्ध माना गया था।

वर्ष 2009 में अमेरिका की जियोलॉजीकल सोसाइटी के वार्षिक सम्मेलन में वैज्ञानिक डान इस्टरब्रुक ने प्रदर्षित किया था कि किस तरह वर्ष 1961 के बाद तापमान घटने संबंधी रूस के ट्री रिंग शोध परीक्षणों को काट-छांट, तोड़-मरोड़ व फेर-बदल कर आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट में प्रस्तुत किया गया था जिससे उक्त कार्यदायी संस्था के प्रकाशन पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रश्न चिन्ह लग गया। यह भी बताया जाता है कि नवम्बर, 2009 में उक्त इकाई के एक लीक हुये ई-मेल संदेश के अनुसार आई.पी.सी.सी. के निष्कर्ष (मानवीय क्रियाकलाप वैश्विक तापमान वृद्धि के लिये जिम्मेदार) के विरुद्ध जाने वाले स्वतंत्र शोध कार्य निष्कर्षों को दबाने का प्रयास भी किया गया। वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय द्वारा ऐसा सोचा जा रहा है कि जलवायु वैज्ञानिकों का एक समूह तापमान वृद्धि के लिये मानवीय कारणों को जिम्मेदार ठहराने का गैर धरातलीय प्रयास कर रहा है। दिसम्बर 2009 में रूस के आर्थिक विश्लेषण संस्थान द्वारा यह सिद्ध किया गया कि ब्रिटेन जलवायु विज्ञान कार्यालय के हेडली केंद्र द्वारा रूस के वैश्विक तापमान वृद्धि को नकारने वाले आँकड़ों के साथ छेड़-छाड़ की गई।

यह भी माना गया कि वैश्विक तापमान वृद्धि के आँकड़े विज्ञान परख न होने के कारण अविश्वसनीय हैं एवं किसी अज्ञात तापमान वृद्धि वाली मानसिकता से नियंत्रित हैं। जो डी एलियो एवं माइकेल स्मिथ नामक वैज्ञानिकों द्वारा यह भी संज्ञान में लाया गया कि राष्ट्रीय जलवायु आँकड़ा केन्द्र तथा ‘‘नासा’’ (एन.ए.एस.ए.) द्वारा संचाललित वायुमंडल अध्ययन के गोडार्ड संस्थान द्वारा ठंडे इलाकों के कई आँकड़ा केंद्रों को बंद कर दिया गया ताकि वैश्विक स्तर पर तापमान वृद्धि को सही ठहराया जा सके। ब्रिटेन के प्रसिद्ध अखबार ‘‘सन्डे टाइम्स’’ में भी 23 जनवरी, 2010 को यह पाया कि आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट (एआर. 4) में प्राकृतिक आपदाओं को तापमान वृद्धि के साथ गलत ढंग से जोड़ दिया गया जबकि अपनी ही रिपोर्ट में आई.पी.सी.सी. ने उक्त कथन के आधार को अपूर्ण प्रमाण माना है।

माह जनवरी में ही उक्त रिपोर्ट (एआर. 4) के अग्रणी लेखक श्री मुरारी लाल ने माना कि हिमालयी ग्लेशियरों के 2030 तक पिघलने की संभावना को रिपोर्ट में जानबूझकर अतिशयोक्ति द्वारा पेश किया गया। उक्त कथन भी रिपोर्ट को एक वैज्ञानिक संकलन से ज्यादा गैर वैज्ञानिक अभिलेख के रूप में प्रचारित कर रहा है। उक्त संस्था का कथन (तापमान वृद्धि से अमेजन के वर्षा वनों व समुद्र में मूंगे की चट्टानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा) विज्ञान से प्रतिपादित प्रकाशनों से न लेकर सामान्य पर्यावरण संबंधी कार्यदायी संस्थाओं जैसे वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड एवं ग्रीन पीस आदि के प्रकाशनों से प्राप्त किया गया था, यही दर्शाता है कि आई.पी.सी.सी. स्थापित विज्ञान के मानदण्डों एवं सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता है। वर्जिनियां यूनीवर्सटी के प्रोफेसर इमेरीटस एवं अमेरिका मौसम उपग्रह सेवा के पूर्व निदेशक डॉ. एस. फ्रिड सिंगर के अनुसार ‘‘जलवायु परिवर्तन’’ उल्टे सीधे विचारों के बजाय एक गंभीर एवं विशेषज्ञ परख विषय है। जिसका संजीदगी से अध्ययन करने की आवश्यकता है अन्यथा यह वैश्विक समाज को धोखा देने का एक षडयंत्र भी हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन के इस वैश्विक व्यवसाय में पर्यावरणविद, तकनीकी विरुद्ध शक्तियाँ, तथाकथित विचारशील एवं रूढ़िवादी जनसंख्या नियंत्रक ही नहीं बल्कि नौकरशाह, उद्योगपति, दलाल, बिचौलिये, धन कुबेर आदि सभी वे लोग शामिल हैं जिन्होंने सीख लिया कि सरकारी तंत्र के साथ खेल कैसे खेला जाता है तथा सरकारी धन एवं छूट से कार्बन फ्री ऊर्जा, कार्बन परमिट ट्रेडिंग आदि के नाम पर धन लाभ कैसे अर्जित किया जाता है। इस क्षेत्र में पहले ही अरबों डालर खर्च कर दिये गये हैं। जो किसी भी देश के मेहनतकशों से चुंगी (टैक्स) द्वारा वसूला गया सरकारी धन है। किंतु वैश्विक समाज के उत्थान के बजाय कुछ ही लोगों की तिजोरियों में पहुँच रहा है। उक्त जलवायु परिवर्तन पर भारी धनराशि खर्च के साथ-साथ बहुत ही अच्छा होता कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने हेतु कुछ ठोस परियोजना बनती। किंतु दुर्भाग्यवश इन सभी परियोजनाओं का पटाक्षेप कोपेनहेगन के इस ‘‘जलवायु सम्मेलन’’ में हो गया। वहाँ, जहाँ एक ओर विकसित देशों ने प्रदूषण उत्सर्जन की जिम्मेदारी लेने से साफ मना कर दिया वहीं विकासशील देशों ने भी अपने विकास में बाधक कटौतियों एवं नियंत्रण पर सहमति नहीं जताई है। वस्तुत: जलवायु के बारे में कोपेनहेगन सम्मेलन में बहुत ही कम चर्चा हुई, अधिकांश समय विकसित देशों से विकासशील देशों को धन स्थानांतरण की चर्चा में ही खर्च हो गया।

(नोट : उक्त लेख आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट, एवं उस पर स्थानीय, क्षेत्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय टिप्पणियों तथा डी. ग्रुप के संकलन व कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन कार्यवाही के आधार पर तैयार किया गया है।)


 

सारणी 1

क्र.सं.

ग्लेशियर नाम

मापन वर्ष

अवधि

कुल पिघलाव (मी.)

पिघलने की दर (मी./वर्ष)

1

मिलम

1849-1957

108

1350

12.50

2

पिंडारी

1845-1966

121

2840

23.40

3

गंगोत्री

1935-1990

55

-

27.9

 

 

1990-1996

06

-

28.3

 

 

2004-2005

01

13.7

13.7

4

तिपरा बैंक

1960-1986

26

32.5

12.50

5

डोकरियानी

1962-1991

29

480

16.5

 

 

 

1991-2000

09

161.15

17.9

2001-2007

07

110.2

15.7

6

चोराबारी

1962-2003

41

196

4.8

 

2003-2007

04

41

41

7

संकुल्‍पा

1881-1957

76

518

6.8

8

पोटिंग

1906-1957

51

262

5.13

9

ग्‍लेशियर नं. 3

1932-56

24

198

8.25

10

सतोपथ

1962-2005

43

1157.15

26.9

 

 

2005-06

01

6.5

6.5

11

भागीरथी खड़क

1962-2005

43

319.3

7.4

 

2005-06

01

1.5

1.5

12

बड़ा सिगरी

1956-1963

07

219

31.28

13

छोटा सिगरी

1987-1989

03

54

18.5

14

त्रिलोकनाथ

1969-95

27

400

14.8

15

सोनापानी

1909-1961

52

899

17.2

16

कोलाहाई

1912-1961

49

800

16.3

17

जैमू

1977-1984

07

193

27.5

स्रोत : बोहरा 1981 एवं डी.पी. डोभाल (पर्यावरण हीरा), 2008

 

सम्पर्क


पी.एस. नेगी
वाडिया हिमाल भूविज्ञान संस्थान, देहरादून


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