वैश्विक जलवायु परिवर्तन से निपटेंगे संकर बीज

28 Jan 2017
0 mins read
climate change
climate change

नवीन कृषि विकास विधि के अन्तर्गत पौध संरक्षण पर भी ध्यान दिया जा रहा है। इसके अन्तर्गत खरपतवार एवं कीटों का नाश करने के लिये दवा छिड़कने का कार्य किया जाता है तथा टिड्डी दल पर नियंत्रण करने का प्रयास किया जाता है। वर्तमान में समेकित कृषि प्रबन्ध के अन्तर्गत पारिस्थितिकी अनुकूल कृमि नियंत्रण कार्यक्रम लागू किया गया है। बहुफसली कार्यक्रम का उद्देश्य एक ही भूमि पर वर्ष में एक से अधिक फसल उगाकर उत्पादन को बढ़ाना है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि और जल को काफी प्रभावित किया है। पानी की समस्या से निपटने के लिये जहाँ जगह-जगह जल के परम्परागत स्रोतों पर ध्यान दिया जा रहा है वहीं पर कृषि पैदावार पर पड़े असर को कम करने की भी कोशिश की जा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण गेहूँ,धान, तिलहन और दलहन के पैदावार में कमी आई है। क्योंकि प्रत्येक फसल के लिये एक निश्चित तापमान की जरूरत होती है जो जलवायु परिवर्तन के कारण पूरा नहीं हो पा रहा है।

वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिये विविध कृषि जलवायु क्षेत्रों हेतु परिष्कृत संकर बीजों की विभिन्न प्रजातियों की खोज की जा रही है। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने भी संकर प्रजाति के बीजों को प्रोत्साहित करने की योजना बनाई है। कृषि और कृषक कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न समस्याओं से निपटने के लिये नए किस्म की खेती पर ध्यान देना आवश्यक है।

हमें ऐसे बीजों को परिष्कृत करना होगा जो कम पानी, धूप और विषम जलवायु में भी सुगमता से तैयार हो सकें। विविध कृषि जलवायु क्षेत्रों में अलग-अलग किस्म के बीज की जरूरत होती है। इस तरह से हमें ऐसे संकर बीजों की परिष्कृत प्रजातियाँ विकसित करने की आवश्यकता है जो हर क्षेत्र में उपज दे सकें। राधा मोहन सिंह ने यह भी कहा कि जैव और गैर-जैव मुद्दों के प्रतिकूल प्रभावों और उत्पादकता में सुधार के मुद्दों का अध्ययन करना भी अत्यन्त आवश्यक है।

आजादी के बाद देश में खाद्यान की भारी कमी थी। अन्न की कमी को पूरा करने के लिये देश में हरित क्रान्ति की शुरुआत हुई। यह सन 1966-67 की बात है। तब देश में सिचाईं के साधन इतने नहीं थे। इसलिये ऐसे बीजों की आवश्यकता महसूस की गई जो देश के सिंचित एवं असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज दे सके।

सरकार का लक्ष्य संकर तथा बौने बीजों के उपयोग से फसल उत्पादन में वृद्धि करना था। हरित क्रान्ति भारतीय कृषि में लागू की गई उस विकास विधि का परिणाम है, जो 1960 के दशक में पुराने तरीके के कृषि को आधुनिक तकनीकि द्वारा प्रतिस्थापित किये जाने के रूप में सामने आई। क्योंकि कृषि क्षेत्र में यह तकनीकी एकाएक आई, तेजी से इसका विकास हुआ और थोड़े ही समय में इससे इतने आश्चर्यजनक परिणाम निकले।

हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश के कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। कृषि आगतों में हुए गुणात्मक सुधार के फलस्वरूप देश में कृषि उत्पादन बढ़ा है। खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता आई है। व्यवसायिक कृषि को बढ़ावा मिला है। कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है। कृषि आधिक्य में वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप गेहूँ, गन्ना, मक्का तथा बाजरा आदि फसलों के प्रति हेक्टेयर उत्पादन एवं कुल उत्पादकता में काफी वृद्धि हुई है।

हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को कृषि में तकनीकी एवं संस्थागत परिवर्तन एवं उत्पादन में हुए सुधार के रूप में देखा जाता है। देश में अधिक उपज देने वाले उन्नतशील बीजों का प्रयोग बढ़ा है तथा बीजों की नई-नई किस्मों की खोज की गई है। अभी तक अधिक उपज देने वाला कार्यक्रम गेहूँ, धान, बाजरा, मक्का व ज्वार जैसी फसलों पर लागू किया गया है, परन्तु गेहूँ में सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है।

नवीन कृषि विकास विधि के अन्तर्गत पौध संरक्षण पर भी ध्यान दिया जा रहा है। इसके अन्तर्गत खरपतवार एवं कीटों का नाश करने के लिये दवा छिड़कने का कार्य किया जाता है तथा टिड्डी दल पर नियंत्रण करने का प्रयास किया जाता है। वर्तमान में समेकित कृषि प्रबन्ध के अन्तर्गत पारिस्थितिकी अनुकूल कृमि नियंत्रण कार्यक्रम लागू किया गया है।

बहुफसली कार्यक्रम का उद्देश्य एक ही भूमि पर वर्ष में एक से अधिक फसल उगाकर उत्पादन को बढ़ाना है। अन्य शब्दों में भूमि की उर्वरता शक्ति को नष्ट किये बिना, भूमि के एक इकाई क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना ही बहुफसली कार्यक्रम कहलाता है। वर्तमान समय में भारत की कुल संचित भूमि के 71 प्रतिशत भाग पर यह कार्यक्रम लागू है। आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रयोग खेती में किया जा रहा है। देश में कृषि के क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ है।

कुल कृषि क्षेत्र बढ़ा है, फसल के स्वरूप में परिवर्तन हुआ है, सिंचित क्षेत्र बढ़ा है, रासायनिक खादों के उपयोग में वृद्धि हुई है तथा आधुनिक कृषि यंत्रों का उपयोग होने लगा है। इन सब बातों के होते हुए भी अभी तक देश में कृषि का विकास उचित स्तर तक नहीं पहुँच पाया है, क्योंकि यहाँ प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन अन्य विकसित देशों की तुलना में कम है।

अभी अनेक कृषि उत्पादों का आयात करना पढ़ता है। क्योंकि उनका उत्पादन माँग की तुलना में कम है। कृषि क्षेत्र का अभी भी एक बड़ा भाग असिंचित है। कृषि में यंत्रीकरण का स्तर अभी भी कम है, जिससे उत्पादन लागत अधिक आती है। कृषकों को विभागीय सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलती हैं, जिससे कृषि विकास में बाधा उत्पन्न होती है।

हरित क्रान्ति ने जहाँ एक हद तक भारत को खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर किया वहीं पर कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग को भी प्रोत्साहित किया। इसके बावजूद हरित क्रान्ति पूरे देश में नहीं बल्कि कुछ राज्यों तक सीमित होकर रह गई।

कृषि के क्षेत्र में हरित क्रान्ति का असर व्यापक होता कि इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे। अब वैश्विक पर्यावरण परिवर्तन के कारण एक बार फिर कृषि पर विषम प्रभाव पड़ने लगा है।

जिससे कृषि क्षेत्र के उत्पादकता में वृद्धि प्रभावित हो रही है। इसके लिये अब राष्ट्रीय स्तर पर संकर बीजों की माँग बढ़ रही है जो कम समय में अधिक उत्पादन दे सके।

अब अधिक उपज देने वाली किस्मों एवं उत्तम सुधरे हुए बीजों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। देश में वर्तमान समय में 400 कृषि फार्म स्थापित किये गए हैं। 1963 में राष्ट्रीय बीज निगम की स्थापना की गई है। 1963 में राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य कृषि उपज का विपणन, प्रसंस्करण एवं भण्डारण करना है। विश्व बैंक की सहायता से राष्ट्रीय बीज परियोजना भी प्रारम्भ की गई, जिसके अन्तर्गत कई बीज निगम बनाए गए हैं।

मृदा परीक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी का परीक्षण सरकारी प्रयोगशालाओं में किया जाता है। इसका उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति का पता लगाकर कृषकों को तद्नुरूप रासायनिक खादों एवं उत्तम बीजों के प्रयोग की सलाह देना है। वैश्विक पर्यावरण परिवर्तन के खतरों को कृषि से बचाने के लिये उन्नतशील संकर बीजों को परिष्कृत करने के लिये सरकार कई योजनाओं पर काम कर रही है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading