वह किताब रामचरित मानस नहीं है, लेकिन दो लाख छप चुकी है

25 Oct 2011
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हिंदी भाषी परिवारों का आकार देखते हुए दो लाख की संख्या का भी बड़ा मतलब नहीं होना चाहिए लेकिन जब बात हिंदी किताब की बिक्री की हो तो यह सचमुच में यह आंकड़ा बहुत बड़ा है। एक जमाने में गुलशन नंदा जैसों के उपन्यास वगैरह की बिक्री के दावों को छोड़ दें तो आज के हिंदी प्रकाशन व्यवसाय के लिए दो हजार प्रतियों का बिकना भी किताब का सुपरहिट होना है। अब इसे अनुपम मिश्र और गांधी शांति प्रतिष्ठान का स्वभाव मानना चाहिए कि वे अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब की छपाई दो लाख पार करने पर न कोई शोर मचा रहे हैं, न विज्ञापन कर रहे हैं। अगर इस अवसर का अपना व्यावसायिक लाभ या कोई पुरस्कार वगैरह पाने की उम्मीद होती तो यह काम जरूरी होता लेकिन अनुपम मिश्र न तो पुरस्कारों की होड़ में हैं, न थे और न ही गांधी शांति प्रतिष्ठान किताब से कमाई को बढ़ाना चाहता है।पिछले 18 वर्षों में हर साल लगभग एक लाख रुपए कमा कर देने वाली इस किताब को गांधी शांति प्रतिष्ठान अब कीमत और मुनाफे के चक्कर से मुक्त कर रहा है। इस पुस्तक के एक प्रेमी और उनकी संस्था के सहयोग में अब जो संस्करण छप रहा है वह सिर्फ बिना मूल्य वितरण के लिए उपलब्ध है- वह भी योग्य और जरूरतमंद पाठक को, सिर्फ एक-एक प्रति देने के लिए।

वैसे, लेखक का नाम पहले पन्ने पर दिए बिना छपी इस किताब पर लेखक ने स्वयं की कॉपीराइट न रखने की घोषणा कर रखी है, सो आज इसके विभिन्न भाषाओं और ‘ब्रेल-लिपि’ के चालीस संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। पुस्तक में लेखक अनुपम मिश्र का नाम आलेख लेखक के तौर पर है, तो शीना और मंजुश्री का शोध और संयोजक के तौर पर तथा दिलीप चिंचालकर का नाम सज्जाकार के रूप में दिया गया है। अनुपम मिश्र किताब के कई ऐसे संस्करणों की सप्रमाण जानकारी देते हैं जो बिना अनुमति या जानकारी के छापे गए हैं और जिन्होंने किताब की मनमानी कीमत रखने से लेकर उसके स्वरूप तक के साथ छेड़छाड़ की है। इसमें हिंदी के कुछ बड़े कहे जाने वाले प्रकाशक भी हैं जिन्होंने अपने छद्म प्रकाशन गृहों से इसे चुपचाप छापा फिर भी अनुपम मिश्र और गांधी शांति प्रतिष्ठान ने किसी को भी किताब या उसके किसी अंश को प्रकाशित करने से नहीं रोका, शर्त सिर्फ शुद्घ पाठ और स्वरूप के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करने की थी। इसी शर्त के तहत नेशनल बुक ट्रस्ट ने अपनी नेहरू बाल पुस्तक योजना के तहत जो संस्करण छापा, उसमें तो पहले 12 पन्ने अपने रखे, बाद की पूरी किताब शब्दश: और रूपश: गांधी शांति प्रतिष्ठान के पर्यावरण कक्ष के मूल संस्करण वाली ही है।

नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा किताब का सस्ता और लोकप्रिय संस्करण छापने का जिम्मा लेना भी कम रोचक नहीं है। ट्रस्ट ने 2004 में पुस्तक के संस्करण 11 भाषाओं में कराने का फैसला लिया। तब राजग की सरकार थी। हिंदी का पांच हजार (और मात्र 35 रुपए मूल्य का) संस्करण ही छपा। तभी केंद्र की सरकार बदल गई। फिर नामी वामपंथी इतिहासकार बिपिन चंद्रा ट्रस्ट के प्रमुख बने। उन्होंने जो शुरुआती फैसले लिये उनमें इस किताब का प्रकाशन अन्य भाषाओं में न करना भी था। तब इसे संघ समर्थित किताब और संघी रुझान की किताब भी बताया गया पर जल्दी ही यह बात समझ में आ गई कि यह धारणा गलत थी। सो पांच हजार का संस्करण बिकने के बाद जल्दी से सात हजार का संस्करण बाजार में उतारना पड़ा और हिंदी के साथ-साथ उर्दू का संस्करण भी अब आ चुका है। अन्य भाषाओं में संस्करण तैयारी के अलग-अलग दौर में है।

इस किताब की अपनी ताकत और इसके कॉपीराइट से मुक्त होने के चलते जिन लोगों ने इसके अनुवाद और प्रकाशन का काम भी अपने स्तर से किया। इसी के चलते आज किताब के चालीस संस्करण उपलब्ध हैं। इनमें नि:शुल्क वितरण के लिए मध्य प्रदेश शासन का संस्करण भी शामिल है। जब पहली बार दिग्विजय सिंह सरकार ने 25 हजार प्रतियों की मांग रखी और जल्दबाजी की तो गांधी शांति प्रतिष्ठान ने उनसे अपने भारी-भरकम प्रेस में छाप लेने को कहा। शर्त सिर्फ शुद्घ पाठ और अच्छी छपाई और किताब के अंदर सरकारी विज्ञापन न घुसेड़ने की थी। तब की कांग्रेसी राज्य सरकार ने तो यह किया ही, बाद में आई भाजपा सरकार ने भी इसे जारी रखा। इसी क्रम में मध्य प्रदेश शासन ने किताब का उर्दू संस्करण भी छापा। भारत ज्ञान विज्ञान परिषद ने 25 हजार प्रतियों का संक्षिप्त और खूबसूरत संस्करण छापा।

लोगों ने अपने व्यक्तिगत प्रयास से जो अनुवाद और प्रकाशन किया उनके किस्से ज्यादा प्रेरणादायक हैं। बांग्ला पत्रकार निरुपमा अधिकारी ने अपने प्रयास से न सिर्फ इसका अनुवाद किया बल्कि इसके वे दो संस्करण भी छाप चुकी हैं पर ज्यादा दिलचस्प कहानी पंजाबी अनुवाद करने वाले सुरेंद्र बंसल की है। बंसल हरियाणा सरकार में एक छोटी नौकरी करते हैं। अपने शौक के लिए उन्होंने कैक्टस के पौधों का बड़ा संग्रह तैयार किया था। उसे खरीदने की पेशकश कई बार हुई लेकिन बंसल जी ने इसे सौदे की चीज कभी नहीं माना लेकिन जब आज भी खरे हैं तालाब का पंजाबी संस्करण खुद छपवाने के लिए घर के पैसे पर्याप्त न पड़े तो उन्होंने अपना यह बेशकीमती संग्रह भी बेचने में देर नहीं लगाई। बंसल जी ने किताब देने और बेचने में खरीदार की योग्यता और दिलचस्पी को भी आधार बनाया।और संभवत: उनसे प्रेरित होकर ही समभाव नामक संस्था चलाने वाले फरहाद कांट्रेक्टर को भी लगा कि अब इस किताब को खरीद-बिक्री और कमाई के जाल से मुक्त कर दिया जाए। लेखक-डिजाइनर ने इसे पहले ही कॉपीराइट के जाल से मुक्त कर दिया था। फरहाद को भी लगा कि यह किताब गांधी शांति प्रतिष्ठान ही बांटे पर एक व्यक्ति (वह भी योग्य हो) को एक प्रति से ज्यादा न दी जाए। जिसे ज्यादा प्रति चाहिए वह अन्य समूल्य संस्करणों में से कोई खरीदे। इसके लिए उन्होंने अपनी संस्था से धन उपलब्ध कराने का इंतजाम भी किया। इससे बीते 25 वर्षों में हर हफ्ते एक दिन बैठकर किताब की बिक्री का और उपहार का हर रिकार्ड रखने वाली मंजु मिश्र (अनुपम मिश्र की पत्नी) को जरूर राहत मिल जाएगी।

किताब का ब्रेल संस्करण भी आ चुका है। इसकी मदद से यह चाक्षुष मजबूर लोगों का भी दुलारा बन चुका है। यही नहीं हुआ है, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में अच्छी हिंदी के नवीन उदाहरणों के तौर पर भी इस पुस्तक का अंश दिया गया है। कई अन्य पाठ्यक्रमों में भी इसके अंश आए हैं। जैसा कि पहले बताया गया है- भारत ज्ञान विज्ञान केंद्र ने इसका संक्षिप्त संस्करण बच्चों के लिए छापा है तो नेशनल बुक ट्रस्ट की नेहरू बाल पुस्तक योजना के तहत भी इसका बालोपयोगी संस्करण छापा गया है।

 

 

आज भी किताब का नया संस्करण, नई भाषा का संस्करण आता है तो उसकी समीक्षा छपती है, तारीफ होती है लेकिन लेखक को सबसे ज्यादा तसल्ली तब मिलती है जब किताब की प्रेरणा में कोई पानी का काम करने निकलता है। अनुपम मिश्र के पास बैठकर जब आप ये किस्से उनसे सुनते हैं तो उनके चेहरे का भाव देखने लायक होता है- सचमुच ये चीजें किसी लेखक के लिए वास्तविक गौरव की बातें हैं और राजेंद्र सिंह तथा सच्चिदासिंह भारती या सुरेंद्र बंसल जैसों को चाहे जो सुख-सम्मान मिला हो, अनुपम जी का सुख उन सब में साझा है।

पुस्तक के लेखक और मुल्क में पर्यावरण और जल मामलों के अग्रणी विद्वान अनुपम मिश्र को किताब की बिक्री के आंकड़े या संस्करणों की संख्या या फिर अनुवादों की संख्या कम महत्वपूर्ण लगती है। उन्हें इस किताब की प्रेरणा में पुराने तालाब या जल संचय प्रणालियों को दुरुस्त करना या नए तालाबों का निर्माण कराने की प्रेरणा ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है और ऐसा एक दो नहीं बल्कि 30 से 35 हजार तालाबों और जल संग्रह की व्यवस्थाओं के साथ हुआ है। आज भी किताब का नया संस्करण, नई भाषा का संस्करण आता है तो उसकी समीक्षा छपती है, तारीफ होती है लेकिन लेखक को सबसे ज्यादा तसल्ली तब मिलती है जब किताब की प्रेरणा में कोई पानी का काम करने निकलता है। वे बताते हैं कि सूरत के हीरा व्यापारियों ने जब यह एहसास किया कि वे पैसा कमाकर तिजोरी भर रहे हैं लेकिन उनके गांव की तिजोरी (कुआं, तालाब, बावड़ी वगैरह) तो लुट गए हैं या लुटते जा रहे हैं तो उन्होंने अपना काम-धंधा कुछ दिनों के लिए रोक कर गांव-गांव के तालाब दुरुस्त कराने का फैसला किया। अनुपम मिश्र को भी बुलाया गया। गाजा-बाजा-शामियाना के साथ परस्पर एक-दूसरे के यहां जाकर भी सफाई-मरम्मत का काम हुआ। इस दौरान हर गांव में जो भोजन परोसा गया वह किसी भी उत्सव से बेहतर था और एक साथ कई सौ तालाब जीवित हो उठे।

गुजरात और खासकर मीठे पानी के मुश्किल वाले कच्छ इलाके में अभियान नामक संस्था ने सैकड़ों जल संचय प्रणालियों को दुरुस्त कराने का काम किया। मध्य प्रदेश के पत्रकार अनिल यादव को लगा कि जब बहुत ही कम बारिश वाले गुजरात-राजस्थान के लोग इन विलक्षण जल संचय प्रणालियों के जरिए जीवन को हरा-भरा कर सकते हैं तो मध्य प्रदेश में तो काफी पानी गिरता है। उन्होंने इस किताब की प्रेरणा से न सिर्फ मध्य प्रदेश की प्रचलित जल संचय प्रणालियों पर किताब लिखी बल्कि एक संस्था बनाकर ऐसी प्रणालियों के रखरखाव और पुनरुद्घार का काम भी कराया। यह काम देश के हर हिस्से में हुआ पर ज्यादा चर्चित मामले देवघर (बिहार-झारखंड) के रावण तालाब और सागर के विश्वविद्यालय तालाब की सफाई के रहे।

सागर का किस्सा इसलिए ज्यादा दिलचस्प है कि यह शहर इसी विशाल तालाब के नाम पर बसा और चलता है। इसी के नाम पर विश्वविद्यालय है जिसमें दसियों शोध प्रबंध इस तालाब पर लिखे गए हैं लेकिन दशकों से गिरते गंदे नालों और कचरे ने इस तालाब का आकार आधा भी नहीं रहने दिया था। आज भी खरे हैं तालाब पढ़ चुके एक आइएएस अधिकारी ने जब सागर में कलेक्टर का पदभार ग्रहण किया तो उन्हें इस विशाल तालाब की सफाई का ख्याल आया। उन्होंने जब एक बार काम में हाथ लगा दिया तो जैसे अपनी जिम्मेवारी भूल चुके शहरवासियों को भी अपना कर्तव्य याद आ गया पर कलेक्टर साहब का खजाना जल्दी ही खाली हो गया और तालाब नाममात्र को साफ हो पाया। उन्होंने बुलडोजर जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने की घोषणा की, बशर्ते शहर के लोग इन पर रोज होने वाले खर्चों का बोझ उठाएं। ऐसे में नगर के प्रसिद्घ बीड़ी व्यापारी और झूठ बोले कौवा काटे जैसे प्रसिद्घ फिल्मी गीत के लेखक विट्ठल भाई पटेल आगे आए। उन्होंने शुरू में तो अपने और मित्रों के साधनों में काम चालू रखवाया, इसके बाद उन्होंने सचमुच का फिल्मी कदम उठाया। उन्होंने घोषणा की कि वे रोज बिना कुछ खाए-पिए शहर में करीब सात हजार रुपए (जो डीजल वगैरह के खर्च के लिए जरूरी था) जुटाएंगे। सो वे रोज एक बड़ा कटोरा लेकर निकलते थे और जहां वांछित रकम पूरी हो जाती थी, वहीं अपना काम रोक देते थे। फिर यह पैसा सफाई का खर्च उठाने पर जाता था। महीनों चले इस उपक्रम में सागर का तालाब पूरा तो नहीं लेकिन काफी साफ हो गया और शहर एक सवाल के प्रति फिर से सचेत हुआ।

इसी किताब की प्रेरणा से जेपी आंदोलन के सिपाही राजेंद्र सिंह ने तरुण भारत संघ नामक संस्था बनाकर राजस्थान में पानी का काम शुरू किया। उनका काम कहां तक गया, यह पूरा प्रसंग अलग पुस्तक का ही विषय है लेकिन कई जिलों को हरा-भरा बनाने के साथ इस संस्था को मैग्सेसे से पुरस्कार दिलाने तक तो जरूर गया। यह भी हुआ कि अरावली की ढलान पर जल संग्रह वाले छोटे-छोटे बांधों की श्रृंखला से कई छोटी नदियां जीवित हो गईं, जो जंगल कटते जाने से मृत हो गई थीं। फिर यह भी हुआ कि पानी ने नए जंगल खड़े किए। अब नदियों की मछली और पानी पर किसका हक हो या इस स्वयंसेवी संस्था का काम सरकारी काम में दखल है या नहीं, ये कानूनी विवाद भी चले और चल रहे हैं, पर पानी जमा करने और जंगल लगाने वालों ने तब अपने काम की सार्थकता महसूस की जब जंगल में रहने शेर आ गया। इससे जंगल विभाग सांसत में पड़ा लेकिन ग्रामीणों ने इसे अपने काम पर जंगल के राजा की मुहर लगाना माना। यह पूरा प्रकरण अलग कथा का विषय है।

पर आज भी खरे हैं तालाब के पृष्ठ 55 पर छपे इस वाक्य- हिमालय में चाल कहीं खाल है, कहीं तोली है तो कहीं चौरा है ने कमाल कर दिया। इस वाक्य के अगले वाक्य में कुछ गांवों के नाम हैं उफरैखाल, रानी चौरा और दूधातोली। इसी दूधातोली या उफरैखाल के अध्यापक सच्चिदानंद भारती के मन में यह वाक्य अटक गया क्योंकि अब उनके परिचित इन दोनों गांवों में न कोई तोली थी, न खाल यानी तालाब था। उन्हें गांव के नाम से तालाब जुड़े होने से अंदाजा तो लग रहा था लेकिन गांव में तालाब की जगह और बनाने का तरीका बताने वाला कोई न था। अपनी बेचैनी लेकर वे अनुपम मिश्र के पास आए तो उन्होंने भी सीधी जानकारी न होने की बात कही। यह जरूर कहा कि हमें प्रयोग करके देखना चाहिए- प्रकृति खुद दो-चार साल में हमें तरीका सिखा देगी। युवा काल में चिपको आंदोलन से जुड़े रहे भारती ने अपने तब के नेता चंडी प्रसाद भट्ट की भी मदद मांगी तो उनका जवाब भी ऐसा ही था।

लेकिन भारती, उनके डाकिया मित्र दीनदयाल, किराना दुकानदार विक्रम सिंह, जड़ी-बूटी वाले डॉक्टर दिनेश वैद्य और हरि सिंह बड़थ्वाल ने मन में कुछ ठानकर यह पहल की थी। सो, दो दशकों के अंदर ही उन्होंने 100 सीमावर्ती गांवों में बीस हजार से ज्यादा छोटे तालाब (थाल या ताल) और चालों का निर्माण और पुनरुद्घार किया। इसके साथ ही इस क्षेत्र में जंगल भी हरे-भरे हो गए क्योंकि इन लोगों की संस्था दूधातोली लोक विकास संस्थान ने बड़ी संख्या में पेड़ भी लगवाए। इनके द्वारा विकसित जंगल 500 से 700 हेक्टेयर तक के हैं। कई पेड़ तो 100 फुट तक ऊंचे हो गए हैं। जंगल काफी घने हो गए हैं और जो वन्य जीवन किस्से-कहानियों की चीज बन चुका था, वह बहाल हो गया है। जंगलों के बीच स्थायी जल स्रोत होने से आग लगने की समस्या भी काफी हद तक कम हो गई है। दुनिया भर में वनों की आग एक बड़ी समस्या है, इसी के चलते संयुक्त राष्ट्र की एक टोली यहां की विशेष सफलता को देखने आ चुकी है। उनका प्रमाण पत्र जो हो, इन 100 गांवों की लकड़ी, चारा और पानी की समस्या का स्थायी समाधान इस किताब की एक पंक्ति से मिली प्रेरणा ने करा दिया है। हाल में इस संस्थान को मध्य प्रदेश शासन का सर्वोच्च महात्मा गांधी पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। सामाजिक कामों के लिए यह सबसे बड़ी रकम (दस लाख रुपए) का पुरस्कार है। अनुपम मिश्र के पास बैठकर जब आप ये किस्से उनसे सुनते हैं तो उनके चेहरे का भाव देखने लायक होता है- सचमुच ये चीजें किसी लेखक के लिए वास्तविक गौरव की बातें हैं और राजेंद्र सिंह तथा सच्चिदासिंह भारती या सुरेंद्र बंसल जैसों को चाहे जो सुख-सम्मान मिला हो, अनुपम जी का सुख उन सब में साझा है।

संपर्क : 9811826111
 

 

 

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