विद्युत ऊर्जा का सच

विकास के वर्तमान मॉडल में देहरादून एवं दिल्ली के एयरकंडीशनरों यानि काम को सर्वोच्च स्थान दिया जा रहा है। इसके बाद क्रमशः देश के आर्थिक विकास एवं राजनीतिक क्षमता को। जो बच जाए उसमें आध्यात्म को समेट दिया जा रहा है। इतिहास साक्षी है कि यह मॉडल फेल होता है। रावण की लंका, कौरवों का इन्द्रप्रस्थ, पुरातन यूनान, रोम, राजस्थान के राजाओं के राजमहल और वर्तमान में अमरीका पर गहराता आर्थिक संकट-ये सभी सीख देते हैं कि संभ्रान्त वर्ग की भौतिक सुख सुविधा के लिए जब-जब धरती, प्रकृति और गरीब को सताया गया है विनाश का तांडव नृत्य हुआ है। उत्तराखंड सरकार बद्रीनाथ धाम से कौडियाला तक मां अलकनंदा नदी के 270 किलोमीटर प्रवाह में से 179 किलोमीटर पर जल विद्युत बनाने के लिए डैमों की कतार बना रही है। ऐसी ही कतार भागीरथी नदी पर भी बनाई जा रही है। सरकार का मानना है कि इन डैमों से अलकनंदा नदी के पावन जल का निरंतर बहाव बाधित नहीं होता है इसलिए जल पर डैमों का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।

देश के आर्थिक विकास के लिए बिजली की जरूरत है इसलिए डैमों की कतार बनाना देश हित में है। यदि स्थानीय लोगों पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है तो उनको समुचित मुआवजा दे दिया जाएगा। इस प्रकार डैमों का निर्माण सबके हित में होगा। निर्विवादित है कि देश को उर्जा चाहिए। यह आर्थिक विकास के लिए हो या फिर आरामदायक जीवन के लिए हो।

बच्चों को पढ़ाई करने में बिजली से लाभ होता है। हम चाहते हैं कि देश में उर्जा का अधिकाधिक उत्पादन और खपत हो। लेकिन इस प्रक्रिया को इतनी सहजता से किया जाए कि देश की संपूर्ण जनता पर इसका अंतिम प्रभाव अच्छा पड़े। महानगरों एवं मध्यवर्ग के लोगों की उर्जा की अधिक खपत के लिए बहुजनों को त्रास नहीं देना चाहिए। इस हेतु उर्जा उत्पादन के अनेक विकल्प उपलब्ध हैं जैसे वायु, सूर्य, माइक्रो हाइडिल इत्यादि। इनके उपयोग से जन-जीवन की हानि नहीं होती है। अतः इसे बढ़ावा देना चाहिए।

जल विद्युत के उत्पादन का विशेष लाभ यह है कि इस उर्जा को सायंकाल 6-8 घंटों के लिए आवश्यकतानुकूल उत्पादित किया जा सकता है। इस समय उर्जा की सर्वाधिक खपत होती है। इसे पीक लोड कहा जाता है। वर्तमान में तमाम राज्य सरकारें 5 से 10 रुपये प्रति यूनिट में उर्जा की पीक लोड खरीद कर रही हैं जिससे इन्हें भारी घाटा लग रहा है।

डैमों की कतार से राज्य सरकार पर यह भार कम हो जाएगा और बची रकम का प्रयोग अन्य विकास कार्यों में लगाया जा सकेगा। यह एक नेक विचार है। किंतु पीक लोड समस्या से निपटने के अन्य विकल्पों पर विचार करना चाहिए। जैसे पीक लोड आवर्स में बिजली के रेट बढ़ा दिए जाएं। लंदन आदि शहरों में ऐसी ही व्यवस्था है। पीक लोड आवर्स में जनता को सस्ती बिजली देने के लिए सरकार ने डैमों की कतार खड़ी करने का निर्णय लिया है।

जिस प्रकार विदेशों में पीक आवर्स में बिजली महंगी बिकती है वैसे ही यदि हम भी महंगी बेचना शुरू कर दें तो स्वतः पीक लोड के समय गीजर, इन्वर्टर, एयरकन्डीशनर ,एवं पंखों आदि के माध्यम से बिजली का उपयोग कम हो जाएगा और उर्जा की मांग कम हो जाएगी। पीक लोड उर्जा की सप्लाई के लिए स्थानीय जनता को उजाड़ना और देश की संस्कृति को नष्ट करना पाप है।

लेखक सहमत है कि देश हित में कुर्बानी देनी पड़ेगी तो दी जाएगी। लेखक द्वारा किए गए अध्ययन से ऐसी बातें सामने आई हैं जिनसे ज्ञात होता है कि ये डैम देश हित में नहीं हैं बल्कि इनसे देश की हानि होती है। हां इनसे डैम कंपनियों और उत्तराखंड सरकार के कर्मचारियों को लाभ होता है जिनकी संख्या आम जनता के सामने नगण्य है। फिर भी अपने स्वार्थ के लिए यह वर्ग देश, उत्तराखंड, स्थानीय जनता, मां अलकनंदा, गरिमामयी भागीरथी नदी, आसपास के श्रद्धा स्थल और इस देश की भव्य संस्कृति को लुप्त करने को तैयार है। इससे मन आहत होता है।

बताए गए दुष्प्रभावों को डैम कंपनियां कपोल कल्पित और निराधार बताकर खारिज कर रही हैं और यह संदेश दे रही हैं कि वास्तव में स्थानीय लोग डैम चाहते हैं और इससे लाभान्वित है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए लेखक ने उत्तराखंड के तीन पुराने डैमों चीला, मनेरी और टिहरी का सर्वे किया है जो पुष्टि करते हैं कि इस पुस्तिका में दिए गए दुष्प्रभाव वास्तविक हैं।

मुख्यतः डैम तीन प्रकार के होते हैं।
1-बड़े स्टोरेज डैम जैसे टिहरी।
2-बराज एवं नहर आधारित डैम जेसे चीला।
3-बराज एवं सुरगं आधारित डैम जैसे मनेरी।

प्रत्येक डैम के गुण-दोष, लाभ-हानि अलग-अलग होते हैं। एनएचपीसी ने देवप्रयाग की तीनो दिशाओं में तीन डैम प्रस्तावित किए हैं जिन्हें कोटलीभेल परियोजना के नाम से जाना जाता है। ये डैम टिहरी और मनेरी के बीच की प्रकृति के है। इसमें टिहरी के जैसी ही 27 किलोमीटर लंबी झील बनाई जाएगी।

इन तीन डैम में देवप्रयाग के उपर कोटलीभेल 1 बी प्रस्तावित है जिसका डूब क्षेत्र परम पावन तीर्थ देवप्रयाग से प्रारम्भ होकर श्रीनगर तक रहेगा। किंतु टिहरी की तरह इस डैम में बरसात का पानी एकत्रित करके गर्मी में नहीं उपयोग किया जाएगा।

आने वाले जल का उसी दिन बिजली बनाने में उपयोग हो जाएगा। इस डैम के उपर जीवीके कम्पनी के द्वारा इसी प्रकार का दूसरा डैम बन रहा है। जीवीके की श्रीनगर परियोजना मे मां अलकनंदा के जल को 16 घंटे तक झील में रोका जाएगा। फिर पीक लोड आवर्स में इसे तेजी से बिजली बनाते हुए छोड़ा जाएगा।

कोटलीभेल की झील में पीक लोड के समय टेल एंड (श्रीनगर के पास) जल स्तर में तेजी से वृद्धि होगी जबकि हेड (देवप्रयाग के पास) इसमें तेजी से गिरावट होगी। श्रीनगर में जल का बहाव आठ घंटे तक विशाल लहर की तरह बहेगा और इसी क्रम में देवप्रयाग पहुंचेगा।

इस प्रकार झील की रिम पर जलस्तर का प्रतिदिन उतार चढ़ाव होता रहेगा। ऐसी ही स्थिति मुनेठ में बनने वाले कोटलीभेल 1ए तथा कौडियाला में बनने वाले कोटलीभेल 2 डैमों की है। यह अध्ययन सीधे तौर पर इन चार डैमों पर लागू होता है - जीवीके के श्रीनगर एवं एनएचपीसी के कोटलीभेल 1ए, कोटलीभेल 1बी एवं कोटलीभेल 2 पर।

यहां एनएचपीसी द्वारा प्रस्तावित कोटलीभेल 1बी डैम के आधार पर हाइड्रोपावर का मूल्यांकन किया गया है। दूसरे डैम के लिए यह अध्ययन अलग से किया जाना चाहिए। फिर भी लेखक का मानना है कि अध्ययन का जो फ्रेम यहां बताया गया है वह तकरीबन सर्वत्र लागू होता है।

जागरूक पाठकों से यह नम्र निवेदन है कि अपनी स्थिति के अनुसार इसमें संशोधन कर लें।

जल विद्युत का परिदृश्य


इन डैमों के लाभ-हानि के आकलन में प्रवेश करने से पहले जल विद्युत के विस्तृत परिदृश्य का विवेचन जरूरी है। देश के नेता गंगाजल को विद्युत उत्पादन के लिए प्रयोग करने के लिए तैयार हैं। उनका मानना है कि गंगा को नहर एवं तालाबों में बदलने से उसकी आध्यात्मिक शक्ति में ह्रास नहीं होगा अथवा थोड़ा ही होगा।

यह सही नहीं कि गंगा, देवप्रयाग और मां धारीदेवी में शक्ति के अभाव के कारण देश गुलाम बना। सच तो यह है कि मां गंगा की मातृ शक्ति को हमारे पूर्वजों ने सही दिशा नहीं दी जैसे घर में बंदूक रखी हो और चोर पर गोली न चलाई जाए और बंदूक को न चलने का दोष दिया जाए। सही प्रयास न करने के परिणाम को गंगा की शक्ति का अभाव बताना अनुचित है। कुछ नेताओं का मानना है कि वैसे भी इसमें आध्यात्मिक शक्ति नाम मात्र ही है। यदि गंगा, देवप्रयाग और मां धारीदेवी में शक्ति होती तो देश को अंग्रेजों का गुलाम क्यों बनने दिया? अथवा ये अपनी रक्षा स्वयं क्यों नहीं कर सकते हैं? इनके द्वारा अपनी रक्षा न कर पाना इस बात का प्रमाण है कि इनमें वास्तव में उतनी आध्यात्मिक शक्ति नहीं विराजती है।

यह बात विचारणीय है कि हम क्यों गुलाम बने? ऐसा प्रतीत होता है कि भारत का पतन आध्यात्मिक शक्ति के ह्रास के कारण नहीं हुआ है बल्कि आध्यात्मिक एवं सांसारिक शक्ति के असंतुलन के कारण हुआ है। ईसावास्य उपनिषद में कहा गया है किकेवल संसार में रमण करने वाले अंधेरे में जा गिरते हैं किंतु केवल ज्ञान में रमण करने वाले उससे भी ज्यादा गहरे अंधेरे में जा गिरते हैं।

हमारे पूर्वजों से भूल हुई कि उन्होंने आध्यात्म के अनुसार भौतिक कार्यों को दिशा देने का प्रयास नहीं किया। आने वाली पीढ़ी को सांसारिक सजगता का पाठ नहीं पढ़ाया ठीक उसी प्रकार जैसे बैट्री चार्ज हो और उसमें केबल न लगाया जाए तो बैट्री को दोष नहीं दिया जा सकता है। फलस्वरूप हमारी आध्यात्मिक शक्ति प्रकट नहीं हो सकी।

आज हमारे सामने पुनः चुनौती खड़ी है। यदि हम अपनी आध्यात्मिक शक्ति की उपासना करते हुये निष्क्रीय पड़े रहे तो वह शक्ति हमें निष्फल ही दिखेगी। हम अंदर-ही-अंदर राजनीतिक स्तर पर खोखले हो जाएंगे। दूसरी ओर यदि हम आध्यात्मिक शक्ति को नकार कर केवल भैातिक एवं राजनीतिक रूप से शक्तिवान होना चाहें तो भी हम सफल नहीं होंगे। अल्पकाल के लिए तो विकास दिखेगा किंतु अतिशीघ्र पतन हो जाएगा। ऐसा विकास टिकाउ नहीं होता है जैसा कि सिंधुघाटी की सभ्यता, सम्राट अशोक और मौर्य साम्राज्य का हुआ। हमारे बुजुर्गों ने फार्मूला दिया है - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।

भौतिक सुविधाओं, यानि काम को इस प्रकार से भोगो कि अर्थ की हानि न हो। धन को इस तरह से हासिल करो कि समाज की हानि न हो। राजनीति का इस प्रकार संचालन करो कि आध्यात्म की हानि न हो। इस प्रकार आध्यात्म, राजनीति, आर्थिक विकास एवं भौतिक संसाधनों का क्रम बनता है। मुश्किल यह है कि हमने इस क्रम को पलट दिया है।

विकास के वर्तमान मॉडल में देहरादून एवं दिल्ली के एयरकंडीशनरों यानि काम को सर्वोच्च स्थान दिया जा रहा है। इसके बाद क्रमशः देश के आर्थिक विकास एवं राजनीतिक क्षमता को। जो बच जाए उसमें आध्यात्म को समेट दिया जा रहा है। इतिहास साक्षी है कि यह मॉडल फेल होता है।

रावण की लंका, कौरवों का इन्द्रप्रस्थ, पुरातन यूनान, रोम, राजस्थान के राजाओं के राजमहल और वर्तमान में अमरीका पर गहराता आर्थिक संकट-ये सभी सीख देते हैं कि संभ्रान्त वर्ग की भौतिक सुख सुविधा के लिए जब-जब धरती, प्रकृति और गरीब को सताया गया है विनाश का तांडव नृत्य हुआ है। हमें वह गलती नहीं करनी चाहिए।

हम चाहते हैं कि एयरकंडीशनर की सुख सुविधा और आर्थिक विकास इस तरह हो कि गंगा, देवप्रयाग, और मां घारीदेवी की आध्यात्मिक शक्ति बढ़े न कि घटे। उर्जा बनाने के लिए सौर, वायु, जटरोपा और छोटे पनबिजली यंत्रों का उपयोग करना चाहिए। इनसे वांछित मात्रा में बिजली उत्पन्न न हो सके तो अपनी बिजली की खपत पर अंकुश लगाना चाहिए। बिजली के भोग के लिए मां गंगा की आध्यात्मिक ताकत को सूली पर नहीं चढ़ाना चाहिए।

यह सही नहीं कि गंगा, देवप्रयाग और मां धारीदेवी में शक्ति के अभाव के कारण देश गुलाम बना। सच तो यह है कि मां गंगा की मातृ शक्ति को हमारे पूर्वजों ने सही दिशा नहीं दी जैसे घर में बंदूक रखी हो और चोर पर गोली न चलाई जाए और बंदूक को न चलने का दोष दिया जाए। सही प्रयास न करने के परिणाम को गंगा की शक्ति का अभाव बताना अनुचित है।

(लेखक की प्रसिद्ध कृति ‘‘विद्युत उर्जा का सच’’ से उद्धृत)

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