विकास’ और हमारा पिछड़ापन

15 Mar 2011
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जैसलमेर जैसे रेगिस्तानी हिस्से में औसत वर्षा 16 सेन्टीमीटर है, लेकिन यहां के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी को शिकायत की तरह नहीं लिया बल्कि सांई ने जितना दिया है उतने में अपना कुटुंब समाकर दिखाया है।

हमारे जीवन में, राजनीति में और समाज के कामों में भी एक नया शब्द इस दौर में आया है। हमने उसे बिना ज्यादा सोचे-समझे बहुत बड़ी जगह देने की एक गलती की है। हम सब साथियों को यह जानकर अचरज होगा कि यह शब्द और कोई नहीं बल्कि ‘विकास’ शब्द ही है।

आज के इस दौर से सौ साल पहले का साहित्य या पचास साल पहले का साहित्य विकास जैसे शब्दों का उपयोग नहीं करता था। कुछ राजनैतिक कारणों से हमने अपनी किसी लड़ाई में इस शब्द का किसी ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहा था और अब हम सब पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक कार्यकर्ता, साहित्यकार, कवि आदि भी अपना काम बिना विकास या प्रगति जैसे शब्दों के चला नहीं पा रहे हैं।

इसकी गहराई में जाना चाहिये, ऐसा अनुरोध मैं पूरी विनम्रता के साथ करना चाहता हूं।

हम सब जानते हैं कि गांधी जी ने अपने जीवन में बहुत कुछ कहा, और बहुत कुछ लिखा है। उन्होंने इतना लिखा कि यदि दाहिना हाथ थकने लगे तो उन्होंने बांये हाथ से भी लिखने की कोशिश की। बाद में भारत सरकार ने उनके लिखे और कहे गये शब्दों को एक जगह एकत्र करने के लिए अपने प्रकाशन विभाग में संपूर्ण गांधी वांङ्मय नाम से एक बड़ा प्रकाशन भी किया है। इसमें लगभग 500 पृष्ठों की संख्या के सौ खंड तैयार हुए हैं। यानि 100 गुना 500 = 50,000 पृष्ठों की सामग्री हमारे सामने है। मैंने यह सब पूरा नहीं पढ़ा है कभी, लेकिन मैं निवेदन करना चाहता हूं कि इसमें शायद ही कहीं गांधी जी ने विकास शब्द का उपयोग किया है।

तो क्या हम मानें कि गांधी जी की इस देश की भलाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी। आप सभी साथियों का जवाब ‘ना’ में ही आयेगा। समाज का छोटे से छोटा काम करने वाले हम लोग कहीं न कहीं गांधी जी को अपने सामने रखते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं। इसलिये आप सब की यह छोटी सी बैठक इस विषय की परतें खोलने की एक बड़ी यात्रा को शुरू करने का प्रयत्न कर सकेगी तो हम सबको इसका लाभ आगे मिलने ही वाला है।विकास से ही बना है ‘विकसित’ और इसी से बना है ‘अविकसित’। इसी पैमाने को लेकर हम अपने समाज को, अपने देश को, प्रदेश को, प्रदेश के हिस्सों को और अपने ही परिवार को नापने की कोशिश करते हैं इसके परिणाम क्या निकलते हैं? भोपाल विकसित हुआ है, इन्दौर भी लेकिन छतरपुर का विकास नहीं हुआ है और आगे चलें तो बालाघाट, बस्तर आदि इस पैमाने के हिसाब से अविकसित कहलायेंगे। पैमाने को थोड़ा और आगे बढ़ायें तो भोपाल और इन्दौर, लंदन और पेरिस के मुकाबले बेहद पिछड़े या अविकसित माने जायेंगे।

यह भी हम जानते हैं कि भोपाल, इंदौर या दिल्ली का पानी, उसकी बिजली, उसका खाना-पीना, उसका सब कुछ किसी और के हिस्से से चुराकर लाया जाता है। जबकि शायद छतरपुर, बालाघाट, बस्तर या जहां-जहां से आप लोग आये हैं, उन सब जगह का खाना-पीना, बिजली हो सकता है कि किसी और का हक छीनकर न लाया गया हो फिर भी हमारी कलम से ऐसे वाक्य निकल ही जाते हैं बस्तर जैसे पिछड़े इलाके ..........।

इस तरह मुझे लगता है कि विकास नाम की इस नई मुहर ने हमारे राज करने वालों को एक ऐसा अधिकार सौंप दिया है कि वे किसी भी सम्पन्न हिस्से पर खनिज, लौह अयस्क आदि की तो बात ही छोड़ दें, कोयला, सोना और हीरा जैसे सम्पन्नतम संसाधनों के ऊपर बैठे लोगों को भी अविकसित कहकर विस्थापित कर देते हैं और बहुत जोर से कहते हैं कि यह काम उस क्षेत्र के विकास के लिए किया जा रहा है।

अच्छी राजनीति का काम देश को, समाज को एक अच्छी दिशा देना का होना चाहिये। बिजली, सड़क, फ्लाईओवर बनाना वो भी ईमानदारी से बनाना अच्छे ठेकेदारों का काम है। राजनेताओं का यह काम नहीं है लेकिन आज के इस विचित्र दौर में हम पाते हैं कि अब तो वो राजनैतिक दल भी जिनका आधार किसी संकीर्ण विचार पर टिका था, वे लोग भी विकास का झंडा ऊंचा उठाकर चुनाव जीतने लगे हैं। इससे और आगे बढ़े तो संकीर्ण के अलावा क्रांतिकारी विचार रखने वाले दल भी साधारण से उद्योगपतियों के लिये जमीन दिलवाने के काम को ही विकास मानने लगे हैं। इसलिये हम पर यह एक बड़ी जिम्मेदारी है कि हम अपने लेखन को, अपने सोचने को इस शब्द से ऊपर उठायें।

मैं मानता हूं कि यह एक विचित्र दौर है और इसमें हमें कुछ ज्यादा सूझता नहीं है पर इसमें हमारी गलती भी नहीं है। महाभारत की कहानी में जिस तरह चीरहरण का प्रसंग आता है उसी तरह यह दौर हम पढ़े-लिखे लोगों की भी बुद्धिहरण का काम करता है। हम जान ही नहीं पाते और हमारी बुद्धि का हरण होने लगता है। दुर्भाग्य से चीरहरण के प्रसंग की तरह इस बुद्धिहरण के प्रसंग में कोई कृष्ण नहीं है जो हरती जा रही हमारी बुद्धि को ऊपर से उसी तेजी से देता जाये। इसलिये हमें ठीक न सोच पाने को एक गलती नहीं मानना चाहिये, यह इस दौर की एक अनिवार्य दुःखद भेंट है जिसे अस्वीकार करने के लिये हमें कुछ अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। यह परिश्रम यदि हम करने लगें तो फिर इसमें थकान के बदले आनंद आने लगेगा, स्फूर्ति मिलने लगेगी। हममें इतनी ऊर्जा का संचार होने लगेगा कि उसे और लोगों को बांटे बिना हम रह नहीं पायेंगे।

इसी बुद्धिहरण प्रयोग से जुड़ा है सूखा, और यदि आप सब अनुमति दें तो बाढ़ का प्रसंग। सूखा और बाढ़ अब हमारे देश के लिये नियमित हो गये हैं, यदि हम अपने समाज में घूमें, उससे कुछ बातचीत करें तो पता चलता है कि हमारे देश के जैसलमेर जैसे रेगिस्तानी हिस्से में औसत वर्षा 16 सेन्टीमीटर है, लेकिन यहां के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी को शिकायत की तरह नहीं लिया बल्कि सांई ने जितना दिया है उतने में अपना कुटुंब समाकर दिखाया है।

यह भी याद दिला दूं कि जैसलमेर देश का सबसे बड़ा जिला है। इसमें 16 सेन्टीमीटर का औसत भी पश्चिम की तरफ बढ़ते केवल 3 सेन्टीमीटर रह जाता है। एक वर्ष में 3 सेन्टीमीटर बरसात, हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि ऐसे में कोई समाज कैसे रहता होगा? भू-जल भी यहां पर 300 फीट से ज्यादा गहराई पर है और लगभग सभी स्थानों पर इतना खारा है कि उसको पीया नहीं जा सकता लेकिन यहां के गांव खुशहाल हैं। पानी की कमी का रोना नहीं रोते। तो ऐसा वो अपने दम पर करते हैं, यहां विकास नाम की किसी भी चिड़िया ने पंख नहीं फड़फड़ाये हैं। यह भी कह सकते हैं कि जहां कुछ भागों में विकास पहुंचा है वहां उनका मीठा पानी खत्म हुआ है और उसकी जिंदगी पहले से ज्यादा बिगड़ी है।

ऐसे ही इलाके बाढ़ के हैं, हमारे देश का उत्तरी बिहार एक ऐसा हिस्सा है जहां सच कहें तो कदम-कदम पर नदियां मिलेंगी। नेपाल से लगा यह क्षेत्र हिमालय की ऊंची चोटियों से आने वाले पानी से हर बरसात में पूरा का पूरा तरबतर हो जाता है। इन नदियों का स्वभाव भी हमारी देखी समझी नदियों, नर्मदा से बिल्कुल अलग है। इनमें से ज्यादातर नदियां अपना रास्ता बदलती रहती हैं। उदाहरण के लिए कोसी नदी ने पिछले सात सौ, आठ सौ वर्षों में कोई डेढ़ सौ किलोमीटर का रास्ता बदला है। लेकिन ऐसी नदियों के किनारे रहने वाले समाज ने अपने को इन नदियों में आने वाली बाढ़ के साथ समरस कर लिया था। उसने इन नदियों के जो नाम रखे हैं वो इस बात का पर्याप्त प्रमाण हैं कि उन्हें बाढ़ से खेलना आता था।

लेकिन अब हमारे नये समाज ने इनकी जीवनशैली को विकास के तराजू पर तौलकर अविकसित बताया है। और पिछले सौ सालों में इन इलाकों के विकास की कोशिश ने बाढ़ का कुछ क्षेत्रफल बढ़ाया है और उसकी मारक क्षमता को कई गुना किया है। बाढ़ और सूखा से प्रभावित माने जाने वाले हिस्सों को अभी भूल जायें और देखें दिल्ली, मुम्बई, बैंगलोर, गुजरात के बड़ौदा जैसे विकसित शहर जो अब हर साल बरसात में बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं।

इसलिए आप सभी लोगों से यह विनम्र अनुरोध है कि समाज ने लिखने-पढ़ने का जो थोड़ा बहुत अवसर दिया है उसका हम ठीक उपयोग करें और इस समाज के चरणों में कुछ सार्थक लेखन, पठन रखें।

(यह लेख ‘विकास संवाद’ भोपाल के प्रशांत दुबे की प्रस्तुति है, अनुपम मिश्र से बातचीत के आधार पर यह लेख तैयार किया गया है। लेख ‘सूखे में समाज और मीडिया’ कार्यशाला में मीडियाकर्मियों को वितरित किया गया।)

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