विकास दैत्य को सब कुछ आज ही चबा जाना है

16 Dec 2016
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1980 में साहित्य-संस्कृति की हस्तियों से लेकर प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पश्चिम घाट बचाओ अभियान शुरू किया। पर्यावरण को वृहत्तर सामाजिक संदर्भ से जोड़ने वाला यह सबसे बड़ा अभियान था। इसने न सिर्फ सारे देश का ध्यान पश्चिम घाट की तरफ खींचा बल्कि देश में जगह-जगह ऐसे अभियानों को गति दी। एक दौर ऐसा भी आया कि जब इसकी गति धीमी पड़ी लेकिन सहयाद्री दिवस का स्वरूप देकर इसे यहाँ की परम्परा बना देने की युक्ति ने इसे जिंदा रखा और यह आज वहीं से शक्ति खींच कर फिर खड़ा हो गया है।

नर्मदा बचाओ, गंगा बचाओ, जंगल बचाओ, हिमालय बचाओ, भारत बचाओ, पश्चिम घाट बचाओ ! ये सारे देश में चल रहे कुछ उन आंदोलनों के नाम हैं, जो महसूस कराते हैं कि बात इस हद तक बिगड़ चुकी है कि अब बचाने की गुहार लगाने की जरूरत है लेकिन कौन बचा रहा है और किससे, यह देखना-समझना भी बहुत जरूरी है। पश्चिम घाट बचाओ आंदोलन ने अचानक ही ऐसा रूप ले लिया है कि केरल का जनजीवन अशांत हो उठा है और हर अशांति को अपने लिये अवसर मानने वाली राजनीतिक ताकतें उसमें पत्थर फेंकने दौड़ पड़ी हैं। केरल बंद की हद तक जाने वाला आज का आंदोलन भले कानून-व्यवस्था का सवाल बना दिया गया है लेकिन जवाब यह खोजना है कि यह पश्चिम घाट बचाओ की आवाज उठी क्यों है?

पश्चिम घाट विंध्याचल पर्वत शृंखला का, 1600 किलोमीटर में फैला वह इलाका है, जो पाँच राज्यों को छूता है- महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु! गहरे घने जंगल, प्राकृतिक वैविध्य का अद्भुत संसार, नदियाँ और वन्यप्राणियों की लंबे सह-जीवन की परंपरा ने इस घाट में एक रहस्यलोक ही रच दिया है जिसे प्रकृति भी छूती है तो बड़े करीने से कि जैसे क्रोशिए का बुना कोई जाल हो कि जिसे सुलझाना भी है और कोई एक धागा टूटे नहीं, यह सावधानी भी रखनी है। पश्चिम घाट हमारा सबसे बड़ा कार्बन-सोख्ता या ब्लॉटिंग पेपर है, जो हमारी आधुनिक जीवनशैली का जहर सोखता है और ऑक्सीजन बनाता है। इसके एवज में यह हमसे सिर्फ यह मांगता है कि इसे हम वैसा ही छोड़ दें, जैसा हजारों सालों में प्रकृति ने इसे बनाया है, लेकिन हमारे विकास-दैत्य को तो सब कुछ उदरस्थ करना है और आज ही करना है। विकास की युनिफ़ॉर्म पहनकर विनाश की यह कवायद पश्चिम घाट को रौंद रही है।

पावर (शक्ति) विहीन सरकारें पावर (बिजली) के लिये वह सब कुछ रौंद डालने में लगी हैं, जहाँ से अब तक समाज पावर (जीवन-रस) पाता रहा है। पश्चिम घाट पर भी इसी विकास-दैत्य का काला साया पड़ा है। महाराष्ट्र की कोयना, कर्नाटक की काली, सूपा और शरावती, केरल की इडुकी नदियाँ हैं, जिन्हें बिजली के लिये सरकारें निचोड़ना चाहती हैं। जब आप नदियों को निचोड़ते हैं, तो उसके साथ ही निचुड़ता है प्राकृतिक वैविध्य का वह संसार जो पता नहीं कितने तरह के प्राणों को सींचता-पालता है। नदियों से थोड़ी-भी असावधान छेड़छाड़ प्राकृतिक संतुलन को स्थायी नुकसान पहुँचाती है। ऐसा करने से विनष्ट होता है प्रकृति का वह सब संचित कोष, जिसका अर्थ भी अभी आदमी समझ नहीं सका है और जिसके इस्तेमाल की कला भी मानव-समाज ने सीखी नहीं है! गांधी जब कहते हैं कि हम प्रकृति से जितना लेते हैं, हमें उसे उतना ही और नकद ही लौटाने की जीवन-शैली विकसित करनी होगी। जब आप जंगलों को कच्चा माल बनाने का कारखाना समझ लेते हैं तब हजारों-हजार सालों में तैयार हुई कितनी ही खदानें खोखली हो जाती हैं, कितने ही आदिवासी समाज जड़ से उखड़ जाते हैं। तब सवाल खड़ा होता है कि आखिर इतनी सारी रोशनी बुझा कर, आप किसके लिये रोशनी ला रहे हैं? इस सवाल के जवाब में ही छिपी है विकास के विनाश की पूरी कथा!

एक कथा यह देखिए ! दक्षिण गोवा का तटवर्ती शहर है करवार। पूरा शहर जैसे कोई फौजी छावनी है, क्योंकि नौसेना ने यहाँ अपना अड्डा बनाया है। सब कुछ फौजी तरीके से चलता है यहाँ। अब शायद ही किसी को याद है कि यहाँ के एक समुद्र तट का नाम रवींद्रनाथ ठाकुर भी है। सुदूर गोवा में, किसी समुद्री तट का नाम बंगाल के रवींद्रनाथ ठाकुर के नाम पर क्यों है? यह सांस्कृतिक कथा दिलचस्प है। कभी गुरुदेव यहाँ आए थे- तन-मन की क्लांंति मिटाने। इस समुद्र तट के सम्मोहन से अभिभूत हो कर यहीं ‘गीतांजलि’ लिखने की शुरुआत की उन्होंने। पश्चिम घाट के किसी कोने में कविगुरु भी बसते हैं, क्या विकास-दैत्य इसकी कीमत समझता है? उसने रवि बाबू को उत्प्रेरित करने वाले करवार की कैसी हालत बना दी है? कभी शिक्षक रहे विनोद गौरव कहते हैं, ‘सबसे बड़ी चिंता यह है कि यहाँ के स्कूलों में बच्चों ने दाखिला लेना बंद-सा ही कर दिया है! बालनी के सरकारी स्कूल में, जहाँ 1 से 7 तक की कक्षा में कभी 153 बच्चे पढ़ते थे, आज मात्र 10 बच्चे हैं!’ बच्चे गए कहाँ? इस एक सवाल के कई जवाब हैं, क्योंकि जब आप सच्चा जवाब सुनना और खोजना नहीं चाहते हैं तब जवाबों की आड़ में सच्चाई छिपानी पड़ती है।

बालनी कर्नाटक में सबसे घने जंगल से आच्छादित उत्तरी हिस्से के जाइडा ताल्लुके में है। यहीं से बहती है काली नदी। 184 किलोमीटर लंबी इस नदी पर छह जलविद्युत परियोजनाएँ खड़ी की गई हैं- हर 30 किमी पर एक परियोजना! अब सोचिए कि कैसी बची होगी काली नदी और कैसा बचा होगा वहाँ का पर्यावरण? कैगा परमाणु बिजलीघर भी इसी नदी पर बनाया जा रहा है। और काली नदी से सिंचित इन्हीं जंगलों में बसते हैं वे वनवासी, जो जंगल ही ओढ़ते-बिछाते हैं। वे सब विस्थापित नहीं हुए हैं, स्कूल समाप्त हो रहे हैं। बच्चे स्कूलों में नहीं हैं, क्योंकि बच्चे यहाँ के समाज में ही नहीं बचे हैं। पश्चिम घाट के पर्यावरण का विनाश ऐसा असर ला रहा है, यह मानने को तैयार ही नहीं होंगे ये तथाकथित विकासवादी! तय तो करना ही होगा कि आधुनिक विकास को किस कसौटी पर कसेंगे हम?

विकास में बाँध बना, कि तापघर, कि हवाई अड्डा, कि बहुलेनीय राजमार्ग, कि दूसरा कुछ, यह विकास को मापने का आधार नहीं हो सकता है, नहीं होना चाहिए। क्या बना यह नहीं, कैसे बना, किनके लिये बना और उसने किसको क्या दिया और किससे क्या लिया, इसका हिसाब करेंगे तो पता चलेगा कि बालनी में जीवन जैसा कुछ नहीं बचा है कि वहाँ बच्चे बचें! अपने बच्चों के साथ हम कितने क्रूर हैं, पश्चिम घाट यह भी बताता है। 66 प्रतिशत का वन आच्छादन आज 35 फीसदी भर बचा है। परिणाम यह है कि जंगलों से जीवन लेने वाली और जंगलों को जीवन देने वाली नदियों का हाल बुरा है। कावेरी जैसी सदासलिला नदियों का जल स्तर इतना गिरा है जितना पहले कभी गिरा नहीं था। इस विकास-दैत्य ने पश्चिम घाट में मनुष्यों और पशुओं को आमने-सामने भिड़ने पर मजबूर कर दिया है।

1980 में साहित्य-संस्कृति की हस्तियों से लेकर प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पश्चिम घाट बचाओ अभियान शुरू किया। पर्यावरण को वृहत्तर सामाजिक संदर्भ से जोड़ने वाला यह सबसे बड़ा अभियान था। इसने न सिर्फ सारे देश का ध्यान पश्चिम घाट की तरफ खींचा बल्कि देश में जगह-जगह ऐसे अभियानों को गति दी। एक दौर ऐसा भी आया कि जब इसकी गति धीमी पड़ी लेकिन सहयाद्री दिवस का स्वरूप देकर इसे यहाँ की परम्परा बना देने की युक्ति ने इसे जिंदा रखा और यह आज वहीं से शक्ति खींच कर फिर खड़ा हो गया है। पश्चिम घाट बचाओ आंदोलन क्षुद्र राजनीति का मोहरा न बने, यह देखना उन सभी सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों की जिम्मेवारी है, जिन्होंने इसे अब तक दिशा दी है। उस दिशा में अपशकुन के बादल उतर रहे हैं।

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