विकास एवं पर्यावरण नीति

आर्थिक विकास एवं पर्यावरण प्रदूषण पर किए अधिकांश अध्ययन दर्शाते हैं कि आर्थिक विकास बढ़ने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ता है। विकास और पर्यावरण संरक्षण की दीर्घकालिक नीति में सर्वाधिक महत्व पर्यावरण शिक्षा पर दिया जाना चाहिए क्योंकि अगर यह नागरिकों के जीवन मूल्य बन जाएँ तो कानून बनाने और लागू करने की दिक्कतें स्वयं हल हो जाएँगी।

अर्थशास्त्र में उत्पादन के पाँच साधन स्वीकार किए गए हैं: भूमि, पूँजी, श्रम, साहस और संगठन। इनमें से केवल भूमि प्राकृतिक है, शेष चार मानवीय। अर्थशास्त्र में भूमि मात्र जमीन तक सीमित नहीं है। भूमि की परिभाषा प्रकृति के निःशुल्क उपहार के रूप में की गई है। अर्थात जो कुछ भी प्राकृतिक रूप में है, भूमि है। भूमि उत्पादन का निष्क्रिय साधन है और मानव सक्रिय। इसलिए मनुष्य ने मनमाने ढँग से भूमि, प्रकृति या पर्यावरण का प्रयोग किया है तथा मानव द्वारा किए गए आर्थिक विकास प्रयासों का असर पर्यावरणीय सम्पदा पर पड़ा है। और अब जब विश्व में पर्यावरणीय समस्याएँ बढ़ रही हैं, पर्यावरण संरक्षण के लिए गम्भीरता से अध्ययन किए जा रहे हैं; विकास तथा पर्यावरण के बिगड़ते सम्बन्ध को सुधारने के प्रयास किए जा रहे हैं। वर्ष 1992 में विश्व बैंक द्वारा ‘विकास और पर्यावरण’ अंक प्रकाशित किए जाने के बाद से आर्थिक साहित्य में विकास और पर्यावरण के सम्बन्धों पर अनेक लेख छापे गए हैं जिनमें इस बिगड़ते सम्बन्ध को नापने और नीति सुझाने का प्रयास किया गया है।

विकास-पर्यावरण सम्बन्ध


अर्थशास्त्री कुजनेट्स ने विभिन्न देशों के पर्यावरणीय प्रदूषण के आँकड़ों को प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय से जोड़ते हुए वक्रों की सहायता से यह निष्कर्ष निकाला है कि विकास के आरम्भिक दौर में पर्यावरण प्रदूषण होना अपरिहार्य है और एक निश्चित आय-स्तर प्राप्त कर लेने के पश्चात ही पर्यावरण का संरक्षण और सुधार सम्भव है। अनेक अन्य अध्ययनों (शफीक व बन्दोपाध्याय, 1992) ने भी दर्शाया है कि देश में आय-स्तर बढ़ने के साथ-साथ पेयजल और रहन-सहन की स्वच्छता निरन्तर बढ़ती जाती है पर सल्फर-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा वातावरण में आरम्भ में बढ़ती है जो एक निश्चित आय-स्तर प्राप्त करने के बाद ही कम हो पाती है। उन्होंने यह भी दर्शाया है कि वातावरण में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा आय-स्तर बढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जाती है।

बीड और ब्लूम (1995) ने विश्व के अमीर और गरीब देशों के शहरों में उत्पन्न अपशिष्ट का अध्ययन करने पर यह पाया है कि नगरीय अपशिष्ट की मात्रा का सीधा धनात्मक सम्बन्ध प्रति व्यक्ति आय से है। विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों में प्रति व्यक्ति नगरीय अपशिष्ट की मात्रा बहुत अधिक है। इस प्रकार आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रदूषण पर किए गए अध्ययन यह दर्शाते हैं कि आर्थिक विकास बढ़ने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ता है। निष्कर्ष रूप में, विकास और पर्यावरण के बीच एक खींचतान है यदि विकास है तो पर्यावरण प्रदूषण भी है और यदि पर्यावरण संरक्षण को अधिक महत्व दिया जाता है तो विकास प्रभावित होता है। वर्ष 1962 में जब रेचल कार्सन की पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’ प्रकाशित हुई तो लोगों का ध्यान पर्यावरण के नष्ट होते सौन्दर्य पर तो गया परन्तु उसके आर्थिक प्रभावों पर नहीं। वर्ष 1994 में बॅज हाॅलिंग ने यह पाया कि चिड़ियों के न आने से स्थानीय कीड़ों-मकोड़ों की संख्या में इतनी वृद्धि हुई है कि बोरियल जंगल को नुकसान हो रहा है और उसने अनुमान लगाया कि यदि चिड़ियों की संख्या घटकर एक तिहाई रह जाएगी तो कनाडा के जंगलों में भारी परिवर्तन आएगा और टिम्बर का उत्पादन कम हो जाएगा। औद्योगिक विकास से हो रही वातावरण की क्षति और मानव जीवन की समृद्धता पर उसके प्रभाव पर वैज्ञानिक निरन्तर नए-नए निष्कर्ष निकाल रहे हैं। सामान्यतया अभी लोग विकास के दूरगामी दुष्परिणामों के प्रति उतने सजग नहीं हैं। कारण यह है कि कम आय वाले देशों में पर्यावरणीय समस्याएँ अभी गम्भीर नहीं हुई हैं।

आर्थिक विकास पर्यावरण संरक्षण से अधिक गम्भीर समस्या है। इन देशों में सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान आदि उपलब्ध करा पाना भी अभी समस्या बना हुआ है। गरीब के लिए पर्यावरणीय सम्पदा उपभोग की एक आवश्यक वस्तु के रूप में है जिसका दोहन कर वे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। उनके लिए पर्यावरणीय सम्पदा की मांग की आय लोच एक से कम है। अमीर वर्ग, जो अपनी मूल आवश्यकता पूरी कर चुके हैं, रोस्टोव के वर्गीकरण के अनुसार उच्च सामूहिक उपभोग (हाई मास कन्संप्शन) की दशा में हैं, पर्यावरणीय सम्पदा (पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नैसर्गिक वातावरण, प्राकृतिक सौन्दर्य स्थल आदि) विलासिता की वस्तुएँ हैं जिनके लिए उनकी मांग की आय लोच एक से ज्यादा है। इसलिए पर्यावरणीय संरक्षण को प्राथमिकता देने के प्रति दोनों वर्गों के दृष्टिकोण में अन्तर है। इस अन्तर का एक कारण यह भी है कि गरीब वर्ग में वर्तमान की चिन्ताओं के आगे भविष्य की चिन्ताओं का महत्व कम होता है। (कुन्धान्दे, 1995) और पर्यावरणीय समस्याएँ वर्तमान से नहीं भविष्य से जुड़ी दिखती हैं। अतः अमीर पर्यावरण संरक्षण को विकास के ऊपर प्राथमिकता देते हैं और गरीब विकास प्रयासों को अधिक जरूरी मानते हैं।

नए प्रयोग


विभिन्न अध्ययनों में जो विकास-पर्यावरण सम्बन्ध दर्शाए गए हैं, उन पर बहुत से पर्यावरणविदों ने प्रश्न उठाए हैं। उनका कहना है कि इनमें कमी यह है कि वे समय श्रेणी पर आधारित नहीं हैं। बदलती हुई पर्यावरण-मित्र तकनीकी का प्रभाव इन पर दिखाई नहीं पड़ा है। बहुत से व्याख्याकारों का मानना है कि नई परिवेश-मित्र तकनीकी और पर्यावरण सम्बन्धी सरकारी नीतियों के कारण स्थिति उतनी खराब नहीं है जितनी इन अध्ययनों के निष्कर्षों से लगती है। इधर विश्व के सभी सभ्य समाजों में पर्यावरण के प्रति जागरुकता आई है। बाल श्रम द्वारा निर्मित वस्तुओं, पशु खाल के सामानों, हाथी दाँत के सामानों, पॉलीथीन के प्रयोग आदि के विरुद्ध आन्दोलन शुरू हुए हैं। लोग पर्यावरण की कीमत समझने लगे हैं। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि शेयर बाजार में प्रदूषण के लिए बदनाम उद्योगों को धक्का पहुँच रहा है। देशों की औद्योगिक नीति और विकास नीति में पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में परिवर्तन किए जा रहे हैं।

आय और प्रदूषण

देश

प्रति व्यक्ति जीएनपी (1996)

वनों की कटाई (वार्षिक, वर्ग कि.मी. 1990-1995)

कार्बनिक जलीय प्रदूषणों का उत्सर्जन (टन प्रतिदिन 1980)

कार्बन-डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन (प्रति व्यक्ति टन वार्षिक)

कार की संख्या (प्रति हजार व्यक्ति 1996)

कम आय

490

38,690

5,286

1.4

4

मध्यम आय

2590

74,598

4,462

4.5

65

उच्च आय

25,870

-11,564

8,997

12.5

427

स्रोतः वर्ल्ड डेवलपमेंट इंडीकेटर 1998 से संकलित।

 


पर्यावरण संरक्षण की दिशा में विभिन्न विकसित और विकासशील देशों में अनेक नीतिगत परिवर्तन हुए हैं जिनके अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं। कुछ देशों ने वित्तीय प्रेरणा की नीति अपनाई है, कुछ देशों ने कारखानों के प्रदूषण के आधार पर रंग कूट (कलर कोड) दिया है। कुछ देशों में प्रदूषकों के विरुद्ध प्रचार की नीति अपनाई गई है और कुछ ने प्रदूषित उत्सर्जन के आधार पर दंडात्मक वसूली की नीति का पालन शुरू किया है। अनेक देशों ने औद्योगिक मजदूरों और जनता को प्रदूषण के विरुद्ध जागरुक बनाना शुरू किया है क्योंकि प्रदूषण का सबसे बुरा असर इन्हीं पर पड़ता है। इन प्रयासों के अच्छे परिणाम सामने आए हैं। उदाहरण के लिए चीन में, जहाँ 1980 और 1990 के दशक में आर्थिक खुलापन आया और आर्थिक विकास तेजी से बढ़ा, वहाँ वायु की गुणवत्ता में आरम्भ में तेजी से कमी आई पर बाद में प्रदूषण नियन्त्रण के प्रयासों से यह गिरावट रुक गई और कुछ सुधार भी हुआ। कीन्या के मचाकोस जिले में पर्यावरण जागरुकता का अच्छा परिणाम देखने में आया। यहाँ 1930 की अपेक्षा 1990 में जनसंख्या पाँच गुना अधिक हो गई। विकास दर्शाने वाली प्रति व्यक्ति आय भी पहले से बढ़ी पर नियन्त्रित विकास के कार्यक्रम के कारण भूमि कटाव कम हो गया है और वृक्षों की संख्या भी 1930 की अपेक्षा अधिक हो गई।

कोलम्बिया में प्रदूषण नियन्त्रण के अनेक नियम असफल हो जाने के बाद सरकार द्वारा प्रदूषण की मात्रा के आधार पर वसूली करने की नीति अपनाई गई जिसका अच्छा असर देखने को मिला। वहाँ मात्र एक वर्ष की कार्बनिक विसर्जन (आरगेनिक डिस्चार्ज) में 18 प्रतिशत की कमी आई।

इस वसूली नीति की सफलता का कारण यह रहा कि प्रबंधक सजग हो गए कि कहीं लागत बढ़ने के कारण वे बाजार से बाहर न हो जाएँ। इसी तरह कोलम्बिया में नदियों की सफाई के लिए 1997 में पानी को प्रदूषित करने वाली फैक्ट्रियों पर वसूली लगाई गई। पहले इसे देश के तीन भागों में लागू किया गया, फिर सात भागों में और फिर पूरे देश में। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक कारखाने को प्रति टन कार्बनिक अपशिष्ट (ऑरगेनिक वेस्ट) के लिए 28 डालर और प्रतिदिन आघुलित अपशिष्ट (सस्पेंडेड वेस्ट) के लिए 12 डाॅलर देने पड़ते हैं। इस नीति में यह व्यवस्था भी है कि यदि अगले छह महीनों में अपशिष्ट में कमी आए तो वसूली दर और बढ़ा दी जाती है। इस नीति का अच्छा परिणाम देखने को मिला है। कारखानों द्वारा कार्बनिक विसर्जन (आरगेनिक डिस्चार्ज) में पचास प्रतिशत से अधिक की कमी आई है।

इंडोनेशिया के प्रदूषण नियन्त्रण विभाग ‘प्रापर’ ने एक नायाब तरीका अपनाया है। उसने कारखानों को प्रदूषण के आधार पर रंग कूट (कलर कोड) देने की नीति अपनाई। प्रदूषण नियन्त्रण का शानदार प्रयास करने वाले कारखाने को सुनहरा रंग कूट दिया जाता है। और न्यूनतम जागरुक कारखाने को काला। इसी तरह राष्ट्रीय मानक के बराबर प्रयास करने वाले को लाल तथा राष्ट्रीय मानक से अच्छा प्रयास करने वाले को हरा रंग कूट दिया जाता है। राष्ट्रीय मानक से कम प्रयास करने वाले को नीले रंग से नावाजा जाता है। ‘प्राॅपर’ ने इस योजना का आरम्भ भी अच्छी तरह किया। उसने व्यतिगत रूप से सभी कारखानों को उनके रंग कूट बताकर यह कहा कि अगले छह महीने बाद पुनर्मूल्यांकन कर रंग कूट सार्वजनिक कर दिए जाएँगे। इस नीति का अच्छा असर पड़ा। अनेक कारखानों ने अपनी बाजार प्रतिष्ठा के अनुरूप सुधार कर लिए। रंग कूटों को सार्वजनिक कर दिए जाने के बाद और अधिक सुधार हुए।

उत्तरी अमेरिका और लेटिन अमेरिका में अनेक सामुदायिक संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) द्वारा उपभोक्ताओं को जागरुक कर प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों के उत्पाद के बहिष्कार के लिए तैयार किया जा रहा है। ये संगठन कारखानों द्वारा किए जा रहे प्रदूषण के सन्दर्भ में सूचनाएँ जमा करते हैं, कारखानों से प्रदूषण कम करने की अपील करते हैं, उनके खिलाफ प्रदर्शन करते हैं और सत्य जनता के सामने रखते हैं। पर्यावरण के प्रति जागरुक उपभोक्ता और क्षेत्रीय नागरिक भी दबाव बनाने का कार्य करते हैं।

सुझाव


सभी विकसित और विकासशील देशों में पर्यावरण के प्रति जागरुकता हाल के वर्षों में बढ़ी है। भारत में तो सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के हजारों कारखानों को रिहायशी क्षेत्र से हटाने के आदेश दे दिए हैं। कारखानों के मालिक और कर्मचारी विरोध कर रहे हैं। सरकार बीच का रास्ता खोज रही है। मुख्य कारण विकास और पर्यावरण की खींचतान है। अतः विकास और पर्यावरण की दीर्घकालिक समन्वित नीति ही इस खींचतान का हल निकाल सकती है। कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं:

पर्यावरण और विकास के सम्बन्ध में नीति बनाने में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि पर्यावरणीय समस्याएँ मूलतः स्थानीय हैं। उनका कारण और निवारण स्थानीय है जो सीधे स्थानीय जनता और प्रशासन से जुड़ा है। अतः नियम कानून स्थानीय स्तर पर तय किए जाने चाहिए। स्थानीय स्तर पर भी नियन्त्रण बनाए रखने के लिए प्रादेशिक और राष्ट्रीय मानक अवश्य तय कर दिए जाने चाहिए। चीन जैसी अर्थव्यवस्था में भी शहरों की परिस्थिति के हिसाब से स्थानीय नियम लागू किए गए हैं।

प्रदूषण नियन्त्रण हेतु चरणबद्ध दीर्घकालिक कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए। पहले सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्रों और कारखानों पर कार्यवाही की जानी चाहिए पर, न्यूनतम प्रदूषण वाले क्षेत्रों और कारखानों पर भी कुछ न कुछ नियम अवश्य लागू होने चाहिए जिससे वे भी पर्यावरण के प्रति जागरुक रहें। ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो शहरों के 50 बड़े कारखानों पर प्रदूषण नियन्त्रण करते ही शहर का 60 प्रतिशत प्रदूषण नियन्त्रित हो गया।

प्रदूषण के बारे में काम करने वाले संगठनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उन्हें ज्यादा से ज्यादा सूचनाएँ और अधिकार मिलने चाहिए। यहाँ पारदर्शिता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पर्यावरण सम्बन्धी जानकारी निरन्तर ही मीडिया के माध्यम से प्रचारित की जानी चाहिए। पर्यावरण शिक्षा ही जनता के सहयोग को आकर्षित करती है। कानून तभी सफल होते हैं जब उन्हें जनसहयोग मिलता है।

प्रत्येक औद्योगिक क्षेत्र में प्रदूषण-स्तर का निरन्तर माप होना चाहिए और कारखानों से प्रदूषण के आधार पर वसूली की जानी चाहिए। सरकारी सहायता, बैंक ऋण आदि सुविधा देते समय भी तकनीकी विशेषज्ञों की सहायता प्रदूषण के सन्दर्भ में ली जानी चाहिए तथा न्यूनतम प्रदूषक तकनीकी को स्वीकृति और सहायता दी जानी चाहिए।

न्यूनतम पर्यावरण क्षति के साथ अधिकतम विकास के लक्ष्य की नीति का निर्माण किया जाना चाहिए। सिद्धान्ततः आर्थिक विकास का सीमान्त लाभ किसी भी दशा में पर्यावरण की सीमांत हानि से कम नहीं होना चाहिए। इसलिए हर आर्थिक विकास कार्यक्रम की पर्यावरणीय लागत के आंकलन का विश्वसनीय तरीका विकसित किया जाना चाहिए। नीति में सर्वाधिक महत्व पर्यावरणीय शिक्षा को दिया जाना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण जैसे मूल्य की स्थापना का भरपूर प्रयास होना चाहिए। यदि नागरिकों में पर्यावरण संरक्षण एक मूल्य बन जाता है तो कानून बनाने और लागू करने की दिक्कतें स्वयं दूर हो जाती हैं।

पर्यावरण को भी उत्पादन का एक साधन माना जाना चाहिए और कोशिश यह की जानी चाहिए कि उत्पादन की पर्यावरणीय लागत कम से कम की जाए।

(उपाचार्य, अर्थशास्त्र विभाग, दी.द.उ. गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर।)

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