विकास के सम्मुख खड़ी चुनौती

5 May 2015
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यह आलेख इण्टरनेशनल काँफ्रेंस ऑन स्पेशल डाटा इनफ्रास्ट्रक्चर एण्ड इट्स रोल इन डिजास्टर मैनेजमेण्ट (अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसंरचना और आपदा प्रबन्धन में उसकी भूमिका पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन) में भाग लेने वाले 53 वैज्ञानिकों और निर्णयकर्ताओं की सिफारिशों पर आधारित हैइस सम्मेलन का आयोजन भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मण्डल परिसंघ फिक्की ने प्राकृतिक संसाधन आँकड़ा प्रबन्धन प्रणालियाँ (नेचुरल रिसोर्सेज डाटा मैनेजमेण्ट सिस्टम्स और भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के साथ मिलकर किया था। राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान (एनआईडीएम) ने इस सम्मेलन का समर्थन ज्ञान सहभागी के रूप में किया था।

अग्रलिखित सभी सिफारिशों का निष्कर्ष राष्ट्र और विश्व समुदाय के लिए निम्नलिखित उद्देश्यों को हासिल करने की आवश्यकता है :
  1. आपदा नियन्त्रण और तैयारियों में अन्तरिक्ष सम्बन्धी आँकड़ों के उपयोग को बढ़ावा देना।
  2. दक्षिण एशियाई क्षेत्र के आपदा प्रबन्धन कार्यक्रमों में अन्तरिक्ष सूचनाओं का दीर्घकालिक आधार पर प्रसार।
  3. राष्ट्रीय अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसंरचना के निर्माण में सार्वजनिक और निजी भागीदारी पर चर्चा करना।
  4. उद्योगों में मार्गदर्शीं परियोजनाओं के कार्यान्वयन को प्रोत्साहित करना।
आपदा प्रबन्धन और तैयारियों के लिए नयी तकनीकों का पता लगाने में अन्तरिक्ष सम्बन्धी आँकड़ा अधोसंरचना (एसडीआई) का उपयोग एक स्थापित तथ्य है। एसडीआई के विकास के अनेक साधन हैं। जैसे कि अत्यधिक संवेदनशील अन्तरिक्षजन्य सेंसर्स (हाई रेजोल्यूशन स्पेस बॉर्न सेंसर्स) और सुदूर संवेदी बोधक (रिमोट सेंसर्स), जो आपदा नियन्त्रण और नियोजन के लिए सामरिक महत्त्व के क्षेत्र की आवश्यक और विश्वसनीय सूचना बहुत तेजी से प्रदान कर सकते हैं। इसी प्रकार जीपीआरएस के उपयोग से आपदा सम्भावित क्षेत्रों में तत्परता से सम्प्रेषण के लिए हमें समय मिल जाता है।

इस अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन यह बात ध्यान में रखते हुए कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र, विश्व के सर्वाधिक आपदा-सम्भावित क्षेत्रों में आता है, किया गया। इसका उद्देश्य विश्व भर के उन विषय विशेषेज्ञों को एक मंच पर लाना है जिन्होंने आपदा प्रबन्धन से जुड़े विषयों की अन्तरिक्ष आधारित और अत्याधुनिक प्रविधि का विकास किया है और इस प्रक्रिया में अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसंरचना की उपयोगिता को भली-भाँति प्रतिपादित किया है।

सिफारिशें

  1. प्रतिष्ठित व्यक्तियों की गोलमेज बैठक।
  2. सामुदायिक सहभागिता।
  3. सरकार, प्रशासन और नागरिकों के बीच समन्वय।
  4. सरकार को मानचित्र सूचना लोगों को देनी चाहिए।
  5. आँकड़ों की प्राप्ति के लिए एकल खिड़की व्यवस्था।
  6. प्रौद्योगिकी आम आदमी की समझ में आने लायक हो।
  7. आँकड़ों का संकलन स्थानीय स्तर पर ही किया जाना चाहिए ताकि राष्ट्रीय स्तर पर आँकड़ों के संग्रहण का मार्ग स्वतः प्रशस्त हो सके।
  8. आपदा नियन्त्रण हेतु बहु-विषयी विधायी कार्य पद्धति अपनाए जाने की आवश्यकता।
  9. विभिन्न मंचों और क्षेत्रों से प्राप्त आँकड़ों का सटीक एकीकरण।
  10. अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों हेतु विस्तृत भूगर्भीय स्थल विशेष अध्ययन।
  11. जीपीएस, टोटल स्टेशन, जीपीआर आदि जैसी उन्नत प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए सम्भावित भूस्खलन की निगरानी
  12. अधिक जोखिम वाले स्थलों के लिए पूर्व चेतावनी प्रणाली का विकास।
  13. मृदा कीलबन्दी (सॉयल नेलिंग), ढलानों की स्थिरता के लिए मानवनिर्मित भू-रेशों का उपयोग जैसे कम खर्चीले व स्थल विशेष नियन्त्रण उपायों का विकास और अभिकल्पन।

चक्रवात एवं सुनामी

  1. गहरे सागर में वास्तविक समय का मापन जो ध्वनिक सम्पर्क से होते हुए खतरे के निशान से सागर तल के ट्रांसपोण्डरों से संयोजित हो उपग्रह सम्पर्क के माध्यम से समर्पित उपग्रहों हो एवं से सम्बद्ध, पृथ्वी स्थित सुनामी चेतावनी केन्द्र से जुड़ा हुआ हो।
  2. चूँकि सुनामी कभी-कभी ही घटता है लेकिन भारत में अभी हाल ही में बंगाल की खाड़ी में यह आ चुका है, अतः जल्दबाजी में सुनामी चेतावनी प्रणाली प्राप्त करने की ऐसी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। सभी आवश्यक हिस्से (ट्रांसपोण्डर, ध्वनिक सम्पर्क, उपग्रह और उपग्रह सम्पर्क) का निर्माण भारतीय उद्योग अथवा उसकी एजेंसियों द्वारा किया जा सकता है। इसी के साथ-साथ अरब सागर क्षेत्र की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है।
  3. अनुकूलतम संयन्त्र लगाने हेतु संख्यात्मक प्रतिमान अनिवार्य।
  4. संकलित आँकड़ों को शोध संरचनाओं, संघीय और राज्य एजेंसियाँ, अन्य शोधकर्ताओं और रुचि रखने वाली संस्थाओं के बीच प्रसारित किया जाना चाहिए।
  5. सुनामी चेतावनी प्रणालियाँ और भारत की सुनामी चेतावनी प्रणाली की सांख्यिकीय माडॅलिंग में पड़ोसी देशों (म्यांमार, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड, श्रीलंका आदि) को भी शामिल किया जाना चाहिए।
  6. उपयुक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक समिति बनाई जानी चाहिए जिसमें शोध संस्थाएँ, उद्योग और सरकारी एजेंसियाँ शामिल हों। इसे अन्य एजेंसियों से अलग होना चाहिए और फिक्की जैसे स्वतन्त्र संगठनों से सुविधाएँ मिलनी चाहिए।

भूकम्प

  1. भूकम्पों के प्रभाव में कमी लाने के लिए पुराने अनुभव से सीख लेनी चाहिए।
  2. गुजरात और जम्मू-कश्मीर के भूकम्पों से ली गई सीख को भारत के अन्य भूकम्प सम्भावित राज्यों में आजमाना चाहिए।
  3. भवन निर्माण के नियमों और कानूनों का सख्ती से प्रवर्तन करते हुए भूकम्परोधी भवनों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
  4. एनएसडीआई की सेवाओं का लाभ उठाते हुए एक ही स्थान पर आँकड़े उपलब्ध हों, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। अन्यत्र बिखरे हुए सभी आँकड़ों को एक साथ यहाँ संकलित किया जा सकता है। हानि आकलन तकनीक को और अधिक विज्ञान सम्मत बनाया जाना चाहिए। भू-अन्तरिक्षीय आँकड़ों और अन्य प्रविधियों को आजमाया जा सकता है। यदि भारत को आज के आधुनिक वैज्ञानिक विश्व में अपना स्थान बनाना है तो हमें प्राचीन वैज्ञानिक तथ्यों और कल्पनाओं का, प्राकृतिक ऊर्जाओं के उत्सर्जन और उपयोग तथा नैसर्गिक ऊर्जाओं के अन्य रूपों का पता लगाने में वैज्ञानिक ढंग से संरक्षण के लाभ हेतु आधुनिक विज्ञान के साथ अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करने में नेतृत्व करना होगा। इससे संरक्षण के मामले में नैसर्गिक ऊर्जा और इसकी उपयोगिता का समूचे विश्व को लाभ होगा। इस प्रकार प्रदूषण फैलाने वाले ईंधनों की प्रदूषणकारी लागत को कम किया जा सकेगा और प्राकृतिक पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को सन्तुलित करने में मदद मिलेगी।
  5. निवेशकों की क्षमता के विकास की जरूरत।
  6. आपदा के पूर्व और उपरान्त आवश्यक उपकरण और आँकड़े।
  7. राष्ट्रीय अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसरंचना के हित में भू-अन्तरिक्ष इच्छुक समूह के सृजन में फिक्की की रुचि एवं इच्छा का अनुमोदन और सिफारिश की जाती है।

भूस्खलन

  1. भूस्खलन पर राष्ट्रीय आँकड़ा कोष को एक विकास संस्था घोषित किया जाना चाहिए।
  2. भूस्खलन जोखिम का मापन निम्नलिखित पैमाने पर हो :
  • − क्षेत्रीय स्तर 1:5000-25000
  • − नगर नियोजन 1:10000-5000
  • − विशिष्ट स्थल मापन 1:2000-1000
  • शहरी नियोजन और बुनियादी संरचना विकास हेतु जोखिम आकलन अध्ययन।
  • अधिक खतरे वाले क्षेत्रों के लिए स्थल विशेष का विस्तृत भूगर्भींय एवं भू-तकनीकी अध्ययन।
  • जीपीएस, जीपीआर, अंकीय स्तर (डिजिटल लेबल), टोटल स्टेशन आदि जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग कर सम्भावित भूस्खलनों की निगरानी।
  • मृदा कीलन, ढलान की स्थिरता के लिए मानवनिर्मित भू-रेशों के उपयोग जैसे कम लागत वाले स्थल विशेष नियन्त्रण उपायों का विकास और अभिकल्पन।
  • क्षमता विकास हेतु नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम/ग्रीष्म विद्यालय।
  • तटीय क्षेत्र मापन, मुख्यतः मानचित्र आधारित अध्ययनों को समर्पित, भारतीय भूस्खलन अध्ययन संस्थान की स्थापना।
  • सूखा

    1. वर्तमान में सूखे के बारे में पूर्व सूचना देने की क्षमता मध्यम क्षेत्र तक ही यानी, अनुमण्डल स्तर (तहसील स्तर) तक ही सीमित है।
    2. इस क्षमता को सूक्ष्म स्तर तक ले जाने और कम समय में ही पूर्व सूचना देने लायक बनाने की जरूरत है।
    3. सूखे पर एक स्पष्ट नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही है, या फिर इसे राष्ट्रीय राज्य आपदा प्रबन्धन नीति से समेकित अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसंरचना का काम कई एजेंसियों के जिम्मे है और वह अलग-अलग खण्डों में बँटा हुआ है। इनमें एक-दूसरे के साथ अधिक समन्वय भी नहीं है।
    4. अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसरंचना के एकीकरण की परियोजना कुछ चुने हुए जिलों में मार्गदर्शक आधार पर हाथ में ली जानी चाहिए।
    5. मिट्टी की नमी, सतही जल, सतह के नीचे का जल, नमी संरक्षण, फसल पद्धति, चराई पद्धति आदि से सम्बन्धित सूचना सूखा निगरानी प्रणाली के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
    6. इन सभी पैमानों के लिए विस्तृत निगरानी प्रणाली का विकास किया जाना चाहिए और उन्हें अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसंरचना के साथ समेकित कर देना चाहिए।
    7. डीपीएपी और डीडीपी जिलों में सूखे से निपटने की अनेक योजनाओं पर अमल हो रहा है। उन कार्यक्रमों का सूखे से निपटने पर क्या और कितना असर रहा है, इसका भली-भाँति अध्ययन नहीं किया गया है। यह काम तुरन्त होना चाहिए और मौजूदा कार्यक्रम का पुनर्गठन किया जाना चाहिए।
    (अन्तरिक्षीय आँकड़ा अधोसरंचना की आपदा प्रबन्धन में भूमिका पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन की अनुशंसा पर फिक्की की रिपोर्ट पर आधारित)

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