विकास की उपभोगवादी अवधारणा से बिगड़ा हिमालय का सौन्दर्य

9 Sep 2016
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हिमालय दिवस, 09 सितम्बर 2016 पर विशेष



हिमालयपहली बार 09 सितम्बर 2010 को हिमालय दिवस मनाने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह आज देश की राजधानी में ही नहीं बल्कि हिमालयी प्रदेशों के विभिन्न कोनों में यह आयोजन मनाया जा रहा है। ज्ञात हो कि पिछले 20 वर्षों में हिमालय में अनियोजित परियोजनाओं के कारण हिमालयीवासी और हिमालय की जैवविविधता खतरे के निशान पर आ चुकी है।

यह खतरा खुद ही लोगों ने विकास की अन्धी दौड़ के कारण मोल लिया है। अब मान लिया गया कि पुनः लोग हिमालयी संरक्षण की पुश्तैनी परम्परा को हिमालयी दिवस के बहाने बहाल करेंगे। जिसके लिये मीडिया से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता व आम लोगों से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता एवं छात्रों से लेकर नौकरी पेशा लोग हिमालय के संरक्षण के लिये हाथ-से-हाथ मिला रहे हैं। भले यह कारवाँ पाँच वर्षों में बहुत ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया मगर कारवाँ निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है।

उल्लेखनीय तो यही है कि पूर्व में हिमालय में बढ़ते खतरों को लेकर राज्य सरकार के पास कोई सोचने का समय नहीं था परन्तु वर्तमान में जिस तरह से लोग ‘हिमालय बचाओ’ के लिये कारवाँ का हिस्सा बन रहे हैं वह सुखद ही कहा जाएगा।

हालांकि हिमालय की जैवविविधता का अब तक विदोहन ही हुआ है यही वजह है कि प्राकृतिक आपदाएँ तथा मौसम परिवर्तन के खतरों का बढ़ना भी जगजाहीर ही कहा जाएगा। कारण इसके घटते जंगल और सूखते जल स्रोतों की चिन्ता अब तक किसी नीति का हिस्सा तो नहीं बन पाये परन्तु आज हिमालय दिवस के रूप में सम्भावना जताई जा रही है कि हिमालयी विकास नीति का कोई मॉडल सामने आएगा।

हिमालय तथा खुद को बचाने की चुनौती न केवल हिमालयवासियों के सामने है बल्कि दक्षिण एशिया व दुनिया के लिये भी ये एक बड़ी चुनौती है। इन विपरीत परिस्थितियों में हिमालय के लोगों को अपने जीवन-यापन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने लिये जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय समुदायों को अधिकार पाने के संघर्ष करने पड़ रहे हैं। जबकि हिमालय सदैव मैदानों, नदियों तथा सम्पन्न मानव समाजों का निर्माणकर्ता और उनका रक्षक रहा है।

आज भी वह भारत सहित कई देशों को कुल मीठे पानी की माँग का 40 प्रतिशत तक देता है। वर्तमान विकास की उपभोगवादी अवधारणा ने हिमालय की उक्त भूमिका को एक सिरे से नकार दिया गया है और यह नजरअन्दाज करते हुए कि हिमालय विश्व का एक शिशु पर्वत है ऐसी स्थिति में उसकी रचना व पर्यावरण से छेड़-छाड़ करना घातक साबित हुई। फलस्वरूप इसके हिमालय पर्वत परिस्थितिकीय संकट, विकास की गति, गलत नीतियों की वजह से असन्तोष और अशान्ति का केन्द्र बन गया है।

जन साधारण की चेतना में हिमालय का अर्थ केवल नदी, पर्वत और पेड़ों से ही होता है जबकि वास्तव में हिमालय अफगानिस्तान से लेकर वर्मा तक फैला हुआ है। इस पूरे क्षेत्र में लोकतंत्र के संघर्ष, प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के जनान्दोलन, राष्ट्र राज्यों के आपसी संघर्ष व मन-मुटाव, राजनैतिक अलगाव व दमन जैसे संघर्षों ने विगत चार-पाँच दशकों से इस पूरे क्षेत्र को एक छद्मयुद्ध का मैदान बना दिया है और इसका सबसे बड़ा कारण हमारे राष्ट्र-राज्यों ने इस विशिष्ट भौगोलिक इकाई के लिये कोई पृथक विकास की योजना नहीं बनाई।

09 सितम्बर 2010 से आरम्भ हुई हिमालय बचाने की मुहिम ने पृथक हिमालय नीति के लिये बाकायदा एक जन घोषणा पत्र भी जारी कर दिया है जिसके लिये लगातार हिमालयी राज्यों में संवाद कायम किया जा रहा है। जन-घोषणा पत्र में वे तमाम सवाल खड़े किये गए जिस नीति के कारण मौजूदा भोगवादी सभ्यता की बुनियाद पर आधारित जल, जंगल और खनिज सम्पदाओं के शोषण की गति तीव्र हुई है।

विकास के नाम पर वनों का व्यापारिक दोहन, खनन और धरती को डुबोने व लोगों को उजाड़ने वाले बाँधों, धरती को कम्पयमान करने वाले यांत्रिक विस्फोटों, जैसी घातक प्रवृत्तियों के कारण हिमालयवासियों के सामने जिन्दा रहने का संकट पैदा हो गया है।


कौतुहल का विषय है कि एक तरफ स्थानीय हिमालयी वासियों के हक-हकूकों पर कब्जा हुआ तो दूसरी तरफ जल विद्युत परियोजनाओं एव वाइल्ड लाइफ जैसी योजनाओं ने लोगों को विस्थापन के लिये मजबूर कर दिया है। इसके अलावा हिमालयी क्षेत्रों में दिन-प्रतिदिन पर्यटकों की आमाद बढ़ती ही जा रही है और इसी के साथ-साथ नदियों के सिराहने व ऊँचाई के क्षेत्रों मे कूड़े-कचरे की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई कि अधिकांश जलागम क्षेत्र विषैले व प्रदूषित हो चुके हैं। इसलिये सुझाव दिया जा रहा है कि असिंचित ढालदार भूमि, संरक्षित वन, सामूहिक अथवा निजी वन उनका भूमि उपयोग सर्वेक्षण करवाकर पानी की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके तहत फल, चारा, व रेशा प्रजाति के पौधों के रोपण की वृहद योजना बननी चाहिए। ऐसा करने पर मैदानी क्षेत्रों के लिये पहाड़ों से निरन्तर उपजाऊ मिट्टी मिलेगी, नदियों का बहाव स्थिर होगा और जल की समस्या भी हल होगी।

विडम्बना है कि ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण हिमालय के जलस्रोत, झरने, झीलें, बर्फानी एवं गैर बर्फानी नदियाँ सूखती ही जा रही हैं। हिमालय में निवास करने वाले लोग पहले स्वावलम्बी थे जैसे-जैसे उनके प्राकृतिक संसाधनों पर व्यवसायिक परियोजनाएँ संचालित होती गईं वैसे-वैसे वे पलायन करते गए। आलम यह है कि जंगल के प्रहरी के रूप में अब कुछ परम्परानुमा फौजें ही तैनात दिखाई दे रही हैं।

कौतुहल का विषय है कि एक तरफ स्थानीय हिमालयी वासियों के हक-हकूकों पर कब्जा हुआ तो दूसरी तरफ जल विद्युत परियोजनाओं एव वाइल्ड लाइफ जैसी योजनाओं ने लोगों को विस्थापन के लिये मजबूर कर दिया है। इसके अलावा हिमालयी क्षेत्रों में दिन-प्रतिदिन पर्यटकों की आमाद बढ़ती ही जा रही है और इसी के साथ-साथ नदियों के सिराहने व ऊँचाई के क्षेत्रों मे कूड़े-कचरे की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई कि अधिकांश जलागम क्षेत्र विषैले व प्रदूषित हो चुके हैं।

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये स्थानीय लोगों के साथ अब तक कोई कारगर परियोजना सामने नहीं है। मगर लोक पयर्टन जैसी प्रक्रिया चमोली के ‘देव ग्राम’ और उत्तरकाशी के ‘सांकरी’ में कुछ युवकों ने आरम्भ कर रखी है। इस तरह के उम्दा कार्यक्रम हिमालय पर्यावरण के संरक्षण के साथ-साथ स्वरोजगार के लिये भी मिशाल है। लेकिन प्रहसन आज भी यह है कि कब और कैसे हिमालय क्षेत्र में विकास की नियोजित परियोजनाएँ बनेंगी। ऐसे अनसुलझे सवालों को लेकर हिमालय दिवस की सार्थकता है।

जगजाहिर यह है कि शिमला कनक्लेव में तत्काल पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने ग्रीन बोनस की घोषणा करते हुए यह भी आगाह किया था कि अपने देश के वैज्ञानिक पर्यावरण जैसे संवेदनशील विषय को लेकर कम-से-कम एक राय प्रस्तुत करें ताकि भविष्य में कोई ठोस निर्णय लिया जा सके।

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