विकास में भी झलकता भौगोलिक हाशिया

24 Jun 2014
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प्राकृतिक सुंदरता के मामले में यह गांव देश के सबसे धनी गांवों में से एक होगा। सड़क के एक तरफ बलखाती हुई इंडस नदी और एक तरफ शानदार खूबानी के पेड़ों से भरी चट्टानें। चाहे मनमोहक सुंदरता हो या फिर आर्यों की वंशावली, चाहे यहां की रंग-बिंरगी संस्कृति और लोकदंतियां हो या फिर अखरोट या खुबानी की बहुतायत। कारगिल की खूबसूरती की महक कहीं भी इतनी नहीं जितनी कि वह गरखोण की घाटी में है।भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कार्यनीति तय करते हुए भारत को ‘‘ब्रैंड इंडिया’’ बनाने के लिए पांच “टी” को लक्ष्य किया है जिनमें से एक टूरिज्म यानि की पर्यटन है। क्या नरेंद्र मोदी का यह संकल्प उन जगहों तक पहुंच पाएगा जो जगह पर्यटन के विकास की असीमित असंभावनाए लिए होने के बावजूद स्थानीय प्रशासन, राज्य एवं केंद्र दोनों ही सरकारों की बेरुखी का शिकार हैं। ऐसी ही एक जगह है जम्मू कश्मीर राज्य में कारगिल जिले के मुख्य शहर से लगभग 75 किलोमीटर दूर स्थित गांव गरखोण।।

प्राकृतिक सुंदरता के मामले में यह गांव देश के सबसे धनी गांवों में से एक होगा। सड़क के एक तरफ बलखाती हुई इंडस नदी और एक तरफ शानदार खूबानी के पेड़ों से भरी चट्टानें। चाहे मनमोहक सुंदरता हो या फिर आर्यों की वंशावली, चाहे यहां की रंग-बिंरगी संस्कृति और लोकदंतियां हो या फिर अखरोट या खुबानी की बहुतायत। कारगिल की खूबसूरती की महक कहीं भी इतनी नहीं जितनी कि वह गरखोण की घाटी में है। इस सड़क पर हाथ लहराते सुंदर चेहरे। लेकिन इस सुंदरता में छिपा दाग हमारे सामने तब आता है जब हम इस गांव की वास्तविक परिस्थितियों से वाकिफ होते हैं।

1999 में हुए युद्ध के बाद से कारगिल को जितनी ख्याति और तरक्की मिली उसका एक अंश भी उसकी सीमाओं पर बसे गांवों को नहीं मिला। अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरसता गोरखोण गांव ऐसे गांवों का एक उदाहरण है। स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर यातायात के साधनों और शिक्षा सभी का स्तर गोरखोण में अत्यंत ही दयनीय है।

1999 के युद्ध में बनी अपनी नई तस्वीर की बदौलत कारगिल सरकारी सुविधाएं प्राप्त करने वालों की सूची में ऊपर पहुंच गया। सामाजिक कल्याण की योजनाएं और नीतियां केंद्र और राज्य सरकारों के दामन से छन-छन कर कारगिल की झोली में आने लगी, नीति निर्धारक अधिक चौकस लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए, समितियां स्थापित की गईं इन सबके बाद कारगिल के लोगों के पास शिकायत की कोई वजह नहीं रह गई और जबकि पूरा कारगिल शहर अपने इस नए रूप को निहार-निहार कर मुग्ध हो रहा था वहीं गोरखोण जैसे गांव अभी भी पिछड़ेपन और अभाव के अंधकार में डूबे हुए हैं। गोरखोण के पूर्व सरपंच मिशकिन ज्येरिंग जो अब कारगिल के काउंसलर हैं अपने लोगों की रोज-ब-रोज की कठिनाईयों को याद करके सरकार और लोगों की बेपरवाह रवैये पर आक्रोश व्यक्त करते हैं।

आज जहां पूरा कारगिल शहर शिक्षा के बढ़ते अवसरों का फायदा उठा रहा है वहीं गोरखोण की शिक्षा प्रणाली शिक्षकों के अभाव से ग्रस्त है और जो शिक्षक नियुक्त भी हैं वे स्कूल से ज्यादा गांव के बाहर दिखते हैं। यलदोदा नामक गांव के बच्चों को रोज 15 मील का सफर करके गोरखोण आना पड़ता है क्योंकि उनके अपने गांव में प्राथमिक स्तर की शिक्षा भी उपलब्ध नहीं हैं। और इसको ज्यादा कठिन बना देती है वहां कि अत्यधिक खराब यातायात व्यवस्था।

यातायात की सुविधा न होने की वजह से यहां के ग्रामीणों को या तो निजी वाहनों पर निर्भर रहना पड़ता है या फिर सेना के जवानों के भरोसे रहना पड़ता है। यातायात की यह अव्यवस्था स्वास्थ्य संबंधी आकस्मिकताओं के दौरान सबसे भारी पड़ती हैं। गर्भवती महिलाओं और मरीजों को घटों का सफर तय करके डॉक्टर के पास जाना पड़ता है क्योंकि इन गांवों के स्वास्थ्य केंद्र या तो ज्यादातर बंद रहते हैं या फिर इनके पास देने के लिए पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं नहीं होतीं।

बाल एवं महिला कल्याण कार्यक्रम यहां पर दुखद रूप से असफल हुए हैं। शुद्ध भाई-भतीजावाद के आधार पर नियुक्त होने वाली आंगनवाड़ी और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को अपने गांव वालों की शोचनीय स्थिति से कोई मतलब नहीं होता है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियों से लगातार गायब रहती हैं और पूर्व स्कूल शिक्षण और महिला एवं बाल देख-रेख जैसे महत्वपूर्ण कार्य की पूरी तरह से अनदेखी की जाती है।

सरकार द्वारा दिया जाने वाला मध्यान्ह भोजन कभी भी लाभार्थियों तक नहीं पहुंचता है और न ही इसके प्रति किसी की जवाबदारी है। ‘‘उच्च अधिकारियों की तरफ से कोई दबाव नहीं है’’ यह कहना है मिश्किन ज्येरिंग का जिन्होंने बहुत बार हिल काउंसिल में शिकायत करने की कोशिश की लेकिन उसके बदले उन्हें जवाब में सिर्फ आलोचनाएं ही मिलीं। इन वजहों से इस गांव की ज्यादातर महिलाओं को उनके लिए आने वाली योजनाओं और नीतियों का लाभ नहीं मिल पाता। ये महिलाएं अपनी इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए नियुक्त अधिकारियों को दोषी बताती हैं। ये महिलाएं बताती हैं कि उन्होंने बहुत बार दौरों पर आए अधिकारियों से मदद मांगी, लेकिन उन्हें कभी भी किसी भी प्रकार की सहायता नहीं मिली। सालों से उन्हें खोखले वायदों के अलावा कुछ नहीं मिला है।

पिछले पांच सालों से समाज कल्याण विभाग से अपना हक (वृद्धा/विधवा पेंशन) लेने का प्रयास कर रही दारचिक्स (गरखोण से 5 किमी दूर स्थित एक गांव) की 63 वर्षीय वृद्धा ताशी पामो कहती हैं ‘‘ये मंत्री/पर्यटक आते हैं हमारे बच्चों को नाचता गाता देखते हैं और चले जाते हैं।’’ उन्नत संस्कृति और फड़कती हुई लोकदंतियों के बावजदू यहां के निवासी अपरिहार्य सेवाओं के लिए तरसते हैं। प्रकृति और उनके पुरखों ने जितना आदर्श रूप दिया है, हमारी सरकारें उसके मुकाबले उनको मूलभूत सुविधाएं भी नहीं दे पाई हैं। देखते हैं कि ये नई सरकार किस हद इन हाशिए पर टिके लोगों को मुख्यधारा में शामिल कर पाती है।

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