विकासशील देशों की भूमिका

23 Jan 2015
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आज जिस गति से भारत विकास पथ पर दौड़ रहा है उससे भारत की बड़ी आर्थिक ताकत बनने की उम्मीद है, किन्तु भारत को आर्थिक विकास पथ पर बढ़ते समय विकसित देशों की आर्थिक व्यूह रचनाओं की नकल नहीं करनी चाहिए। भारत की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियाँ विकसित देशों से अलग हैं। एक ओर वैश्विक मन्दी के कारण विकसित देशों की अर्थव्यवस्था धराशायी हो गई है वहीं भारत इस माहौल में भी 7.9 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। यह भारत की आन्तरिक आर्थिक मजबूती से ही सम्भव हुआ है। जलवायु परिवर्तन के मसले पर भारत को विकसित देशों के कटु अनुभवों से सीख लेनी होगी। आर्थिक विकास की दौड़ में हमारा पारिस्थितिकी सन्तुलन बिगड़ चुका है। विश्व में आज खाद्यान्न संकट, ऊर्जा की कमी, आर्थिक मन्दी आदि समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं। इन सबका सम्बन्ध कमोबेश जलवायु परिवर्तन से भी है। प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुन्ध दोहन के कारण कई प्रकृतिजन्य संकट सामने खड़े हैं।

पृथ्वी का तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्री जलस्तर बढ़ने से कई द्वीप विलुप्त हो चुके हैं एवं गंगा नदी प्रदूषित हो गई है। ओजोन परत में छेद हो जाने के कारण इसकी सूर्य की पराबैंगनी किरणों को रोकने की क्षमता घट रही है। कुल मिलाकर प्रकृति के निर्मम संहार के चलते उत्पन्न जलवायु परिवर्तन आज विश्व के समक्ष ज्वलन्त औरमुखर चुनौती बन गई है।

जलवायु परिवर्तन पर चिन्तन करने और इससे निपटने के लिए विश्व के देश 7-18 दिसम्बर, 2009 में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में इकट्ठा हुए। इस सम्मेलन में 192 देशों के लगभग 15, 000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। जलवायु परिवर्तन पर यह अब तक का सबसे बड़ा सम्मेलन था। इसके लिए डेनमार्क के राष्ट्रपति लार्स लोक्को रासमुसेन ने सभी देशों को आगे आने का आह्वान किया था।

इस सम्मेलन के महत्वपूर्ण विषयों में क्योटो प्रोटोकाॅल में निर्धारित किए गए कार्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों का नवीकरण तथा वर्ष 2012 के बाद की रूपरेखा बनाना शामिल किया गया था।

आज जलवायु परिवर्तन के कारण जहाँ पृथ्वी का अस्तित्व खतरे में है वहीं इस मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच विवाद गहराता जा रहा है। इस कारण जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ठोस और दीर्घकालिक रणनीति नहीं बन पा रही है।

जलवायु परिवर्तन पर क्योटो प्रोटोकाॅल उल्लेखनीय है, किन्तु 12 वर्ष बीत जाने के बावजूद इस पर अमल नहीं हो सका है। चिन्ता की बात यह है कि जहाँ एक ओर भारत समेत अन्य कई विकासशील देश क्योटो प्रोटोकाॅल को बचाने तथा लागू करवाने के लिए प्रयत्नशील हैं, वहीं विकसित देश इसमें नवीकरण के लिए अड़े हुए हैं।

इन विकसित देशों ने कोपेनहेगन सम्मेलन के महत्वपूर्ण विषयों में क्योटो प्रोटोकाॅल के कार्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों के नवीकरण की बात को सम्मिलित करवाने में सफलता भी प्राप्त कर ली है। गौरतलब है कि कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन समझौते में कार्बन उत्सर्जन कटौती की कानूनन बाध्यता को सम्मिलित नहीं किया गया है, जबकि क्योटो प्रोटोकाॅल में विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन कटौती की कानूनी बाध्यता की बात मुखरता से कही गई थी।

कोपेनहेगन समझौता


कोपेनहेगन के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में 18 दिसम्बर, 2009 को अमरीका और बेसिक देशों (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन) की पहल पर गैर-बाध्यकारी राजनीतिक समझौता हुआ। इसमें कार्बन उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कटौती को आवश्यक बताया गया जिससे तापमान में वृद्धि को अधिकतम 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित किया जा सके।

इसमें विकसित देशों के लिए कटौती लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं तथा बड़े विकासशील देशों के लिए स्वैच्छिक प्रतिबद्धता का उल्लेख किया गया है। समझौते में कार्बन उत्सर्जन कटौती को कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं बनाया गया है, किन्तु उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश कार्बन उत्सर्जन कटौती के प्रयासों पर स्वयं नजर रखेंगे। वे प्रत्येक दो वर्ष पर इसकी सूचना संयुक्त राष्ट्र को देंगे।

कुछ अन्तरराष्ट्रीय समूह इसकी जाँच भी कर सकते हैं। जलवायु परिवर्तन पर दिसम्बर 2010 तक कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता लागू किए जाने का प्रस्ताव है। विकसित देश विकासशील देशों को वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष 100 अरब डाॅलर की राशि मुहैया कराते रहेंगे साथ ही 2010-12 के लिए अल्पावधि वित्तीय सहायता दी जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने सम्मेलन की समाप्ति पर कहा कि हम समझौते पर पहुँच गए हैं, लेकिन इस पर आम सहमति नहीं बन सकी। कई विकासशील देशों ने कोपेनहेगन समझौते को कमजोर बताते हुए इसे मानने से इंकार कर दिया। क्यूबा, निकारागुआ,बोलिविया, वेनेजुएला आदि देशों ने इसे संयुक्त राष्ट्र समझौता मानने से इंकार कर दिया क्योंकि इसके लिए सभी 194 देशों की सहमति आवश्यक है।

इन देशों के अनुसार कोपेनहेगन समझौते से जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान खोजने में मदद नहीं मिलेगी। उधर अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कोपेनहेगन समझौते को पहला महत्वपूर्ण कदम बताया है। उनके अनुसार भविष्य में जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक कार्रवाई के लिए प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में बनी यह सहमति मील का पत्थर सिद्ध होगी।

मध्यवर्गीय ताकत का उदय


हाल के दशकों में विश्व की ध्रुवीय व्यवस्था में तेजी से बदलाव हुए हैं। इस दृष्टि से 21वीं शताब्दी का पहला दशक (2000-09) महत्वपूर्ण रहा। जी-8 सदैव प्रभाव में रहा। विश्व व्यवस्था में जी-77 और जी-20 भी सुर्खियों में रहे। हाल ही में विश्व अर्थव्यवस्था में ‘ब्रिक’ और ‘बेसिक’ चर्चित हुए हैं। गोल्डमैन के ब्रिक में ब्राजील, रूस, भारत और चीन सम्मिलित हैं। कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन में ‘बेसिक’ (बीएएसआईसी) का गठन हुआ जिसमें ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन सम्मिलित हैं।

इन सभी विश्व व्यवस्थाओं में भारत महत्वपूर्ण भागीदारी निभा रहा है। हालांकि जी-8 में भारत सम्मिलित नहीं है, किन्तु इसके शिखर सम्मेलनों में भारत को विशेष रूप से आमन्त्रित किया जाता है। वर्तमान में भारत मध्यवर्गीय ताकत के रूप में उभर रहा है। भारत के साथ इस वर्ग में चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। ये मध्यवर्गीय शक्ति के देश हालांकि विकसित नहीं हुए हैं मगर अब ये गरीब नहीं हैं।

अब ये विश्व व्यवस्था में बदलाव लायक बड़े हो गए हैं। इस बदलती हुई विश्व व्यवस्था में भारत के लिए यह बात बल पकड़ रही है कि इसके जी-77 से दूरी बढ़ने पर गरीब देशों के नेतृत्व में कमी आ सकती है। बदली भूमिका में भारत को विकसित देशों की शमात में भी बैठना है।

कोपेनहेगन में भारत ने बेसिक के पक्ष में जी-77 के हितों को गौण रखा हालांकि बेसिक एवं जी-77 के पक्षधर कहते हैं- भारत के मध्यवर्गीय ताकत के रूप में उभरने से इसके समक्ष चुनौती भी बढ़ रही है। एक तरफ भारत की गरीब देशों से दूरी बढ़ रही है तो दूसरी तरफ विकसित देशों में प्रभाव अधिक नहीं बढ़ रहा है।

भारत वैश्विक निर्णयों को मनवाने की भूमिका में कमजोर पड़ जाता है। वहीं विकसित देश आर्थिक मजबूती के बल पर जी-77 को आर्थिक सहायता मुहैया कराकर समर्थन खरीद लेते हैं जिससे मध्यवर्गीय शक्तियों के लिए वैश्विक व्यवस्था में बड़े बदलाव की भूमिका क्षीण पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में भारत को ब्रिक, बेसिक और जी-20 जैसे संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।

विकसित देशों का प्रभाव


अन्तरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के वरिष्ठ अधिकारी किम कार्सटेशन के अनुसार धनी देश जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में सहयोग के लिए पर्याप्त आर्थिक मदद नहीं दे रहे हैं जबकि जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश अधिक जिम्मेदार हैं। विश्व बैंक के एक सर्वेक्षण के अनुसार जलवायु परिवर्तन पर विकासशील देशों को वार्षिक 75 अरब डाॅलर की आवश्यकता है जबकि अगले तीन वर्षों तक (2012 तक) 10 अरब डाॅलर वार्षिक की मदद अनुमानित है।

कोपेनहेगन सम्मेलन में विकसित देशों ने 2020 तक विकासशील देशों को प्रतिवर्ष 100 अरब डाॅलर राशि मुहैयाकराने की बात कहकर विकासशील देशों की सहानुभूति बटोरी और कोपेनहेगन में कार्बन उत्सर्जन कटौती पर कानूनन गैर-बाध्यकारी समझौता लागू करने में सफलता प्राप्त कर ली।

कोपेनहेगन समझौता विकसित देशों का हितपोषक दृष्टिगोचर होता है। जलवायु परिवर्तन पर विकसित देशों की कथनी और करनी में अन्तर है। क्योटो प्रोटोकाॅल इसका उदाहरण है। गत वर्षों में विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन बढ़ा है।

हालांकि कोपेनहेगन में विकसित देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं साथ ही बड़े विकासशील देशों के लिए स्वैच्छिक प्रतिबद्धता रखी गई है, किन्तु कार्बन उत्सर्जन कटौती के कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होने से ऐसा नहीं लगता कि ये विकसित और बड़े विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में लक्ष्यों के अनुरूप कटौती करके प्रकृति की रक्षा में कारगर पहल करेंगे। मगर कोपेनहेगन समझौते में आशा की एक किरण यह दिखती है कि इसमें जलवायु परिवर्तन पर दिसम्बर 2010 तक कानूनन बाध्यकारी समझौता लागू करने का प्रस्ताव है।

अगर दिसम्बर 2010 तक बाध्यकारी समझौता लागू हो जाता है तो यह जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर उपलब्धि होगा। किन्तु उस समय यह ध्यान में रखना होगा कि विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य बहुत बड़े होने चाहिए और जो बड़े विकासशील देश हैं, जिनका प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कम है उन पर कार्बन उत्सर्जन कटौती के बड़े लक्ष्य का बोझ नहीं डाला जाना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर बड़े विकासशील देश विकसित होने के मार्ग पर आगे कैसे बढ़ सकेंगे?

क्योटो प्रोटोकाॅल


जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर क्योटो प्रोटोकाॅल उल्लेखनीय है। विकसित देशों द्वारा 12 वर्ष पूर्व (1997) क्योटो में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के वादे किए गए थे। क्योटो प्रोटोकाॅल जलवायु परिवर्तन पर प्रासंगिक है। अगर क्योटो प्रोटोकाॅल पर दुनिया के सभी देश सहमत हो जाएँ और इसका विस्तार हो जाए तो जलवायु परिवर्तन पर किसी नए समझौते की आवश्यकता नहीं होगी।

चिन्ता की बात यह है कि विकसित देश क्योटो प्रोटोकाॅल में बदलाव चाहते हैं। गौरतलब है क्योटो प्रोटोकाॅल में सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले औद्योगिक देशों को वर्ष 2012 तक कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 1990 की तुलना में सामूहिक रूप से औसतन 5.2 प्रतिशत कम करने का बाध्यकारी लक्ष्य दिया गया था। इस सन्धि में विकासशील देशों के लिए कटौती लक्ष्य निर्धारित नहीं किए गए थे। हालांकि स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयास करने पर वित्तीय व अन्य प्रोत्साहनों की व्यवस्था की गई थी।

सम्भवतः भारत ने इसी बात को दृष्टिगत् रखकर वर्ष 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में 15 से 20 प्रतिशत कटौती की घोषणा स्वेच्छा से की।

हालांकि विकासशील देश होने के कारण भारत पर कार्बन उत्सर्जन की कटौती की बाध्यता नहीं है। चीन ने भारत से पहले कार्बन उत्सर्जन कटौती की स्वैच्छिक घोषणा की। चीन को कार्बन उत्सर्जन कटौती की बाध्यता तो नहीं है, किन्तु वहाँ कार्बन उत्सर्जन की अधिकता के कारण इसमें कटौती आवश्यक है।

भारत में हिमालय, गंगा और कृषि की बड़ी महत्ता है और ये सभी कार्बन उत्सर्जन से अधिक प्रभावित हैं। अतः भारत को कार्बन उत्सर्जन के मामले में बहुत सजग हो जाना चाहिए। भारत में इस बात को लेकर चिन्ता बढ़ने लगी है कि हाल के वर्षों में यहाँ विकास दर तेजी से बढ़ी है और यह विकास कृषि के स्थान पर उद्योग और सेवा क्षेत्र के बल पर हुआ है। अब अर्थव्यवस्था में उद्योगों की भूमिका के बढ़ने से कार्बन उत्सर्जन बढ़ने लगा है। इन सबके बीच भारत के लिए सन्तोष की बात यह है कि यहाँ विकास सेवा क्षेत्र पर आधारित है।जब चीन और भारत जैसे बड़े विकासशील देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती की स्वैच्छिक घोषणा कर दी है तो फिर विकसित देशों द्वारा क्योटो प्रोटोकाॅल में बदलाव या किसी नए समझौते की माँग का औचित्य नहीं है। विकसित देश क्योटो प्रोटोकाॅल की समय सीमा बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। इसके विपरीत विकासशील देश, विशेष रूप से बेसिक देश क्योटो प्रोटोकाॅल में कोई बदलाव नहीं चाहते और न ही वे इसकी समयावधि बढ़ाने के पक्ष में हैं।

अफ्रीकी और जी-77 के देश भी बेसिक देशों के समर्थन में खड़े हैं। भारत में प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कम है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कार्बन उत्सर्जन अगले दो दशकों तक (2030) यूरोपीय देशों की तुलना में कम रहेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2031 में भारत के शहर में रह रहा तीसरा सबसे धनी व्यक्ति भी यूरोपीय संघ के आज के (2009) औसत विद्युत उपभोग का तीसरा हिस्सा ही इस्तेमाल करेगा।

विश्व बैंक द्वारा यह रिपोर्ट कोपेनहेगन में भारत के विभिन्न क्षेत्रों और पक्षों के अध्ययन के आधार पर तैयार की गई है। ऐसी स्थिति में भारत पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दबाव डालना उचित नहीं है।

जलवायु परिवर्तन और भारत


वर्तमान आर्थिक परिप्रेक्ष्य में जलवायु परिवर्तन मुद्दे पर भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। दुनिया के विकसित देश प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और कार्बन उत्सर्जन के बल पर आर्थिक विकास की उच्चतम सीमा को भोग चुके हैं।

ये देश इस संकट की भयावहता के बावजूद कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार भी नहीं हैं। उधर भारत, जिसने विकसित देश बनने के लिए कमर कस रखी है, ने स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का निर्णय लिया है, जबकि भारत में कार्बन उत्सर्जन विकसित देशों की तुलना में कम है।

भारत ने हाल के वर्षों में ऊँची विकास दर अर्जित करके और वैश्विक मन्दी का कुशल मौद्रिक उपायों से प्रबन्धन कर विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। विश्व बैंक के अध्यक्ष ने भारत यात्रा के दौरान वैश्विक मन्दी से निपटने पर भारत की प्रशंसा की है। अतः भारत से निकट भविष्य में विकसित देश होने की आशा की जाती है, किन्तु विकसित देश भारत पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के लिए दबाव डाल रहे हैं।

भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों पर भी ये देश दखल देने से बाज नहीं आ रहे हैं, जबकि भारत का परमाणु कार्यक्रम विस्तार असैन्य गतिविधियों से सम्बन्धित है और कार्बन उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत को चाहिए कि वह अन्य विकासशील देशों को साथ लेकर विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन कटौती के लिए दबाव डाले। विकसित देशों द्वारा कार्बन उत्सर्जन कटौती की घोषणा और आश्वासनों से काम नहीं चलने वाला।

कार्बन उत्सर्जन कटौती को अमल में लाना आज सबसे बड़ी जरूरत है। भारत का ध्यान सबसे पहले तीव्र विकास के बल पर विकसित देश का स्तर पाने पर केन्द्रित होना चाहिए क्योंकि भारत विकसित अवस्था को प्राप्त करके ही सामाजिक समस्याओं से निशात पा सकता है।

आज जिस गति से भारत विकास पथ पर दौड़ रहा है उससे भारत की बड़ी आर्थिक ताकत बनने की उम्मीद है, किन्तु भारत को आर्थिक विकास पथ पर बढ़ते समय विकसित देशों की आर्थिक व्यूह रचनाओं की नकल नहीं करनी चाहिए। भारत की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियाँ विकसित देशों से अलग हैं।

एक ओर वैश्विक मन्दी के कारण विकसित देशों की अर्थव्यवस्था धराशायी हो गई है वहीं भारत इस माहौल में भी 7.9 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। यह भारत की आन्तरिक आर्थिक मजबूती से ही सम्भव हुआ है। जलवायु परिवर्तन के मसले पर भारत को विकसित देशों के कटु अनुभवों से सीख लेनी होगी। भारत को आर्थिक विकास के पथ पर बढ़ते हुए जलवायु परिवर्तन पर सचेत रहने की आवश्यकता है।

आर्थिक विकास की व्यूहरचना इस प्रकार बने कि भारत विकसित अवस्था को भी प्राप्त कर ले और कार्बन उत्सर्जन भी नियन्त्रण में रहे। प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर आर्थिक विकास न हो। भारतीय अतीत से प्रकृति की महत्ता से परिचित हैं।

विकसित देशों की विकास व्यूहरचना आर्थिक विकास के लिए प्रकृति के विनाश पर केन्द्रित रही है। ऐसी स्थिति में विकसित देशों से प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आशा नहीं है। उल्टा विकसित देशों ने विकासशील देशों के संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन किया है। ऐसे में भारत सरीखे विकासशील देशों पर प्रकृति को बचाने का दायित्व अधिक है। भारतीय संस्कृति के लोगों का प्रकृति प्रेम, जलवायु परिवर्तन को रोकने में मददगार सिद्ध होगा।

कार्बन उत्सर्जन कटौती की पहल


इधर भारतीय अर्थव्यवस्था का कृषि क्षेत्र से उद्योग और सेवा क्षेत्र की ओर बढ़ने के कारण कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ गया है। भारत में अधिकतर ऊर्जा स्रोत परम्परागत हैं। भारत के कुल कार्बन उत्सर्जन में 60 प्रतिशत भाग कोयला आधारित बिजलीघरों का है। भारत कार्बन उत्सर्जन के भयावह खतरों से वाकिफ है।

इसी कारण यह कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए सदैव प्रयत्नशील है। भारत ने वर्ष 1990 से 2005 के बीच कार्बन उत्सर्जन में 17 प्रतिशत की कमी की है। भारत ने कोपेनहेगन सम्मेलन से पहले अगले 11 वर्षों में (2009-2020) 20 से 25 प्रतिशत कटौती की स्वैच्छिक घोषणा भी की है।

केन्द्र सरकार ने इसके लिए दिसम्बर 2011 तक वाहनों के लिए अनिवार्य ईंधन मानक, पर्यावरण अनुकूल इमारतें, ऊर्जा संरक्षण कानून में बदलाव, वन क्षेत्र वृद्धि, बिजली संयन्त्रों में स्वच्छ कोयला, 5-सूत्री कार्यक्रम भी तैयार किया है। भारत गैर-परम्परागत ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि के लिए प्रयत्नशील है। भारत ने कुछ विकसित देशों के साथ परमाणु समझौते किए हैं।

भारतीयों की जागरुकता के कारण ही आज प्रतिव्यक्ति और प्रति हेक्टेयर कार्बन उत्सर्जन का स्तर अन्य विकसित देशों की तुलना में कम है।

भारत में कार्बन उत्सर्जन का वर्तमान स्तर इस बात का द्योतक है कि भारत ने आर्थिक विकास के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन का भी ध्यान रखा है। अतः भारत को जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित देशों के दबाव में आने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि विश्व में बढ़ते जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश उत्तरदायी हैं।

भारत को इस दिशा में अन्य विकासशील देशों को साथ लेकर विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दबाव डालना चाहिए। निकट भविष्य में भारत में विकास की गति के बढ़ने से कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि सम्भव है।

भारत को जलवायु परिवर्तन के किसी समझौते पर हस्ताक्षर करने से पूर्व बहुत सजग रहने की आवश्यकता है क्योंकि कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती का निर्णय भारत के विकसित होने के मार्ग में बाधक बन सकता है।

भारत पर खतरा


अब तक के अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। कार्बन उत्सर्जन से हिमालय काँप गया है। इससे गंगा के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। समुद्री जलस्तर के बढ़ने से दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण भू-भागों के डूबने की सम्भावनाएँ प्रकट की जाने लगी हैं।

भारत में हिमालय, गंगा और कृषि की बड़ी महत्ता है और ये सभी कार्बन उत्सर्जन से अधिक प्रभावित हैं। अतः भारत को कार्बन उत्सर्जन के मामले में बहुत सजग हो जाना चाहिए। भारत में इस बात को लेकर चिन्ता बढ़ने लगी है कि हाल के वर्षों में यहाँ विकास दर तेजी से बढ़ी है और यह विकास कृषि के स्थान पर उद्योग और सेवा क्षेत्र के बल पर हुआ है।

अब अर्थव्यवस्था में उद्योगों की भूमिका के बढ़ने से कार्बन उत्सर्जन बढ़ने लगा है। इन सबके बीच भारत के लिए सन्तोष की बात यह है कि यहाँ विकास सेवा क्षेत्र पर आधारित है। सेवा क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम होती है। इसी कारण विकसित देशों और अन्य उभरती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत में प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कम है।

लेखक आर्थिक प्रशासन तथा वित्तीय प्रबन्ध विभाग में व्याख्याता हैं।
ई-मेल: opsomdeep@yahoo.com

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