विकल्प की उपेक्षा

13 Mar 2018
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मक्का
मक्का

गेहूँ और साधारण चावल पर लगभग पूरी तरह आश्रित हो चुके पंजाब के किसानों के लिये क्या बासमती एक बेहतर विकल्प है? यह जानने के लिये डाउन टू अर्थ ने पंजाब के लुधियाना, जालंधर, कपूरथला, अमृतसर और तरण तारण जिलों के गाँवों में जाकर वस्तुस्थिति का जायजा लिया और पाया कि किसान बासमती से मुनाफा पाने की स्थिति में तो है लेकिन इसके अनिश्चित दाम इसकी पैदावार में सबसे बड़ी बाधा है। अगर सरकारी खरीद सुनिश्चित हो और यह एमएसपी के दायरे में आ जाये तो किसान खुशी-खुशी इसे उगाएगा। राज्य के किसान लम्बे समय से एमएसपी की माँग कर रहे हैं। फिलहाल ऐसा नहीं है, इसलिये पंजाब के किसानों का यूरिया और पानी की बचत करने वाले बासमती से मोहभंग होने लगा है।

“पिछले साल 2200 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से बासमती बेचना पड़ा। कई साल बाद इस साल दाम अच्छे मिले और 3000-3500 रुपए में बासमती बिका। ऐसा कभी-कभी ही होता है।” अमृतसर जिले के बंडारा गाँव में रहने वाले बलदेव सिंह अकेले बासमती के दाम में उतार-चढ़ाव से नहीं जूझ रहे हैं। पंजाब में उनके जैसे लाखों किसान हैं जो बासमती उगाना तो चाहते हैं लेकिन इसकी कीमतों में अस्थिरता से आशंकित रहने के कारण असमंजस की स्थिति में रहते हैं। बलदेव सिंह का कहना है कि वह 22 साल से बासमती की खेती कर रहे हैं। ज्यादातर फसलों में किसानों को घाटा ही लगता है लेकिन अगर बासमती के दाम अच्छे मिल जाएँ तो काफी हद तक इस घाटे की भरपाई हो जाती है। उनका कहना है कि सरकार अगर बासमती का एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) तय कर इसकी खरीद सुनिश्चित कर दे तो यह लाभकारी फसल हो सकती है।

लुधियाना के दरवेश गाँव के किसान राजकुमार का भी मानना है कि अगर किसानों को फसलों के उचित दाम मिलने लगे तो सरकार को कर्ज माफ करने की जरूरत ही नहीं होगी। वह बताते हैं कि बासमती में किसानों को फायदा पहुँचाने की क्षमता है बशर्ते उसके दाम ठीक मिले।


हरित क्रान्ति से पहले चावल पंजाब की परम्परागत फसल नहीं थी। देश की खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिये पंजाब में चावल की खेती पर जोर दिया गया। इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने के कारण किसान इसे उगाने लगे। अन्य परम्परागत फसलें चावल को टक्कर नहीं दे पाईं और पिछड़ती चली गईं। इस तरह पंजाब चावल के जाल में उलझता गया।

बासमती उगाने में उहापोह की स्थिति के कारण पंजाब में इसकी खेती का रकबा पिछले सालों में कम हुआ है। पंजाब के कृषि विभाग के आँकड़े बासमती के रकबे में बड़ा उतार-चढ़ाव दर्शाते हैं। 2008-09 में बासमती का रकबा 1,59,000 हेक्टेयर था जो 2009-10 में बढ़कर 5,83,000 हेक्टेयर हो गया। 2010-11 में यह कम होकर 4,48,000 हेक्टेयर रह गया। 2014-15 में यह अब तक के सबसे उच्च स्तर 8,62,000 हेक्टेयर पर पहुँच गया। लेकिन अगले दो सालों में फिर इसमें गिरावट आई। 2015-16 में यह घटकर 7,63,000 हेक्टेयर और 2016-17 में और घटकर 5,02,000 हेक्टेयर पर आ गया। स्पष्ट है कि बासमती खेती अस्थिरता से जूझ रहा है।

सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार


कपूरथला जिले के दरवेश गाँव के रहने वाले तरलोचन सिंह बासमती के रकबे के कम होने की जिम्मेदारी सरकारी नीतियों पर डालते हैं। वह बताते हैं, “मैं 1985 से बासमती की खेती कर रहा हूँ। इसके अलावा आम चावल और गेहूँ की खेती भी करता हूँ। गेहूँ और चावल में निश्चित मूल्य मिलते हैं जबकि बासमती धान के रेट ऊपर-नीचे होते रहते हैं।” इसी गाँव के परमजीत सिंह का कहना है, “सरकार अगर बासमती की खरीद करने लगे तो किसान इसे उगाने के लिये प्रोत्साहित होंगे। बासमती में आम चावल से कम पानी और रासायनिक उर्वरक लगता है और इसकी फसल जल्दी तैयार भी हो जाती है। इस साल बासमती का रेट ठीक मिला है लेकिन दो साल पहले कम मूल्य मिलने पर लागत तक निकालनी मुश्किल हो गई थी।” वह बताते हैं कि सिंचाई के लिये जमीन से पानी निकालने के लिये किसानों को खलनायक की तरह पेश किया जाता है लेकिन किसानों के पास विकल्प ही क्या है? वह कहते हैं, “नहरों में समय पर पानी मिले तो किसान जमीन से पानी आखिर क्यों निकालेगा। फसल पकने पर नहरों में पानी मिलता है लेकिन बुवाई के वक्त नहरी पानी नहीं मिल पाता। पंजाब के बड़े हिस्से में नहरी पानी नहीं पहुँच पाता, खासकर अन्त के गाँवों में। नहरें भी कच्ची हैं और अक्सर टूट जाती हैं।”

हरित क्रान्ति से पहले चावल पंजाब की परम्परागत फसल नहीं थी। देश की खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिये पंजाब में चावल की खेती पर जोर दिया गया। इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने के कारण किसान इसे उगाने लगे। अन्य परम्परागत फसलें चावल को टक्कर नहीं दे पाईं और पिछड़ती चली गईं। इस तरह पंजाब चावल के जाल में उलझता गया। इस वक्त देश में उत्पादित चावल में 10.55 प्रतिशत की हिस्सेदारी अकेले पंजाब की है। पंजाब में 1973-74 में चावल 7.15 प्रतिशत कृषि भूमि पर उगाया जाता था जो 1993-94 में बढ़कर 26.74 प्रतिशत हो गया। 2013-14 में यह आँकड़ा और बढ़कर 35.88 प्रतिशत तक पहुँच गया है। चावल की खेती के लिये 72.63 प्रतिशत पानी जमीन से निकाला जा रहा है। मुफ्त बिजली होने के कारण जमीन से पानी निकालने के लिये पम्पों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। 1970-71 में जहाँ 0.64 लाख पम्पों का इस्तेमाल किया जा रहा था, 2011-12 में यह कई गुणा बढ़कर 13.8 लाख पम्पों पर पहुँच गया है। पम्पों के अत्यधिक इस्तेमाल से पंजाब में भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के आँकड़ों के अनुसार, 1980 के दशक में मध्य पंजाब में जलस्तर 17 सेंटीमीटर की वार्षिक दर से नीचे जा रहा था। 1990 के दशक में यह दर 25 सेंटीमीटर हो गई। 2000-2005 में यह खतरे की घंटी बजाते हुए 91 सेंटीमीटर वार्षिक दर पर पहुँच गई। पंजाब के 22 जिलों के 110 खंडों में रीचार्ज से अधिक पानी की निकासी के कारण जलस्तर नीचे जा रहा है। अनुमान है कि 2023 तक मध्य पंजाब के 66 प्रतिशत हिस्सों में पानी 70 फीट से नीचे चला जाएगा, 34 प्रतिशत हिस्सों में यह 100 फीट से नीचे पहुँच जाएगा। 7 प्रतिशत हिस्से में यह 130 फीट नीचे तक जा सकता है। यही कारण है कि इस वक्त पंजाब के ज्यादातर जिले डार्क जोन में आ गए हैं।

क्या पंजाब के किसान बासमती की खेती की मदद से यूरिया और भूजल की बचत कर मुनाफा अर्जित करने की स्थिति में आ सकते हैं? यह जानने के लिये इण्डियन जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड डवलपमेंट में जनवरी-मार्च 2017 में प्रकाशित सुखपाल सिंह, परमिंदर कौर, जतिंदर सचदेव और सुमित भारद्वाज के शोधपत्र में पंजाब में फसलों की लाभदायकता का विश्लेषण किया गया है। शोधपत्र बासमती को अन्य फसलों से लाभकारी बताता है। शोधपत्र के अनुसार, बासमती से प्रति हेक्टेयर 54,289 रुपए का मुनाफा मिलता है जबकि आम चावल से यह 45,360 रुपए है। जहाँ तक रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग की बात है तो बासमती की खेती में प्रति हेक्टेयर 194.99 किलो उर्वरकों का प्रयोग होता है। जबकि गेहूँ में प्रति हेक्टेयर 282.93 किलो, आम चावल में 249.48 किलो, आलू में 550.32 किलो व गन्ने में 368.53 किलो उर्वरकों की खपत होती है। बासमती में प्रति हेक्टेयर 8-9 हजार क्यूबिक मीटर पानी लगता है जबकि आम चावल में प्रति हेक्टेयर 11-13 हजार क्यूबिक मीटर पानी की खपत होती है।

तो क्या पंजाब के किसानों के लिये बासमती अच्छा विकल्प है? यह सवाल पूछने पर पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में सहायक कृषि अर्थशास्त्री और शोध करने वाले जतिंदर सचदेव ने डाउन टू अर्थ को बताया कि बासमती किसानों के लिये विकल्प हो सकता है लेकिन इसका माँग पक्ष भी देखना होगा। एक साल दाम अच्छा हो जाता है तो अगले साल किसान बासमती अधिक उगा देते हैं। ऐसे में दाम कम हो जाते हैं। वह कहते हैं कि बासमती सभी लोग नहीं खाते। इसके ठीक दाम तब मिलेंगे जब माँग बढ़े। विश्वविद्यालय में कृषि वैज्ञानिक बलजिंदर कौर सिदाना का कहना है कि जब भी बासमती का रकबा 7 या 8 लाख हेक्टेयर से अधिक होता है, इसके दाम कम हो जाते हैं। 3-4 लाख रकबा रहने पर बेहतर दाम मिलने की उम्मीद रहती है। अगर सरकारी खरीद होगी तो किसानों को निश्चित दाम मिलेगा और वह इसकी खेती में सक्षम होगा।

फिलहाल सरकारी खरीद सुनिश्चित न होने के कारण बासमती का पूरा बाजार माँग और आपूर्ति के नियम के हवाले है। इसे और स्पष्ट करते हुए तरण तारण जिले में स्थित बाबा नागा एग्रो प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक सुनील चड्ढा बताते हैं, “2017 में जो बासमती 3,600 रुपए प्रति क्विंटल में बिका, 2016 में वही 2,500 रुपए में बिका। 2015 और 2014 में इसके दाम, 1,800 से 2,000 रुपए के बीच ही मिल पाये।” वह बताते हैं कि 2017 में मिले दाम अच्छे देखकर किसान इस साल बासमती अधिक लगाएँगे जिससे अगले साल ज्यादा आपूर्ति होने पर दाम कम हो सकते हैं। उनका कहना है कि पंजाब में कुछ ऐसे कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है जो यूरोपीय देशों में प्रतिबन्धित हैं। इस कारण यहाँ के बासमती की यूरोपीय देशों में माँग नहीं है। अगर सरकार इन कीटनाशकों का उत्पादन बन्द करवा दे तो स्थिति में बदलाव हो सकता है। किसान इन कीटनाशकों का प्रयोग बन्द कर देंगे और यूरोपीय देशों में पंजाब का चावल निर्यात किया जाने लगेगा। यूरोपीय देशों से माँग बढ़ने पर सम्भव है कि किसानों को अच्छे दाम मिलने लगें।

वह भी मानते हैं कि सरकार एमएसपी पर बासमती खरीदने लगे तो चावल उद्योग और किसानों दोनों का भला होगा।

सामान्य चावल से कम दाम
लुधियाना के धांद्रा गाँव के अजमेर सिंह का कहना है कि बासमती की उपज सामान्य चावल से करीब आधी होती है लेकिन अच्छा दाम मिलने की उम्मीद से किसान इसे उगा लेते हैं लेकिन कई बार सामान्य चावल से कम दाम पर व्यापारियों को बासमती बेचना पड़ता है। वह बताते हैं कि बासमती की फसल 120 दिन में तैयार हो जाती है जबकि सामान्य चावल को तैयार होने में 160 से 170 दिन लगते हैं। इस लिहाज से भी बासमती की खेती किसानों के लिये उपयुक्त है।

तरण तारण जिले के कोट धरमचंद खुर्द गाँव में रहने वाले करमवीर सिंह पिछले 35 साल से बासमती की खेती कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि 2011-12 में 4,500 से 5,000 रुपए प्रति क्विंटल बासमती का रेट था। 2013 में 3,000 और 2015 में 1,500 रुपए के हिसाब से बासमती बेचना पड़ा। कोट सिवियां दा गाँव के तस्वीर सिंह के अनुसार, ‘बासमती का दाम 2,000 रुपए से नीचे जाता है तो किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती।

लुधियाना धांद्रा गाँव के राजेंदर सिंह का कहना है कि हरित क्रान्ति के वक्त पर सरकार का पूरा जोर गेहूँ और चावल की खेती पर था। सरकारी नीतियों के कारण बाकी परम्परागत फसलों की उपेक्षा हुई। वह मानते हैं “चावल की खेती में ज्यादा पानी लगता है और बिजली मुफ्त होने के कारण किसान जमीन से पानी निकाल रहे हैं लेकिन यह किसानों की मजबूरी है। उनके पास कोई दूसरा विकल्प सरकार ने नहीं छोड़ा है। जिन फसलों को पानी कम लगता है, उन्हें सरकार खरीदती नहीं है।” इसी गाँव में रहने वाले रणजीत सिंह बिना संकोच स्वीकार करते हैं कि भूमिगत कीटनाशकों और उर्वरकों के इस्तेमाल से प्रदूषित हो रहा है। 80 फुट पर पानी है लेकिन वह न तो पीने लायक है और न खेती लायक।

पंजाब में भारतीय किसान यूनियन के महासचिव हरेंद्र लाखोवाल ने डाउन टू अर्थ को बताया, “पंजाब का किसान कर्ज में डूबा है। बासमती के अलावा सभी फसलों का एमएसपी सुनिश्चित हो और किसानों को फसलों का लाभदायक मूल्य मिले। यूनियन ने पंजाब सरकार को सभी फसलों का एमएसपी निर्धारित करने के लिये अल्टीमेटम दिया है। अगर इस माँग को नहीं माना जाता है तो यूनियन 13 मार्च को दिल्ली पहुँचकर आन्दोलन करेगी।” उनकी माँग है कि सरकार एमएसपी के अलावा किसानों का कर्ज माफ करे और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक लागत का डेढ़ गुणा दाम किसानों को दे। किसान नेता धर्मेंद्र मलिक कहते हैं, “सरकार सन्तुलित खेती की बात करती है लेकिन जब एमएसपी की बात आती है तो सरकार पीछे हट जाती है। बासमती भी तो चावल की किस्म है, फिर सरकार को इसका एमएसपी देने में क्यों दिक्कत है, यह समझ से परे है। बासमती की खेती करने वाले पंजाब के किसानों का तभी भला होगा जब सरकार द्वारा इसकी सीधी खरीद होगी।” बलजिंदर कौर सिदाना का कहना है कि जमीन से पानी निकालने का सिलसिला यूँ ही जारी रहता है तो यह पंजाब के लिये बहुत खतरनाक होगा। पंजाब को बचाने के लिये कोई-न-कोई रास्ता निकालना ही होगा।

पंजाब को संकट से उबार सकता है मक्का


“चावल की खेती के लिये जमीन से इसी गति से पानी निकलता रहा तो आने वाले कुछ सालों में स्थिति भयावह होगी। 15-20 साल में सबसे उत्पादक राज्य की जमीन बंजर हो जाएगी।” लुधियाना दाना मंडी के चेयरमैन शरतचंद्र की यह बातें पंजाब में गम्भीर कृषि संकट की ओर इशारा करती हैं। दरअसल जिस गति से पंजाब में संचाई के काम में भूजल का प्रयोग साल-दर-साल बढ़ा है, उसने पर्यावरणविदों और कृषि के जानकारों को चावल का विकल्प तलाशने पर मजबूर कर दिया है। हरित क्रान्ति का खामियाजा जिस फसल को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा, उनमें मक्का भी शामिल है। 1973-74 में पंजाब की 9.76 प्रतिशत कृषि भूमि पर मक्के की खेती होती थी। 1993-1994 में यह 2.56 प्रतिशत रह गई। 2013-14 में यह और घटकर 1.68 प्रतिशत तक पहुँच गई है।

क्या मक्का पंजाब को कृषि संकट से उबारने में मददगार हो सकता है? जानकार इसका जवाब हाँ में देते हैं। इस फसल में काफी हद तक पानी बचाया जा सकता है। इण्डियन जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड डवलपमेंट में प्रकाशित बलजिंदर कौर सिदाना का शोधपत्र बताता है कि मक्का मिट्टी की गुणवत्ता को बरकरार रखने में मददगार है। यह कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों की खपत भी कम करता है। इसके अलावा इसकी फसल चावल के मुकाबले कम अवधि में तैयार हो जाती है। मक्का महज 90 दिनों में पक जाता है जबकि धान को तैयार होने में करीब 145 दिन लगते हैं। शोध बताता है कि किसान मक्के की खेती करके मिट्टी को खराब होने के साथ-साथ चावल के मुकाबले 74 प्रतिशत पानी और 70 प्रतिशत बिजली की बचत कर सकते हैं।

एमएसपी है पर खरीद नहीं


“जब से होश सम्भाला है, मैंने अपने गाँव में मक्के की खेती नहीं देखी।” अमृतसर के कोट सिंविया दा में अपने घर के बाहर खाट पर बैठे 30 साल के तस्वीर सिंह से जब हमने पूछा कि उन्होंने कब से मक्के की खेती नहीं की है तो वह अपनी माँ से पूछकर बताते हैं 25-30 साल पहले यहाँ खूब मक्का होता था। मक्के के अलावा बाजरा, अरहर, मूँग, कपास भी खूब होता था। गेहूँ और चावल ने सभी फसलों को खत्म कर दिया। तरण तारण जिले के कोट धरमचंद्र खुर्द गाँव के बलवंत सिंह बताते हैं, “1975-76 में किसान मक्का उगाते थे। अब मक्का नहीं उगाते क्योंकि इसकी लागत तक नहीं निकल पाती। अगर इसके सही दाम मिलने लगे तो किसान हँसकर मक्का लगाएगा।” लुधियाना जिले के तलमंडी खुर्द के किसान रणजोत सिंह के अनुसार, मक्के का खरीदार नहीं है। अगर किसान कभी मक्का उगा भी लेता है तो उसे मंडी में औने-पौने दाम पर बेचना पड़ता है। आढ़तिए नमी का बहाना बनाकर कम दाम देते हैं। वह मानते हैं कि खेती किसानों के लिये जुए जैसा है, जिसमें नुकसान का खतरा ही अधिक रहता है।

लुधियाना जिले के ही हलवारा गाँव के अंतोनी मक्के का पूरा गणित समझाते हुए बताते हैं “मक्के का उत्पादन बढ़ाने के लिये जरूरी है कि उसकी माँग बढ़े और किसानों का हित सधे। मक्के की चावल से प्रतियोगिता है। इसका उत्पादन चावल के करीब नहीं पहुँच पाता। इस वक्त 1,425 रुपए मक्के की एमएसपी है। लोग एमएसपी देखकर अक्सर मक्का उगा लेते हैं लेकिन बाजार जाकर उन्हें 80-900 रुपए का दाम ही मिलता है।” उनका कहना है कि इसमें चावल से ज्यादा मेहनत है। चावल को जानवरों से नुकसान नहीं पहुँचता लेकिन मक्के को खतरा रहता है। मक्का की फसल को एक बार पानी देना भूल गए तो उत्पादन में बड़ी गिरावट होती है, लेकिन चावल के साथ ऐसा नहीं है। मक्के के साथ खरपतवार भी अधिक उगती है। बारिश कम या ज्यादा होने पर मक्के की फसल प्रभावित होती है, तेज हवा से भी इसे नुकसान पहुँचता है लेकिन चावल को इससे फर्क नहीं पड़ता। इसके अलावा मक्के को सुखाने के बेहतर तंत्र विकसित नहीं हो पाये हैं। इन्हीं कारणों से 1975-76 में 5.77 लाख हेक्टेयर में उगाया जाने वाला मक्का फिलहाल 1.16 लाख हेक्टेयर पर पहुँच गया है। ऐसा नहीं है मक्के का उत्पादन कम है। 1970-71 में इसका उत्पादन 8 लाख 61 हजार टन था जो अब भी 4 लाख 45 हजार टन के आस-पास है। पहले एक हेक्टेयर में 12 क्विंटल मक्के की पैदावार होती थी जो इस वक्त बढ़कर 38 क्विंटल से ज्यादा हो गई है। यानी मक्के की पैदावार में तीन गुणा से अधिक वृद्धि हुई है। यह बढ़ोत्तरी उन्नत किस्म के बीजों की बदौलत सम्भव हुई है।

बलजिंदर कौर सिदाना का कहना है कि अगर मक्के पर सरकार थोड़ा भी ध्यान दे यानी इसकी खरीद सुनिश्चित कर दे तो यह फसल बहुत जल्दी रफ्तार पकड़ सकती है। इस फसल में क्षमता है कि यह पानी की प्यासी फसल यानी चावल का बेहतर विकल्प बन सकती है। उनका कहना है कि गेहूँ और चावल के इन्फ्रास्ट्रक्चर, एमएसपी, जन वितरण प्रणाली, खरीद प्रक्रिया, सब्सिडी आदि कारण रहे जिन्होंने मक्के को हतोत्साहित किया। अगर मक्के के किसान को भी ये लाभ मिलने लगें तो निश्चित रूप मक्के का रकबा बढ़ेगा। वह बताती हैं, “इसमें सन्देह नहीं है कि मक्का पर्यावरण हितैषी फसल है। मक्के को केवल चार सिंचाई की जरूरत होती है जबकि चावल को 25 सिंचाई लगती है। 2,500-3,500 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर पानी मक्के में लगता है जबकि चावल को 10,000-13,000 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर पानी की जरूरत होती है। मक्के का पैदावार भी अच्छी है लेकिन अच्छी गुणवत्ता के बीज महंगे हैं। सरकार को इनकी खरीद पर सब्सिडी देनी चाहिए। अभी ज्यादातर बीज निजी कम्पनियाँ मुहैया कराती हैं। बाजार और स्टोरेज की सुविधा देकर किसानों को प्रोत्साहित किया जा सकता है। लेकिन सबसे जरूरी है कि एमएसपी दी जाये।”

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