विस्थापन का दर्द और विकास का मरहम

26 May 2015
0 mins read

उत्तराखण्ड राज्य में विस्थापन की घटना बहुत पुरानी है लेकिन वैश्वीकरण के पश्चात् विस्थापन ने महामारी का रूप ले लिया। पहाड़ी गाँव में मूलभूत सुविधा के अभाव, रोजगार के अल्पसाधनों का होना इसकी मुख्य वजह है। पहले जहाँ घर का एक सदस्य बाहर जाकर काम करता था वहीं आज अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा एवं उज्जवल भविष्य की चिन्ता के कारण पूरा परिवार ही अपनी विरासत और संस्कृति से दूर दिल्ली, पंजाब जाने को मजबूर हो रहा है।

जाते हुए लोग शायद ही किसी को अच्छे लगते हों। लेकिन आज उत्तराखण्ड में हर रोज कोई न कोई अपना घर छोड़ने को मजबूर हैं। यहाँ के लोग पेट के भूगोल के कारण अपने पुस्तैनी जमीन छोड़ने को विवश हैं। मूलभूत संसाधानों की कमी और बेरोजगारी के कारण पहाड़ के गाँवों में आज बस, तालें लगे मकान और मुरझाए से कुछ चेहरे ही शेष बचे हैं। पहाड़ी गाँव विस्थापन के दर्द से कराह रहे हैं। पहाड़ की वादियों में रहने वाले लोग मेहनती होते हैं, पर अफसोस अब उनकी उम्मीद टूटती जा रही है। आज पहाड़ से, उसका पानी और जवानी दोनों रूठ गई है क्योंकि विकास बनाम विस्थापन की दौड़ में विस्थापन जीतता नजर आ रहा है।

आँकड़ों के अनुसार विस्थापित होने वाले लोगों में ज्यादातर संख्या युवाओं की है जो पहले शिक्षा के लिए फिर रोजगार के लिए गाँव को छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। उत्तराखण्ड में 69.77 प्रतिशत जनसंख्या पहाड़ी गाँवों में रहती है लेकिन कुछ वर्षों से शहरों में विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।

उत्तराखण्ड राज्य में विस्थापन की घटना बहुत पुरानी है लेकिन वैश्वीकरण के पश्चात् विस्थापन ने महामारी का रूप ले लिया। पहाड़ी गाँव में मूलभूत सुविधा के अभाव, रोजगार के अल्पसाधनों का होना इसकी मुख्य वजह है। पहले जहाँ घर का एक सदस्य बाहर जाकर काम करता था वहीं आज अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा एवं उज्जवल भविष्य की चिन्ता के कारण पूरा परिवार ही अपनी विरासत और संस्कृति से दूर दिल्ली, पंजाब जाने को मजबूर हो रहा है। इसके अतिरिक्त एक और प्रकार का विस्थापन होता है जिसमें लोग अपने गाँवों को छोड़कर आस-पास के शहरों में जाकर बस जाते हैं, जिससे उस शहर में जनसंख्या दबाव की समस्या उत्पन्न होने लगती है। कुल मिलाकर देखें तो यह भयावह दर्द हर रोज नई समस्या को जन्म दे रहा है। एक ओर गाँव खाली हो रहे हैं वहीं आस-पास के शहरों में संसाधनों पर जनसंख्या का भार बढ़ता जा रहा है। इस सबके साथ आने वाली पीढ़ी अपनी संस्कृति, मूल्यों एवं परम्पराओं से दूर होती जा रही है।

किसी भी देश का पहाड़ी भू-भाग उसके पर्यावरण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। और विशेष तौर पर उत्तराखण्ड जैसा राज्य, जहाँ से दो प्रमुख नदियाँ, गंगा एवं यमुना का उद्गम स्थल है, की महत्ता और अधिक बढ़ जाती है। लेकिन पलायन की महामारी ने सुन्दर गाँवों को भूतहा गाँवों में बदल दिया। गाँवों से भागते लोगों की दुखी आँखों में निराशा होती है, दर्द होता है और साथ अनेक सवाल होते, उस क्षेत्र के विकास को लेकर। विकास तो होता है पर वह कभी राजनीति तो कभी अन्य कारणों की वजह से धरातल पर नहीं उतर पाता है। इसके लिए कुछ बातों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। पहला, विकास की प्रकिया में गाँव के लोगों की पूरी भागीदारी हो, योजना बनाने से लेकर क्रियान्वयन तक उनका सहयोग लिया जाए।

दूसरा, पंचायती राजव्यवस्था जो जितनी ताकत संविधान में दी गई है उसे हकीकत में परिणीत किया जाए, संस्था को गाँवों के विकास के लिए सम्पूर्ण अधिकार दिए जाएँ और तीसरा, लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ यानी मीडिया को पहाड़ के सवालों से विशेष इत्तेफाक रखने की जरूरत है, ताकि चारों ओर फैली निराशा को सकारात्मकता के वातावरण से मिटाया जा सके। वास्तव में इन्हीं प्रयासों के माध्यम से पहाड़ी गाँवों में संव्याप्त विस्थापन के दर्द पर सुनियोजित विकास का मरहम लगाया जा सकता है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading