वन प्रबंधन में सुनिश्चित हो सहभागिता

4 May 2018
0 mins read
वन प्रबन्धन
वन प्रबन्धन

उत्तराखण्ड में मौजूद वन पंचायतें, जनआधारित वन प्रबन्धन की सस्ती, लोकप्रिय एवं विश्व की अनूठी व्यवस्था थी, अब नहीं रहीं। आज उनकी वैधानिक स्थिति ग्राम वन की है। 2001 में ही वन अधिनियम में संशोधन कर आरक्षित वन से किसी भी प्रकार के वन उपज के विदोहन को गैर-जमानती जुर्म की श्रेणी में डाल दिया गया। अभयारण्य, नेशनल पार्क व बायोस्फियर रिजर्व के नाम पर संरक्षित क्षेत्रों के विस्तार का क्रम जारी है। विश्व स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिहाज से जंगल की अधिकता किसी भी राज्य के लिये गौरव की बात है, लेकिन यदि जनता उन्हें परेशानियों का सबब मानने लगे तो निश्चित तौर पर चिन्ता का विषय है। 71 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले उत्तराखण्ड राज्य में गलत सरकारी नीतियों के कारण आज वन जनता के लिये परेशानियों का कारण बन चुके हैं। यहाँ जंगल तथा जनता के बीच दूरी लगातार बढ़ती जा रही है, जो वन तथा जन दोनों के लिये घातक है।

उत्तराखण्डी ग्रामीण समुदाय का वनों के साथ चोली-दामन का सम्बन्ध रहा है। कृषि, पशुपालन एवं दस्तकारी ग्रामीणों की आजीविका का पुश्तैनी आधार रहे हैं, जो वनों के बिना सम्भव नहीं है। पर्यावरण सुरक्षा तथा जैवविविधता संरक्षण के लिये जरूरी है कि वन एवं उन पर निर्भर समुदाय को एक दूसरे के सहयोगी के रूप में देखा जाये। दुर्भाग्यवश जब भी पर्यावरण, जैवविविधता संरक्षण अथवा जलवायु परिवर्तन की बात होती है हमारे नीति-नियन्ता ग्रामीणों को वनों का दुश्मन समझ कठोर वन कानूनों के जरिए समस्या का सतही समाधान ढूँढने का प्रयास करते हैं।

राज्य गठन के बाद उम्मीद थी कि वन प्रबन्धन में जनसहभागिता सुनिश्चित होगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उत्तराखण्ड में वन अधिनियम के जानकार और स्थानीय वन पंचायतों के अध्येता, पत्रकार ईश्वरी जोशी इस बात को लेकर आहत हैं कि सरकार वन संरक्षण और दोहन के लिये स्थानीय लोगों को विश्वास में क्यों नहीं ले रही है। राज्य बनने के बाद पहला संशोधन वन पंचायत नियमावली में किया गया।

2001 में किये गए इस संशोधन के जरिए वन पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त कर उन्हें वन विभाग के नियंत्रण में दे दिया गया। आज उनकी भूमिका बिना पैसों के चौकीदार सी होकर रह गई है। बिना वन विभाग की अनुमति व विभाग द्वारा जारी अनुसूचित दरों के वन पंचायत हकधारक को एक पेड़ तक नहीं दे सकती है। यहाँ मौजूद 12,089 तथाकथित वन पंचायतें 5,44964 हेक्टेयर वन क्षेत्र का प्रबन्धन कर रही हैं।

उत्तराखण्ड में मौजूद वन पंचायतें, जनआधारित वन प्रबन्धन की सस्ती, लोकप्रिय एवं विश्व की अनूठी व्यवस्था थी, अब नहीं रहीं। आज उनकी वैधानिक स्थिति ग्राम वन की है। 2001 में ही वन अधिनियम में संशोधन कर आरक्षित वन से किसी भी प्रकार के वन उपज के विदोहन को गैर-जमानती जुर्म की श्रेणी में डाल दिया गया। अभयारण्य, नेशनल पार्क व बायोस्फियर रिजर्व के नाम पर संरक्षित क्षेत्रों के विस्तार का क्रम जारी है।

2012 में बने नंधौर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी व पवलगढ़ कंजरवेशन रिजर्व इसी कड़ी में शामिल हैं। 7 वन्य जीव विहार 6 राष्ट्रीय उद्यान तथा 2 संरक्षण आरक्षित के नाम पर अब तक 7705.99 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र के दायरे में आ चुका है, जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत तथा कुल वन क्षेत्र का 23 प्रतिशत है। इन संरक्षित क्षेत्रों में ग्रामीणों के सारे परम्परागत वनाधिकार प्रतिबन्धित कर दिये गए हैं। अब इन संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से लगे क्षेत्र को इको सेंसटिव जोन बनाया जा रहा है।

इको टूरिज्म के नाम पर जंगलों में भारी संख्या में पर्यटकों की आवाजाही से जंगली जानवरों के वासस्थल प्रभावित हो रहे हैं। वन संरक्षण अधिनियम 1980 ने पहले ही पर्वतीय क्षेत्र में ढाँचागत विकास को काफी हद तक प्रभावित किया है। वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 अपने ही खेत में स्वयं उगाए गए पेड़ को काटने से रोकता है।

इन वन कानूनों के चलते पर्वतीय क्षेत्र में न केवल विकास कार्य बाधित हुए हैं, बल्कि उनकी आजीविका के मुख्य आधार कृषि, पशुपालन एवं दस्तकारी पर भी हमला हुआ है। जंगली सूअर, शाही, बन्दर, लंगूर आदि जंगली जानवरों द्वारा फसलों को भारी क्षति पहुँचाई जा रही है। तेंदुए आये दिन मवेशियों को अपना शिकार बना रहे हैं।

वन्य जीवों के हमलों से हर साल राज्य में औसतन 26 लोगों की मौत तथा 60 लोग घायल हो रहे हैं। वन विभाग में दर्ज आँकड़ों के अनुसार मात्र 45.59 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले बिनसर अभयारण्य में प्रतिवर्ष 140 मवेशी तेंदुओं का शिकार बन रहे हैं, जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। परिस्थितियाँ ग्रामीणों को खेती व पशुपालन से विमुख कर रही हैं। कभी खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर गाँवों में हर साल बंजर भूमि का विस्तार हो रहा है। पलायन बढ़ रहा है।

जंगली जानवरों के आतंक से निजात दिलाने की कोई कारगर योजना नहीं बन पाई है। बन्दरों की नसबंदी तथा जंगली सूअरों को नियंत्रित करने की वन विभाग के आश्वासन हवाई साबित हुए हैं। यही नहीं राज्य में वनाधिकार कानून को लागू करने में भी अब तक की सरकारें नाकाम रहीं हैं। वन कानूनों की आड़ में वन विभाग द्वारा ग्रामीणों के उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। दूसरी तरफ संरक्षित क्षेत्रों के भीतर बड़े पैमाने पर गैर कानूनी तरीके से जमीनों की खरीद-फरोख्त भी जारी है।

अकेले बिनसर अभयारण्य में 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन की खरीद-फरोख्त अवैध रूप से हुई है। ग्रामीणों को आवासीय भवन बनाने के लिये इमारती लकड़ी हेतु बिना सुविधा शुल्क दिये सूखा पेड़ तक नहीं मिल पा रहा है। ब्रिटिश काल से मिलने वाली इमारती लकड़ी के कोटे में वन विभाग पहले ही 60 प्रतिशत की कटौती कर चुका है। चिपको आन्दोलन की शुरुआत करने वाले रैणी, लाता गाँव के लोग 25 साल बाद झपटो-झीनों का नारा देने को विवश हुए हैं।

अब मनुष्य को केन्द्र में रखकर वन कानूनों की पुनरसमीक्षा करने का वक्त आ चुका है। यदि ग्रामीण जन-जीवन को बचाना है तो यह तय करना होगा कि राज्य के अधीन अधिकतम कितना वन क्षेत्र होगा। जंगल की धारण क्षमता का आकलन कर उससे अधिक जंगली जानवर पर उन्हें हटाने अथवा संख्या नियंत्रित करने हेतु कारगर कदम उठाने होंगे।

वन प्रबन्धन में जन सहभागिता सुनिश्चित करानी होगी। इस सहभागिता को केवल वन संरक्षण तक सीमित न रखकर वन उपज के उपयोग एवं वनों से होने वाले सभी लाभों तक देखना होगा। उत्तराखण्ड के विस्तृत वन क्षेत्र के एवज में ग्रीन बोनस की माँग पिछले एक दशक में सभी सरकारों द्वारा प्रमुखता से उठाया है, लेकिन इसमें वनवासियों का हिस्सा कहाँ है इसे तय किये जाने की जरूरत है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading