वॉटरमैन ऑफ छत्तीसगढ

26 Sep 2008
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शुभ्रांशु चौधरी
प्रताप नारायण सिंह और उनके सरगुजा ग्रामीण विकास संस्थान के पानी रोकने के प्रयोग के बारे में मैंने दिल्ली में कुछ लोगों से सुन रखा था।

संयोगवश 31 दिसम्बर की रात मैं अम्बिकापुर में था। मैंने प्रताप भाई को यह पूछने के लिये फोन किया कि क्या नए साल का पहला दिन मैं उनके साथ बिता सकता हूं ? प्रतापभाई राज़ी हो गए।

वाड्रफनगर वही इलाका है जहां आज से 15 साल पहले भूख से मौतों की राजनीति की शुरुआत हुई थी। शायद आपको रिबई पण्डो की कहानी अब भी याद हो जिसके घर हुई भूख से मौतों को लेकर तत्कालीन विपक्ष के नेता दिग्विजय सिंह ने खूब तमाशा किया था और प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव भी “आंसू बहाने“ वाड्रफनगर पहुंचे थे।

वाड्रफनगर के कुछ पहले ही रजखेता गांव के लिये सडक मुड जाती है जहां प्रतापभाई रहते हैं।छत्तीसगढ में नवम्बर में धान कटने के बाद खेत सूखे और वीरान ही नज़र आते हैं पर रजखेता के खेतों में गेहूं की सुखद हरियाली थी।

प्रतापभाई ने बताया “जब मैं 1990 में सबसे पहले इस इलाके में आया था तब यह पूरा क्षेत्र सूखे के लिये विख्यात था और फिर 1992 में रिबई पण्डो काण्ड ने इसे अत्यंत गरीब क्षेत्र के रूप में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी दिलाई”.

पर वह ख्याति तात्कालिक ही थी और थोडे दिन बाद सभी वाड्रफनगर को भूल गये चाहे वे राजनेता हों या पत्रकार। हां क्रांतिकारी भाषण और लेखों के लिये वाड्रफनगर और रिबई पण्डो का उपयोग अब भी जारी है।

प्रताप भाई बताते हैं “छत्तीसगढ के और हिस्सों की तरह वाड्रफनगर में भी 1400 मिलीमीटर बारिश होती है और बारिश के कुछ महीने बाद ही यहां आदिवासी भूख से मरने लगते हैं।

सन 2002 में सरगुजा में 500 से अधिक लोगों की भूख से मौत हुई, जिसमें अकेले वाड्रफनगर में 130 लोग मारे गये थे। यह अलग बात है कि दिग्विजय सिंह की तरह उस समय का विपक्षी दल भाजपा इन मौतों की राजनीतिक रोटी भी नहीं सेंक पाया।

प्रताप भाई ने कहा “तुलनात्मक रूप से पंजाब में औसतन 600 मिलीमीटर बारिश होती है और वहां का किसान देश का सबसे समृद्ध किसान है इसलिये मुझे समझ में आया कि पानी की कमी यहां की समस्या नहीं है वरन यहां उस पानी को रोकने की ज़रूरत है जो बरसात के बाद बहकर बरबाद हो जाता है”

“जब सबसे पहले मैं यहां आया और हमने कुआं खोदने की कोशिश की तो उसमें काफी दिनों तक सिर्फ बालू ही निकलती रही और अपने उपयोग के लिये भी हमें दूर से पानी ढोकर लाना पडता था”

“1995 में हमनें गांव वालों के साथ रजखेता से सटे पहाडियों पर पानी रोकने के लिये बण्ड बनाने शुरु किये जिससे बरसात का पानी उन बण्डों पर थोडी देर रुक सके और बहने की बजाए रिस कर ज़मीन के नीचे चला जाए”

“फिर धीरे धीरे हमने नालों पर मिट्टी के बांध बनाने शुरु किए और एक एक कर 8 छोटे छोटे बांध बनाए। इस काम में हमें एक संस्था से आर्थिक मदद मिली। इस काम में 41 लाख का खर्च आया जिसमें लगभग 30 लाख रजखेता के ग्रामीणों को मज़दूरी के रूप में मिली।

“आज रजखेता में हम लगभग 80% बारिश के पानी को रोक लेते हैं। पानी रोकने का काम शुरु करने के 5 साल के अंदर रजखेता में पानी का स्तर 40 फीट से अधिक ऊपर आ गया। 1995 में रजखेता में एक भी ट्यूबवेल नहीं था आज यहां 20 ट्यूबवेल हैं”.

“1995 में दूसरी फसल के बारे में कोई सोचता भी नहीं था आज 70% से अधिक किसान दूसरी फसल ले रहे हैं। 1995 में यहां 90 कुएं थे आज उनकी संख्या बढकर 350 से अधिक हो गयी है”

“आज हमारे दो बांध टूट गये हैं उनमें मरम्मत की ज़रूरत है और बढती ट्यूबवेल की संख्या के कारण जलस्तर थोडा नीचे गया है। इस विषय पर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है कि हम जितना पानी रिचार्ज करते हैं अगर उसी अनुपात में ट्यूबवेल से पानी निकालें तो दिक्कत की कोई बात नहीं है”

“1995 में रजखेता में 5 हज़ार रु प्रति एकड में भी कोई ज़मीन नहीं खरीदता था आज उसी ज़मीन की कीमत एक लाख प्रति एकड से ऊपर है और लोग तीसरी फसल की भी सोच रहे हैं”.

प्रताप भाई बताते हैं “पानी रोकने का काम कठिनाइयों भरा रहा है। जब पहली बार बांध भरा और उसमें एक आदमी डूब कर मर गया तो आदिवासियों ने सोचा कि मैंने उसकी बलि चढा दी है और सारे लोग लाठी, टंगिया लेकर मुझे मारने और भगाने के लिये पहुंच गये। इस तरह की अनेक कहांनियां हैं ”.

पर अब रजखेता के प्रयोग को देखकर आसपास के गांवों में भी लोगों ने पानी रोकने का काम शुरु कर दिया है और पडोस के कई गावों में भी मुझे गेहूं के हरे भरे खेत दिखे।

पडोस के पण्डरी गांव में प्रतापभाई मुझे देढ लाख के खर्च से बना एक बांध दिखाने ले गये। पण्डरी गांव के जल बिरादरी समूह के प्रमुख बसंतभाई ने बताया “इस बांध के कारण पिछले दो साल से 500 एकड में किसान दूसरी फसल ले रहे हैं पर सरकार ने हमारा पैसा रोक दिया है और जिन व्यापारियों से हमनें पत्थर खरीदे थे वे हमें रोज़ उनके बकाये के लिये परेशान करते हैं”.

प्रतापभाई ने बताया “हमने बैंक से कमर्शियल रेट पर 50 हज़ार का लोन लेकर ग्रामीणों की मज़दूरी तो पटा दी है पर पत्थर व्यापारियों का पैसा अभी तक बाकी हैं। बैंक से जो लोन लिया है उस पर भी हम पर कई हज़ार का ब्याज चढ चुका है। कुछ बाबुओं को कुछ धन दे दें तो यह पैसा शायद तुरत मिल जाए। कभी कभी ऐसा लगता है कि अब हमारे जैसे लोग इस दुनिया में काम करने के लिये फिट नहीं रहे”

पर प्रतापभाई ने विश्वास हारा नहीं है। वे कहते हैं “धान की फसल से किसानों की बहुत कम आमदनी होती है। उनकी आय बढाने की ज़रूरत है इसके लिये अब हम कोसे का प्रयोग कर रहे हैं। इस इलाके में सेमर के पेड बहुत हैं और हमने पाया है कि उस पर रेशम का प्रयोग किया जा सकता है। यद्यपि इस प्रयोग के लिये हमें अब तक कोई आर्थिक मदद नहीं मिली है पर हमें लगता है कि एक एकड में कोसे से किसानों को लगभग 25 हज़ार रु की सालाना आमदनी हो सकती है”

वे अब कम्यूनिटी रेडियो का प्रयोग भी करना चाहते हैं। वे कहते हैं “यहां सडकें इतनी खराब हालत में हैं कि गांवों तक पहुंचने में ही हमारा बहुत समय ज़ाया हो जाता है। हमें आशा है कि कम्युनिटी रेडियो के शुरु होने के बाद हम दूर दराज़ के आदिवासी गांवों तक और प्रभावी रूप से पहुंच सकेंगे और वहां भी ऐसे ही प्रयोग कर सकेंगे।

साभार - छत्तीसगढ नेट 

क्या छत्तीसगढ इन प्रयोगों से कोई प्रेरणा ले सकता है ? शुभ्रांशु चौधरी जी से ईमेल smitashu@gmail.com पर बात कर सकते हैं।
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