वराहमिहिर का उदकार्गल (भाग 3)

स्निग्धा यतः पादपगुल्मवल्लयो निश्छिद्रपत्राश्च ततः शिरास्ति।
पद्मेक्षुरोशीरकुलाः संगुड्राः काशाः कुशा वा नलिका नलो वा।।।100।।

खर्जूरजम्ब्वर्जुनवेतसाः स्युः क्षीरान्विता का द्रुमगुल्मवल्ल्यः।
छत्रेभनागाः शतपत्रनीपाःस्युर्नक्तमालाश्च ससिन्दुवाराः।।101।।

विभीतको वा मदयन्तिका वा यत्राSस्ति तस्मिन् पुरुषत्रयेSम्भः।
स्यात्पर्वतस्योपरि पर्वतोSन्यस्तत्रापि मूले पुरुषत्रयेSम्भः।।102।।

जहाँ वृक्ष, गुल्म, वल्ली स्निग्ध हों और बिना छेद के पत्तों वाले हों तो तीन पुरुष नीचे शिरा होती है। अथवा स्थल पद्म, गोखरू, जामुन, अर्जुन, बेतस (बेंत) हों या जहाँ वृक्ष, गुल्म, बल्ली से दुध निकलता हो या छत्री, हस्तिकर्णी, नागकेसर, कमल, कदम्ब, नक्तमाल, सिंधुवार, बहेड़े अथवा मदयन्तिका हों तो तीन पुरुष नीचे पानी होता है। जहाँ एक पर्वत पर दूसरा पर्वत हो तो ऊपर के पर्वत के मूल में तीन पुरुष नीचे पानी होता है। (100-102)

या मौञ्जकैः काशकुशैश्च युक्ता नीला च मृद्यत्र सशर्करा च।
तस्यां प्रभूतं सुरसं च तोयं कृष्णाथवा यत्र च रक्तमृद्वा।।103।।

मूँज, काश, कुश वाली भूमि हो, कासी या लाल मिट्टी हो तो भी बड़ा मधुर जल होता है। 103

सशर्करा ताम्रमही कषायं क्षारं धरित्री कपिला करोति।
आपाण्डुरायां लवणं प्रदिष्टं मिष्टं पयो नीलवसुंधरायाम्।।104।।

कँकरीली ताँबे रंग की भूमि में कसैला पानी निकलता है, कपिल वर्ण की भूमि में खारा पानी, पांडु रंग की में नमक-स्वाद का और नीले रंग की भूमि में मिठा पानी निकलता है। (104)

शकाश्वकर्णार्जुनबिल्वसर्जा श्रीपर्ण्यरिष्टाधवशिंशपाश्च।
छिद्रैश्च पर्णैर्द्रुमगुल्मव ल्यो रूक्षाश्च दूरेSम्बु निवेदयंति।।105।।

शाक, अश्वकर्ण, अर्जुन, बिल्व, सर्ज, श्रीपर्णी, अरिष्ट और शीशम के पेड़ के पत्ते छेदवाले हों और जहाँ अन्य वृक्ष, गुल्म (जाले), लताओं के पत्ते भी झारे वाले हों और रूखे हों वहाँ से जल बहुत दूर होता है। (105)

सूर्याग्निभस्मोष्ट्रखरानुवर्णा या निर्जला सा वसुधा प्रदिष्टा।
रक्तांकुराः क्षीरयुताः करीरा रक्ता धरा चेज्जलश्मनोSधः।।106।।

यदि भूमि सूर्य, अग्नि, भस्म, ऊँट, गर्दभ के वर्ण की हो वह भी जलहीन होती है। यदि लाल रंग की भूमि में लाल रंग के अंकुर वाले करीर हों और उनसे दूध निकलता हो तो वहाँ पत्थर के नीचे पानी होता है। (106)

वैदूर्यमुद्राम्बुदमेचकाभा पाकोन्मुखोदुम्बरसन्निभा वा।
भृङ्गाञ्जनाभा कपिलाथवा या ज्ञेया शिला भूरिसमीपत या।।107।।

यदि शिला वैदूर्य मणि, मूँग या मेघ के समान काली हो, पकने वाले गूलर का रंग हो, शिला तोड़ने-फोड़ने से काजल जैसा रंग या कपिल वर्ण हो तो उस शिला के निकट बहुत जल होता है। (107)

पारावतक्षौद्रघृतोपमा वा क्षौमस्य वस्त्रस्य च तुल्यवर्णा।
या सौमवल्लयाश्च समानरूपा साप्याशु तोयं कुरुतेSक्षयं च ।।108।।

यदि शिला कबूतर, शहद, घी, अलसी का कपड़ा या यज्ञोपयोगी सोमलता के समान वर्ण की हो तो उससे भी तत्काल अक्षय पानी करती है। (108)

ताम्रैः समेता पूवषतैर्विचित्रैरापाण्डुभस्मोष्ट्रखरानुरूपा।
भृङ्गोपगांगुष्टिठकपुष्पिका वा सूर्याग्निवर्णा च शिला वितोया।।109।।

जिस शिला पर ताँबे या अन्य विचित्र बूँदें हों, पांडुवर्ण की हों, अंगुष्ठिक वृक्ष के पुष्पों के समान नीली और लाल हों, सूर्य या अग्नि के समान रंग की हों, वह निर्जल होती है। (109)

चन्द्रातपस्फटिकमौक्तिकहेमरूपा याश्चेन्द्रनीलमणिहिंगुलुका चनाभाः।
सूर्योदयांशहरितालनिमाश्च याः स्युस्ताः शोभना मनिवचोSत्रच वृत्तमेतत्।।110।।

चाँदनी, स्फटिक, मोती स्वर्ण और इन्द्रनीलमणि के समान वर्ण की शिला हो, सिंगरफ के समान अत्यन्त लाल वर्ण की या काजल के समान बहुत काली, उदय होते सूर्य की किरणों के समान बहुत लाल या चमकदार हो अथवा हरिताल जैसी पीली शिला हो तो वह शुभ होती है। इस विषय में मुनि का यह वचन प्रमाण है। (110)

एता ह्यभेद्याश्च शिलाः शिवाश्च याक्षैश्च नागैश्च सदाभिजुष्टा।
एषां च राष्ट्रेषु भवन्ति राज्ञां तेषामवृष्टिर्न भवेत्कदाचित्।।111।।

पूर्वोक्त सभी शिलाएँ शुभ हैं। इसलिए इन्हें नहीं तोड़ना चाहिए। यह शिला सदा नागों और यक्षों वाली होती है। जिन राज्यों में ऐसी शिलाएँ हों, वहाँ कभी अवर्षा नहीं होती। (111)

भेदं यदा नैति शिला तदानीं पालाशकाष्ठैः सह तिन्दुकानाम्।
प्रज्वालयित्वानलमग्निवर्णा सुधाम्बुसिक्ता प्रविदारमेति।।112।।

कूप आदि खोदने के समय शिला निकले और वह फूटे नहीं तो उस पर ढाक और तेंदु की लकड़ी जलाकर उसे लाल करके ऊपर चूने की कलों से मिला पानी छिड़कें तो वह शिला टूट जाती है। (112)

तोयं श्रृतं मोक्षकभस्मना वा यत्सप्तकृत्वः परिषेचनं तत्।
कार्य शरक्षारयुतं शिलायाः प्रस्फोटनं वह्निवितापितायाः।।113।।

मरुवा पेड़ की भस्म मिलाकर पानी उबालकर उसमें शरका खार मिला कर फिर अग्नि से तपाई शिला के ऊपर सात बार वह पानी छिड़कने से वह शिला टूट जाती है। (113)

तक्रकाञ्जिकसुराः सकुलत्था योजितानि बदराणि च तस्मिन्।
सप्तरात्रमुषितान्याभितप्तां दारयन्ति हि शिलां परिषेकैः।।114।।

छाछ, कांजी, मद्य, कुलथी, बेर के फलों को एक साथ बरतन में सात रात तक रखकर उस शिला को पूर्वो्क्त प्रकार से तपाकर इन वस्तुओं से बार-बार छिड़कने से शिला टूट जाती है। (114)

नैम्बं पत्रं त्वक् च नालं तिलानां सापामार्ग तिन्दुकं स्याद्गुडूची।
गोमूत्रेण स्रावितः क्षार एषां षट्कृत्वोSतस्तापितो भिद्यतेSश्मा।।115।।

नीम के पत्ते और छाल, तिलों की नाल, अपामार्ग (आँदीझाड़ा), तेंदूफल, गिलोय, इन सबकी भस्म गोमूत्र में छानकर तपे पत्थर पर छः बार छिड़कने से वह शिला टूट जाती है। (115)

आर्कं पयो हु़डुविषाणमषीसमेतं पारावताखुशकृता च युतं प्रलेपः।
टङ्कस्य तैलमथितस्य ततोSस्य पानं पश्चाच्छितस्य न शिलासु भवेद्विघातः।।116।।

हुडुमेष के सींग जलाकर उसकी स्याही कबूतर और चूहे की पीठ के साथ पीसकर इन सबको आके के दूध में डालकर लेप बनाकर शस्त्र पर लगाना और तेल से मंथा टंक (टाँकी) पर देकर तीखा कर लें। शिला पर मारने पर भी तब इसकी धार नहीं टूटती। (116)

क्षरे कदल्या मथितेन युक्ते दिनोषिते पायितमायसं यत्।
सम्यक्छितं चाश्मनि नैति भङ्गं न चान्यलोहेष्वपि तस्य कौण्ठयम्।।117।।

केले के खार में छाछ मिलाकर एक दिन रखें। फिर उसे मिलाकर जिस लोहे को पान दें और वह अच्छी धार वाला हो जाए तब वह पत्थर पर मारने से नहीं टूटता और लोहे पर लगने से भी बूँडा नहीं होता। (117)

वापी प्रागपरायताम्बु सुचिरं धत्ते न याम्योत्तरा कल्लोलैरवदारमेति मरुता सा प्रायशःप्रेरितैः।
तां चेदिच्छति सारदारुभिरपां संपातमावारयेत् पाषाणादिभिरेव वा प्रतिचयं क्षुण्णं द्विपार्श्वदिभिः।।118।।

पूर्व पश्चिम में लम्बी बावड़ी में जल बहुत समय तक रहता है। परन्तु उत्तर-दक्षिण में लम्बी में नहीं ठहरता क्योंकि पवन-तरंगों से वह टूट जाती है। यदि उत्तर-दक्षिण की लम्बी पुष्कारिणी (तलाई) बनाना चाहें तो पानी की चोट बचाने के लिए उसके तटों को मजबूत काठ से बाँध दें या पत्थर-ईंट आदि चुनवा दें तथा बनाते समय प्रत्येक मिट्टी के आसार को घोड़े-हाथी आदि से रुँधवाते जाएँ जिससे मिट्टी ऐसी दब जाए कि पानी के धक्के से टूटे नहीं। (118)

ककुभवटाम्रप्लक्षकदम्बैः सनिचुलजम्बूवेतसनीपैः।
कुरबकतालाशेकमधूकैर्बकुल विमिश्रैश्चावृततीराम्।।119।।

अर्जुन, बड़, आम, पिलखन, कदम्ब, निचुल, जामुन, वेतस, नीम (कदम्ब का एक प्रकार), कुरबक, ताल, अशोक, महुआ तथा मौलासिरी आदि वृक्ष उस बावड़ी के किनारे पर लगावें। (119)

द्वारं च न नैर्वाहिकमेकदेशे कार्य शिलासचितवारिमार्गम्।
कोशस्थितं निर्विवरं कपाटं कृत्वा ततः पांसुभिरावपेत्तम्।।120।।

जल निकलने के लिए एक और एक मार्ग रखना चाहिए जिसे पत्थरों से बाँधकर पक्का करवा दें। उस जलमार्ग का छिद्ररहित मजबूत काठ के तख्तों से ढँककर ऊपर से मिट्टी दबा दें। (120)

अञ्जनमुस्तोशीरैः सराजकोशातकामलकचूणँ:।
कतकफलसमायुक्तैर्योगः कूपे प्रदातव्यः।।121।।

अंजन (सुरमा), मोथा, खस, बड़ी तुरई, आमल, कतक (निर्मली) आदि सबका चूर्ण कूप में डाल दें। (121)

कलुषं कटुकं लवणं विरसं सलिलं यदि वा शुभगन्धि भवेत्।
तदनेन भवत्यमलं सूरसं सुसुगन्धिगुणैरपरैश्चयुतम्।।122।।

यदि जल गंदा, कड़वा, खारा, बेस्वाद या दुर्गन्धित हो तो वह इस चूर्ण से निर्मल, मीठा, सुगंधित और अन्य कई गुणों वाला हो जाता है। (122)

हस्तोमघानुराधापुष्पधनिष्ठोत्तत्तराणि रोहिण्यः।
शतभिषगित्यारम्भे कूपानां शस्यते भगणः।।123।।

हस्त, मघा, अनुराधा, पुष्य, धनिष्ठा, तीनों उत्तरा, रोहिणी और शतभिषा नक्षत्र में कूप का आरम्भ करना उत्तम है। (123)

कृत्वा वरुणस्य बलिं वटवेतसकीलकं शिरास्थाने।
कुसुमैर्गन्धैर्धूपैः सम्पूज्य निधापयेत्प्रथमम्।।124।।

वरुण को बलि (नैवेद्य) देकर गंध, पुष्प, धूप आदि से बड़ या बेंत के काठ की कील की पूजा कर शिरा (धारा) के स्थान पर पहले उसे गाड़ दें। (124)

मेघोद्भवं प्रथममेव मया प्रदिष्टं ज्येष्ठामतीत्य बलदेवमतादि दृष्ट्वा।
भौमं दकार्गलमिदं कथितं द्वितीयं स्यग्वराहमिहिरेण मुनिप्रसादात्।।125।।

ज्येष्ठ मास के बाद वर्षा ऋतु में जल का ज्ञान मेघ संबंधी उदकार्गल है वह बलदेव आदि आचार्यों के अनुसार हम कह चुके हैं। मुनियों की कृपा में भूमि सम्बन्धी यह दूसरा उदकार्गल वराहमिहिर ने कहा है। (125)

वराहमिहिर कृत उदकार्गल समाप्त।



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