वर्षा आई! नदी बही! वाष्प भरी हवा

तेज पानी बरसने पर भी वनस्पति, पेड़ पौधों, घास आदि के कारण पानी के बहने में रुकावट होती है। जब पानी वनस्पति के कारण रुका रहता है तो भीतर रिसने का समय मिल जाता है और वर्षा का बहुत-सा जल रिसकर धरती के भीतर चला जाता है। वनस्पति के कारण वर्षा का पानी धीरे-धीरे लंबे समय तक बह-बह कर नदियों में आता रहता है।

इसके विपरीत जहां धरती पर वनस्पति, पेड़, घास, पौधे नहीं होते, तेज वर्षा होने पर वर्षा का पानी धरती पर आते ही बिना किसी रुकावट के बहता हुआ नदियों में पहुंच जाता है। अचानक बहुत सा पानी नदी में आने से बाढ़ आ जाती है। तब पानी को धरती के भीतर रिसने का भी समय नहीं मिलता।
पृथ्वी पर जल की जितनी सतहें हैं, नदी, तालाब आदि सभी का पानी लगातार वाष्प बनता रहता है। वाष्प बनने की प्रक्रिया धूप पड़ने पर अधिक तेज हो जाती है।

तुम जानते हो कि सागर हजारों किलोमीटर लम्बे चौड़े हैं। तो उन में वाष्प बनने की क्रिया भी बहुत बड़े पैमाने पर होती है। खासकर, गर्मी के मौसम में तेज धूप पड़ने पर सागरों से खूब वाष्प बनती है। वहां की गर्म हवा के साथ वाष्प भी ऊपर उठती रहती है।

बादल बनना और वर्षा होना


जब वाष्प गर्म हवा के साथ ऊपर आसमान में पहुंचती है तो वहां उसे ठंड मिलती है। क्योंकि जैसे-जैसे पृथ्वी की सतह से ऊपर जाते है ठंड बढ़ती जाती है। ठंड पाकर वाष्प नन्हीं-नन्हीं बूंदों में बदलने लगती है। ये बूंदें हवा में मौजूद धूल के कणों के आसपास इकट्ठा होने लगती हैं और हमें बादलों के रूप में दिखाई देती है। फिर यही बादल जब और ऊपर उठते हैं, ठंड और बढ़ती है तो और बूंदें बनती है। तब ये बड़ी बूंदें हवा में नहीं रुक पातीं और वर्षा के रूप में गिरने लगती है।

यह तो थी कहानी सागर से उठने वाली वाष्प की। मगर यह बादल थल में हमारे यहां कैसे पहुंचते हैं? सागर में ही क्यों नहीं गिर जाते हैं?

हवा के साथ-साथ आए काली घटा!


तुम्हारे मन में यह बात आई होगी कि बादल उठे थे सागर के ऊपर, तब सैकड़ों मील का सफर करके हम तक वर्षा करने कैसे पहुंचे, जब वर्षा का मौसम आता है तो तुम्हारे यहां किस दिशा से हवाएं चलती हैं? इन्हीं हवाओं के साथ बादल आते हैं। ये हवाएं केवल तुम्हारे यहां ही नहीं चलतीं-ये बहुत दूर अरब सागर से आती हैं। इन्हें दक्षिण पश्चिमी मानसून कहते हैं। दक्षिण पश्चिमी मानसून की दो शाखाएं होती हैं- एक जो अरब सागर से चलती है और दूसरी जो बंगाल की खाड़ी से चलती है।

मानचित्र में इनके आने की दिशा तीर से दिखाई गई है। अरब सागर से चलने वाली हवाओं से साथ केरल, बम्बई, नागपुर, भोपाल, जबलपुर आदि क्षेत्रों तक बादल चले आते हैं और वर्षा करते हैं। पर, इन हवाओं से पूरे भारत में बादल नहीं पहुंचते।

यह मानसून की दूसरी शाखा है।
पश्चिमी मध्य प्रदेश में दक्षिण पश्चिम से आने वाली हवाएं बादल और वर्षा लाती हैं। जबकि गंगा की घाटी में (यानी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में) पूर्व से चलने वाली हवाओं के साथ बादल आते हैं और वर्षा करते हैं।

कहीं अधिक और कहीं कम वर्षा


तुमने कभी सोचा कि क्या सभी जगह वर्षा एक समान होती है? समुद्र के पास बम्बई और कलकत्ता के लोग बताते हैं कि वहां घनघोर वर्षा होती है, जबकि दिल्ली में उतनी वर्षा नहीं होती।

अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठने वाले बादल पहले इन्हीं तटों पर पहुंचते हैं। ये खूब वाष्प भरे होते हैं और इनसे घनघोर वर्षा होती है। बादलों को लेकर जब हवाएं भीतरी भागों में पहुंचती हैं तब उनसे कम वर्षा होती है। राजस्थान पहुंचते-पहुंचते इन हवाओं में बहुत कम वाष्प बची रहती है। तो ये प्रदेश लगभग सूखे रह जाते हैं। इसी प्रकार अरब सागर से उठने वाली हवाएं पश्चिमी किनारे पर तो खूब वर्षा करती हैं। पूर्व में तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश आते-आते इनमें नमी कम हो जाती है और कम वर्षा करती हैं इसलिए इन राज्यों के समुद्री तट पर भी उतनी वर्षा नहीं होती जितनी कि पश्चिम में केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र के तट पर।

बंगाल की खाड़ी से उठने वाली हवा जब हिमालय तक पहुंचती है तो पहाड़ों के सहारे ऊपर उठती है। ऊपर उठने पर यह हवा ठंडी हो जाती है और खूब वर्षा करती है। यही कारण है कि पूर्वी भारत के अलावा, बंग्लादेश, भूटान और नेपाल में भी खूब वर्षा होती है। लेकिन पूर्वी हिमालय के विपरीत पश्चिमी हिमालय में (उत्तर प्रदेश के पर्वतीय प्रदेशों तथा कश्मीर में) कम वर्षा होती है।

धरती पर बरसा पानी


धरती पर पानी गिरा फिर उसका क्या हुआ? कुछ तो धरती में सोखा गया, कुछ सतह पर बहने लगा और कुछ कि फिर वाष्प बनी और हवा में मिल गई। धरती में सोखा पानी ही कुओं में से निकलता है, इसके बारे में तुम आगे के पाठ में पढ़ोगे।

नदियां


तुमने देखा होगा कि वर्षा होने पार पानी सतह पर बहने लगता है। ढालू जमीन पर पानी कई धाराओं में बहता है। वर्षा के बाद यदि तुम किसी पहाड़ी ढलान पर जाओ तो इसी तरह कल-कल करती छोटी-छोटी धाराएं बहती दिखेंगी। थोड़ी देर बहने के बाद ये सूख जाती हैं। मगर पानी ने बहने के लिए एक मार्ग बना लिया। दुबारा जब पानी बरसा फिर उसी मार्ग से बहने लगा। इस तरह पानी ने धरती को खोदकर बहने का रास्ता बना लिया। यह नदी की घाटी बन गई।

जहां से नदियां निकली हैं वहां पतली धाराएं हैं, आगे बढ़ने पर वे चौड़ी और बड़ी हो गई हैं, ऐसा क्यों? आगे बढ़ने पर और छोटी-छोटी नदियां उसमें आकर मिल गईं। नदी में पानी भी बढ़ गया और उसकी घाटी भी चौड़ी और बड़ी हो गई।

तुम भोपाल के दक्षिण में विंध्याचल पर्वत पर छोटी-छोटी धाराएं मिलकर बेतवा नदी को बड़ी होते देख सकते हो। यदि शहडोल जिले में अमरकंटक जाओं तो नर्मदा नदी के उद्गम को देख सकते हो। यहां, नर्मदा संकरी सी बहती है। आगे चलकर इसमें जब छोटे-बड़े नदी नाले मिलते जाते हैं, तब यह धीरे-धीरे बड़ी नदी बन जाती है। उसकी घाटी भी खूब चौड़ी और गहरी बन जाती है। जबलपुर या और नीचे होशंगाबाद में देखो नर्मदा खूब चौड़ी और बड़ी-बड़ी नदी बन गई है क्योंकि उसमें कई नदियों में बहता बरसात का पानी आकर मिल गया है। यही नर्मदा की सहायक नदियां है।

प्रदेश का ढाल


दीवार के मानचित्र में तुम यह भी देखोगे कि नर्मदा नदी शहडोल जिले से मंडला, जबलपुर, नरसिंहपुर होशंगाबाद और खंडवा आदि जिलों में बहती हुई गुजरात पहुंच गई।

तुमने देखा होगा कि वर्षा के बाद पानी हमेशा उसी दिशा में बहता है जिधर भूमि का ढाल होता है। इसका मतलब यह हुआ कि नर्मदा नदी की घाटी का ढाल पूर्व से पश्चिम की ओर है। जबकि बेतवा नदी जिस प्रदेश का पानी बहाकर ले जा रही है उस प्रदेश का ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है।

तब तो बात बड़ी आसान हो गई। जिधर नदी बहती दिखती है, उधर ही उस प्रदेश का ढाल हुआ। तुम नदी के किनारे खड़े होकर देखो तो तुम्हें नदी के बहने की दिशा भी पता चलेगी और उस प्रदेश का ढाल भी मालूम हो जाएगा।

नर्मदा नदी बहते-बहते गुजरात पहुंच गई थी। मानचित्र में देखो वह अंत में अरब सागर में जाकर मिल गई। जहां नदी सागर में मिली वह नदी का मुहाना है।

जलचक्र


देखो जलचक्र पूरा हो गया। अरब सागर के वाष्प भरी हवाएं उठी। उनसे बादल बने। हवाओं के साथ व बादल अपने प्रदेश तक उड़ आए। ऊपर उठकर उनसे वर्षा हुई। वर्षा का जल छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगा। ये धाराएं मिलकर नर्मदा नदी में पानी लाने लगीं। नदी खूब चौड़ी और बड़ी हो गई। उसका बहाव भूमि के ढाल की ओर था। वह सारा जल ले जाकर फिर अरब सागर में उड़ेल आई।

सूखा


जितना औसत पानी हर साल बरसता है उससे 25 प्रतिशत या और भी कम बरसा तो हम कहते हैं सूखा पड़ा है। जब कई साल तक सूखा पड़ता है तब तालाब सूखने लगते हैं, कुओं और नदियों में पानी कम हो जाता है।

फसलों के उगने और बढ़ने के समय जब पर्याप्त पानी नहीं बरसता तब भी हम कहते हैं कि सूखा पड़ा है। फसल सूखने लगती है या पौधे पूरी तरह बढ़ नहीं पाते। उनसे उपज भी कम मिलती है।

बाढ़


वर्षा ऋतु में तुमने देखा या सुना होगा कि पानी इतना बरसा कि नर्मदा या बेतवा या गंगा में बाढ़ या पूर आ गई। कभी-कभी तो नदी अपने किनारों को पार करके गांव-शहर में घुस आती है।

चित्र में देखो, नदी का पाट कितना चौड़ा है। लेकिन वह थोड़े हिस्से में बहती है। बची हुई घाटी में बालू या मिट्टी सूखी पड़ी है। नर्मदा के किनारे नदी का सूखा मैदान तुम देख सकते हो। इस पर तुम्हें कोई पेड़ नहीं दिखेगा। यहां कोई पेड़ नहीं बढ़ पाता है क्योंकि बरसात में आमतौर पर इसमें बाढ़ का पानी भर जाता है। इसे नदी का बाढ़ का मैदान कहते हैं।

जब कई दिन लगातार खूब पानी बरसता है तब नदियों में बाढ़ आती है। तब नदी का पानी पूरे बाढ़ के मैदान में फैल जाता है और किनारे तक पानी भर जाता है। सभी बड़ी नदियों में ऐसा बाढ़ का मैदान होता है। जब बहुत ज्यादा पानी बरस जाता है तो पानी नदी के किनारों को लांघकर गांव-खेतों में घुस आता है।

आजकल बाढ़ एक गंभीर समस्या बन गई है। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में पहले से अधिक हिस्सों में अब बाढ़ आती है। बाढ़ आने पर नदियां अपने किनारों को तोड़कर और अधिक भागों में फैल जाती हैं, गांव बह जाते हैं, फसलें नष्ट हो जाती हैं, जानवर बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। बहुत नुकसान होता है।

वनस्पति और बाढ़


बारिश बहुत ज्यादा होने से नदियों में बाढ़ आती है। लेकिन क्या इस तरह की गंभीर बाढ़ में हम मनुष्यों का भी हाथ है?

तेज पानी बरसने पर भी वनस्पति, पेड़ पौधों, घास आदि के कारण पानी के बहने में रुकावट होती है। जब पानी वनस्पति के कारण रुका रहता है तो भीतर रिसने का समय मिल जाता है और वर्षा का बहुत-सा जल रिसकर धरती के भीतर चला जाता है। सारा पानी बह नहीं जाता। वनस्पति के कारण वर्षा का पानी धीरे-धीरे लंबे समय तक बह-बह कर नदियों में आता रहता है।

इसके विपरीत जहां धरती पर वनस्पति, पेड़, घास, पौधे नहीं होते, तेज वर्षा होने पर वर्षा का पानी धरती पर आते ही बिना किसी रुकावट के बहता हुआ नदियों में पहुंच जाता है। अचानक बहुत सा पानी नदी में आने से बाढ़ आ जाती है। तब पानी को धरती के भीतर रिसने का भी समय नहीं मिलता।

पेड़ों के कटने से एक और नुकसान होता है- इससे मिट्टी का कटाव तेज हो जाता है। आस-पास के इलाकों से मिट्टी कट-कटकर नदी के बाढ़ के मैदान में जमा होती जाती है। इसके कारण नदी उथली होती जाती है। ऐसे में तेज पानी गिरने से जल्दी ही नदी पूर जाती है और बाढ़ का पानी किनारों को पार कर जाता है।

वनस्पति का आवरण न रहने पर वर्षा के पानी को बहने में कोई रुकावट नहीं होती। वह तेजी से बहता हुआ नदी में इकट्ठा हो गया और भयंकर बाढ़ आ गईं यदि वनस्पति का आवरण होता तो धरती में रिसन भी अधिक होती। वर्षा अधिक होने पर भी सतह का जल धीरे-धीरे लंबे समय तक थोड़ा-थोड़ा बहकर नदी में आता रहता। नदी अपने किनारों को तोड़कर न बहने लगती और किनारे, गांवों, खेतों, जानवरों आदि को नष्ट नहीं करती।

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